-सआदत हसन मंटो
हम एक अर्से से ये शोर सुन रहे हैं। हिन्दुस्तान को इस चीज़ से बचाओ। उस चीज़ से बचाओ, मगर वाक़िया ये है कि हिन्दुस्तान को उन लोगों से बचाना चाहिए जो इस क़िस्म का शोर पैदा कर रहे हैं। ये लोग शोर पैदा करने के फ़न में माहिर हैं। इसमें कोई शक नहीं, मगर उनके दिल इख़लास (अच्छी नीयत) से बिलकुल खाली हैं। रात को किसी जलसे में गर्मा-गर्म तक़रीर (भाषण) करने के बाद जब ये लोग अपने पुर-तकल्लुफ (सुकून से) बिस्तरों में सोते हैं तो उनके दिमाग़ बिल्कुल ख़ाली होते हैं। उनकी रातों का ख़फ़ीफ़-तरीन (थोड़ा सा) हिस्सा भी इस ख्याल में नहीं गुज़रा कि हिन्दुस्तान किस मर्ज़ में मुब्तला (विपत्ति में पड़ा हुआ) है। दरअसल वो अपने मर्ज़ के इलाज मुआलिजे (इलाज करने वाला) में इस क़दर मसरूफ़ रहते हैं कि उन्हें अपने वतन के मर्ज़ के बारे में ग़ौर करने का मौक़ा ही नहीं मिलता।
ये लोग जो अपने घरों का निज़ाम दुरुस्त नहीं कर सकते, ये लोग जिनका कैरेक्टर बेहद पस्त होता है, सियासत के मैदान में अपने वतन का निज़ाम (व्यवस्था) ठीक करने और लोगों को अख़लाक़ियात (नैतिकता) का सबक़ देने के लिए निकलते हैं... किस क़दर मज़हका-ख़ेज़ (परिहास) चीज़ है।
ये लोग जिन्हें उर्फ़-ए-आम (आम बोलचाल में) में लीडर कहा जाता है, सियासत और मज़हब को लंगड़ा, लूला और ज़ख़्मी आदमी तसव्वुर (कल्पना) करते हैं। जिसकी नुमाइश (प्रकट होना) से हमारे यहाँ गदागर (भिखारी) आम तौर पर भीख मांगते हैं। सियासत और मज़हब की लाश हमारे ये नामवर लीडर अपने काँधों पर उठाए फिरते हैं और सीधे सादे लोगों को जो हर बात मान लेने के आदी होते हैं जो ऊंचे सुरों में कही जाती है। ये कहते फिर रहे हैं कि वो इस लाश को अज़ सर-ए-नौ (नये सिरे से) ज़िंदगी बख़्श रहे हैं।
मज़हब जैसा था वैसा ही है और हमेशा एक जैसा रहेगा। मज़हब की रूह एक ठोस हक़ीक़त है जो कभी तब्दील नहीं हो सकती। मज़हब एक ऐसी चट्टान है जिस पर समुंद्र की ख़श्मनाक (गुस्से से भरा हुई) लहरें भी असर नहीं कर सकतीं। ये लीडर जब आँसू बहा कर लोगों से कहते हैं कि मज़हब ख़तरे में है तो इसमें कोई हक़ीक़त नहीं होती। मज़हब ऐसी चीज़ ही नहीं कि ख़तरे में पड़ सके, अगर किसी बात का ख़तरा है तो वो लीडरों का है जो अपना उल्लू सीधा करने के लिए मज़हब को ख़तरे में डालते हैं।
हिन्दुस्तान को इन लीडरों से बचाओ जो मुल्क की फ़िज़ा बिगाड़ रहे हैं और अवाम को गुमराह कर रहे हैं। आप नहीं जानते मगर ये हक़ीक़त है कि हिन्दुस्तान पर ये नाम-निहाद (नकली) लीडर अपनी-अपनी बग़ल में एक संदूकची (छोटा सा संदूक) दबाए फिरते हैं। जिसमें हर किसी की जेबें कुतर कर रुपया जमा करते हैं। उनकी ज़िंदगी एक लंबी दौड़ है। सरमाए (पूंजी या कैपिटल) के पीछे। उनकी हर साँस में आप रियाकारी (पाखंड या मक्कारी) और दग़ाबाज़ी का तअ’फ़्फुन (बदबू) महसूस कर सकते हैं।
लंबे-लंबे जलूस निकाल कर, मनों भारी हारों के नीचे दब कर, चौराहों पर तवील-तवील (लंबी-लंबी) तक़रीरों (भाषणों) के खोखले अल्फ़ाज़ (शब्द) बिखेर कर, हमारी क़ौम के ये नाम-निहाद (नकली) रहनुमा सिर्फ अपने लिए ऐसा रास्ता बनाते हैं जो ऐश-ओ-इशरत (सुख-सुविधापूर्ण जीवन स्थिति) की तरफ़ जाता है।
ये लोग चंदे इकट्ठे करते हैं मगर क्या उन्होंने आज तक बेकारी का हल पेश किया है...? ये लोग मज़हब-मज़हब चिल्लाते हैं मगर क्या उन्होंने ख़ुद कभी मज़हब के अहकाम (कायदे या संहिता) की पैरवी की है...? ये लोग जो ख़ैरात में दिए हुए मकानों में रहते हैं, चंदों से अपना पेट पालते हैं। जो मुस्तआर (उधार लिया हुआ) अश्याअ (चीजों) पर जीते हैं, जिनकी रूह लंगड़ी, दिमाग़ अपाहिज, ज़बान मफ़लूज (लकवा मारा हुआ) और हाथ-पैर शल (असंवेदनशील) हैं। मुल्क-ओ-मिल्लत (देश और कौम) की रहबरी (मार्गदर्शन) कैसे कर सकते हैं।
हिन्दुस्तान को बेशुमार लीडरों की ज़रूरत नहीं जो नए से नया राग अलापते हैं। हमारे मुल्क को सिर्फ़ एक लीडर की ज़रूरत है जो हज़रत उमर (मुस्लिमों के दूसरे खलीफा) का सा इख़लास (निस्वार्थ) रखता हो, जिसके सीने में अतातुर्क (गाजी मुस्तफा कमाल पाशा की उपाधि) का सिपाहीयाना (सिपाही की तरह) जज़्बा हो। जो बरहना-पा (नंगे पैर) और गुरुस्ना शिकम (खाली पेट) आगे बढ़े और वतन के बे-लगाम घोड़े के मुँह में बागें डाल कर उसे आज़ादी के मैदान की तरफ़ मर्दाना-वार (साहस पूर्वक) लिए जाये।
याद रखिए वतन की खि़दमत शिकम-सेर (जिसका पेट भरा हुआ हो) लोग कभी नहीं कर सकेंगे। वज़नी माद्दे के साथ जो शख्स वतन की खि़दमत के लिए आगे बढ़े, उसे लात मार कर बाहर निकाल दीजिए। हरीरो पर्नियां (चमकीले रंग) में लिपटे हुए आदमी उनकी क़ियादत (मार्गदर्शन) नहीं कर सकते, जो सख्त ज़मीन पर सोने के आदी हैं और जिनके बदन नर्म-ओ-नाजुक पोशाक से हमेशा ना-आशना (अनजान) रहे हैं, अगर कोई शख्स रेशमी कपड़े पहन कर अपने आपको गुर्बत (गरीबी) का सद्दे बाब (सबसे पुराना) बताने की र्जु’अत करे तो इस को उठा कर वहीं फेंक दीजिए जहाँ से निकल कर वो आप लोगों में आया था।
ये लीडर खटमल हैं जो वतन की खाट में चूलों के अंदर घुसे हुए हैं। उनको नफ़रत के उबलते हुए पानी के ज़रिये बाहर निकाल देना चाहिए। ये लीडर जलसों में सरमाए (पूंजी) और सरमायादारों (पूंजीपतियों) के खि़लाफ़ ज़हर उगलते हैं सिर्फ़ इसलिए कि वो ख़ुद सरमाया इकट्ठा कर सकें। क्या ये सरमायादारों से बदतरीन नहीं? ये चोरों के चोर हैं, रहज़नों (रहस्यांे) के रहज़न (रहस्य)। अब वक़्त आ गया है कि अवाम उन पर अपनी बे-एतिमादी (अविश्वास) ज़ाहिर कर दें।
ज़रूरत है कि फटी हुई क़मीसों (शर्ट) वाले नौजवान उठें और अज़्म-ओ-ख़श्म (एकजुट और संघर्ष) को अपनी चौड़ी छातियों में लिए इन नाम-निहाद (दिखावटी) लीडरों को इस बुलंद मुक़ाम पर से उठा कर नीचे फेंक दें। जहां ये हमारी इजाज़त लिए बग़ैर चढ़ बैठे हैं। उनको हमारे साथ, हम-ग़रीबों के साथ हमदर्दी का कोई हक़ हासिल नहीं... याद रखिए ग़ुर्बत लानत नहीं है जो उसे लानत ज़ाहिर करते हैं वो ख़ुद मलऊन (दुष्टात्मा) हैं। वो ग़रीब इस अमीर से लाख दर्जे बेहतर है जो अपनी कश्ती ख़ुद अपने हाथों से खेता है... अपनी कश्ती के खोया ख़ुद आप बनिए... अपना नफ़ा-ओ-नुक़्सान ख़ुद आप सोचिए और फिर इन लीडरों, इन नाम-निहाद रहनुमाओं का तमाशा देखिए कि वो ज़िंदगी के वसीअ (उत्तराधिकारी) समुंद्र में अपनी ज़िंदगी का वज़नी जहाज़ किस तरह चलाते हैं।
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