अगले अंक की परिचर्चा
अमेरिका के साथ भारत के बढ़ते सम्बंध जनता के हित में है या नहीं ?
वर्ष- 10 अंक- 2
जनवरी-मार्च, 2019
विषय:- बलात्कार के दोषियों को फांसी देने से क्या बलात्कार रूक जायेंगे?
परचम की अवस्थिति
फांसी नहीं महिला समानता के लिए निर्णायक संघर्ष ही रोक सकेगा बलात्कार
विषय:- चुनावों में वोट डालना क्या आवश्यक कार्य है? और इससे क्या कोई बदलाव आता है?
वर्ष- 9 अंक- 4
जुलाई-सितम्बर, 2018
विषय :- नकल रोकने हेतु योगी सरकार द्वारा उठाये कदम
कितने सही कितने गलत?
परचम की अवस्थिति
नीम हकीमी इन नुस्खों से नकल नहीं रोकी जा सकती
वर्ष- 9, अंक- 3
अप्रैल-जून, 2018
विषय- क्या बेरोजगारी की कारण भारतीय युवाओं का ‘अकुशल’ होना है?
अगले अंक की परिचर्चा
अमेरिका के साथ भारत के बढ़ते सम्बंध जनता के हित में है या नहीं ?
वर्ष- 10 अंक- 2
जनवरी-मार्च, 2019
विषय:- बलात्कार के दोषियों को फांसी देने से क्या बलात्कार रूक जायेंगे?
परचम की अवस्थिति
फांसी नहीं महिला समानता के लिए निर्णायक संघर्ष ही रोक सकेगा बलात्कार
देशभर में बलात्कार की घटनायें न केवल निरन्तर जारी हैं बल्कि उनमें विभत्सता भी निरंतर बढ़ रही है। बलात्कार से इतर भी महिला हिंसा आये दिन की घटना है। कभी अगर इन्हें चर्चा मिलती है तो उसका कारण या तो महिला द्वारा किया गया प्रतिरोध होता है या अपराध की जघन्यता। अभी हाल ही में आगरा और पौड़ी में जिन्दा जलाने जैसे क्रूर कृत्य भी देखने को मिले।
महिला हिंसा के प्रति समाज की सचेतनता से अब ये घटनायें आसानी से दबायी नहीं जा सक रही हैं। उन्नाव में अपराधी विधायक को बचाने की हरचन्द कोशिश की गयी। यहां तक कि पीड़ित लड़की के पिता की ही पुलिस ने हत्या कर दी। कठुआ में संघ-भाजपा के तमाम कुत्सा प्रचार के बावजूद देशभर में आसिफा के समर्थन में आवाजें उठी। इसी के साथ यह भी देखा जा रहा है कि अपराधियों को निर्मम सजा या फांसी की मांग आम हो गयी है। सरकार कुछ लुभावने नारों तथा कानूनों से इति श्री कर जनता को भरमाने में ही लगी रहती है। यौन हिंसा की घटना के बाद कानून को और सख्त करने या सख्ती से लागू करने की बातें होती हैं। शासकों द्वारा फांसी की सजा की वकालत करना इस बात की स्वीकारोक्ति है कि वे बलात्कार की घटनाओं को रोकने में अक्षम हैं। इसीलिए जब-जब, जो-जो अपराधी होगा उसे फांसी देकर फिर अगले अपराधी को फांसी देने की तैयारी की जाये।
मौजूदा वर्गीय समाज में कानून का पालन भी महिला की वर्गीय स्थिति के मद्देनजर ही होता है। यदि महिला संपत्तिशाली वर्ग से है तो कानून के लागू होने की गुंजाइश है। यदि महिला आम मेहनतकश वर्ग से है तो खुद कानून के रक्षक ही भक्षक हो जाते हैं। तमाम रसूखदारों के मामलों में पुलिस शिकायत तक दर्ज नहीं करती है। अधिकांश मामलों को एफ.आई.आर. बनने से पहले ही खत्म कर दिया जाता है। न्यायालय में भी इंसाफ हैसियत के आगे सर झुकाये खड़ा दिखता है। ऐसे में कानून का भी आम मेहनतकश महिलाओं-छात्राओं के लिए लागू होना असंभव हो जाता है।
हमारा मानना है कि अपराध के कारणों को तलाशे बिना, उन्हें नष्ट किये बिना अपराध को खत्म नहीं किया जा सकता। यौन हिंसा का कारण महिलाओं के प्रति समाज में व्याप्त गैर बराबरी वाली पुरुषप्रधान सोच है। कारण है महिलाओं को यौन वस्तु के रूप में प्रस्तुत करने वाली पूंजीवादी उपभोक्तावादी संस्कृति। इन गलत विचारों से ग्रसित समाज में कोई भी विकृत मानसिकता का कमजोर व्यक्ति इसका शिकार होने को अभिशप्त है। वह इसलिए भी अभिशप्त है क्योंकि शासकों द्वारा समानता के विचारों को स्थापित करने का काम नहीं किया जाता है। मौजूदा पूंजीवाद जो स्वयं घोर असमानता का व्यवहार करने वाली समाज व्यवस्था है, वह समानता-बराबरी जैसे मूल्यों पर उपदेश भर देती है। सर्वाधिक मेहनती को तिरस्कार, अपमान और सर्वाधिक परजीवियों की समाज में ऐश ऐसी ही असमानता है। समय-समय पर बदलने वाली सरकारें इस पूंजीवादी असमानता को बनाये रखने का यंत्र मात्र हैं। नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार इसमें और दो कदम आगे है। आर.एस.एस.-भाजपा पुरुषप्रधान विचारों को आत्मसात करने वाली विचारधारा के वाहक हैं। जब-तब अपनी यह कुत्सा सोच इनके नेताओं के बयानों या लेखन आदि में अभिव्यक्त होती रहती है।
अतः हमें साफ तौर पर समझ लेना चाहिए कि महिला हिंसा या बलात्कार का स्रोत मौजूदा पूंजीवादी व्यवस्था में है। इसलिए अपराधी को फांसी देने से यौन हिंसा या बलात्कार में कोई रुकावट दर्ज नहीं होगी। हमारे पाठकों की तरफ से आयी परिचर्चा में भी यह बात साफ ध्वनित होती है।
हमारा साफ मानना है कि महिला मुक्ति की आवाज तमाम घरेलू-सामाजिक जीवन में पूर्ण बराबरी के लिए संघर्ष की मांग करती है। यह मांग करता है कि महिला असमानता के खिलाफ संघर्ष पूंजीवाद की समग्र असमानता के खिलाफ लक्षित होना चाहिए, समाजवाद के लिए होना चाहिए।
छोटी सोच बदलकर ही रुकेंगे बलात्कार
सख्त कानून बनाकर बलात्कार को नहीं रोका जा सकता क्योंकि जब तक लोगों की सोच नहीं बदलेगी तब तक कानून का भी कोई फायदा नहीं है। जब तक लोगों की सोच छोटी रहेगी बलात्कार भी उतने ही होंगे। लोगों का मानना यह है कि लड़कियां छोटे कपड़े पहनती हैं इसलिए बलात्कार होता है। अगर लड़कियां छोटे कपड़े पहनना बंद कर देंगी तो इसकी क्या गारंटी है कि बलात्कार नहीं होंगे। जबकि छोटी बच्चियों से लेकर बूढ़ी महिलायें तक बलात्कार का शिकार हो रही हैं। कुछ लोग कहते हैं कि सांस्कृतिक चीजें देखने से बलात्कार कम हो जाएंगे। तो ठीक है, सारे देश के टी.वी. चैनल पर सांस्कृतिक चीजें ही दिखानी चाहिए। अगर लड़कियों को घर में रखने से बलात्कार कम हो जायेंगे तो सारी लड़कियों को घर में ही क्यों बंद नहीं कर देते। अगर ऐसा ही होता तो जो लड़कियां घर में रहती हैं उनके साथ क्यों बलात्कार होता है?
सख्त कानून बनाने से कुछ नहीं होगा अगर कुछ करना ही है तो हमें कुछ ऐसा करना चाहिए कि लोगों की सोच बदले और इस दुनिया का विकास हो। अगर लोगों की सोच बदलेगी तो बलात्कार अपने आप ही कम हो जाएंगे। सख्त कानून बनाने का तब तक कोई फायदा नहीं होगा जब तक लोगों के मन से डर न निकले। अगर किसी लड़की के साथ बलात्कार होता है तो लोग सोचते हैं कि पुलिस से कहा तो बदनामी होगी। लोगों की यही सोच बदलनी होगी। - पायल, कक्षा-9, काशीपुर
कारणों को खत्म किया जाना चाहिए
आज के समय में हम जैसा देखते हैं कि हर दिन अखबार में बलात्कार की घटना का जिक्र होता है और ऐसी घटनाओं के विरोध में बहुत से सामाजिक संगठनों व व्यक्तियों के द्वारा बलात्कार के दोषियों को फांसी की सजा देने की मांग की जाती है।
लोगों का मानना है कि बलात्कार करने पर फांसी की सजा से घृणित मानसिकता वाले लोगों के मन में डर बैठेगा और वे इस प्रकार के कुकर्म नहीं करेंगे। मेरा मानना यह है कि बलात्कार की घटनाओं को कम करने के लिए सरकार को शोध करना चाहिए कि आखिर लोगों की ऐसी मनोवृत्ति क्यों पनप रही है और उन कारणों पर पूर्णतः प्रतिबंध लगना चाहिए।
अधिकतर बलात्कार की घटनाओं में दोषी नशीले व मादक पदार्थों का सेवन किया हुआ पाया जाता है तथा इसी तरह के कुछ अन्य कारण भी हैं। अतः इन पर नियंत्रण किया जाना चाहिए। - मुकेश, रामनगर
फांसी समाधान नहीं
बलात्कार की घटना होना हम सभी के साथ बलात्कार के समान होता है। यह जरूरी नहीं कि एक समूह द्वारा किसी के मानवीय मूल्य व उसकी आत्मा को कुचलना ही बलात्कार होता है। एक व्यक्ति की इच्छा के विरुद्ध किया गया हर व्यवहार बलात्कार के समान होता है। जरूरी नहीं की बलात्कार हमेशा कोई दूसरा व्यक्ति ही करे। हमारी इच्छाओं को कुचलने का काम करीबी, रिश्तेदार, हमारे परिचित भी करते हैं।
समाज के इस घृणित अपराध का समाधान हमारी सरकारें व यह प्रजातंत्र फांसी समझती है। लेकिन क्या फांसी से मिले सबक से अपराधियों ने अपराध करना छोड़ा है? उत्तर है नहीं। क्योंकि अगर ऐसा होता तो हम आए दिन बलात्कार जैसी घटनाओं के बारे में नहीं सुनते। तो आखिरकार क्या कारण है इस समस्या का? क्यों छोटे-छोटे बच्चे भी इस घिनौने कृत्य में सम्मिलित होते हैं?
तो इसका जवाब है यह सामाजिक ढांचा और इसकी संस्कृति। आज जरूरत बनती है इसे बदलने की। यह तभी बदल सकता है जब एक समाजवादी समाज कायम होगा। - पिंकी, लालकुआं (नैनीताल)
जनता के संघर्ष से रुकेंगे बलात्कार
बलात्कार के दोषियों को फांसी देने से बलात्कार होना कभी भी नहीं रुक सकता है। ऐसी व्यवस्था को हमें जड़ से उखाड़ कर फेंकने की जरूरत बनती है। आखिर दिन पर दिन ऐसी घटनाऐं क्यों बढ़ रही हैं? आखिर कौन है इसका जिम्मेदार? आम जनता इन सभी की जिम्मेदार है। जब तक हम इस बात को लेकर सड़कों पर नहीं निकलेंगे और इसके खिलाफ कुछ नहीं करेंगे तब तक ये घटनायें ऐसी ही बढ़ती रहेंगी। हमें अभी से इन सभी समस्याओं के खिलाफ आवाज उठानी होगी। हम ये न सोचें कि बलात्कार हो तब कुछ करें। बल्कि होने से पहले उसको रोकने की जरूरत है। तभी इन सभी समस्याओं से निपट सकते हैं।
-राकेश कुमार, लालकुआं (नैनीताल)
दोषियों को फांसी देने के बारे में
मेरा मानना है कि बलात्कारियों को फांसी की सजा देने की बात की जाए तो इससे कोई बलात्कार नहीं रुकने वाले हैं। जब तक महिलाओं व लड़कियों को समानता का अधिकार नहीं है। जब तक उनको इंसान नहीं समझा जाता तब तक यह बलात्कार नहीं रुकने वाले हैं।
जब तक हम इस मुनाफे की व्यवस्था के चरित्र को नहीं समझते हैं, जिसका उद्देश्य सिर्फ मुनाफा कमाना ही है। जो महिलाओं को अश्लील गानों, विज्ञापनों व एक यौन वस्तु व माल के रूप में देखता या प्रस्तुत करता है।
अगर यह रुक सकते हैं तो वह इस मुनाफे की व्यवस्था को ध्वस्त करके ही रुके सकते हैं, जहां कोई किसी का शोषण व उत्पीड़न न कर सके। ऐसा सिर्फ मजदूरों के राज समाजवाद में ही सम्भव हो सकता है। जहां सभी को बराबरी का अधिकार मिल सकता है।
- रवि, रामनगर
अपराधियों में भय होगा
हम देखते हैं कि बलात्कार की घटनायें होती हैं लोगों को कुछ दिन याद रहता है, आन्दोलन होते हैं फिर सब शान्त हो जाता है। अपराधियों पर मुकदमें चलते हैं। सालों-साल चलते रहते हैं। कई सारे अपराधी अपनी मौत मर जाते हैं तब भी कोई फैसला नहीं निकलता है। दिल्ली केस के अपराधियों को कई साल तक सरकारी खर्च पर जेल में सुरक्षा दी गयी। पर सजा मिलने में कई साल लग गये।
अपराधियों को जेलों में सालों तक रखने से अच्छा है कि उनको तुरंत फांसी दी जाये। इससे अपराधियों को सबक मिलेगा कि बलात्कार पर तुरंत सख्त सजा होगी और वो अपराध करने से पहले सौ बार सोचेंगे।
अगले अंक की परिचर्चा विषय:- चुनावों में वोट डालना क्या आवश्यक कार्य है? और इससे क्या कोई बदलाव आता है?
वर्ष- 9 अंक- 4
जुलाई-सितम्बर, 2018
विषय :- नकल रोकने हेतु योगी सरकार द्वारा उठाये कदम
कितने सही कितने गलत?
परचम की अवस्थिति
नीम हकीमी इन नुस्खों से नकल नहीं रोकी जा सकती
उत्तर प्रदेश की योगी सरकार की बोर्ड परीक्षाओं में नकल रोकने के प्रयासों ने खूब सुर्खियां बटोरी। उन्होंने नकल पर नकेल कसने के लिए परीक्षा केंद्रों पर सीसीटीवी कैमरे लगवाए, कोडिंग सिस्टम, परीक्षा केंद्र निर्धारण की आनलाइन व्यवस्था, 57 बदनाम जगहों को परीक्षा केंद्र ना बनाना, संवेदनशील जगहों पर पुलिस कर्मियों की तैनाती व सचल दस्तों का गठन इत्यादि कदम उठाएं। इसके बावजूद सैकड़ों छात्र परीक्षा में नकल करते पकड़े गए।
योगी सरकार के यह नुस्खे परीक्षा में नकल ना रोक सकते थे ना रोक पाए। योगी सरकार के दावों से इतर खुद भाजपा नेताओं के घरों में छात्र बोर्ड परीक्षा की कापियों के साथ सामूहिक नकल करते पकड़े गए। इन घटनाओं ने सरकार की दोगलेपन को उजागर कर दिया।
परीक्षाओं में छात्रों के ऊपर अच्छे नंबर लाने का दबाव रहता है। अलग-अलग परीक्षाएं और उनमें प्राप्त अंक ही छात्रों के भविष्य को निर्धारित करते हैं। पूरी शिक्षा व्यवस्था का परीक्षा केन्द्रित होना व छात्रों की योग्यता व व्यक्तित्व को नंबरों से मापना नंबरों के महत्व को बढ़ा देता है। अच्छे नंबरों को पाने के लिए ही छात्र पढ़ाई के साथ-साथ नकल या अन्य अनुचित साधनों का प्रयोग करते हैं।
सरकारी स्कूलों के हालात से हम सभी वाकिफ हैं। अध्यापकों के पदों का रिक्त होना तथा अन्य संसाधनों के अभाव के चलते भी छात्रों की पढ़ाई बुरी तरह प्रभावित होती है। अध्यापकों को जब-तब दूसरी कार्यवाहियों में लगाकर भी छात्रों की पढ़ाई प्रभावित होती है। ऐसे में बगैर संपूर्ण आधारभूत ढांचा सुधारे बगैर नकल रोकने के ऐसे प्रयास ढकोसले बाजी नहीं तो और क्या हैं? ऐसे विपरीत माहौल में सिर्फ छात्रों को नकल का दोषी ठहराना न्यायोचित नहीं है।
शिक्षा व्यवस्था का परीक्षा केंद्रित-अंक आधारित होना ही छात्रों को किसी विषय को जानने-समझने-सीखने की ललक को कम कर देता है। किसी नियम या खोज की प्रक्रिया जान, उसका समग्र ज्ञान हासिल करने के बजाए उसे रटने व प्रश्न का उत्तर हूबहू परीक्षा कापी पर उतार देना छात्रों का लक्ष्य बन जाता है। शिक्षा व्यवस्था छात्रों में तार्किक, वैज्ञानिक, ऐतिहासिक नजरिया पैदा करने के बजाय उन्हें रट्टू तोता बना देती है।
शिक्षा व्यवस्था का यह चरित्र पूंजीवादी व्यवस्था के ही अनुरुप है। असमानता और लूट-शोषण पर टिकी पूंजीवादी व्यवस्था सबको शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, गरिमामय जीवन नहीं उपलब्ध करा सकती है। ऐसे में तार्किक, वैज्ञानिक दृष्टिकोण युक्त व्यक्ति इस लुटेरी व्यवस्था के औचित्य पर ही प्रश्न खड़ा कर सकता है और समानता के लिए संघर्ष छेड़ सकता है। ऐसे लोग इस व्यवस्था के लिए घातक हैं। अतः रट्टू और ज्यादा न सोचने वाले लोग ही इसके लिए फायदेमंद हैं। जो कि यह शिक्षा व्यवस्था अपनी शिक्षा पद्धति द्वारा तैयार करती रहती है।
परीक्षा में नकल रोके जाने की शर्त है कि पूरी शिक्षा प्रणाली को ही बदला जाय। बाड़ाबंद या होटलनुमा चारदीवारी में कैद की बजाय शिक्षा को उत्पादक श्रम से जोड़ा जाये। छात्रों का मूल्यांकन अंकों के बजाय श्रम व समाज के प्रति उसके दृष्टिकोण के आधार पर किया जाये। तभी छात्र अंकों के पीछे भागने के बजाय किसी घटना, विषय, प्रक्रिया को जानने के लिए उत्सुक होंगे। यह कार्य इस पूंजीवादी व्यवस्था व पूंजीपतियों की सेवा में लगे योगी-मोदी नहीं कर सकते है। इसीलिए इनके नीम-हकीमी नुस्खे असफल हो जाने को अभिशप्त हैं।
नकल रोकने का योगी सरकार का फैसला
नकल रोकने हेतु योगी सरकार द्वारा उठाए कदम सही हैं। सही इसलिए हैं क्योंकि नकल के नाम पर कई बालक या बालिका पढ़ते नहीं थे। क्योंकि उन्हें मालूम था कि नकल तो करती ही है। और इससे पास भी हो जायेंगे। लेकिन जब से योगी सरकार ने नकल बंद कर दी है तब से जो बालक मेहनत करेगा वही पास होगा। जो मेहनत नहीं करेगा वह नहीं पास होगा। योगी सरकार ने सही किया। ऐसी शिक्षा किस काम की जिसमें बिना मेहनत किए पास हो जायें। मतलब डिग्रियां हासिल करना नहीं बल्कि शिक्षित भी होना होता है। बिना पढ़े ही पास हो गए तो क्या शिक्षित होंगे।
पहली बात तो जिस राज्य में नकल होती है, उस राज्य की बदनामी होती है। जैसे कोई पूछे कहां से पढे हो बेटा? कोई कह यूपी से पढ़े हैं। तो यूपी से पढ़े हैं वहां तो नकल होती है। इस तरह उस राज्य की बदनामी होती है। अगर मैं ही बोलू कि मैं उत्तराखंड राज्य से पढ़ा हूं। तो कोई नहीं बोलेगा कि उत्तराखंड में नकल होती है। क्योंकि यहां नकल होती ही नहीं है।
-राकेश कुमार, लालकुआं, नैनीताल
शिक्षा व्यवस्था में बदलाव से ही दूर होगी नकल
जब से यूपी में योगी की सरकार सत्ता में आई है। तब से उन्होंने जनता के लिए कई तरह कल्याणकारी योजनाएं शुरू की है। यह बात अलग है कि इन योजनाओं से पूंजीपतियों को लाभ हुआ है। उन्हीं में से एक हैं नकल। कुछ समय पहले स्कूलों में परीक्षाएं चल रही थी और यह भी जग जाहिर है कि यूपी और बिहार जैसे राज्यों में नकल आम बात है। पर नकल को रोकने के लिए सरकार ने कई तरह के कदम उठाए हैं। लेकिन गौरतलब बात यह है कि सरकार नकल पर रोक लगाने की बात तो करती है लेकिन बेहतर शिक्षा स्तर की बात नहीं करती है। अगर स्कूलों में शिक्षकों की कमी रहेगी, नए शिक्षकों की भर्ती नहीं होगी और बच्चों को स्कूल में बेहतर सुविधाएं नहीं मिलेंगी तो हम सोच सकते हैं कि बच्चे कैसी शिक्षा हासिल करेंगे। स्कूलों की हाल बताते हैं कि सरकार शिक्षा व्यवस्था को लेकर कितनी संवेदनशील है। -रश्मि, लालकुआं
नकल नहीं पूरी प्रणाली बदलने के हो प्रयास
यूपी सरकार द्वारा नकल के लिए उठाए गए कदम की बात करें तो हम पाते हैं कि यूपी में नकल रोकने के लिए सीसीटीवी कैमरे का इस्तेमाल कर रही है। कहीं पर नकल में पकड़े जाने वाले छात्रों को सजा देने की बात भी की जा रही है। वहीं दूसरी ओर हम यूपी की शिक्षा की बात करें तो पाएंगे कि स्कूलों की व्यवस्था बहुत बुरी बनी हुई है। छात्रों को शिक्षित करने के लिए मूलभूत आवश्यकताएं स्कूल में नहीं होती हैं। स्कूलों में शिक्षकों की कमी रहती है। स्कूलों में पढ़ाई के तौर-तरीके बहुत पुराने पड़ चुके हैं। शिक्षा की गुणवत्ता के लिए छात्रों को प्रेरित करने की जरूरत है। जिसके लिए शिक्षा को आधुनिकता से जोड़ने की आवश्यकता है। छात्रों को वैज्ञानिक शिक्षा देने की आवश्यकता है। नकल रोकने के लिए जिस आधुनिकता का इस्तेमाल किया जा रहा है उसी प्रकार शिक्षा को आधुनिकता से जोड़ने की आवश्यकता है। नकल के नाम पर लाखों छात्रों को शिक्षा से दूर किया जा रहा है। छात्रों की इतनी बड़ी संख्या में बोर्ड परीक्षा छोड़ने का मुख्य कारण उनका शिक्षा के प्रति अरुचि है। जो कि सरकारी स्कूलों में पढ़ने के कारण बनी है। यहां की खराब व्यवस्था के कारण बनती है। पूंजीवादी शिक्षा व्यवस्था छात्रों के अंदर आत्मविश्वास को कमजोर कर रही है। जो कि सरकारों की नाकामी को साबित कर रही है। नकल रोकने के लिए सबसे आवश्यक बात छात्रों के अंदर आत्मविश्वास को जगाने, स्कूलों की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करने की है। एक स्कूल उसमें मानक के अनुसार 40 छात्रों पर एक शिक्षक, हर कक्षा में छात्रों के बैठने की सही व्यवस्था सरकारों द्वारा नहीं की जाती। क्योंकि शिक्षा में खर्च कटौती की जा रही है। जब तक यह सब रहेगा तब तक नकल भी होती रहेगी और छात्रों की शिक्षा के प्रति अरूचि भी बनी रहेगी। -रुपाली, लालकुआं
नम्बर ही नहीं योग्यता जरूरी
समाज में किसी व्यक्ति की योग्यता उसके अंकों से तय की जाती है और अंक तय करते हैं कि उसे कैसा रोजगार दिया जाएगा। अगर कोई व्यक्ति पढ़ने में खराब है और वह नकल करके अच्छे नंबर से उत्तीण होता है तो समाज में उसका आदर होता है। लेकिन समाज को क्या पता कि वह व्यक्ति नकल करके उत्तीर्ण हुआ है। मगर जो व्यक्ति पढ़ने में होशियार है, वह व्यक्ति उस व्यक्ति से पीछे रह जाता है चाहे उसे पढ़ने में अपनी जी जान लगा दी हो। किन्तु नकल वाले व्यक्ति से वह पीछे रहता है। अतः मुझे इस परीक्षा में नकल के बारे में यह कहना है कि व्यक्ति अपनी मेहनत से पढ़ाई करें वह नकल ना करे।
अप्रैल-जून, 2018
विषय- क्या बेरोजगारी की कारण भारतीय युवाओं का ‘अकुशल’ होना है?
युवाओं को मुनाफे के लिए अकुशल घोषित करना
कोई भी व्यक्ति अगर यह मानता है कि भारतीय युवा अकुशल हैं तो सवाल यह बनता है कि अकुशल होने के क्या कारण हैं? अगर बी.टैक, पालिटेक्निक, आईटीआई जैसे संस्थान- जहां से निकलने वाले युवाओं को कुशल माना जाता है। क्या उनमें बेरोजगारी नहीं है? परचम के पिछले अंक में ही बी.टैक करे युवाओं की बेरोजगारी के आंकड़ों को देखा जा सकता है।
अब सवाल यह उठता है कि बी.टैक, आईटीआई तथा अन्य टैक्निकल शिक्षा प्राप्त छात्रों को भी अगर अकुशल मान लिया जाय तो उन्हें कुशल बनाने की जिम्मेदारी किसकी है? अगर हम यह मान लेते हैं कि सभी पढ़े-लिखे युवा अकुशल हैं तो धिक्कार है ऐसी शिक्षा व्यवस्था पर जो कुशल व्यक्ति निर्माण में सफल नहीं होती। अगर समग्रता में बात करें तो जो ऊपर सवाल किये गये हैं उनका जवाब है कि पूंजीवादी व्यवस्था का मूल सिद्धांत होता है मुनाफा। जिसे कमाने के लिए केवल एक ही तरीका है। वह है मजदूरी में ज्यादा से ज्यादा कटौती करना। अगर सस्ते मजदूर मिलते हैं तो तब ही ज्यादा मुनाफा उनसे कमाया जा सकता है। और बेराजगारी को पैदा कर ऐसा किया जाता है। यहां पर मांग और आपूर्ति का नियम काम करता है। जैसे-जैसे मांग बढ़ती है वैसे-वैसे मूल्य बढ़ता है। यदि मांग कम होती है तो मूल्य कम होता है। अगर बेराजगारी के संदर्भ में बात करें तो हम पाते हैं कि मांग कम है और बेरोजगारों की आपूर्ति ज्यादा है। यानि कंपनियों, फैक्टरियों मंे मजदूरों की मांग कम है लेकिन बेरोजगार बहुत ज्यादा तादाद में हैं। जिससे मजदूरी में कमी आती है। जिसका फायदा सीधे तौर पर पूंजीपतियों को होता है।
पूंजीवाद युवाओं को और दे भी क्या सकता है? सरकारें व पूंजीवादी मीडिया हमेशा चिल्लाता रहता है कि जनसंख्या अधिक हो गयी है, युवा अकुशल हैं आदि-आदि आरोप युवाओं पर थोप दिये जाते हैं। और युवाओं को यह मानने पर मजबूर कर दिया जाता है कि वो अकुशल हैं। भारत जैसे देश में युवाओं को नशे, आत्महत्या या अपराध करने को मजबूर किया जा रहा है।
आज युवाओं को समझना होगा कि इस बेरोजगारी को केवल व केवल समाजवाद में ही समाप्त किया जा सकता है। जिसमें कोई भी चीज कम से कम मुनाफे के लिए नहीं बनती। जहां रोजगार परक शिक्षा सभी के लिए अनिवार्य कर दी जाती है। जहां पर युवाओं का अकुशल होने का सवाल ही नहीं बनता। - उमेश, हल्द्वानी
बेरोजगारी का कारण अकुशलता नहीं है
सरकार की अपनी पेशेवर आदत है कि वह अपनी नाकामयाबी का कारण हमेशा दूसरों को ठहराती है। हर व्यक्ति के अंदर कोई न कोई योग्यता होती है और वह अपनी इस योग्यता के बल पर आगे बढ़ सकता है। युवा वर्ग अलग-अलग डिग्री लेकर जब यह उम्मीद करता है कि अब उसे नौकरी मिलेगी तो उनको अकुशलता का ताज पहनाकर सभी दफ्तरों से भगा दिया जाता है। आखिरकार क्यों?
क्यों यह व्यवस्था इस समस्या को हल नहीं करना चाहती है। बेरोजगार पढ़े-लिखे युवाओं की संख्या बढ़ती ही जा रही है। वे बी.टेक, बी.एड आदि की डिग्री हाथ में लेकर घर बैठने को मजबूर हैं। युवा वर्ग को इतना लाचार बना दिया गया है कि अपनी योग्यता को अलग रख कर मजबूर होकर ठेकाप्रथा, संविदा, अस्थाई नियुक्ति, गेस्ट वर्क आदि के तहत काम करना उनकी मजबूरी बन रहा है।
इसलिए साथियों अब समय आ गया है कि इस व्यवस्था का भण्डाफोड़ कर इसे समाप्त कर एक नयी व्यवस्था समाजवाद की स्थापना हो और मजदूर राज कायम हो। वैसे देखें तो दुनिया के सामने इस पूंजीवादी व्यवस्था की पोल खुलने लगी है। इसी का नतीजा है कि 2016-17 में पूरे देश में कुल इंजीनियरिंग करने वालों का 51 प्रतिशत बेरोजगार हैं। धीरे-धीरे ये कालेज बंद हो रहे हैं। छात्र-युवा जानने लगे हैं कि यह व्यवस्था सिर्फ उन्हें झूठे सपने दिखा सकती है। उन्हें पूरा नहीं कर सकती। - पिंकी, लालकुआं(नैनीताल)
बेरोजगारी के लिए बेरोजगारों को जिम्मेदार ठहराया
पिछले कुछ समय में सड़कों पर निकले हजारों-हजार छात्रों के हुजूम से हमें पता चलता है कि बेरोजगारी किस कदर बढ़ गयी है। युवाओं के सब्र का बांध टूट गया है। और अब वह अपने हक को मांगने सड़कों पर उतर आये हैं। बेरोजगारी का यह आलम है कि सवा सौ करोड़ आबादी में नौकरियां सिर्फ 1 करोड़ 75 लाख ही हैं। इन नौकरियों में सरकारों द्वारा लगातार कटौती की जा रही है। आज पूरे देश में पढ़े-लिखे जो बेरोजगार हैं वे 25 करोड़ से बढ़कर 33 करोड़ हो गये हैं। पर यह पूंजीवादी सरकारें जो पूंजीपतियों के तलवे चाटती हैं इस गंभीर समस्या को लेकर भी असंवेदनशील और मौन हैं। तमाम सरकारें चाहे वे किसी भी पार्टी से हों पूंजीपतियों के साथ मिलकर युवाओं को छलने का काम कर रही हैं। 2014 में आयी भाजपा सरकार द्वारा युवाओं को 2 करोड़ रोजगार देने का वादा अब हवा हो गया है। और अब वह युवाओं को पकोड़े तलने की सलाह दे रहे हैं। क्योंकि उनका मकसद कभी युवाओं को रोजगार देना नहीं था बल्कि वह सिर्फ सत्ता में आना चाहते थे। ताकि पूंजीपतियों के मुनाफे को और बढ़ाया जा सके, मजदूर-किसानों का और अधिक शोषण किया जाये। अब वह युवाओं को रोजगार देना ही नहीं चाहते तो इसके लिए वह तरह-तरह की अफवाह उड़ाते हैं कि नौकरियां तो हैं लेकिन उसे पाने के लिए छात्रों में कुशलता नहीं है। जबकि सच तो यह है कि यह सरकार रोजगार पैदा ही नहीं कर रही है। यह व्यवस्था अब पूर्ण रूप से सड़-गल चुकी है। जिसके पास बेरोजगारी का कोई हल नहीं है। क्योंकि इनका मकसद सिर्फ मुनाफा है। हमें इस सरकार को बदलना होगा और मजदूरों और मेहनतकशों का राज लाना होगा, जो है समाजवाद। जिसने केवल 13 वर्षों में बेरोजगारी का नामोनिशान मिटा दिया था। - रश्मि, लालकुआं(नैनीताल)
संघर्ष ही एक मात्र रास्ता
जब तक युवा अपनी मांग को लेकर सरकार से अपील नहीं करेगा तब तक बेरोजगारी बनी रहेगी। युवाओं को अपनी मांग के लिए लड़ना होगा तभी हम सबको रोजगार मिल सकता है। नहीं तो ये पूंजीपति हमें ऐसे ही लूटकर सताते रहेंगे और हम लुटते रहेंगे। क्योंकि वह चाहते हैं कि हालात ऐसे ही बने रहें और वे लोगों को लूटते रहें। लेकिन कब तक? जब तक युवा चुपचाप हैं। लेकिन यदि युवा अपनी मांग को लेकर आवाज उठाना शुरू कर दें तो सरकार ही पलट देंगे। नौजवान जब भी जागा है इतिहास ने करवट बदली है। - राकेश कुमार, लालकुआं(नैनीताल)
युवाओं को अकुशल घोषित करना
युवावस्था जीवन का सबसे विषम, निर्मम, महत्वपूर्ण, अकल्पनीय, संघर्षरत तथा खूबसूरत दौर है। जिस दौर में देश और दुनिया के भविष्य का निर्माण अथवा विनाश दोनों कार्य संभव हैं। ‘युवा’ शब्द को पलटने पर वह बनता है ‘वायु’। वायु अर्थात जिसके मार्ग में बाधा डालना असंभव है। जिसका कार्य है सर्वदा गतिमान रहना। यही गुण युवावस्था में प्रत्येक मनुष्य में पाया जाता है। आवश्यकता है तो बस एक इशारे से उसे दिशा देने की। यही कार्य कुशल तरीके से देश के तंत्र को, विद्वानों को, अभिभावकों को, शिक्षकों को, धर्मगुरूओं को, राजनेताओं को करने की आवश्यकता है।
देश में बेरोजगारी आज युवाओं की मुख्य समस्या है। विचार करके देखा जाये तो बेरोजगारी का मुख्य कारण युवाआंे की अकुशलता है अथवा एक ऐसी व्यवस्था का होना है जिसका कार्य युवाओं को अकुशल सिद्ध करना है।
आज की शिक्षा व्यवस्था की बात की जाये तो आज विद्यालय का अर्थ विद्या का घर न होकर विद्या(शिक्षा) की दुकान रह गया है। जहां प्राप्तांकों का क्रय-विक्रय किया जाता है। देश के युवाओं को जो विश्वविद्यालयी स्तर पर शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं उनका अधिकतर समय वहां की शिक्षा व्यवस्था, परीक्षाओं, फीसवृद्धि व अन्य समस्याओं के खिलाफ प्रदर्शन करने में व्यतीत हो जाता है। जो युवा इस दौर से बचकर किसी प्रतियोगी परीक्षा को पास कर जाते हैं सरकार उन्हेें नियुक्ति देने में असमर्थ दिखती है।
सरकारी तंत्र की भ्रष्टता को देखकर आज का युवा परिश्रम से अधिक पैसे को महत्वपूर्ण मानने लगा है। जिस प्रकार शिक्षा का निजीकरण दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है उसे देखकर मालूम पड़ता है कि उच्च व तकनीकि शिक्षा पर केवल पूंजीपतियों का अधिकार है। आज बाजारीकरण के इस दौर में युवा अपनी संवेदना अथवा भावनाओं तक को बिका हुआ पाता है।
वहीं वर्तमान राजनीति की बात की जाये तो राजनीति युवाओं को सहिष्णुता-अहिष्णुता, हिन्दुत्व-राष्ट्रवाद, धार्मिक सहिष्णुता के बीच इस तरह उलझाए हुए है कि वे ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम’’ तक का विचार ही नहीं कर पाते हैं। यदि आज के युवाओं को अकुशल माना जाय तो ये अकुशलता उन धर्मगुरूओं, विद्वानों, शासकों की भी अकुशलता है, जिनकी जिम्मेदारी थी देश के लिए एक उज्जवल भविष्य का गठन करना।
अतः कहा जा सकता है कि युवाओं की बेरोजगारी का मुख्य कारण शासन तंत्र की नाकामयाबी, बाजारीकरण तथा शासकों की अकुशलता है। - नीलम, हल्द्वानी
तो फिर कुशल बेरोजगार क्यों हैं?
आज जब देश में 30 प्रतिशत से अधिक बेरोजगारी है तथा सरकारों द्वारा यह कह दिया जा रहा है कि भारतीय युवा अकुशल हैं, यदि वे कुशल होते तो उन्हें रोजगार मिल जाता।
यदि इस बात में जरा सी भी सच्चाई होती तो जो लोग डाक्टर्स किये हुए हैं वे बेरोजगार नहीं होते। फार्मासिस्ट ट्रेनिंग के बाद भी बेरोजगार नहीं होते । या ऐसे ही कंपनियों में कई सालों तक काम करने के बाद भी जो मजदूर कुशल हो चुके होते हैं मंदी के आने के दौरान बेरोजगार नहीं होते। मोदी जी ने प्रधानमंत्री बनने से पहले कहा था कि हर वर्ष 2 करोड़ लोगों को रोजगार देंगे। लेकिन आज स्थिति यह है कि हर वर्ष 2 लाख लोगों को भी रोजगार नहीं मिल पा रहा है। वर्ष 2016-17 के दौरान 30 लाख नौजवानों को प्रशिक्षिण (कुशल) दिया गया लेकिन उसके बावजूद भी इनमें से 10 प्रतिशत नौजवानों को रोजगार नहीं मिल पाया।
रोजगार के नाम पर पूरे देश में भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया जा रहा है। छात्रों से फार्म के नाम पर लाखों-करोड़ों रुपये सरकार ऐंठ लेती है और फिर भर्तियां निरस्त कर देती है। अब ऐसे में छात्रों के संघर्ष भी बढ़ रहे हैं। जिसमें एस.एस.सी. घोटाले के खिलाफ संघर्ष जैसे संघर्ष भी बढ़ रहे हैं।
सरकारों ने शिक्षा के क्षेत्र को लगातार बाजार के हवाले किया है। शिक्षा से पूंजीपति का मकसद मुनाफा कमाना रह गया है। भले ही शिक्षा में कोई गुणवत्ता हो या न हो।
आज हर व्यक्ति कुशल है। लेकिन उसके पास अवसर नहीं है। कंपनियों में 1 ही मजदूर से कई-कई लोगों का काम लिया जाता है। सरकारी संस्थानों में भी कई पद रिक्त हैं। पूंजीवादी व्यवस्था लगातार बेरोजगारी को बढ़ावा देती है। और वह बेरोजगारी व पूंजीवादी व्यवस्था को सही बताने के लिए नित नये भ्रम जनता के बीच में फैलाती रहती है। आज नौजवानों को इन भ्रमों में न पढ़कर ‘सबको शिक्षा सबको काम’ का नारा लगाते हुए अपने संघर्षों को पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ केन्द्रित करना होगा। तभी सभी व्यक्तियों को उसकी योग्यता के अनुसार रोजगार दिया जा सकेगा। और यह काम मात्र समाजवादी व्यवस्था ही कर सकती है। - विपिन, नैनीताल
कम युवाओं से ज्यादा काम, बेरोजगारी का कारण
भारतीय समाज एक पूंजीवादी समाज है और पूंजीवादी समाज में हर चीज माल होती है। और पूंजीपति हर चीज से सिर्फ मुनाफा कमाना चाहता है।
पूंजीपति कम युवाओं से ज्यादा से ज्यादा काम करवाना चाहता है। ताकि उसे ज्यादा मुनाफा हो। आज जो भारत देश की सरकारें हैं वह सिर्फ पूंजीपति वर्ग के लिए काम कर रही हैं। इसलिए वह अपने देश के युवाओं को ‘अकुशल’ कहकर युवाओं को स्थायी रोजगार देने में असमर्थ हैं और युवाओं से कह रही है कि पहले आप कौशल विकास योजना में नामांकन कराओ फिर आप को रोजगार देने के बारे मंे सोचेंगे।
आज हर जगह युवाओं को ठगा जा रहा हैै। आज जरूरत है कि इस मुनाफे वाली व्यवस्था को ध्वस्त किया जाय। और एक ऐसी व्यवस्था की स्थापना की जाय जहां मुनाफा कमाना उद्देश्य न हो। ऐसी व्यवस्था का रास्ता समाजवाद के रास्ते से होकर जाता है। उस व्यवस्था में हर व्यक्ति को उसकी योग्यता के अनुसार रोजगार मिलेगा। और हर व्यक्ति समाज के लिए काम करेगा। - रवि, बी.ए. द्वितीय वर्ष, रामनगर
अकुशलता के राग से शिक्षा के निजीकरण तक
भारत में विभिन्न रोजगार पैदा करने वाले क्षेत्रों को मोटे तौर पर दो भागों में बांटा जा सकता है-उत्पादन क्षेत्र और सेवा क्षेत्र। उत्पादन क्षेत्र में कृषि और फैक्टरियां आती हैं। फैक्टरियों में श्रम विभाजन के चलते किसी भी व्यक्ति को किसी खास तरह के कौशल की जरूरत नहीं पड़ती और यदि पड़ती है तो ऐसे काम को दो से तीन दिन में सीखा जा सकता है।
इसी प्रकार कृषि के क्षेत्र में भी नौकरी करने के लिए किसी विशेष प्रशिक्षण की आवश्यकता नहीं है और न ही ये प्रशिक्षण दिया जाता है।
अब आता है सेवा क्षेत्र जिसमें आते हैं- बैंक, पोस्ट आफिस और ऐसे ही सारे काम। ऐसे क्षेत्रों में कंप्यूटर के द्वारा व उनके किसी विशेष साॅफ्टवेयर द्वारा काम कराया जाता है। ऐसे सभी स्थानों में काम शुरू कराने से पहले प्रशिक्षण दिया जाता है। जिसके बाद व्यक्ति अपने काम की जगह पहुंचता है।
ऐसे में सवाल उठता है कि कौन से कौशल के अभाव में युवा रोजगार नहीं ले पा रहे हैं। आज जब मोबाइल और कंप्यूटर की दुनिया में सभी लगभग इन्हें चलाना जानते हैं और जो नहीं जानते वो सीख जाते हैं।
असल में यहां सवाल कुशल और अकुशल का नहीं है बल्कि इसकी आड़ में शिक्षा व्यवस्था को बेकार बताकर उसे निजी हाथों में सौंपने और कौशल के नाम पर एक ही व्यक्ति से और अधिक काम कराकर अधिक मुनाफा कमाने का गणित है।
एक तरफ जहां कुछ ही सालों में प्रोफेशनल कालेजों की बाढ़ आ गयी ऐसे में ये कहना कि युवा कुशल नहीं हैं युवाओं का मजाक उड़ाना है। और बेरोजगारी की असल वजह को छुपाकर ठीकरा उनके ही सर पर फोड़ना है। - एक पाठक
बेरोजगारी का कारण सरकार की व्यवस्था में कमी
आज बेरोजगारी को लेकर युवाओं में कुशलता की कमी या युवाओं का कुशल नहीं होना आदि बातें कही जाती हैं। बेरोजगारी की बात करें तो बेरोजगारी तेजी से देशभर में एक भयावह रूप लेती जा रही है। हर तीसरा पढ़ा-लिखा नौजवान बेरोजगार घूम रहा है।
बढ़ती बेरोजगारी को लेकर युवाओं में कुशलता की कमी है यह बात कहना एक बड़ी बेवकूफी या गलत बात है। देश भर में कई पढ़े-लिखे नौजवान, तमाम डिप्लोमा-डिग्री किये हुए युवा बेरोजगार हैं। उन्हें कुशल नहीं कहा जायेगा? कई ऐसे युवा जो डाॅक्टर, इंजीनियर, आदि की डिग्री हासिल करने के बावजूद भी बेरोजगार हैं। या उन्हें उनकी काबिलियत के हिसाब से काम नहीं मिल रहा या कहीं कम वेतन पर काम दिया जाता है।
बढ़ती बेरोजगारी का कारण युवाओं में कुशलता की कमी नहीं कहा जा सकता। सरकार द्वारा बार-बार यह बात कही जाती है कि युवाओं में कुशलता की कमी है तब वे बेरोजगार हैं। सरकार इस बात से मुंह मोड़ लेती है। सरकार कुशल व प्रशिक्षित बेरोजगारों पर कोई ध्यान नहीं देती।
बेरोजगारी का कारण युवाओं मंे अकुशलता नहीं बल्कि सरकार की व्यवस्था है। जो पूंजीवाद को बढ़ावा देती है। जिसमें अकुशलता या बिना कोई डिग्री, डिप्लोमा वाले लोगों को काम पर रख लिया जाता है जो उस काम के लायक नहीं होता या उसमें उस काम की काबिलियत नहीं होती। या उस कार्य के अनुरूप उस व्यक्ति के पास कोई एजुकेशन नहीं होती। - उमेश, नैनीताल
बेरोजगारी का कारण युवाओं का अकुशल होना है
बेरोजगारी का कारण अकुशलता ही नहीं है। बेरोजगारी के कई अन्य कारण हैं जैसे सरकारी मशीनरी द्वारा रोजगार पैदा नहीं किया जाना। विभिन्न पैदा होने वाले रोजगारों में धांधलियों की बढ़ती संख्या जिनमें दलालों द्वारा विभिन्न पदों की दलाली करना।
सरकार द्वारा रोजगार निकालने से लेकर भर्ती होने तक की प्रक्रिया में पारदर्शिता की कमी होना भी बेरोजगारी को बढ़ाता है। प्रथमतः सरकार विज्ञप्तियां निकालती है जिसमें बढ़ चढ़कर बेरोजगार रोजगार पाने की दौड़ में भाग लेते हैं, फिर सरकारी तंत्र की नाकामी की वजह से ही पेपर लीक होते हैं या भराए जाते हैं (जानबूझकर)।
बेरोजगारों का अकुशल होना सिर्फ बेरोजगारी का कारण कदापि नहीं हो सकता है। क्योंकि अब पीएचडी धारक जैसे डिप्लोमाधारक भी चैथी क्लास की नौकरी या समूह ‘ग’ की भर्तियों में हिस्सा लेने को मजबूर हैं।
सिर्फ बेरोजगारों के सर ठीकरा नहीं फोड़ा जा सकता है, यह कहकर कि वे अयोग्य हैं। सरकार का दायित्व है कि वो सरकारी तंत्र में मजबूती लाए जिससे पारदर्शी तरीके से परीक्षा करवाए।
तमाम हजारों-लाखों पद विभिन्न विभागों में; राज्यों से लेकर केन्द्र तक रिक्त हैं। पर सरकार की अपनी व्यवस्था इतनी सुदृढ़ नहीं है कि वह इन खाली पदों को भरे।
सभी तो अयोग्य नहीं हो सकते हैं। वैसे भी अयोग्यता तो सरकार की खुद की है। 2 करोड़ नौकरियों का वादा करने वाली सरकारें आज बैकफुट पर हैं क्या यह नाकामी नहीं? - रविशंकर, लालकुआं
पूंजीवादी व्यवस्था ही बेरोजगारी की दोषी
बेरोजगारी पूंजीवादी समाज की देन है। इससे पूर्व के समाजों में यह नहीं पायी जाती थी। उन समाजों में बेगारी तो हो सकती थी पर बेरोजगारी नहीं।
कभी भी कोई व्यक्ति अकुशल नहीं होता यदि वह अकुशल है, तब भी इस देश के निम्न स्तर के शैक्षिक व तकनीकी संस्थानों एवं सामाजिक पिछडे़पन के कारण है। इसके लिए भी व्यक्ति विशेष जिम्मेदार नहीं है। भाजपा सरकार का चुनावी वादा था कि अगर वह सत्ता में आयी तो हर साल 2 करोड़ नई नौकरियां पैदा करेगी, यह चुनावी वादा भी जुमला ही साबित हुआ। सरकार अपनी जिम्मेदारी से नये रोजगार देने में नाकाम रही है। तो वो बेशर्मी के साथ कह रही है कि युवा पकोडे़ बेचें और हर दिन 200 रूपये कमाये और यह रोजगार ही तो है।
शिक्षा में निजीकरण की नीतियों के कारण हम हर साल लाखों की संख्या में अकुशल मजदूर पैदा कर रहे हैं। इस समय भारत में 31 करोड़ लोग रोजगार तलाश रहे हैं। 25 फरवरी के आंकडे़ के अनुसार भारत में बेरोजगारी की दर 7.1 प्रतिशत के स्तर पर पहुंच चुकी है। अर्थशास्त्री पाल क्रुगमैन के बाद अब आई.एम.एफ. भी भारत में बेरोजगारी के भयावह स्तर पर चिंता जता रहा है। - मनीष, हल्द्वानी
अगले अंक की परिचर्चा
केन्द्रीय विद्यालयों और सीबीएसई से मान्यता प्राप्त स्कूलों में हिन्दी की अनिवार्यता क्या एक सही कदम है?
वर्ष- 8, अंक- 3
अप्रैल-जून, 2017
विषयः क्या नोटबंदी से काले धन की समस्या को खत्म किया जा सकता है?
नोटबन्दी: कालाधन व भ्रष्टाचार पर प्रभाव
8 दिसम्बर 2016 की शाम प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने घोषणा की कि आज रात 12 बजे के बाद से 500 व 1000 रुपये के नोट कोई भी लीगल टैन्डर नहीं रह जायेंगे। यह फरमान बिना किसी तैयारी के सुना दिया गया। तैयारी ना तो सरकार की थी ना ही आम जनता की।
अरुण जेटली ने यह दावा किया कि इस बात की खबर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, उनके कुछ सलाहकारों तथा वित्त मंत्री के अलावा किसी के पास नहीं थी। पर यह बात झूठी साबित हुई , जब दैनिक जागरण की कुछ हफ्तों पुरानी अखबार कटिंग जिसमें विमुद्रीकरण तथा 500 तथा 1000 रुपये के नोट लाने की बात कही गयी थी, सोशल मीडिया पर प्रचारित तथा शेयर की जाने लगी।
यह तुगलकी फरमान लोगों पर यह कहके थोप दिया था कि इससे कालाधन, नकली नोट, भ्रष्टाचार, पड़ोसी मुल्क से आतंकवादियों पर की जाने वाली फंडिंग पर रोक लगेगी। आम जनता को बहुत फजीहत उठानी पड़ी। शुरुआत में तो 500 रुपये के पुराने नोट के बदले 400 से 100 रुपये तक लोगों को लेने पड़े। दिहाड़ी मजदूर, रिक्शा चालक, लघु उद्योगों पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा। ये वो वर्ग है, जो पैसों का लेन-देन सिर्फ कैश में ही कर सकता है।
कालाधन पूंजीवाद में कभी भी कोई व्यक्ति अपने घर पर छिपा कर नहीं रखता, बल्कि वह उस पूंजी को बाजार में लगाता है और इस तरह के धन को खपाने के बहुत सारे तरीके हैं। पूंजीवाद में पूंजीपति बाजार में धन लगाता है। यही तो अंतर है एक पूंजीपति और कंजूस में। बड़े-बड़े पूंजीपतियों को इससे उतनी कोई दिक्कत नहीं थी क्योंकि उनका लेन-देन तो हमेशा से चैक या अन्य माध्यमों से होता था, न कि कैश से। भारत को एक रात में कैशलेश बनाने का ये सपना मुंगेरीलाल के सपने की तरह ही था। बाहर पढ़ाई कर रहे छात्र-नौजवान, छोटी-छोटी कम्पनियों में काम कर रहे लोगों की नौकरियां छूट गयी। पूरे देश में इससे 100 से ज्यादा लोगों की मौतें हुई थी।
सरकार द्वारा पहले कहा गया कि हम कालाधन खत्म करना चाहते हैं फिर कहा गया कि हम कैशलेश इकानामी बनाना चाहते हैं फिर कहा गया कि नकली करेंसी पर रोक लगाना चाहते हैं फिर कहा गया कि बार्डर पार से होने वाली आतंकवादियों को होने वाली फंडिंग को रोकना चाहते हैं। हर दिन के साथ नोटबंदी के कारण बदलने लगे।
सच तो ये था कि सरकार खुद भी नहीं जानती थी कि वे कर क्या रही है। अर्थशास्त्र की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका ‘इकाॅनामिस्ट’ ने इस कदम की आलोचना की। इस नोटबन्दी से भारत की जी.डी.पी. ग्रोथ जो अनुमानतः 7.5 रहने की उम्मीद थी उससे काफी नीचे आ गयी। बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने कहा कि वे नोटबन्दी के समर्थक हैं। पर कम से कम उन्हें यह बता दिया जाये कि कितना कालाधन वापस आया। कुछ अपुष्ट रिर्पोटों में यह कहा गया कि लगभग 97 प्रतिशत तक पैसा वापस बैंकों में पहुंच गया है। तो फिर कालाधन कहां है?
असलियत में तो ये एक चुनावी जुमला था जो 2014 में विदेशी बैंकों से कालाधन वापस लाने तथा हर व्यक्ति के खाते में 15 लाख रुपये आने के वादे की तरह सिर्फ चुनावी स्टंट था। पूरी तरह से असफल था। जिसने लोगों की जानें ली। लोगों के छोटे लघु उद्योग तबाह-बर्बाद किये। नौकरियां छीन ली। इससे आम जनता को कुछ हासिल नहीं हुआ।
-मनीष, हल्द्वानी
नोटबन्दी: जनता के हित में नहीं
8 नवम्बर 2016 को नोटबन्दी की घोषणा करते हुए नरेन्द्र मोदी ने यह कहा कि नोटबन्दी का लक्ष्य कालाधन व भ्रष्टाचार पर रोक लगाना और आतंकी फंडिंग व फर्जी नोट के प्रचलन को रोकना था।
भारतीय रिजर्व बैंक एवं कई सरकारी और गैर सरकारी अध्ययनों के मुताबिक कालेधन का केवल 20 प्रतिशत हिस्सा देश के अन्दर और 80 प्रतिशत हिस्सा देश के बाहर विदेशी बैंकों में जमा है। और नकदी के रूप में कालाधन का हिस्सा कुल 5-6 प्रतिशत है। मोदी सरकार ने केवल कालेधन के इस छोटे हिस्से पर अंकुश लगाने के लिए 86.4 प्रतिशत मुद्रा को प्रचलन से बाहर कर दिया।
मोदी सरकार ने नोटबन्दी का इस्तेमाल अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों पर व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ करने का दावा किया। लेकिन खुद नोटबन्दी ही भ्रष्टाचार का औजार बन गयी। नोटबन्दी के बाद पूरे देश के पुराने रद्द किये गए नोटों की अदला-बदली में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार सामने आया। इसमें सहकारी और ग्रामीण बैंकों के अधिकारी बल्कि सार्वजनिक बैंकों और यहां तक कि आर.बी.आई. के कर्मचारी-अधिकारी शामिल रहे।
मोदी ने देश की जनता से 50 दिन कष्ट सहने की बात की। लेकिन देश की जनता को नोटबन्दी के 100 दिन बीत जाने तक पैसों की तंगी झेलनी पड़ी। 2000 रुपये के नोट जो लागू किए उनके उपयोग के लिए जनता को अभी तक काफी माथापच्ची करनी पड़ी क्योंकि कोई भी दुकानदार उसके खुले पैसे नहीं दे रहा है। बैंकों में उचित मात्रा में नये नोट न पहुंचने के कारण लोगों को काउन्टरों और एटीएम के बाहर लम्बी कतारों पर खड़ा रहना पड़ा।
अखबारों के मुताबिक इस कतारबंदी के दौरान 118 लोगों की मौत हो चुकी है। इन सभी घटनाओं से यह साबित होता है कि नोटबन्दी बिल्कुल भी जनता के हित में नहीं थी। नोटबन्दी लक्ष्यों से काफी दूर थी। अतः नोटबन्दी अर्थव्यवस्था का कारपोरेटीकरण, पूंजीपतियों की सेवाओं के लिए लाया गया एक कदम है।
- मुकुल जोशी, हल्द्वानी
नोटबन्दी और कालाधन
साथियो, जैसा कि हम जानते हैं कि जो मौजूदा अर्थव्यवस्था, पूंजी पर टिकी हुई व्यवस्था है, पूंजीवादी अर्थव्यवस्था है। हमारे मोदी-शाह और अन्य पार्टी के राजनेता बार-बार मीडिया के माध्यम से अन्धाधुंध प्रचार कर रहे हैं कि नोट बंद होने से कालाधन खत्म हो जायेगा। यह सरासर झूठ है और जनता के बीच फैलाया जाने वाला भ्रम है।
अगर हम नोट की बात करें तो नोट यानी एक प्रकार की मुद्रा, अब ये कागज की हो या चमड़े की या फिर किसी और धातु की जो समाज में मध्य युग से ही व्यापारियों द्वारा किसी भी वस्तु का आदान-प्रदान करने के लिए चलाए गये थे। जिस कारण व्यापारियों को व्यापार करने में सुविधा होती थी। क्योंकि उस वक्त व्यापार वस्तु के जरिए वस्तु से होता था। अब आधुनिक समय में मुद्रा का रूप बदलकर कागज या सिक्के हो चुके हैं।
अब हम बात करें धन की तो, धन यानी सम्पत्ति न तो काला होता है और न गोरा; धन तो दुनियाभर के मेहनतकश व मजदूर वर्ग की श्रमशक्ति व खून-पसीने से तैयार होता है। वही धन का इस्तेमाल कर पूंजीपति अपनी तिजोरी भरता है और गरीब, मेहनतकश, मजदूर को श्रम और शोषण के चक्रव्यूह में फंसाकर दुनियाभर के मजदूरों को भूखे-नंगे रहने को मोहताज कर देता है।
हमारे मोदी-शाह मीडिया के माध्यम से तुगलकी फरमान की तरह कालेधन को खत्म करने की बात कर रहे हैं। कालाधन पूंजी का ही रूप है। जिस पर सरकार को कर न चुकाया गया हो, अब पूंजी अपनी बढ़त के लिए मजदूरों का निर्मम शोषण कर रही है। एक से एक झूठ-फरेब, सट्टेबाजी रच रही है। इसलिए कालेधन को खत्म करने की योजना का ऐलान करते हुए 500 व 1000 रुपये के नोट को रद्द कर और नये नोट जारी कर दिया तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। क्योंकि कालेधन के सबसे बड़े खिलाड़ी बड़े पूंजीपति जैसे अम्बानी-अडाणी-टाटा घराने हैं। जो रियल एस्टेट, बहुमूल्य धातुओं से लेकर स्विस बैंक, कम्पनियों की फर्जी चार्जशीट से फर्जी कम्पनियों को खड़ा कर कालाधन कमाते हैं। जिस कारण पूंजीपति और ज्यादा मजदूरों का शोषण करने में कामयाब होते हैं। नोटबन्दी से अगर किसी का दमन होता है तो वो है मजदूर वर्ग या असंगठित क्षेत्र की 83 फीसदी मेहनतकश जनता जैसे छोटे किसान, दिहाड़ी मजदूर, रेहड़ी-पटरी-खोमचा लगाने वाले, छोटे दुकानदार, रिक्शा चालक जो अर्थव्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर खड़े हैं। उन्हें कंगाली की ओर धकेल दिया गया है। जिसके कारण शोषण व दमन की गति तेज कर दी है और लोगों को मजबूर करके आर्थिक-मानसिक सभी तरह की धमकी के साथ विकास की खिचड़ी पेश की जा रही है। आर्थिक तौर पर लोगों की जेब से नोट खींच लिये गये हैं। गरीब की बची हुई पूंजी भी खत्म कर दी है। पूंजीपतियों ने मोदी को 2014 में करोड़ों रुपये चुनावी चंदा दिया। जिस वजह से मोदी की उनका कालाधन खत्म करने की न हिम्मत थी और न सत्ता में बैठने के बाद है। मोदी को अच्छे से पता है कि उसे फर्श से अर्श तक पहुंचाने में कालेधन की इन बड़ी मछलियों का कितना हाथ है। इसलिए साथियो सिर्फ नोट बंद होने से न आतंकवाद खत्म होगा, न ही भ्रष्टाचार और न ही मजदूरों का शोषण। कालाधन भारत ही नहीं सभी पूंजीवादी देशों की अर्थव्यवस्था में मौजूद है। इसे केवल एक ही तरीके से खत्म किया जा सकता है, वो है पूंजी पर आधारित अर्थव्यवस्था को समाप्त कर समाजवाद की स्थापना कर। यह तभी संभव होगा जब दुनियाभर के मजदूर संगठित होकर समाजवादी क्रांति के लिए लामबन्द हों और मजदूर राज को कायम किया जाये।
- इंदर लाल, आमडण्डा, रामनगर
नोटबंदी किसी भी तरह से कालेधन की समस्या का हल नहीं.......
नोटबंदी से कोई भी कालेधन की समस्या हल नहीं हो सकती। नोटबंदी एक तरीका है जिससे ये सरकार जनता को और समस्याओं से भटकाना चाहती है। अगर नोटबंदी से कोई फायदा होगा तो वो इन पूंजीपतियों बड़े-बड़े बिजनसमैन को होगा। पूंजी सिर्फ रुपये के रूप में ही नहीं बल्कि हीरों के रूप में, सोना-चांदी के रूप तथा अन्य रूपों में मौजूद है। सिर्फ नोटबंदी से कालेधन की समस्या हल नहीं की जा सकती।
इस नोटबंदी से जो सबसे ज्यादा परेशान हैं जिसे सबसे ज्यादा नुकसान हुआ वो मजदूर-मेहनतकश जनता है, गरीब लोग, जो अपना घर चलाने के लिए दिन-रात मेहनत करते हैं। इन्हें अपनी दिन की दिहाड़ी के काम छोड़कर तीन-तीन, चार-चार दिन तक बैंकों में खड़े होना पड़ा। पिता अपनी बेटी की शादी को लेकर परेशान थे। इस नोटबंदी से सभी इतने परेशान हैं कि लोग अपनी जान तक ले ली।
हमारे प्रधानमंत्री बोलते हैं कि अच्छे दिन आयेंगे। क्या यही है ‘अच्छे दिन’ की शुरुआत जो लोग अपनी जान लेने को तैयार हैं। इस नोटबंदी के चलते कम्पनियों में मजदूरों की छंटनी हुई जिससे कई मजदूर बेरोजगार हो गये।
क्या इस देश की सरकार व पूंजीपतियों को यह नजर नहीं आता कि इनकी बड़ी-बड़ी कम्पनियों में काम कर रहे मजदूर इस नोटबंदी के कारण अपनी जान लेने को तैयार हैं। क्या यही चाहती है इस देश की सरकार की सभी नौजवान बेरोजगार घूमें, जनता भुखमरी का शिकार हो।
हमें यह जानने की जरूरत है कि नोटबंदी से इनका क्या इरादा है? क्यों यह इस तरह के काम बार-बार करते हैं? क्योंकि नोटबंदी ही कालेधन की समस्या का समाधान नहीं है। अगर इससे कोई फायदा है तो वो सिर्फ और सिर्फ इन पूंजीपतियों को।
-दीपाली, आई.टी.आई., रामनगर
नोटबंदी मुख्य मुद्दों से गुमराह करने की कोशिश है
नोटबंदी क्या है सबसे पहले हमें यह जानने की आवश्यकता है। आम भाषा में नोटबंदी का अर्थ है कि जो करेंसी हमारे देश में चलन में है उसे बदलकर नयी करेंसी को चलन में लाना। मुख्य रूप से जो पूंजी है वह किसी भी व्यक्ति की शारीरिक व मानसिक श्रम के मूल्य को निर्धारित करता है। उसके आधार पर ही व्यक्ति को उसका पारिश्रमिक दिया जाता है।
पूंजीपति वर्ग की बड़ी संपत्तियां सिर्फ करेंसी के रूप में नहीं हैं। उनकी संपत्तियां सोने, चांदी, हीरे, बड़ी क्षेत्रफल कब्जाकारी जमीनें, रीयल स्टेट, बड़े-बड़े शाॅपिंग माॅल, हवाई जहाज तथा अन्य बिजनेस के स्रोतों के रूप में हैं। हमारे देश का 90 प्रतिशत पैसा मात्र 10 प्रतिशत लोगों के पास है। बड़े पूंजीपति टाटा, बिड़ला, अम्बानी, अडाणी सरीखे लोग बाकि इनके सहयोगी जैसे राजनेता, मंत्री व अन्डरवल्र्ड माफिया हैं। मात्र 10 प्रतिशत पैसा ही आम गरीब जनता के बीच में घूम रहा है। पूंजीपतियों के मुद्रा रूप के कालेधन का बड़ा हिस्सा विदेशों में जमा है। नोटबंदी से मात्र गरीबों को परेशान किया जाना है तथा मुख्य मुद्दों से उन्हें गुमराह करना है ताकि वो रोजगार की बात न करें, स्वास्थ, शिक्षा, विकास की बात न कर सकें। सरकार के दिन ब दिन बदलते नियम भी इसी काम को कर रहे हैं ताकि आदमी को सोचने-समझने का समय ही न मिले। मुख्य रूप से जो कालेधन का बड़ा हिस्सा था वो तो पूंजीपतियों के पास सुरक्षित है और चाकर सरकार जिस कालेधन को निकालने की कवायद कर रही है वो है गरीब व मेहनतकश जनता की मेहनत से कमायी राशि, जिसे वो नियमों का लेबल लगाकर मजदूर व किसानों से छीन लेना चाहते हैं।
अन्ततः मैं इतना ही कहूंगा जिस कालेधन व भ्रष्टाचार को खत्म करने की बात हो रही है वह सिर्फ समाजवाद में ही सम्भव है जिसका रास्ता क्रांति है, सिर्फ क्रांति।
-कुन्दन सिंह (लालकुआं)
कालेधन, भ्रष्टाचार का खात्मा नोटबंदी से नहीं होगा
नोटबंदी से कालेधन की समस्याओं को खत्म नहीं किया जा सकता। वह या तो सोना-चांदी या प्रापर्टी के रूप में है या वह पूंजीपतियों ने स्विस बैंकों में जमा किया हुआ है। भारत की अर्थव्यवस्था में 20-30 प्रतिशत कालाधन बाजार में शामिल है। मात्र 5-7 प्रतिशत ही नोट के रूप में मौजूद है। नोटबंदी से जो कालाधन है वो खत्म नहीं होगा। बल्कि इससे मजदूरों को बहुत ही परेशानियों का सामना करना पड़ेगा क्योंकि मजदूरों के पास थोड़े बहुत पैसे हैं भी तो उनको बदलने के लिए अपनी मजदूरी को छोड़कर चार-पांच दिनों तक बैंकों के चक्कर काटने पड़ रहे हैं। फिर भी उनको पैसे नहीं मिल पा रहे हैं। इससे ज्यादा फायदा बड़ी-बड़ी कम्पनियों को होगा जो सिर्फ नेट बैंकिंग के द्वारा खरीददारी करती हैं, जैसे पेटीएम। इससे मजदूरों का जो पैसा है अब कुछ कर देकर अपना कैश पैसा पेटीएम जैसी कम्पनियों को देना होगा। ये मजदूर वर्ग के पैसों पर व्यवस्था का हमला है।
हमें इस तरह के फैसले का पुरजोर तरीके से विरोध करना चाहिए ताकि ऐसे फैसले लेने से पहले सरकारें विचार करें। हमें अगर कालेधन को समाप्त करना है तो हम सबको इसके खिलाफ लड़ना होगा। सभी को एक समान अधिकार देने होंगे जो कि केवल मजदूर राज में ही संभव है।
- रवि, बी.ए. द्वितीय, रामनगर
परचम की अवस्थिति
नोटबंदी का फैसलाः राजनीतिक ज्यादा; आर्थिक कम
8 नवंबर की शाम को मोदी द्वारा अचानक नोटबंदी का फैसला सुनाया गया। नोटबंदी की इस घोषणा के साथ ही 8 नवंबर की आधी रात के बाद 500 व 1000 रू0 के पुराने नोट चलन से बंद कर दिये गये। नोटबंदी के अचानक और बिना तैयारी के किये गये इस फैसले को काले धन व भ्रष्टाचार के खिलाफ ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ की संज्ञा दी गयी। हालांकि समय बीतने के साथ नोटबंदी करने के कारण बदलते चले गये। पहले इसे कालेधन पर ‘सर्जिकल स्ट्राइक’, फिर आतंकवाद व फर्जी करेंसी पर चोट, फिर अर्थव्यस्था को कैशलैश करने और अंत में लैशकैश करने के कारण बताये गये।
कालेधन पर व भ्रष्टाचार का तो जो होना था वही हुआ यानि वह अपने बदले रूप में जारी रहा। लेकिन इस दौरान मेहनतकश जनता को अपने ही पैसे निकालने के लिए कई दिन लाईन में खड़ा कर दिया गया। 100 से अधिक लोगों की मौत हो गयी तथा लाखों मजदूरों को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा। भ्रष्टाचार व कालेधन की समस्या जस की तस रही। नोटबंदी से कई लोग पुराने नोटों के बदले नये नोट बदलने के काले धंधे में लग गये। इस तरह मोदी के इस तुगलगी फैसले ने एक नए भ्रष्टाचार को जन्म दिया। बैंकों के अधिकारी/कर्मचारी, पुलिस, नेता, व्यापारी, बड़े कारोबारी इस नये भ्रष्टाचार में खुलकर चांदी काट रहे थे।
नोटबंदी के बाद आज सरकार के दावों की क्या हकीकत है? अर्थव्यवस्था में 500 व 1000 रू0 के पुराने नोट लगभग 16 लाख करोड़ मूल्य के थे जो कुल मुद्रा के 75 प्रतिशत के लगभग थे। बैंकों में लगभग 16 लाख करोड़ रू0 वापस भी आ गया है। मतलब काला धन जब्त करने की कोई उपलब्धि सरकार के पास नहीं है। रिजर्व बैंक भी काले धन की प्राप्ती के आंकड़े देने से बचता रहा है। इससे भी बढ़कर बात यह है कि सरकार ने खुद बड़े कालेबाजारियों के लिए फिफ्टी-फिफ्टी योजना लागू कर दी। नोटबंदी के जिन फायदों को गिनाया गया था उन पर कोई असर नहीं पड़ा। नोटबंदी के दौरान हुयी आतंकी घटनाओं में आतंकियों के पास नये नोट मिले। उसी दौरान कई स्थानों पर स्कैन किये नकली नोट या चूरन वाले नोट मिले। कुछ जगहों पर तो ये एटीएम से भी निकले। भ्रष्टाचार जस का तस है। इस प्रकार नोटबंदी कालेधन पर नहीं बल्कि मेहनतकश जनता पर सर्लिकल स्ट्राइक साबित हुयी।
अब अगर नोटबंदी करने के मूल कारणों पर जाया जाये तो यह स्पष्ट हो जाता है कि इसके पीछे राजनीतिक कारण थे। सरकार व मोदी द्वारा पेश किये गये उपरोक्त दावे तो बस जनता को छलने के लिए थे। नोटबंदी का मुख्य लक्ष्य 5 राज्यों में विधानसभा चुनाव व 2019 का आम चुनाव था।
2014 के लोकसभा में किये गये वायदे मोदी द्वारा पूरे नहीं किये गये थे। मोदी के लिए ये विधानसभा चुनाव साख का प्रश्न थे। इसलिए कुछ ऐसा किये जाने की जरूरत थी जिससे ऐसा लगे कि मोदी मेहनतकश व गरीब जनता के पक्ष में हैं और अमीरों/भ्रष्टाचारियों व कालाधन रखने वालों के खिलाफ हैं। नोटबंदी से इसको साधा गया। मीडिया व सोशल मीडिया में संघी प्रचार इसी बता की तस्दीक करता है। बड़े जोर से प्रचारित किया गया कि नोटबंदी का मुख्य निशाना अमीर हैं। इससे जरूर गरीबों को परेशानी होगी लेकिन अच्छे दिन आयेंगे। मोदी की नीयत साफ है और वह कालाधन खत्म करना चाहते हैं। शोषित उत्पीड़ित जन इसी आस में रहे कि नोटबंदी से आज नही तो कल अमीरों पर चोट पड़ेगी। विधानसभा चुनावों के प्रचार में मोदी-भाजपा ने नोटबंदी को इसी रूप में प्रचार किया। चुनावों के परिणाम जो भाजपा को भी अचंभित करने वाले थे और अधिक स्पष्ट करते हैं कि नोटबंदी का यह निर्णय विशुद्ध राजनीतिक था।
पुरानी मुद्रा को वापस लेना और नयी मुद्रा को जारी करना भारत के आजादी के तुरंत बाद से होता रहा है। यह दुनिया के अन्य देशों में होता रहा है। ऐसा करने के पीछे भारी मुद्रास्फीति(या मुद्रा का मूल्य बहुत नीचे गिर जाना), जाली मुद्रा का प्रचलन और अधिक से अधिक वस्तुओं की खरीद-फरोख्त को बाजार के दायरे में लाना, टैक्स कलैक्शन बढ़ाना आदि रहा है।
मोदी सरकार के फैसले के मूल वजह राजनीतिक थी जिसकेे लक्ष्य में विधान सभा और 2019 के आम चुनाव थे। इस मूल वजह के साथ सरकार अपना कर संग्रह बढ़ाना रहा है। इसके लिए अधिक से अधिक वस्तुओं, सेवाओं को बैंकों तथा अन्य वित्तीय संस्थाओं के द्वारा संचालित करता रहा है। इसी तरह अर्थव्यवस्था को लैसकैश करने कर पूंजीवादी सरकारें ज्यादा से ज्यादा लेन-देन को निगरानी में लाना चाहती हैं। ताकि उनका टैक्स क्लैक्सन बढ़ सके।
इस तरह नोटबंदी का मोदी का यह फैसला ज्यादा राजनीतिक व कम आर्थिक था।
कालेधन, भ्रष्टाचार की समस्या पूंजीवादी व्यवस्था जन्य है। निजी संपत्ति की व्यवस्था में भ्रष्टाचार व कालाधन अपनी निजी संपत्ति को बढ़ाने का एक तरीका है। बड़े पूंजीपति ऐसा व्यापक तौर पर करते हैं और उनको सरकारों व व्यवस्था का कवच प्राप्त होता है। नोटबंदी जैसे नुस्खों से भ्रष्टाचार व कालेधन की समस्या का निदान करना इस पूंजीवादी व्यवस्था में असंभव है।
विषयः क्या आतंकवाद से निपटने के नाम पर किए जाने वाले ‘‘इनकाउंटर’’ उचित हैं?
उचित नहीं हैं
दुनियाभर की सरकारें अलग-अलग वक्त में आतंकवाद के नाम पर इन्काउंटर करती रही हैं। वैसे तो सारी ही सरकारें सभी इन्काउंटरों को उचित ठहराती हैं। इन इन्काउंटरों में मारे जाने वाले लोगों को देश की सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा बताया जाता है। परंतु ऐसे इन्काउंटरों पर हमेशा ही सवाल उठते रहे हैं। गुजरात पुलिस द्वारा इशरत जहां इन्काउंटर भी इनमें से एक है। सभी सरकारें अलग-अलग वक्त में ऐसे इन्काउंटरों से राजनैतिक फायदे उठाती रही है।
यहां तक कि सरकारें देश के अलग-अलग हिस्सों में चल रहे आंदोलनों को दबाने के लिए भी इन्काउंटर कराती रही हैं। भारत के आदिवासी इलाकों में भी सरकारें आदिवासियों द्वारा अपनी जमीन से बेदखल किये जाने के खिलाफ चलाये जा रहे आंदोलन को दबाने के लिए लंबे समय से आम आदिवासियों का इन्काउंटर करती रही है।
दो वर्ष पूर्व भी कश्मीर में मानव अधिकार संगठनों ने दो हजार से अधिक अज्ञात कब्रों का पता लगाया पर आज तक उनमें दफन लोगों का पता नहीं चला। कश्मीर में लंबे समय से हजारों लोग लापता हैं। सरकारें लगातार ऐसे लोगों को इन्काउंटर में मार देती हैै जो उनकी जनविरोधी नीतियों के खिलाफ आवाज उठाते हैं।
अतः ऐसे इन्काउंटरों को उचित नहीं कहा जा सकता है। बिना किसी उचित कार्यवाही के इन्काउंटर हमेशा ही संदेह के घेरे में रहते हैं।
-नितीश, देहरादून
इन्काउंटर नहीं होने चाहिए
जैसा कि हम सब जानते हैं कि इन्काउंटर करना कानूनी जुर्म है। इसके लिए हमारे संविधान में कठोर नियम बनाये गये हैं। इसके बावजूद भी हम आजकल इन्काउंटर की खबरें सुनते हैं। हमारी सरकार आतंकवादी कहकर बेगुनाह की जान ले लेती है। बिना यह सोचे समझे कि जिसे वह आतंकवादी कह रही है वह आतंकवादी है कि नहीं। इस तरह के इन्काउंटर गलत हैं।
भारत जिसका संविधान दुनिया का सबसे बड़ा और मजबूत संविधान माना जाता है, वहां के नागरिकों को अपने मन की इच्छा, वहां की सरकार की कार्यवाही पर सवाल उठाना व उससे जवाब मांगना उसके आतंकवादी होने का प्रमाण कैसे हो जाता है? क्यों हमें अपने ही देश में रहकर अपनी देशभक्ति का प्रमाण ‘भारत माता की जय’ बोल कर करना पड़ता है। आतंकवादी गलत होते हैं उन्हें मार देना, उनसे नफरत करना चाहिए। यह सारी बातें हमारे समाचार चैनलों, अखबारों में इस तरह से दिखाई जाती हैं कि हर नागरिक के मन में उनके विरूद्ध गुस्सा भर जाता है और वह नहीं सोच पाते कि आखिककार आतंकवादी क्यों बनते हैं? अगर आज की बात करें तो आतंकवादी वह होता है जो अपनी सरकारों की ताल में ताल न मिलाये। जो उनसे सवाल करे, जो अपने अधिकारों की मांग करें। जो उनके द्वारा किये जाने शोषण का विरोध करे।
दोस्तों, यह पूंजीवादी समाज है। यहां मजदूर मेहनतकश वर्ग का सिर्फ शोषण होता है। यहां कोई सुरक्षित नहीं है। हम सभी को एक ऐसा समाज बनाने की जरूरत है जहां कोई भी आतंक न हो। जहां किसी को आतंकवादी कहकर न मारा जाये। जहां सब सुरक्षित हों। जहां सबको मान-सम्मान का अधिकार हो और कोई किसी का शोषण न करे। यह सब समाजवाद में संभव है, जो मजदूरों का राज है। जहां सारी ताकत बहुमत के पास होगी।
-पिंकी, लालकुआं
आतंकवाद के नाम पर बढ़ता खौफ
पिछले कुछ दिनों से अचानक ही हमारी सोयी सरकार को आतंकवाद नजर आया है। उससे पहले सरकार कुंभकरण की नींद सो रही थी। दरअसल हमारी सरकारों को मजदूर विरोधी नीतियां या छात्रों से जुड़े हुए सभी मुददों को दबाना होता है, तब वह हमारे पक्ष में होने का नाटक करने लगती है। खासतौर पर तब जब से भाजपा सरकार में आयी है तो उसने जनता का शोषण बढ़ा दिया है। और जो तमाम लोग जनता के हक की बात करते हैं, उनको आतंवादियों के नाम पर गोलियों से भूना जा रहा है।
आज पूरे देश में आतंकवाद के नाम का खौफ बैठा हुआ है। जो सरकारें आतंकवाद को आज खत्म करना चाहती हैं, दरअसल वही सरकारें आतंकवाद के पैदा होने का कारण हैं। दरअसल हमारी सारी सत्ता सरकार के हाथों में है और वह केवल पूंजीवादी पार्टियों के हक में काम कर रही हैं और जनता बदहाल-बेहाल जिंदगी जीने को मजबूर है। कभी किसी चीज का टैक्स, कभी महंगाई बढ़ाते हैं तो कभी बढ़ते शोषण ने इन लोगों को अपने हाथों में बंदूक उठाने को मजबूर किया है। और कुछ आतंकवादी संगठन तो ऐसे हैं जो पूरी दुनिया में अपना भय बनाना चाहते हैं। लेकिन हमारी सरकारें इन आतंकवादियों के नाम पर अपना उल्लू सीधा करती हैं।
-रश्मि, लालकुआं
इन्काउंटर बिल्कुल उचित नहीं हैं
आतंकवाद से इन्काउंटर करके नहीं निपटा जा सकता है। आतंकवाद के नाम पर कई लोग अपनी निजी दुश्मनी निकालते हैं और इन्काउंटर करते हैं। उनका कानून भी कुछ नहीं कर पाता। कानूनी रूप से यह सिद्ध हो जाता है कि वह एक आतंकवादी या देशद्रोही है।
अगर हमें वास्तव में आतंकवाद का खात्मा करना है तो हमें उन आतंकवादियों को पकड़कर उनसे पूछताछ करनी चाहिए और उनके गिरोह को पकड़ने के लिए पूरी कोशिश करनी चाहिए। अगर सिर्फ इन्काउंटर से आतंकवाद का खात्मा होना होता तो वह शायद कई वर्ष पहले ही हो चुका होता क्योंकि इन्काउंटर पहले से होते आ रहे हैं। मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ है बल्कि इन्काउंटर करने से आतंकवाद और बढ़ता जा रहा है।
हमारे लिए ये जानना भी जरूरी होता है कि एक इंसान आखिर क्यों आतंकवादी बनता है। उसके पीछे आखिर क्या कारण है कि वो इतना बड़ा कदम उठा रहा है।
ये हम भी जानते हैं कि एक आदमी आतंकवादी पैदा नहीं होता उसके पीछे जरूर कोई बड़ा कारण होगा। और वो कारण भी जरूर गरीबी का ही होता है। हमारा समाज ही एक सीधे आदमी को गुनाहगार बनने पर मजबूर करता है। आखिर अपना परिवार चलाने के लिए उसके पास पैसे नहीं होते और वो मजबूरी मेें कुछ ऐसे कदम उठाता है जो कानूनी रूप से गुनाह होता है। और वो धीरे-धीरे इतना बड़ा गुनाहगार बन जाता है कि उसे फिर आतंकवादी का नाम दे दिया जाता हैै। और फिर कोई बड़ा अफसर उसका इन्काउंटर कर देता है। फिर उसका बेटा, भाई या दोस्त ऐसे समाज से बदला लेने के लिए वह भी आतंकवाद में चला जाता है।
अगर हमें आतंकवाद को जड़ से खत्म करना है तो हमें ऐसे समाज का निर्माण करना होगा जहां कोई अमीरी, गरीबी और ऊंच-नीच का भेदभाव न हो।
-अनुपम मिश्रा, लालकुआं
फर्जी इन्कांउटर आतंकवाद के नाम पर
भोपाल इन्काउंटर जो कि पूरी तरह फर्जी था। उसकी हर बात ये साबित करती है। लकड़ी की चाबी से सेन्ट्रल जेल का ताला खुल जाने तथा चम्म-थाली-बर्तनों से हथियार बनाकर लड़ना। और फिर चादर से सेन्ट्रल जेल की ऊंची दीवार लांघ जाना किसी भी सैन्ट्रल जेल की अभेद्य सुरक्षा में ऐसा होना अविश्वसनीय लगता है।
पर ऐसा हुआ है। भोपाल में। आतंकवाद के नाम पर इस तरीके के फर्जी इन्काउंटर कोई नई बात नहीं है। ऐसा पूर्व में भी हुआ है। किसी को भी आतंकी कहकर उसका इस तरह फर्जी इन्काउंटर क्या उचित है? जब तक अदालत में किसी पर दोष साबित ना हो जाये तब तक वह सिर्फ अरोपी है कोई आतंकवादी नहीं।
लेकिन इतनी सीधी-सादी, मोटी बात राष्ट्र भक्तों की समझ में कहां आती है। उनके लिए तो हर मुस्लिम आतंकवादी है। इन्हीं राष्ट्रभक्तों में एक गायक अभिजीत भट्टाचार्य जी एक शर्मनाक ट्वीट करके मीडिया हाउसेज की सुर्खियां बटौर चुके हैं। वे ट्वीट करते हैं ‘‘अगर ये इन्कांउटर असली हैं तो भोपाल पुलिस को सलाम और अगर ये इन्काउंटर फर्जी हैं तो भोपाल पुलिस को हजारों सलाम’’ ये खतरनाक विचार उनकी एक विशेष धर्म के प्रति नफरत को दर्शाता है। यह गायक आजकल अपने गानों की वजह से नहीं अपनी बददिमागी की वजह से चर्चा में है।
यह प्रवृति खतरनाक है। किसी भी धर्म विशेष पर ये फर्जी इन्काउंटर अपने आप को लोकतंत्र कहने वाले भारत के लिए शर्मनाक हैं।
-मनीष, हल्द्वानी
सरासर गलत
भारत में आतंकवाद के नाम पर हमेशा ही इन्काउंटर किया जाता रहा है। जो कि सरा-सर गलत है। लेकिन इस पूंजीवादी व्यवस्था में अपने निजी हितोें को साधने के लिए इन्काउंटर किया जाता है और सरकारें छूट देती हंै। आतंकवाद के नकाब के पीछे से ऐसे लोगों को किनारे लगा दिया जाता है जो उनके मुताबिक किसी काम को करने से इंकार करते हैं। पूंूजीवादी व्यवस्था इतनी पतित हो चुकी है कि खुद के बनाये कानून के खिलाफ ही काम करती है और खुद को सब के सामने पाक साफ बताती है।
पूंजीपति वर्ग पूंजीवाद को बनाये रखने के लिए और मुनाफा बटोरने के लिए खुद ही आतंकवाद को प्रश्रय देता है फिर जो उनके हिसाब से काम नहीं करते तो उन्हें आतंकवादी घोषित करता है और कानूनी किताब के मुताबिक उन्हें सबक सिखाने लगता है। इसी के साथ वो जनता को भी गुमराह करता है फिर शुरू होता है आतंकवाद से निपटने के नाम पर निजी हितों को साधने का काम।
एक तरफ जनता समझती है कि आतंकवाद से सरकारें लड़ने की कोशिश कर रही हैं और दूसरी ओर वही जनता ठगी जा रही होती है। पूंजीपतियों की आपसी लड़ाई के बीच देश की पूंजीवादी व्यवस्था द्वारा देश में या व्यवस्था में हो रहे अपराधों के खिलाफ बोलने वालों के मुंह बंद कर दिये जाते हैं, या फिर उन्हें देशद्रोही का नाम दे दिया जाता है। या फिर आतंकवादी कह कर रास्ता साफ कर दिया जाता है।
-रूपाली, नरेन्द्रनगर
इन्कांउटर उचित नहीं
आतंवाकवाद के नाम पर किये जाने वाले इन्कांउटर उचित नहीं हैं। क्योंकि यह एक साजिश है जो जनता के गुमराह कर रही है। इसकी असली वजह क्या है? ये सब पूंजीपतियों के द्वारा रचा प्लान होता है जो आतंकवाद के नाम पर जनता को गुमराह करते हैं। आतंकवाद को यही पूंजीपति वर्ग बनाये रखना चाहता है। ताकि जो व्यवस्था है वह बनी रह सके। जनता को लगे की सब परेशानियों की वजह आतंकवाद ही है। जिससे हमारे देश के सैकड़ों जवान मारे जाते हैं। ताकि जनता को लगे कि यह जो हमले हो रहे हैं इन सब की वजह आतंकवाद है।
इस मामले को अच्छी तरह समझने की जरूरत है जो हमारे देश व जनता को गुमराह कर रहा है। और हमारे गरीब, मजदूरों व किसान के बेटे जो सैनिक हैं उनका बलिदान ले रहे हैं। हमें इन सब परेशानियों को अच्छी तरह समझने की भी जरूरत है और हमें इन सब परेशानियों से कैसे निपटारा मिलेगा इस बात को भी।
-रवि, रामनगर
आतंकवाद एक पूंजीवाद जनित समस्या है
आज जिस प्रकार पूंजीवादी सरकारें आतंकवाद के खात्मे के लए तमाम भाषणबाजी करती रही हैं। चाहे वह भारत हो या कोई अन्य देेश। सभी आतंकवाद को मिटाने की बात कर रहे हैं। क्या आतंकवादी को खत्म करके आतंकवाद को खत्म कर सकते हैं? जी नहीं। आतंकवाद को खत्म करने के लिए आतंकवाद पैदा होने के कारणों को खत्म करना होगा।
साम्राज्यवादी देश पहले तो अपने आर्थिक व साम्राज्यवादी नीतियों के फायदे के लिए आतंकवाद को पैदा करते हैं और जब उनका काम खत्म हो जाये या फिर उस संगठन से उनको फायदा होने की जगह नुकसान होने लगे तब वे उसे आतंकवादी संगठन करार कर देते हैं।
भोपाल की जेल जिसे आई एस ओ द्वारा भारत की सबसे सुरक्षित जेल माना जाता था। इस सबसे सुरक्षित जेल में आठ कैदी भागने में कामयाब हो जाते हैं। जिन पर आतंकवादी होने का आरोप होता है। और भोपाल पुलिस उन आठ कैदियों को पकड़ने में कामयाब होती है। और उनका इन्काउंटर कर दिया जाता है। क्या उन निहत्थे कैदियों को पुलिस पकड़ नहीं सकती? बिल्कुल पकड़ सकती थी। दरअसल ये पूरी की पूरी घटना साजिशन थी और उसका एक ही मकसद था लोगों में असुरक्षा का भाव पैदा करना ताकि जनता पर और तीखी नजर रखी जा सके, उस पर नकेल कसी जा सके और वह यह माने की वह असुरक्षित है और उसको पुलिस और फौज की जरूरत है। आज जरूरत यही बनती है कि लोग एकजुट हों और पूंजीवादी राजनीति के समझें और उसके खिलाफ गोलबंद होकर लड़ाई लडें़। नहीं तो पूंजीवादी राक्षस किसी भी व्यक्ति को बिना उस पर दोष साबित हुए मौत के घाट उतार देगा।
-उमेश, रामनगर
पिछले समय में आतंकवादी घटनाओं में हुयी बढ़ोत्तरी ने एक बार पुनः आतंकवाद की समस्या की ओर ध्यान केन्द्रित किया है। भारत सहित पूरे विश्व में एक के बाद एक तथा भीषण आतंकी हमलों में हजारों की संख्या में बेगुनाह नागरिक मारे गये तथा लाखों की संख्या में विस्थापन का शिकार हुए।
लेकिन पूंजीवादी राज्य और सरकारें इसके समाधान के बतौर जो कोई भी कदम उठाती हैं, उससे आतंकवाद की समस्या हल होने बजाय और विकराल होती गयी है। सरकारों और राज्य का दमन इसे जरा भी थाम पाने में असफल रहा है। आतंकवाद की समस्या को हल करने का पूंजीवादी राज्य व सरकारों का एक तरीका ‘‘इन्काउंटर’’ भी है। एक लंबे समय से वह इसको आजमा रहा हैै। और इसको जायज ठहराने के लिए विभिन्न तर्कों-कुतर्काें का सहारा लेता रहा है। इसकी एक अभिव्यक्ति पिछले दिनों भोपाल के केन्द्रीय कारागार से ‘‘भागे’’ आतंक के आरोपियों के ‘‘इन्काउंटर’’ में हुयी। इन्काउंटर को भारतीय राज्य, सेना, अर्धसैनिक बल व पुलिस आत्मसात कर चुके हैं। यह उनके लिए आम बात हो गयी है। कई बार सुरक्षा अधिकारियों द्वारा निजी पदोन्नति पाने के घृणित लालच में आम निर्दोष नागरिक बलि चढ़ा दिये जाते हैं। मध्य भारत के भीतर निर्दोष आदिवासी जनों को झूठे इन्काउंटर में मारकर पुलिस/सुरक्षा अधिकारी अपने सीनों पर मेडल टांगते हैं। विभिन्न राज्यों की सरकारें भी अपने घृणित राजनीतिक स्वार्थों को परवान चढ़ाने के लिए झूठे इन्काउंटरों में लिप्त रही हैं।
दरअसल ‘‘इन्काउंटरों’’ का सहारा लेकर व उसको जायज ठहराकर पूंजीवादी राज्य यह स्वीकार कर चुका है कि वह आतंकवाद की समस्या का समाधान नहीं कर सकता। पूंजीवाद के ऐतिहासिक तौर पर प्रतिक्रियावादी हो जाने के दौर में यह बात और भी पुष्ट हो जाती है कि पूंजीवादी व्यवस्था जनित विभिन्न समस्याओं की तरह आतंकवाद की समस्या भी निरंतर विकरात होती जायेगी। ठीक इसी दौर में राज्य प्रायोजित आतंकवाद और आतंकवाद दोनों की मेहनतकश जनता को निशाना बनाये हुए हैं।
पूंजीवादी व्यवस्था के शैशवकाल में जब यह व्यवस्था सामंती शोषण-उत्पीड़न के बरक्स प्रगतिशील थी, यह प्रत्येक अपराध की जड़े सामाजिक कारणों में खोजती थी। अवधारणा के तौर पर यह स्वीकार किया जाता था कि कोई भी अपराधी स्वयं अपराधी नहीं होता। उसके अपराधी बनने का कारण समाज में विद्यमान है। ठीक इसी कारण किसी समस्या का समाधान भी वह सामाजिक तौर पर ही देखता था। पूंजीपति वर्ग के बुद्धिजीवियों ने इस अवधारणा में कई किताबें व तर्क पेश किये। लेकिन आज के इस फासीवादी रुझानों के दौर में आतंकवाद के सामाजिक कारणों को तलाशने की बकालत करने वाले को देशद्रोही व आतंक का समर्थक घोषित होने में देर नहीं लगेगी। और इससे बेहतरी की उम्मीद करना तब और बेईमानी हो जाता है जब राज्य स्वयं आतंकवादी समूहों को पैदा करता है। अपने घृणित स्वार्थों के लिए , मुनाफे के लिए अमेरिकी साम्राज्यवादी सत्ता लंबे समय से दुनिया में आतंक का निर्यात करती रही है। अपने विरोधी पूंजीवादी राज्यों, पड़ोसी देशों के आतंकी गिरोहों को टेªनिंग से लेकर हथियार तक मुहैया कराता है। लेकिन कोई पूंजीवादी राज्य या उसकी संस्थाएं यह सवाल नहीं उठाती कि आखिर आतंकी समूहों के पास फैक्टरी में उत्पादित आधुनिक हथियार कहां से आये? जाहिर है कि यह सरकारों की मिलीभगत व समर्थन के बिना असंभव है।
आतंकवाद से निपटने के नाम पर किये जाने वाले इन्काउंटर न सिर्फ अनुचित है बल्कि घोर जनवाद विरोधी हैं। यह पुलिस राज व आतंक का पर्याय हैं। कहने को तो एक लोकतांत्रिक देश में कौन अपरधी है और कौन निर्दोष इसका फैसला न्यायालय करता है। लेकिन भारतीय राज्य और उसकी पुलिस-फौज इन्काउंटरों के जरिये स्वयं ही न्यायालय की भूमिका में उतर रहे हैं। और ऐसा कर पूंजीवादी सत्ता अपने बनाये नियम-कानूनों की खुद ही धज्जियां उड़ाती है।
बढ़ते फासीवादी आंदोलन के कारण भी जनवाद को और सीमित कर राज्य को और भी दमन करने का अधिकार देने की वकालत भी हो रही है। दक्षिणपंथी राजनीति अविवेक के निकृष्ठतम स्तर पर उतरकर जनमानस को उन्मादी बनाने पर उतारू है। ठीक इसी कारण से इन्काउंटरों का पुरजोर विरोध होना चाहिए।
जाहिर है कि आतंकवाद की समस्या अन्य समस्याओं की तरह ही पूंजीवादी व्यवस्था जनित है। पूंजीवादी राज्य प्रायोजित आतंक व दमन के प्रतिक्रिया स्वरूप पैदा हुआ आतंकवाद का खात्मा तब तक संभव नहीं है जब तक पूंजीवादी राज्य द्वारा मजदूरों, किसानों, राष्ट्रीयताओं, छात्रों, आदिवासियों पर दमन, उत्पीड़न व शोषण मौजूद है।
वर्ष- 8, अंक- 1
अक्टूबर-दिसंबर, 2016
विषयः क्या हमारे देश के विकास के लिए विदेशी निवेश जरूरी है?
भारत में लूट मचाने के लिए विदेशी निवेश
वर्तमान समय में जिस प्रकार से मोदी सरकार द्वारा विदेशी निवेश को बढा़वा देने हेतु प्रचार-प्रसार किया जा रहा है, जिससे कुछ लोगों को लग रहा है कि विदेशी निवेश से भारत की काया पलट हो जायेगी, लोगों को रोजगार मिलेगा और भारत चैतरफा विकास करेगा। बहुत से लोग यह गलतफहमी पाले हुए हैं।
पूंजीपति अपनी पूंजी को सीधे तौर पर वहीं लगाता है, जहां उसे लगायी गयी पूंजी का दोगुना, तिगुना या फिर चैगुना फायदा हो। कुल मिलाके मुनाफे के लिए वह पूंजी लगाता है। वह मुनाफा किस परिस्थिति में कमा सकता है? जब वह मजदूरों की मजदूरी कम करे, उनसे कम दाम पर दुगना काम कराये। जिससे पूंजीपति को फायदा होगा।
यदि हम भारत की बात करें तो यहां पर विदेशी पूंजीपति को अपनी पूंजी लगाने में ज्यादा परेशानी नहीं होगी। सरकार द्वारा जीएसटी बिल पास कर दिया गया है। जीएसटी बिल का विपक्ष ने कुछ विरोध तो किया परंतु वो कहते हैं कि ‘‘चोर-चोर मौसेरे भाई’’ तो कुल मिलाके जीएसटी बिल पास हो गया। वर्तमान समय में मोदी सरकार द्वारा श्रम कानूनों में संशोधन विदेशी निवेश को बढ़ावा देने के पक्ष में है। भारत में बेरोजगारी इतनी है कि विदेशी निवेशकों को काम करने हेतु सस्ते मजदूर मिलना लाजमी है। वर्तमान समय में अगर भारत में बेरोजगारी के आंकड़े देखें तो लगभग 21 करोड़ लोग बेरोजगार हैं। ये संख्या तो उन लोगों की है जिनका रजिस्ट्रेशन रोजगार कार्यालय में हुआ है। अगर शिक्षित बेरोजगारी की बात करें तो 2013-14 के आंकड़ों के अनुसार 33 प्रतिशत लोग बेरोजगार हैं। जो रोजगार में लगे भी हैं तो वे भी बहुत कम वेतन पर। तो इस बेरोजगारी की भयावह स्थिति को देखते हुए पूंजीपति व सरकार घबराये हुए हैं। उन्हें डर है कि कोई बड़ा आंदोलन न हो जाये और सत्ता उनके हाथ से छिन न जाये। जिस कारण से मोदी सरकार जीएसटी के माध्यम से बेरोजगारों को रोजगार दिलाने की बातें कर रही है, जरा मोदी जी यह भी बता दें कि जिन लोगों को रोजगार मिलेगा उनकी संख्या कितनी होगी और उनको कितना वेतन मिलेगा? कितने लोगों को स्थाई किया जायेगा? इन सारे सवालों का जवाब यही है कि कुछ ही लोगों को बहुत कम वेतन पर रोजगार मिलेगा व उनसे दुगना काम लिया जायेगा। जिससे विदेशी पूंजीपतियों को फायदा होगा और वह अपनी बढ़ी पूंजी को फिर से भारत में लगायेगा। सारी पूंजी विदेशी पूंजीपति की जेब में चली जायेगी।
-उमेश, बीए द्वितीय वर्ष, रामनगर
मजदूर-मेहनतकश और गरीबी की तरफ बढ़ेंगे
विदेशी निवेश द्वारा साम्राज्यवादी देशों की पूंजी भारत के मजदूर मेहनतकशों की सस्ती श्रमशक्ति को लूटकर अपनी पूंजी और बढ़ायेगी और भारत के मजदूर और ज्यादा गरीब होंगे। इसीलिए भारत सरकार तमाम कानून बदलकर, चाहे वह शिक्षा के क्षेत्र में या फिर परिवहन या रेलवे का क्षेत्र हो या स्वास्थ्य का क्षेत्र हो या फिर श्रम कानून हों, विदेशी पूंजी को आकर्षित करने में लगी हुयी है। भारत सरकार विदेशी पूंजी को यहां लाने के लिए इतनी लालायित है कि वह तमाम विरोध प्रदर्शनों को कुचलकर या दबाकर भूमि से संबंधित या फैक्टरी लगाने से संबंधित कोई भी कानून जिससे मजदूरों को कुछ मिलता है; को बदल रही है।
विदेशी पूंजी अगर भारत में आती है तब भारत के लोगों की सस्ती श्रमशक्ति से माल बनाकर वह अकूत मुनाफा कमायेगी और भारत के लोग छले जायेंगे। जैसे खुदरा क्षेत्र में वालमार्ट जैसी कंपनियां अगर भारत में आती हैं तो तमाम छोटे दुकानदार व छोटी पूंजी तबाह होगी। इस क्षेत्र में लगी भारत की एक बड़ी आबादी बदहाल हो जायेगी। विदेश में बैठे वालमार्ट जैसी कंपनियों के मालिक और मोटे होते जायेंगे। विदेशी कंपनियां भारत में सस्ता माल तैयार कर विदेशों में महंगा बेचकर अकूत मुनाफा कमायेंगी।
यह सब भारत की सरकारें ऐसे ही नहीं कर रही हैं बल्कि भारत के पूंजीपति जो इन पार्टियों के आंका हैं, के कहने पर कर रही हैं। जिससे कि विदेशी कंपनियां अगर भारत में आती हैं तो वह बड़ी पूंजी के आने के साथ अपनी छोटी पूंजी लगाकर हिस्सेदारी कर मुनाफे में भागीदार बन जायेंगे और भारत का पूंजीपति उनके साथ-साथ अपनी भी पूंजी बढ़ायेगा।
हां, अगर भारत का पूंजीपति या फिर भारत सरकार भारत में कोई फैक्टरी खोलते हैं या फिर विश्वविद्यालय खोलते हैं तो उससे होने वाला लाभ भारत में ही रहेगा। तब भारतीयों को कुछ लाभ मिल सकने की उम्मीद है। वैसे तो भारत सरकार पूंजीपतियों की चाकरी में इतनी नतमस्तक है कि मुनाफे में चल रही सरकारी कंपनियों को बाजीगरी कर घाटे में दिखाकर ओने-पोने दामों पर देशी-विदेशी पूंजीपतियों को बेच रही है।
-उमेश, बरेली
जरूरत पूंजीपतियों को है, गरीबों को नहीं
पूंजीवादी व्यवस्था में पूंजीपति अपनी पूंजी को उस देश में लगाना चाहते हैं जहां उन्हें सबसे ज्यादा मुनाफा हो।
पूंजीपतियों की सरकारें तर्क देती हैं कि पूंजी निवेश होने से रोजगार बढ़ता है, हम नयी तकनीक से लैस होते हैं। ये सारे तर्क बेतुके हैं क्योंकि कोई भी पूंजीपति अपनी पूंजी मुनाफा कमाने के लिए लगाता है न कि रोजगार देने के लिए।
वह चाहता है कि कम लोगों को रखकर ज्यादा से ज्यादा काम लिया जाय। इससे यदि छिटपुट रोजगार सृजित होता भी है तो वहां पर काम करने की बेहद कठिन परिस्थितियां होती हैं तथा वेतन भी कम से कम दिया जाता है। आजकल विदेशी पूंजी का अधिकतम निवेश शेयर बाजार में हो रहा है। जिसके चलते कभी शेयर बाजार में ऊंचाई पर तो कभी गिरावट दिखती है। जिससे किसी देश की अर्थव्यवस्था पर प्रभाव पड़ता है।
विदेशी निवेश की आवश्यकता देश के पूंजीपतियों को है, गरीबों-मेहनतकशों को नहीं। हमारे देश के विकास के लिए समाजवाद की आवश्यकता है।
-मुकेश, काशीपुर
देश का विकास तो सिर्फ व्यवस्था परिवर्तन से ही संभव है
देश के विकास के लिए विदेशी निवेश की आवश्यता मेरे हिसाब से सही नहीं है। क्योंकि देश का विकास या पूंजीपतियों का विकास यह एक प्रश्न है। विकास किस वर्ग का होगा-पूंजीपति वर्ग का, मजदूर-किसानों का या फिर मध्यवर्ग का? कहीं यह विकास वही तो नहीं जो दो सालों से मोदी कर रहे हैं। ये विकास के नाम पर मजदूर, किसान और मध्यवर्ग का भीषण शोषण कर रहे हैं। कभी जनधन योजना के नाम पर तो कभी सफाई योजना के नाम पर तो कभी मेक इन इंडिया के नाम पर। ये व्यवस्था किसी का विकास नहीं कर सकती सिर्फ और सिर्फ मजदूर, किसान और मध्यवर्ग को विकास के नाम पर छलने का काम कर सकती है। देश का विकास न तो देशी पूंजी से होगा और न विदेशी पूंजी से। देश का विकास तो सिर्फ व्यवस्था परिवर्तन से ही संभव हो सकेगा।
सभी छात्र-नौजवानों, किसानों, मजदूरों और मध्यवर्ग को एकजुट होकर व्यवस्था परिवर्तन अर्थात समाजवाद के लिए संघर्ष शुरु कर देना चाहिए तभी देश का विकास संभव हो सकेगा।
विदेशी निवेश कुछ हद तक ठीक है
हमारे देश के लिए विदेशी निवेश जरूरी भी है। जब हमारे देश में कुछ ऐसे उद्योग लगाये जायेंगे जिससे हमारी जनता को एक सुविधापूर्ण रोजगार व सुरक्षा मिले तब तो हमारे देश के लिए जरूरी है। यदि वह सिर्फ अपने मुनाफे के लिए ही निवेश हमारे देश में कर रहा है तो हमें इसका विरोध करना चाहिए। क्योंकि इससे केवल पूंजीपतियों का ही भला होता है। हमारे देश में बड़ी-बड़ी इमारतें बनती हैं, यह देश का विकास है पर इससे कहीं ज्यादा गरीब हमारे देश में झोपड़ियों और झुग्गियों में रहते हैं। इससे हमें समझना होगा कि हमारे देश में किस तरह का विदेशी निवेश हो रहा है।
अगर वह हमारे देश में ऐसा उद्योग लगा रहा है जिससे यहां की जनता को अच्छा व सुरक्षित रोजगार मिल रहा है तो कुछ हद तक हमारे देश में इसे स्थापित कर लेना चाहिए। ताकि हमारे बेरोजगारों को कुछ अच्छा रोजगार मिल सके।
-रवि, बीए द्वितीय, रामनगर(नैनीताल)
परचम की अवस्थिति
विदेशी निवेश देश की लूट के अलावा कुछ नहीं है
पूंजीवादी व्यवस्था के अंतर्गत पूंजी ही संचालक शक्ति होती है। और इस पूंजी के मालिक पूंजीपति वर्ग ही सम्पूर्ण व्यवस्था का मालिक होता है। समग्र नीतियां व आचार-व्यवहार पूंजीपति वर्ग के हित या पूंजी के हित के अंतर्गत ही संचालित होता है।
यूं तो पूंजीवादी सरकारें देश के विकास के लिए विदेशी निवेश को जरूरी बताती हैं। लेकिन उदारीकरण के दौर में पूंजीवादी सरकारें और भी बेशर्मी के साथ विदेशी निवेश का गीत गाने लगीं। एक समय था जब साम्राज्यवादी और विदेशी पूंजी के विरुद्ध संघर्ष कर आजादी हासिल करने वाले देशों की सरकारें विदेशी निवेश को राष्ट्र का अपमान समझती थीं और इसे देश की जनता पर भरोसा न होने के रूप में देखा जाता था। लेकिन उदारीकृत पूंजीवाद के दौर में पतित पूंजीपति वर्ग और उसकी सरकारें गुलाम बनाने वाली विदेशी पूंजी को आमंत्रित करने के होड़ में व्यस्त हैं। सबसे दिलचस्प बात यह है कि एक समय में ‘स्वदेशी जागरण मंच’ का ढोल पीट आसमान सर पर उठाने वाले संघी आज सरकार में विराजने के बाद विदेशी निवेश को भारत में आमंत्रित करने के लिए दुनिया भर की खाक छान रहे हैं। ये अलग बात है कि दुनियाभर में भटकने के बाद भी संघी प्रधानमंत्री विदेशी निवेश को आकर्षित कर पाने में लगभग असफल रहे।
जहां तक विकास के लिए विदेशी निवेश को जरूरी बताने की बात है तो यह पूंजीवादी पार्टियों व पूंजीपति वर्ग के विचारकों द्वारा बोले गये बहुत से झूठों में से एक है। दरअसल पूंजीवादी वर्गीय व्यवस्था के अंदर विकास भी वर्ग सापेक्ष होता है। पूंजीपति वर्ग अपने विकास को देश का विकास व जनता का विकास कहकर प्रचारित करता है। एक वर्ग के नाते पूंजीपति वर्ग में वह साहस नहीं है कि वह सच को बयां कर सके। मुख्यतः देशी पूंजीपति वर्ग विदेशी पूंजी को देश में आमंत्रित कर उनसे वह उच्च तकनीक प्राप्त करता है जो उनके पास नहीं है। देशी पूंजीपतियों का हित जहां तकनीक हासिल कर और भी सस्ता माल बनाकर अपने मुनाफे को बढ़ाना होता है, वहीं विदेशी पूंजी का हित भारत के सस्ते श्रम व बाजार में हिस्सेदारी कर अपना मुनाफा बढ़ाना होता है। इस तरह विदेशी निवेश के जरिए देशी व विदेशी पूंजीपतियों दोनों के हितों की पूर्ति हो जाती है।
आजादी के बाद जब भारत का पूंजीपति आर्थिक तौर पर कमजोर अवस्था में था तो उसने ‘बंद’ अर्थव्यवस्था का रास्ता अपनाया। हांलाकि यह विदेशी पूंजी के लिए पूर्णतः बंद कभी नहीं था। लेकिन धीरे-धीरे भारत के पूंजीपति आर्थिक तौर पर मजबूत होते गये और आज दुनिया भर में निवेश करने की हैसियत रखते हैं। अस्सी के दशक के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था को विदेशी निवेश के लिए क्रमशः खोला गया। 1991 में नई आर्थिक नीतियों के तहत इसमें गुणात्मक बदलाव आया। आज 26 वर्षों के बाद हम देखते हैं कि अर्थव्यवस्था के समग्र क्षेत्र में विदेशी निवेश हो रहा है। शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे मूलभूत क्षेत्र भी इससे बचे नहीं रहे। इन 26 वर्षों में विदेशी निवेश व उदारीकरण ने जहां एक तरफ एक छोटे से हिस्से का विकास किया वहीं करोड़ों-करोड़ मजदूर-मेहनतकशों, किसानों-छात्रों आदि को बर्बादी की ओर धकेला।
दरअसल पूंजी का चरित्र ही लूट और उत्पीड़न है। छोटी संपत्ति को हड़पकर तथा मजदूरों के निर्मम शोषण के दम पर ही पूंजी में इजाफा होता है। यही उद्देश्य विदेशी पूंजी का भी है। यहां के सस्ते श्रम का शोषण कर वे भारी मुनाफा अर्जित करते हैं। चीन में भी सस्ते श्रम के कारण भारी विदेशी निवेश है। लेकिन वहां के मजदूर-मेहनतकश पूंजी के निर्मम शोषण से कराह रहे हैं तथा मुनाफे की हवस औद्योगिक दुर्घटनाओं के जरिये उनकी जानें ले रही हैं।
हद दर्जे की बात यह है कि विदेशी निवेश के रूप में होने वाले एफ.डी.आई. व एफ.पी.आई. के अंतर को अब मोदी सरकार ने खत्म कर दिया है। एफ.डी.आई. के तहत जो विदेशी निवेश होता था वह उद्योग व आधारभूत ढांचा खड़ा करने के रूप में कुछ रोजगार सष्जन करता है और विदेशी पूंजी अपनी मर्जी से भाग भी नहीं पाती है। लेकिन एफ.पी.आई. के तहत होने वाला विदेशी निवेश सट्टेबाज शेयर बाजार में लगता है। जो बुरे वक्त में रातों-रात चंपत हो सकती है। जैसा कि एशियन टाइगर्स के नाम से पहचाने जाने वाले देशों के शेयर बाजार से विदेशी पूंजी के पलायन से उनकी अर्थव्यवस्था ढह गयी।
और आज उदारीकरण के दौर में मोदी सरकार देशी-विदेशी पूंजी की सेवा में इतनी नतमस्तक है कि उसने एफ.डी.आई. व एफ.पी.आई. के फर्क को खत्म कर विदेशी पूंजी के हाहाकर मचाने की पटकथा लिख दी है। आसमान छूते शेयर बाजार कभी भी लुटेरी विदेशी पूंजी के पलायन से जमीन पर गिर सकते हैं। और उनको ऐसा करने से न तो कोई रोक सकता है न इसकी कीमत वसूल सकता है। सट्टेबाज पूंजी को खुली छूट देकर देशी-विदेशी सरकारें निवेश का संकट दूर कर रही हैं। सट्टेबाज पूंजी को खुली छूट देना परजीवी पूंजीवाद के पतित होने का एक अन्य उदाहरण है।
इस प्रकार विदेशी निवेश देश की जनता के श्रम की लूट, संसाधनों की लूट के अलावा अन्य कुछ नहीं है। देश का विकास न उनका मकसद है और न ही इच्छाशक्ति है, यह तो बस जनता को मूर्ख बनाने के लिए बोले गए सौ झूठों में से एक है। आज देश के विकास की एकमात्र शर्त है; मजदूरों-मेहनतकशों का राज समाजवाद की स्थापना। जब मेहनतकश जनता शासक होगी तो वह अपना व अपने देश के विकास अपने फौलादी हाथों व उपजाऊ मस्तिष्क से करेगी।
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