वर्ष 15, अंक 1
अक्टूबर - दिसम्बर
राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 के तहत पाठ्यक्रमों से अज्ञानी बनाने की तैयारी
कभी कोई गलत बात कहे तो तुरंत जवाब मिलता है- ‘‘थोड़ा पढ-लिख लिए होते’’, ‘‘किताबें पढ़ते तो सही-गलत को समझ जाओगे’’। पर अब एनसीईआरटी के पाठ्यक्रमों (सिलेबस) में ऐसे बदलाव हो रहे हैं, जिसके आधार पर कह सकते हैं कि ‘‘किताब पढ़ोगे तो मूर्ख बनोगे’’। राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 जारी होने के बाद पाठ्यक्रमों में ऐसे बदलाव जोरों पर हैं।
हालिया बदलावों में एनसीईआरटी ने ‘चन्द्रयान-3’ की सफलता का श्रेय नरेन्द्र मोदी को दे दिया। नये पाठ्यक्रम में कहा गया है कि ‘चन्द्रयान-2’ की असफलता के बाद वैज्ञानिक निराश हो गये तो नरेन्द्र मोदी ने वैज्ञानिकों का साहस बढ़ाया और एक बार और प्रयास करने को कहा। वैज्ञानिकों ने पिछले अनुभव से सीख लेकर अपने काम में सुधार किया ताकि ‘लैंडर’ चन्द्रमा की सतह पर सफलतापूर्वक उतर सके।
यह कक्षा-1 व 2 के लिए तैयार मॉडयूल में दिया गया है। वैज्ञानिक खोजों में प्रयोग करना, प्रयोग का असफल होना और फिर सफलता के लिए सुधरे हुए नये प्रयोग करना, सामान्य वैज्ञानिक तरीका है। जिसे बच्चा-बच्चा जानता है। इसमें प्रयास करने वाले वैज्ञानिक की जगह हौंसला देने वाले को बेवजह ज्यादा तवज्जो दी जा रही है।
‘चन्द्रयान-3’ के वैज्ञानिकों का 17 माह तक वेतन रोके रहना, बजट जारी न करना, वैज्ञानिकों का उत्पीड़न करना था, हौंसला बढ़ाना नहीं। पाठ्यक्रम में ऐसी बातें डालने का विचार गुजरात के स्कूलों में ‘बाल नरेन्द्र’ की कहानियों के भारी मजाक बनने के कारण जारी किये गये होंगे। जिसमें मगरमच्छ के बच्चे को उठा लाये बाल नरेन्द्र की कहानी कपोल कथा ही लगती है। अब नरेन्द्र वयस्क है वह वैज्ञानिकों का हौंसला ‘‘बढ़ा’’ कर चन्द्रयान भेज देता है। ऐसी शिक्षा से प्रयोग करने के स्थान पर ‘‘हौंसला’’ बढ़ाने वाले वैज्ञानिक ही बन पायेंगे। ऐसे वैज्ञानिकों से देश में विज्ञान का बेड़ा गर्क करने से कोई नहीं रोक पायेगा।
प्राथमिक शिक्षा के अलावा माध्यमिक शिक्षा पाठ्यक्रम में भी ऐसे बदलाव किये गये हैं। नये पाठ्यक्रम में उड़ने वाले वाहनों का निर्माण प्राचीन काल में ‘वैमानिक शास्त्र’ के जरिये ही करवा दिया गया। वेदों में विभिन्न देवताओं के पहियों वाले रथों पर जाने का उल्लेख मिलता है, लेकिन ये रथ उड़ भी सकते थे। रामायण के हवाले से पुष्पक विमान को उदाहरण के तौर पर पेश किया गया है। यह उड़ने वाला रथ था। इसके वास्तुकार (इंजीनियर) विश्वकर्मा थे। जिन्होंने सूर्य की किरणों से ब्रह्मा के लिए यह विमान बनाया। ब्रह्मा ने कुबेर को दिया। रावण ने कुबेर की लंका पर कब्जा कर लिया और अपने निजी वाहन के रूप में इसका इस्तेमाल किया।
एनसीईआरटी के पाठ्यक्रमों में इन बदलावों से शिक्षा और ज्ञान-विज्ञान को बर्बाद करने की तैयारी की जा रही है। अतीत का यह फूहड़ गौरवगान प्राचीन काल की कुछ वैज्ञानिक उपलब्धियों को भी नजरअंदाज करने की ओर ले जायेगा। प्राचीन काल की ऐसी कपोल कथाओं को पीछे छोड़कर शून्य, दशमलव जैसी खोजों को भारत सहित दुनियाभर के ज्ञान-विज्ञान ने अपनाया। लेकिन संघ-भाजपा की आधुनिक ज्ञान-विज्ञान से दुश्मनी किसी से छिपी नहीं है।
अभी तक संघ द्वारा संचालित स्कूलों में ज्ञान-विज्ञान के साथ ऐसी अज्ञानतापूर्ण बातें सिखायी जाती थीं। अब राष्ट्रीय शिक्षा नीति के जरिये पूरे देश में ही ऐसी मूर्खतापूर्ण बातें शिक्षा में डालने की कोशिश की जा रही है।
शिक्षा में किये जा रहे ऐसे बदलावों का विरोध किया जाना जरूरी है। ऐसे बदलावों का आधार राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 है। इसलिए राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 को ही निरस्त करने का संघर्ष करना होगा।
जख्मों पर फिर नये जख्म देती मणिपुर सरकार
3 मई को मणिपुर में प्रदर्शन के बाद मैतई-कूकी समुदायों के बीच हिंसा भड़क उठी। इस हिंसा को रोकने के राज्य सरकार ने कोई खास प्रयास नहीं किये। इसको लेकर राज्य की भाजपा सरकार और मुख्यमंत्री एन.बीरेन सिंह की काफी आलोचना हुई। 3 मई को ही राज्य में इंटरनेट सेवायें बन्द कर दी गयी, जिन्हें वापस 23 सितम्बर को शुरू किया गया। इंटरनेट सेवा शुरू होने के बाद लापता दो स्कूली छात्रों की हत्या की तस्वीरों के सामने आने के बाद प्रदर्शन कर रहे छात्रों का मणिपुर पुलिस, रैपिड एक्शन फोर्स और सैन्य बलों ने बुरी तरह दमन किया।
वैसे ज्यादातर मामलों में मैतेई समुदाय के लोगों ने कूकी समुदाय के लोगों पर हमला बोला। कूकी समुदाय के लोगों को घाटी से खदेड़ दिया गया। उनकी महिलाओं से बलात्कार हुए। कई कूकी युवक मारे गये। पर इस मामले में मारे गये छात्र मैतेई समुदाय के थे उनकी हत्या कूकी समुदाय के लोगों ने की या किसी और तरीके से हुई इसकी कोई पुख्ता जानकारी नहीं है।
लिनथोइंगांबी हिजाम, 17 वर्ष और फिजाम हेमजित, 20 वर्ष के थे। ये जुलाई से लापता थे। इंटरनेट सेवाएं शुरू होने पर इनकी मौत की पुष्टि करने वाली फोटो सामने आयी तो स्कूली शिक्षक-छात्रों के बीच निराशा फैल गयी। लिनथोइंगांबी हिजाम के स्कूल में शोक मनाते हुए सबके मन में एक ही सवाल था- ‘‘उन्होंने क्या गलत किया था।’’ हताशा और शोक के माहौल में स्कूली छात्र-छात्रा और शिक्षकों ने मानव श्रृंखला बनायी। पुलिस ने स्कूल के सामने छात्रों पर बुरी तरह लाठीचार्ज किया, आंसू गैस के गोले छोड़े। इसमें 40 छात्र-छात्रा घायल हुए।
इसके बाद 26 सितम्बर को राज्य विद्यालयी शिक्षा निदेशक का आदेश आता है कि 27 व 29 सितम्बर को सभी सरकारी/सरकारी सहायता प्राप्त/निजी स्कूल बन्द रहेंगे। इसने छात्रों की नाराजगी को बढ़ा दिया।
छात्रों ने बताया कि ‘‘हम महसूस कर रहे थे कि हमें साथ आना चाहिए और रैली आयोजित करनी चाहिए।’’ ‘‘हम केवल यह चाहते हैं कि मुख्यमंत्री यह भरोसा दें कि लिनथोइंगांबी और हेमजीत को न्याय मिलेगा। हम चाहते हैं कि मुख्यमंत्री हमारी चिंताओं को जानें और सुरक्षाबलों द्वारा छात्रों की निर्मम पिटाई करने वालों पर कार्यवाही की जाए।’’
बच्चे अपनी स्कूल यूनिफार्म और पहचान पत्र (आईडी कार्ड) में प्रदर्शन में शामिल थे। यूनिफार्म और आईडी कार्ड भी सुरक्षाबलों के कहर से छात्र-छात्राओं को नहीं बचा सका
पुलिस अधिकारियों ने थोड़े बल प्रयोग की बात स्वीकारी है। लेकिन मेडिकल रिपोर्ट में पेलेट बुलेट के करीब से लगने से गंभीर चोट लगने की बात सामने आयी है। वीडियों में पुलिस बल के बर्बर लाठीचार्ज, आंसू गैस के गोले, धुंआ करने वाले गोले के उपयोग के तथ्य साफ हैं।
मुख्यमंत्री एन.बीरेन सिंह जातीय दंगों को रोकने में बुरी तरह असफल रहे। मैतेई लोगों को भड़काकर दंगे कराने में उनकी भूमिका मानी जाती रही है। इस मामले ने साबित किया कि उन्हें अपनी राजनीतिक गोटी सेट करने से मतलब था। मैतेई समुदाय के मारे गये लोगों से भी उन्हें कोई सहानुभूति नहीं है। इसीलिए सरकार अब शोकाकुल छात्रों-शिक्षकों के ऊपर भी पुलिस बल से बर्बर हमले करा रही है। निर्मम हत्या से दुखी, पीड़ित छात्रों की न्याय की मांग को भी सरकार बुरी तरह कुचल रही है।
मैं भरोसे उसके
- शेखर चन्द्
1) मैं बस उसके भरोसे हूं।
क्योंकि सर्व शिक्षा अभियान के तहत शिक्षा मुहय्या कराता है।
फिर मुझे क्यों लगता है कि शिक्षा तो आधी-अधूरी मिल रही है। जैसे शिक्षा में कटौती, फीस में वृद्धि, ज्ञानपीठ के कपाट बन्द होना, शिक्षा का भगवाकरण करना, छात्रों का मानसिक तनाव, यहां तक कि छात्रों का आत्महत्या करना, मुझे शिक्षित नहीं अशिक्षित बनाया जा रहा है, फिर मैं क्या करूं?
2) नहीं-नहीं मैं उसके भरोसे हूं।
मैं आजाद देश का आजाद नागरिक हूं।
फिर मुझे क्यों लगता है कि मैं गुलामी के चंगुल में कैद हूं। नौकरी मांगता हूं तो मेरे पीठ पर सरकारी बेंत छाप देते हैं। डिग्री पर लाल इंक फेर देते हैं। फिर ‘‘सरकार का नारा स्वरोजगार’’ में फड़-खोखे से स्वरोजगार करता हूं तो साम्राज्यवादी देशों के आयोजनों के चलते हमें उजाड़ दिया जाता है। न रोजगार देते हैं, न स्वरोजगार करने देते हैं, तो फिर क्या करूं?
3) नहीं-नहीं मैं उसके भरोसे हूं।
किसानों को कर्जमुक्त होने के लिए बड़ी-बड़ी योजनाओं का आगाज किया है।
फिर मुझे क्यों लगता है कि ये योजनाएं अभी बन ही रही हैं, लागू नहीं हुई हैं। ट्रैक्टर देकर हमारी पुरानी सभ्यता (हल) का हथियार छीन लिया। नई तकनीक की आड़ में हस्तकला के औजार छीन लिए। 500 ग्राम कीटनाशक ने एक कुन्टल अनाज छीन लिया। सरकारी मण्डियों को लुटेरों को देने की तैयारी में हैं। उनकी तकनीक की कीमत दिन-ब-दिन आसमान को छू रही है और हमारी अनाज की कीमतों का वजन दिन-ब-दिन कम होता जा रहा है। मैं किसान से सर्वहारा हो गया हूं, अब क्या करूं?
4) नहीं-नहीं मैं बस उसके भरोसे हूं।
क्यों न हूं क्योंकि हमारा देश विश्वगुरू बनने के आखिरी पायदान पर है।
फिर सोचता हूं क्या यह देश, उसके नागरिक, मजदूर-मेहनतकश, महिलायें, अल्पसंख्यक, गरीब, आदिवासी, छात्र, नौजवान, अपनी मूल समस्याओं से निजात पायेंगे? क्या महिलाओं के साथ होने वाली छेड़खानी, बलात्कार जैसी अमानवीय घटनायें बन्द हो जायेंगी? क्या अल्पसंख्यकों पर जबरन तानाशाही बन्द हो जायेगी? क्या अतिक्रमण के नाम पर मजदूर-मेहनतकश आवाम को उजाड़ना बन्द हो जायेगा? क्या अपने जनवादी अधिकारों के लिए लड़ने वालों पर फर्जी मुकदमे बन्द हो जायेंगे? यह मुश्किल ही नहीं असम्भव है। क्या हमें ऐसा ‘‘विश्वगुरू’’ वाला देश चाहिए। यह खुली आंखों का सपना है तो अब क्या करें?
5) लेकिन मैं अब उसके भरोसे नहीं हूं। मैं खुद के भरोसे, इस समाज के भरोसे हूं। नये समाज का निर्माण करना, शोषक सत्ताधारी को उखाड़ फेंकना, वह समाज जिसमें पूंजीवाद की नयी कोपलें निकल रही हैं। उसे जो हमारे दुःखों का मूल कारण है, समूल नष्ट कर देना अनिवार्य हो गया है। हमारे महान शिक्षकों के मार्ग पर चलकर एक समाजवादी समाज का निर्माण करना, जिसमें हर वर्ग के दुःखों का निवारण संभव है। हम सब उन दुःखों के निवारण के लिए संकल्पबद्ध हों और समाजवादी समाज का निर्माण करें।
वर्ष 14, अंक 1
अक्टूबर - दिसम्बर
कौन हूं मैं
- शेखर, हल्द्वानी
कौन हूं मैं
कुछ भी नहीं
लेकिन बहुत कुछ भी हूं मैं
हमने अपनी लाशों पर शासक बना दिये
वीर-जवानों की शहादतों ने हुजूर बना दिये
हमने अपने ताबूतों को जिन्दों पर लुटा दिया
फिर भी पूछते हो कौन हूं मैं
सड़कों पर पड़े मेरे लहू ने मन्दिर बना दिये
मेरे अंगूठे की स्याही ने सरताज बना दिये
छाले भरे हाथों ने हल चलाकर भरपेट सुला दिये
फिर भी पूछते हो कौन हूं मैं
देश की सरहदों पर बम-बारूद को गले लगा लिया
सरहदों को घर और गोलियों को निवाला बना लिया
अपने चंद अरमानों को ताबूतों में सुला दिया
फिर भी पूछते हो कौन हूं मैं
साहब किसान हूं धरती को चीर कर जीवन पैदा करता हूं
कड़कती धूप, थरथराती ठंड में खेतों को लहराता हूं
मिट्टी को जिन्दगी बनाते-बनाते जिन्दगी को ही मिट्टी में मिला दिया
फिर भी पूछते हो कौन हूं मैं
मैं अपने ही देश में बेकार बैठा हूं
रोजी-रोजगार नहीं है हताश बैठा हूं
मैं शमशान हूं कोरोना काल का बोझ लिए बैठा हूं
हर दर्द, हर परेशानी, हर आश को दबाये बैठा हूं
साहब, आपका सताया और दुत्कारा हुआ सवाल बैठा हूं
अब तुम ही बताओ कौन हूं मैं
कुछ भी नहीं
लेकिन बहुत कुछ भी हूं मैं
दलित युवक की हत्या के विरोध में प्रदर्शन
- रवि
उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के पनुवाधौखन गांव के दलित युवक जगदीश की सवर्ण जाति की लड़की से प्रेम विवाह करने पर लड़की के सौतेले बाप-भाई, मां व कुछ सवर्ण मानसिकता से लैस दबंगों ने विगत 1 सिंतबर 2022 को निर्मम हत्या कर दी। जगदीश अपने परिवार के भरण पोषण के लिए प्लंबर का काम करते थे। परिवार में बूढ़ी मां, एक बहन और दो छोटे भाई के भरण-पोषण की जिम्मेदारी जगदीश के कंधों पर ही थी।
जगदीश उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ता भी थे। उनकी समाज में एक जागरूक नौजवान की छवि थी। एक दिन उक्त लड़की अपने सौतेले पिता-भाई के उत्पीड़न से परेशान हो भिकियासैंण जगदीश के कमरे पर आ गई। इस बीच परिवार की समस्याओं से निजात दिलाने के दौरान उन्हें परस्पर प्रेम हो गया। दोनों ने शादी करने का फैसला किया। 21 अगस्त 2022 को दोनों ने अल्मोड़ा के एक मंदिर में प्रेम विवाह कर लिया।
जब इन दोनों के विवाह की बात लड़की के सौतेले बाप-भाई व मां को पता चली तो वे इन दोनों के जान के दुश्मन बन बैठे। इस स्थिति को भांप दोनों ने 27 अगस्त को जिला मुख्यालय अल्मोड़ा में एसएसपी को अपनी सुरक्षा के लिए प्रार्थना पत्र दिया। साथ ही नजदीक की चौकी व थाने में भी सुरक्षा हेतु प्रार्थना पत्र दिया। जिस पर स्थानीय पुलिस ने कोर्ट का आर्डर लाने पर ही सुरक्षा देने की बात कही।
यहां पुलिस व स्थानीय शासन-प्रशासन की लापरवाही जगजाहिर हुई। जहां दो बालिग लोगों के विवाहित जोड़े को सुरक्षा देने की जगह उन्हें सवर्ण मानसिकता के हत्यारों के आगे बेबस छोड़ दिया। प्रकारांतर से यहां पर पुलिस व प्रशासन की भी सवर्ण मानसिकता खुलकर सामने आ गई।
देश की आम परिस्थितियों के मद्देनजर यह एक गंभीर मामला था। जहां देश भर में दलितों पर हमले हो रहे हैं। कहीं बारात ले जाने के रास्ते को लेकर तो कहीं सवर्णों के बगल में बैठकर खाने, तो कहीं मटके से पानी पी लेने जैसी मामूली घटनाओं पर भी दलितों का उत्पीड़न-हत्या हो रही हैं। यह संघ-भाजपा के तथाकथित हिन्दू राष्ट्र मंे दलितों की सामाजिक स्थिति की बानगी भर है।
1 सितंबर को जगदीश की हत्या के बाद उसे न्याय दिलाने के लिए विभिन्न जन संगठनों ने व्यापक आंदोलन किये। अल्मोड़ा, रामनगर, हल्द्वानी, काशीपुर, भिकियासैंण, रूद्रपुर, लालकुआं आदि जगहों पर प्रदर्शन हुए। ऐसा ही एक बड़ा प्रदर्शन भगत सिंह के जन्म दिवस से पहले दिन 27 सिंतबर को अल्मोड़ा में ‘मुख्यमंत्री-सांसद-विधायक आंखें खोलो, चुप्पी तोड़ो’ हुआ। लगातार हुए प्रदर्शनों के दबाव में हत्यारोपी पिता, भाई, मां व एक अन्य को गिरफ्तार कर लिया गया। लेकिन प्रदर्शन की अन्य मांगों-जगदीश के परिवार से एक सदस्य को सरकारी नौकरी देने, सुरक्षा देने से मना करने वाले एसएसपी और डीएम को बर्खास्त करने व उचित मुआवजा देने को अभी तक भी पूरा नहीं किया गया है। इन जायज मांगों को पूरा न करना राज्य की भाजपा सरकार के दलित विरोधी चरित्र को ही दिखाता है।
अंकिता भंडारी हत्याकाण्ड
- प्रियांशु
हाल में ही उत्तराखण्ड में हुए अंकिता हत्याकाण्ड ने हमारे समाज की हकीकत को सामने ला दिया है। यह पूंजीवादी समाज कितना पतित हो चुका है, यह इसकी भी एक बानगी है। उत्तराखण्ड को आम तौर पर सुरक्षित माना जाता है। यह आम धारणा है कि यह महिलाओं के लिए एक सुरक्षित स्थान है। लेकिन अंकिता की दर्दनाक हत्या ने इन भ्रमों को तोड़ दिया है।
अंकिता भण्डारी 18 सितंबर से लापता थी। उसका परिवार गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखवाने के लिए रोज थाने के चक्कर लगा रहा था। लेकिन थाने में बैठे खाकी वर्दी वाले रिपोर्ट लिखने को तैयार नहीं थे। चार दिनों बाद ही मामला दर्ज हो पाया।
सोशल मीडिया और कुछ क्षेत्रीय यू-टयूब न्यूज चैनलांे के माध्यम से मामला जब उछला तो मामले पर कार्यवाही आगे बढ़ी। पता चला कि अंकिता को मौत के घाट उतारने वाले वही लोग थे जिनके लिए वह काम कर रही थी। हत्याकाण्ड का मुख्य आरोपी पुलकित आर्य है जो भाजपा के एक रसूखदार नेता का बेटा है। पुलकित आर्य ने अंकिता को वीआईपी गेस्ट को ‘‘विशेष सर्विस’’ देने का दबाव डाला। जब अंकिता ने वेश्यावृति करने से मना किया और पुलकित का भण्डाफोड करने की बात की तो पुलकित ने उसे अपने साथियों के साथ मिलकर मौत के घाट उतार दिया। आम जनता में यह बात चल रही है कि यह वीआईपी जिसको ‘‘विशेष सर्विस’’ देेने का अंकिता पर दबाव बनाया जा रहा था वह भाजपा या आरएसएस का कोई बड़ा नेता है।
प्रदेश में भाजपा की सरकार है। प्रदेश के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी आरोपियों को कड़ी से कड़ी सजा दिलाने की कोरी बातें करते हैं। लेकिन दूसरी तरफ आरोपी के रिजार्ट में बुलडोजर चलाकर सबूतों को मिटाने का काम करते हैं। वह उस कमरे को भी जमींदोज करवा देते हैं जहां अंकिता रहती थी। इस तरह सबूतों को मिटाकर न सिर्फ अंकिता के हत्या के आरोपियांे को बचाया जा रहा है बल्कि भाजपा-आरएसएस के बड़े नेता को भी बचाया जा रहा है।
आज अपराधियों को बचाने का यह सिलसिला सिर्फ अंकिता के मामले में ही नहीं बल्कि हर पीड़िता के मामले में देखने को मिल रहा है।
गौरतलब है कि आजादी की 75वीं वर्षगांठ पर लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी महिलाओं के अपमान को लेकर पीड़ा जाहिर करते हैं। हालांकि इसे संयोग कहे या विडंबना परंतु बीते कुछ वर्षों में महिला हिंसा के केस बढ़ते जा रहे हैं। भाजपा के छोटे-बडे़ नेताओं के नाम एक के बाद एक महिला उत्पीड़न के कई मामले में सामने आ रहे हैं। साथ ही हम यह भी देख सकते हैं कि पितृसत्तात्मक और अश्लील उपभोक्तावादी संस्कृति को शासक वर्ग दिनों-दिन बढ़ावा दे रहा है। यह पूंजीवाद ही है जो समाज में हर चीज को माल के रूप में पेश करता है। यहां तक कि यह महिलाओं को भी माल की तरह पेश करता है। यहीं हमें अंकिता के मामले में भी देखने को मिलता है, जहां उसे 10 हजार रूपये देकर ‘‘स्पेशल सर्विस’’ करने का दबाव डाला जाता है और उसके मना करने पर मालिक पुलकित द्वारा उसे मौत के घाट उतार दिया गया।
ऐसी स्थिति में हमें एकजुट होकर पंूजीवाद और महिला विरोधी संस्कृति के खिलाफ संघर्ष को और तीखा करने की जरूरत है
वर्ष 13, अंक 3
अप्रैल -जून 2022
हल्द्वानी मेडिकल कालेज में रैगिंगः लीपापोती में लगा प्रशासन
राजकीय मेडिकल कालेज, हल्द्वानी (नैनीताल) बीते मार्च माह में रैगिंग के कारण काफी सुर्खियों में रहा है। 3 मार्च को एमबीबीएस प्रथम वर्ष के 27 छात्रों के एक समूह का वीडियो सोशल मीडिया में वायरल हुआ। जिसमें सभी छात्रों के सिर गंजे थे। वह सभी एक लाइन बनाकर अपने कैंपस के भीतर चल रहे थे। छात्रों के पीछे मेडिकल कालेज के सुरक्षाकर्मी भी चलते हुए दिखाई दिए। स्थानीय समाचार पत्रों ने इस मामले को छापा। देखते ही देखते यह खबर राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियों में आ गई।
इस घटना के सामने आने के बाद मेडिकल कालेज प्रशासन कुछ कहने को मजबूर हुआ। मेडिकल कालेज प्रशासन छात्रों को आगे कर कहता है कि छात्रों के साथ कालेज में कोई रैगिंग नहीं हुई है। सिर में डैंड्रफ, एलर्जी होने के कारण इन छात्रों ने अपने बाल कटाए हैं। रैगिंग को स्वीकार नहीं करने वाले कालेज प्रशासन ने इस घटना की जांच ‘एंटी रैगिंग कमेटी’ और ‘अनुशासन समिति’ को सौंप दी।
छात्रों के साथ इस तरह रैगिंग की हरकतों के बाद लोगों के सामने कई सवाल खड़े हो गए। उत्तराखंड राज्य सहित देश के अलग-अलग हिस्सों से आए सभी प्रथम वर्ष के छात्रों को एक साथ डैंड्रफ, एलर्जी कैसे हो सकती है? कालेज प्रशासन के अनुसार रैगिंग नहीं हुई है तो फिर यह जांच क्यों की जा रही है? आदि कई सवाल जेहन में आने लगे। मीडिया में यह खबर लगातार सुर्खियों में बनी रही। 9 मार्च को उत्तराखंड हाईकोर्ट, नैनीताल में एक जनहित याचिका दाखिल की गई। इस जनहित याचिका के बाद हाईकोर्ट ने कुमांऊ कमिश्नर, डीआईजी के नेतृत्व में जांच करने के आदेश दिए। जांच में छात्रों के साथ बात करने पर छात्रों ने अपनी पीड़ा कमेटी के सामने रखी। कालेज प्रशासन भी दबाव में आता गया।
कालेज प्रशासन ने दबाव में आकर 18 मार्च को सोशल मीडिया में वीडियो डालने वाले अज्ञात व्यक्ति के खिलाफ धारा 504, 506 में मुकदमा दर्ज करवा दिया। लगातार रैगिंग को नकारने वाला कालेज प्रशासन कार्रवाइयां करने में लगा रहा। इस मुकदमे ने भी सवाल खड़े किये। अगर रैगिंग हुई नहीं तो फिर मुकदमा क्यों दर्ज किया गया? आजकल तमाम जगह एक नयी परिघटना सामने आ रही है, जो भी व्यक्ति गलत घटना का विरोध करेगा या उसको समाज के सामने लाएगा, उसके खिलाफ मुकदमा दर्ज करवा दो या उसे जेल में डाल दो। उसकी आवाज को दबा दो। ताकि और लोग भी आवाज उठाने से डरें। इन मुकदमों, इस दमन से संघर्ष कभी रुके नहीं बल्कि वह और ज्यादा मजबूती से आगे बढ़ते रहे हैं। लोग संघर्ष करते रहते हैं। यहां भी यही चीज आगे बढ़ी है।
हाईकोर्ट द्वारा बनाए गए जांच दल द्वारा की गयी जांच के बाद कालेज प्रशासन ने स्वीकारा की छात्रों के साथ दुर्व्यवहार किया गया है। लेकिन रैगिंग को स्वीकार नहीं किया गया। कालेज प्रशासन ने 120 सीनियर छात्रों पर 5000-5000 रुपये जुर्माना लगाया गया। यह जुर्माना ना ही किसी को रैगिंग का अपराधी बनाता है और ना ही किसी को बरी करता है। यानि रैगिंग हुई नहीं लेकिन जुर्माना वसूल कर 120 छात्रों को गुनहगार भी घोषित कर दिया गया। यह है कालेज प्रशासन का न्याय।
रैगिंग पूंजीवादी सोपानक्रम में अपने से नीचे वाले को दबाने की मानसिकता की पैदाइश है। जहां सीनियर छात्र इससे जूनियरों को अपने नीचे रहने, अपना पिछलग्गू बनाने का ख्याल पालते हैं। वहीं कालेज प्रशासन और बाकी तंत्र इस पर लीपापोती कर प्रकारान्तर से रैगिंग को बढ़ावा देते हैं। गैरबराबरी की सोच को कायम रखने वाले रैगिंग जैसे तौर-तरीकों, परम्पराओं को खत्म करने की जरूरत है। छात्र-नौजवान ही इस तरफ बढ़ सकते हैं। उनके आगे बढ़ने से ही सुप्रीम कोर्ट सहित कानून व्यवस्था ने औपचारिक रूप से रैगिंग को अपराध घोषित किया है। इसे वास्तविक बनाने के लिए भी छात्रों-नौजवानों को आगे आना होगा।
सोशल मीडिया की चमक-दमक से दूर कई प्रदीप दौड़ रहे हैं
पिछले दिनों (25 मार्च 2022) को सोशल मीडिया प्लेटफार्म (फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम, यू-ट्यूब आदि) पर प्रदीप मेहरा नाम के युवक की वीडियो खूब वायरल हुई। इस वीडियो को फिल्मकार विनोद कापड़ी ने अपनी कार से चलते हुए बनाया और प्रचारित किया। उन्होंने सड़क पर रात में दौड़ रहे युवक से पूछा इतनी रात में क्यों दौड़ रहे हो? प्रदीप जवाब देता है कि आर्मी में जाने के लिए।
प्रदीप की उम्र 19 साल है और वह मेकडोनाल्ड के आउटलेट में काम करता है। काम पर जाते समय वह 10 किमी दौड़ता है। प्रदीप बताता है कि वह हर रोज नोएडा सेक्टर-16 से बरौला दौड़कर जाता है।
वीडियो वायरल होने के बाद सभी (मीडिया, नेता, अभिनेता आदि) प्रदीप की मेहनत को सलाम करने लगे और अपने बच्चों को दिखाने की सीख देने लगे। दिल्ली सरकार के कुछ स्कूलों में तो प्रदीप मेहरा की वीडियो छात्र-छात्राओं को दिखाई जाने लगी।
वीडियो में फिल्मकार विनोद कापड़ी और मीडिया बहसों में उन असल सवालों को छोड़ दिया जिनकी वजह से प्रदीप जैसे नौजवान दौड़ रहे हैं। कम उम्र में ही पलायन कर अपने घरों से दूर काम कर रहे हैं।
प्रदीप मूल रूप से उत्तराखण्ड के अल्मोड़ा जिले से है। वह नोएडा में अपने भाई के साथ रहता है। भाई भी किसी अन्य संस्थान में काम करता है। मां के बीमार होने के चलते वह भी अपने इलाज के लिए बच्चों के पास ही हैं। उत्तराखण्ड पलायन आयोग की रिपोर्ट, 2019 में खुलासा किया गया है कि अल्मोड़ा के 16,207 लोग मूलभूत सुविधाओं के अभाव के कारण स्थायी रूप से गांव छोड़ चुके हैं। 2001 से 2011 तक दस सालों में अल्मोड़ा जनपद से 70,000 लोग पैतृक गांव से पलायन कर गये। ऐसी ही कहानी उत्तराखण्ड के हर पहाड़ी जिले की है, जहां से पलायन होता रहा है और अभी भी जारी है।
मजबूरी में अपना गांव छोड़कर शहरों में बसने वालों को शहरों में भी कोई सम्मानजनक रोजगार की व्यवस्था नहीं है। प्रदीप, मैकडोनाल्ड के जिस आउटलेट में काम करता है वहां उसकी शिफ्ट सुबह 8 बजे से रात 10 बजे तक की है। मैकडोनाल्ड, डोमिनोज, जोमैटो, आदि-आदि गिग कम्पनियों के खूबसूरत आउटलेट, सुन्दर ब्राउजर, विज्ञापनों के पीछे वहां काम करने वाले हजारों ‘‘प्रदीपों’’ का शोषण छिपा हुआ है। इन क्षेत्रों की कम्पनियां किसी तरह के श्रम कानूनों से नहीं बंधी हुई हैं। बल्कि अब तो सरकारें श्रम कानूनों में संशोधन कर और भी अधिक मालिकों के पक्ष में मोड़ रही हैं। प्रदीप की प्रशंसा करने वाले मीडिया संस्थानों ने मैकडोनाल्ड जैसी कम्पनियों में मजदूरों के शोषण पर चालाकी से चुप्पी साध ली।
प्रदीप वीडियो में बताता है कि उसकी मां अस्पताल में भर्ती है और रात में काम करता है। सरकारी अस्पतालों की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है। पहाड़ों में अस्पतालों की भारी कमी और दुर्दशा और भी अधिक है। प्रदीप को अपनी मां के इलाज के लिए भी काम करना पड़ता है।
यदि सेना में भर्तियों की बात की जाए तो पिछले लगभग ढाई साल से कोई भर्ती नहीं निकली है। न जाने प्रदीप जैसे कितने युवा अपनी मेहनत के बावजूद सरकार की नाकामियों की वजह से सेना से बाहर हो गये होंगे। हालांकि सेना भर्ती में पहंुचने वाले हजारों युवाओं में से कुछ को ही नौकरी मिल पाती है।
प्रदीप सेना में भर्ती के लिए मेहनत कर रहा है, दौड़ रहा है। पर, यह तो हर गांव-कस्बे की कहानी है। सुबह या शाम के समय सेना में भर्ती की आस में सड़क किनारे दौड़ते नौजवान दिख जाते हैं।
मीडिया की चमक-दमक में ऐसे जरूरी सवालों को दरकिनार कर दिया गया। प्रदीप की प्रशंसा, अन्य नौजवानों को नसीहत आदि उथली-उथली उपदेश भरी बातों के अलावा कुछ नहीं किया गया।
सोशल मीडिया से पहचान पाने वाले मेहनतकशों को काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। मीडिया के लिए यह मसाला न्यूज हो सकती है। कोई फिल्मी कलाकार इस पर गाना या फिल्म बना पैसा कमा सकता है। घर बैठे ऐसी खबरों को देखने वाले उच्च वर्ग के लोगों के लिए मनोरंजक बात हो सकती है। पर मेहनतकशों के लिए यह पीड़ादायक ही होता है। प्रदीप ने भी इस बात को महसूस किया। उसे अपने वीडियो के जरिये मीडिया वालों को बताना पड़ा कि मुझसे सम्पर्क न करें। न्यूज वालों को इंटरव्यू देने के चक्कर में मेरा काम प्रभावित हो रहा है और मैं अपनी तैयारी में भी ध्यान (फोकस) नहीं दे पा रहा हूं।
प्रदीप की कहानी के जरिये बेरोजगारी, पहाड़ों या गांवों से पलायन, खराब स्वास्थ्य सुविधाएं, मैकडोनाल्ड जैसी कम्पनियों में भयंकर शोषण आदि की चर्चा करनी चाहिए। सरकारों को सोई नींद से जगाने के लिए आवाज उठानी चाहिए। पूंजीपतियों को खुली लूट की छूट के खिलाफ संघर्ष करना चाहिए।
युवाओं को पूंजीपतियों का मुनाफा बढ़ाने वाली सरकारों, व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष करना होगा। सबको शिक्षा-सबको काम का नारा बुलन्द करना होगा।
जब कोई फार्मेसी का छात्र अपनी कॉलेज की पढ़ाई करता है तो उसे लगता है कि वह फार्मेसी करने के बाद फार्मासिस्ट बनकर मानवता की सेवा करेगा। ऐसा उसे पढ़ाई के दौरान बार-बार रटाया भी जाता है। मोटी-मोटी फीसें देने के बाद पढ़ाई पूरी कर वह बाजार में उतरता है और रोजगार तलाशने निकलता है।
इस दौरान उसे जीवन की अन्य कठोर सच्चाईयों से रू-ब-रू होना होता है। सबसे पहले उसे कम से कम 3 माह की इंटर्नशिप के लिए किसी सरकारी अस्पताल (सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र आदि) में फार्मेसी में काम करना होता है। जिससे छात्र को फार्मेसी के ज्ञान का व्यवहारिक उपयोग पता चल सके।
इंटर्नशिप के दौरान सरकारी अस्पताल में काम करते हुए उसे उस इंटर्नशिप का कोई मानदेय या वेतन नहीं दिया जाता है। फिर वह निकलता है अपने लिए रोजगार की तलाश में।
जैसा कि सभी को पता है कि सरकारी अस्पतालों में सरकार ने जो पहले के समय में मेडिकल स्टोर खोले भी थे वह भी आज बन्द हो चुके हैं। या कहीं-कहीं पर हैं भी तो उन्हें संविदा पर चलाया जा रहा है और सरकार ने कोई रिक्तियां नहीं खोली हैं।
इस प्रकार यह उम्मीद उसे नहीं होती है कि वह कभी सरकारी फार्मसिस्ट बन पायेगा/पायेगी।
सरकारी नौकरी की उम्मीद न बचने पर रोजगार के लिए वे निजी अस्पतालों की फार्मेसी के चक्कर लगाता है या फिर बाजार में मेडिकल स्टोरों के। ज्यादातर मामलों में यह देखा जाता है कि फार्मेसी डिप्लोमा करने वाले छात्र आम घरों के होतेे हैं। उनकी पहली ख्वाहिश अस्पतालों में काम करने की होती है। अस्पतालों में वे वार्ड ब्वाय या नर्सिंग स्टाफ के तौर पर काम करते हैं। निजी अस्पतालों में जहां पर इस महंगाई के दौर में मात्र 5000-6000 रुपये दिये जाते हैं। जिससे की उसका शहर में सही तरीके से खान-पान या रहन-सहन भी नहीं हो पाता। उसके ऊपर कई तरह के दबाव काम करते हैं- जैसे की मरीजों की देखभाल, काम का बोझ, छुट्टियों का ना मिल पाना, कभी भी निकाले जाने का खतरा, आदि-आदि।
इसके अलावा पैथोलाजी लैब भी रोजगार का एक क्षेत्र बनते हैं। जहां जांच करना, सैम्पल लेना, टेस्ट करना आदि काम करने होते हैं। अधिकांश लैबों ने अपने कलैक्शन सेन्टर खोल रखे हैं। आस-पास के शहरों के बीच कोई एक लैब होती है, जहां सैम्पल इकट्ठा कर लैब में भेज दिये जाते हैं। सामान्य बीमारियों को छोड़कर लगभग सभी बीमारियों में कई जांचें होती हैं। खून की जांच तो लगभग सभी मामलों में आम है। अतः किसी भी निजी अस्पताल की ही तरह यहां काम के दबाव काम करते हैं। इसके अलावा लैबों में काम के घंटे भी अधिक हैं। अस्पताल की तुलना में काम के घंटे अधिक हैं और दबाव भी।
रही बात बाजार कि तो फुटकर विक्रेता (रिटेलर) या थोक विक्रेता (स्टाकिस्ट) के यहां काम की तो वहां के हालात और खराब हैं। सुबह 7 या 8 बजे से शाम के 9 से 10 बजे तक काम का दबाव।
इसके अलावा कभी गोदाम से दवाई लाओ, कभी वहां दवाई पहुंचाओ जैसे काम भी करने होते हैं।
एक अन्य रास्ता भी है जिससे की वह रोजगार करे कि वह अपना स्टार्टअप करे। मतलब की वह खुद का मेडिकल स्टोर खोले। लेकिन इसकी सम्भावना काफी कम है। नया मेडिकल स्टोर खोलने के लिए पीछे से पूंजी का आधार हो तो वह स्टोर चल पाये। जो नये मेडिकल स्टोर खुलते भी हैं तो उनमें फार्मेसी छात्र कम ही होते हैं। इस वजह से वह अपने डिप्लोमा लाइसेंस को किराये पर किसी बनिये को दे देता है। जिससे वह 2 हजार से ढाई हजार रुपये तक प्रतिमाह पा लेता है। लेकिन इसमें भी सभी के लाइसेंस नहीं लग पाते हैं।
ऐसे देखें तो फार्मेसी के बाद रोजगार के अवसर काफी मात्रा में सीमित हो गये हैं।
यदि कोई फार्मा इंडस्ट्री (मैन्युफैक्चरिंग) में काम करना चाहे तो वहां भी स्थिति कुछ अच्छी नहीं है। श्रम कानूनों पर कम्पनी मालिकों की मनमानी भयंकर शोषण की स्थिति वहां सबसे भयंकर है।
आए दिन मजदूर बाहर निकाले जाने के खौफ में काम करते हैं। इस अन्याय के खिलाफ कभी आन्दोलन, संघर्ष या हड़तालें भी हो जाती हैं। लेकिन एक सुरक्षित रोजगार वहां भी नहीं है।
जहां एक तरफ आम घरों से आने वाले छात्रों की मेहनत की लूट से निजी संस्थान अपना मुनाफा पीटते हैं। वहीं, दूसरी तरफ पूरी फार्मा इंडस्ट्री का हित भी इसमें है कि सरकारी संस्थान बंद हों और उनका मुनाफा बढ़ सके।
दवा कम्पनियों में दवाईयों की मार्केटिंग का काम यानी मेडिकल रिप्रजेन्टेटिव (एम.आर.) का काम भी फार्मेसी के छात्रों के लिए एक विकल्प होता है। ये एम.आर. बाजार में दवाई का प्रचार, डॉक्टरों, स्टाकिस्टों आदि से दवा कम्पनी को जोड़ने की कड़ी होते हैं। इसीलिए फार्मा कम्पनियों में काम करने वाले दवा प्रतिनिधि यानी एम.आर. पर भी दवा कम्पनी अपने मुनाफे को बढ़ाने के लिए मानसिक और शारीरिक दबाव बनाती हैं। दवा प्रतिनिधियों के काम के घंटे तय नहीं होते हैं। कम से कम 10 से 11 घंटे रोज फील्ड में काम करने का दबाव बनाया जाता है। एक दिन में कम से कम 12-12 डॉक्टरों व 7-8 दवा दुकानदारों से मिलने का दबाव काम करता है। कभी-कभी कई डॉक्टरों का समय न मिलने, समय ज्यादा लगने के कारण कम डॉक्टरों से ही मुलाकात हो पाती है।
एम.आर. का काम का क्षेत्र कई शहरों में होता है। कभी दूसरे शहर में मोटरसाइकिल से जाने के कारण दुर्घटना का खतरा बना रहता है। लेकिन एम.आर. का स्वास्थ्य बीमा ही काफी कम 1-2 लाख रुपये तक का रहता है।
एम.आर. कम्पनी के लिए तमाम तरह के काम करता है। वह दवा का प्रमोशन, क्लर्क का काम आदि-आदि। कम्पनी के प्रचार के लिए उपयोग में आने वाली चीजों, गिफ्टों आदि को वह अपने घर में रखता है, जिसका कोई भी दवा कम्पनी उसे किराया नहीं देती है। जिससे की उसका पूरा घर या कमरा भर जाता है।
चूंकि दवा प्रतिनिधियों की कोई यूनियन मजबूत नहीं होती (कुछ जगहों को छोड़कर) तो काम का समय निश्चित नहीं होता है।
यूनियनें नाम मात्र के लिए हैं। जिसका फायदा मैनेजमेन्ट उठाता है।
इस प्रकार दवा कम्पनियां मरीज से लेकर कर्मचारियों तक सभी से मुनाफा कमाती हैं। इस मुनाफे के हिस्से में कुछ डॉक्टरों और कुछ मेडिकल स्टोरों को बांट दिया जाता है।
इस तरह अपनी पढ़ाई के दौरान आदर्श मानवीय बातें पढ़ने-सुनने वाला छात्र दवा कम्पनियों और बाजार के चंगुल में फंस जाता है। जहां बाजार उसके पेशे की गरिमामय बातों को मुनाफे के बूटों तले रौंदता है।
पेपर लीक का सिलसिला जारी, छले जाते छात्र-युवा
पेपर लीक, पेपर लीक, पेपर लीक आज ये आवाजें हर नौजवान के मुंह से व हर न्यूज चैनल से हमें सुनने को मिल जाती हैं। यूपी बोर्ड, बिहार बोर्ड, राजस्थान बोर्ड की तो बात छोड़िये हमारे यहां तो सभी प्रकार के पेपर लीक हो जाते हैं। चाहे भारतीय सेना की भर्तियां हों या हो देश का भविष्य उज्जवल बनाने बाले अध्यापकों की भर्तियां, यहां सब के पेपर लीक हो जाते हैं। 2018 से अब तक सीबीएससी बोर्ड, एसएससी, सेना भर्ती, बिहार बोर्ड, सीटीईटी, यूपी डीएलएड, बिहार पुलिस कांस्टेबल, होम गार्ड, फारेस्ट गार्ड, राजस्थान स्टाफ सलेक्शन बोर्ड इत्यादि की परीक्षाएं पेपर होने से पहले या होने के बाद रद्द कर दी गई। कारण पेपर का सोशल मीडिया पर परीक्षा से पहले लीक हो जाना।
वर्तमान की बात करें तो हाल ही में 29 मार्च व 7-8 अप्रैल 2022 को उ.प्र. बोर्ड की इण्टरमीडिएट की अंग्रेजी की परीक्षा व झांसी के बुंदेलखण्ड विश्वविद्यालय में बीएससी द्वितीय वर्ष की भौतिकी का परीक्षा प्रश्नपत्र लीक हो गया था।
अगर इन घटनाओं पर सरसरी नजर डालें तो हम पाते हैं कि यूपी बोर्ड का अंग्रेजी का पेपर बलिया से आउट हुआ था। दो स्कूल के मैनेजर सहित एक अध्यापक और तीन कर्मचारियों ने मिलकर पेपर लीक किया था। स्पेशल टास्क फोर्स की जांच के बाद पता लगा कि परीक्षा केन्द्रों पर भेजे गए पेपर के बण्डलों में से एक खुला हुआ है तथा उसमें से एक पेपर को निकाल कर फोटो खींचकर उसको वापस वहीं रख दिया गया और पेपर को सोशल मीडिया पर प्रसारित-प्रचारित कर दिया गया।
वहीं दूसरी ओर झांसी के बुंदेलखंड विश्वविद्यालय का बीएससी द्वितीय वर्ष का पेपर आउट हो गया था। समाचारों में सुनने को मिला कि परीक्षा जब शुरु होने वाली थी उसकेे ठीक 15 मिनट पहले भौतिकी की परीक्षा का हल छात्रों के मोबाइल में आने लगा था। उत्तर प्रदेश मेें होने वाली ये घटनाएं पहली नहीं हैं, ऐसी कई घटनाएं उत्तर प्रदेश में हुई हैं। 2018 में 12 वीं के भौतिकी के दोनों पेपर लीक, चंदौली जिले में परीक्षा रद्द 10 वीं का विज्ञान का पेपर लीक, महाराजगंज में परीक्षा रद्द ऐसे ही कई बार बोर्ड की परीक्षा पेपर लीक होने के कारण रद्द कर दी गई। अब बात करते हैं कुछ भविष्य निर्माण परीक्षाओं की तोे पता लगता है कि 2017 की दरोगा भर्ती का प्रश्न पत्र लीक हुआ और एक लाख बीस हजार छात्रों/परीक्षार्थियों का भविष्य दांव पर लग गया। 2018 यूपीपीएससी का पेपर लीक, 2021 में बीएड का परीक्षा प्रश्न पत्र लीक, 2021 में नीट का परीक्षा प्रश्न पत्र लीक औैर ऐसी ही कई परीक्षाएं प्रश्न पत्र लीक होने के कारण रद्द कर दी गई। हजारों-लाखों युवा छात्रों का समय व पैसा बर्बाद किया गया तथा उनके भविष्य केे साथ खिलवाड़ किया गया।
अब यहां व्यवस्था का काम बनता है जब पहला पेेपर लीक हुुआ तब ही सुरक्षा व्यवस्था मजबूत की जाती तथा पेपरों को लीक होने से रोका जाता। लेकिन हमारी ये लापरवाह व्यवस्था ने हमारे लोकतंत्र के चौथे खम्भे को ही निशाना बना दिया, उसने उन पत्रकारों को पकड़ जेल में डाल दिया या उन पर मुकदमें दायर कर दिये गए जिन्होंनेे पेपर लीक के मामले को अपने अखबारों में छापा। इससे पता लगता है कि कहीं न कहीं इन सारे पेपर लीक के मामले में सरकार की माफियाआंे के साथ मिलीभगत है। बिना मिलीभगत के लगातार उत्तर प्रदेश व पूरे देश में हो रही परीक्षाओं के प्रश्न पत्रों का लीक होना लगभग असम्भव है।
हम पातेे हैं कि नई-नई सरकारेें अपने आप को अलग-अलग नारों व नामोें से उच्चारित करवाती हैं। मगर कभी उन नारों पर अमल नहीं करती हैं औैर छोटी-मोटी कार्यवाहियांे के नाम पर तथा युवाओें को लाभार्थी बनाकर अपना पल्ला झाड़ देती हैं। इससे कभी भी बेरोजगारी, महंगाई इत्यादि की समस्याएं नहीं हल हुई केवल नाम की कार्यवाहियां होती रही।
कब तक देश के युवा जिसको देश का भविष्य कहा जाता है उसके भविष्य के साथ हमारी सरकारें पेपर लीक गेम खेलंेगी और पेपर देने से पहले या बाद में पेपर को रद्द करेंगी और कार्यवाही के नाम पर लम्बे समय के लिये परीक्षाओं को आगे बढ़ा देंगी।
सरकारों के इस खेल से बचने का रास्ता है कि देश के सभी युवाआंे को ये समझना होगा कि हमको समय-समय पर कुछ छोटे-छोटे लड्डू पकड़ाये जातेे हैं। हम उनको खाकर ऐसी सरकारों के गुण गाने लगते हैं और भूल जाते हैं कि निकट भविष्य में इन लड्डुओं की जगह कुछ और होगा, हमारी हालत आज से खराब होगी, फिर से हम तंगहाली का जीवन गुजारेंगे।
इस सबसे बचने के लिए जरूरत पड़ती है सभी युवाओं को इस पूंजीवादी व्यवस्था को बदलकर उसकी जगह अपनी व्यवस्था लाने की। जिसने इतिहास में ऐसे समाज को बना दिया जहां वर्तमान जैसी कोई समस्या नहीं थी। वक्त है संघर्षों के रास्ते को चुनने का, उस रास्ते को चुनने का जिसे भगत सिंह जैसे युवाओं ने चुना और समाज परिवर्तन के संघर्ष को और तेजी से आगे बढ़ाया।
वर्ष 13, अंक 2
जनवरी-मार्च, 2022
वेलेन्टाइन डे और युवा
हेमलता, दिल्ली।
14 फरवरी, वेलेन्टाइन डे यानी प्रेम दिवस का आज पूरी दुनिया के पैमाने पर प्रचार और विस्तार हो चुका है। इसके तहत प्रेम करने के लिये एक दिन निर्धारित कर दिया है। निजीकरण-उदारीकरण-वैश्विकरण के दौर में बाकी मानवीय संबंधों की तरह प्रेम को भी मालों को बेचने का जरिया बना दिया गया है। वेलेन्टाइन डे पर केन्द्रित विज्ञापन और टीवी पर आने वाले नाटकों (डेली सोप) में इस दिन को लेकर विशेष एपिसोड तैयार किये जाते हैं। जिनमें प्रेम को प्रेम होने या महसूस करने से ज्यादा किसी माल के जरिये प्रदर्शित करने की किसी क्रिया में तब्दील कर दिया गया है। माल की कीमत से प्रेम की प्रगाढ़ता तय होने लगती है और बाजार फलने-फूलने लगता है।
वेलेन्टाइन डे से हफ्ते भर पहले से तरह-तरह के चॉकलेट और अन्य उपहारों से बाजार सज जाते हैं। इन सभी चीजों से सम्बद्ध अलग-अलग दिवस बन गये हैं। प्रेमी युगल इस दिन को विशेष बनाने के लिये तरह-तरह के जतन करते हैं। बहुत सारे नये-नये युवा इस दिन को अपने प्रेम का इजहार अपने साथी के सामने करने के लिये चुनते हैं और बेसब्री से इस दिन का इंतजार करते हैं।
एक ओर पतित होते पूंजीवाद-साम्राज्यवाद की बाजारू संस्कृति है जो समस्त मानवीय संबंधों को मालों की खरीद-बेच से जोड़ने पर उतारू है। जो हर रिश्ते की प्रगाढ़ता को उपहार में दी जा रही वस्तु की कीमत से जोड़ती है। जो मानवीय संबंधों से जुड़ी हर नैतिकता-मूल्य को धराशायी कर रही है और प्रेम को भी ‘यूज एण्ड थ्रो’ या फिर ‘आज एक से कल दूसरे से’ सरीखी चलताऊ चीज में तब्दील कर दे रही है। वहीं दूसरी ओर समाज में ऐसी भी ताकतें हैं जो सामंती मूल्यों से लैस हैं और इंसान के प्रेम करने के अधिकार की ही विरोधी हैं। मजेदार बात यह है कि ये ताकतें समाज में प्रेम पर पहरा बैठाने की घृणित कार्यवाही करने के बावजूद उसी पूंजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था की सेवा करती है जो प्रेम को बाजार की सेवा में लगा रही है।
भारत के फासीवादी संगठन या उनकी सोच से इत्तेफाक रखने वाले तरह-तरह के बजरंग दल सरीखे संगठन जिनका प्रेम में रत्ती भर भी भरोसा नहीं होता। जो दुनिया की हर शय को बांट कर रखना चाहते हैं। ये वेलेंटाइन डे के दिन आम दिनों से ज्यादा सक्रिय नजर आते हैं और अपनी नैतिक पुलिसियागिरी कायम करने का प्रयास करते हैं। इस दिन सारे छोटे-मोटे होटलों, पार्कों और अन्य सार्वजनिक जगहों पर सिंदूर और मंगलूसत्र से लेकर लाठी-डंडों से लैस प्रेमी युगलों पर हमले की योजना बनाते हैं, इसकी तैयारी करते हैं।
वेलेन्टाइन डे के दिन यदि किसी सार्वजनिक जगह पर कोई लड़का-लड़की एक साथ बैठे इनके हत्थे चढ़ जायें तो उनकी खैर नहीं। बिना यह जाने-समझे कि वो दोस्त हो सकते हैं, भाई-बहन हो सकते हैं, सहपाठी हो सकते हैं। वे बस उनकी इच्छा के विरुद्ध उनकी शादी करवाने, कपड़े फाड़ने से लेकर उनकी वीडियो बनाकर उन्हें ब्लैकमेल करने, जबरदस्ती घर वालों को फोन करने, पहचान पत्र देखने से लेकर उनके साथ छेड़छाड़, बदतमीजी और मारपीट तक करने से बाज नहीं आते।
हाथ जोड़ कर नमस्कार की जगह हर समय राधे-राधे करने वाले, दिन-रात राधा-कृष्ण का जाप करने वाले, जन्माष्टमी पर राधा-कृष्ण के दर्शन करने उनका आशीर्वाद प्राप्त करने के लिये घंटों लाइन में खड़े रहने वाले लोग, अपनी सामान्य सी आम जिन्दगी में रात-दिन राधा-कृष्ण का नाम जपने वाले अधिकतर लोग भी अक्सर ही प्रेम के विरोध में खड़े दिखायी देते हैं। इस देश की हकीकत यह है कि पूरे देश में नल-दमयंती, सोहनी-महिवाल, हीर-रांझा, लैला-मजनूं की प्रेम कहानियां तो लोग बड़े चाव से सुनते हैं। लेकिन जैसे ही अपने घर-परिवार के बच्चे यदि किसी से प्रेम करते हैं और आपस में विवाह करना चाहते हैं तो परिवार लोगों के सीने पर सांप लोटने लगते हैं। और अगर ये प्रेम विवाह गैर जाति-बिरादरी या धर्म के लड़के या लड़की से हो तो पूरे समाज व बिरादरी का प्रकोप इन प्रेमी युगलों को झेलना पड़ता है। हरियाणा, उत्तर प्रदेश व बिहार जैसे राज्यों में तो हर साल कितने ही प्रेमी जोड़ों की हत्या कर दी जाती है। परिवार की इज्जत के नाम पर कितनी मासूम लड़कियों को परिवार वालों द्वारा ही मौत के घाट उतार दिया जाता है या वे जबरदस्ती अनचाहे आदमी से ब्याह दी जाती हैं।
हाल में इनके द्वारा हिन्दू धर्म की लड़कियों के दूसरे धर्म के लड़कों से प्रेम करने को एक नया नाम दिया गया है- ‘‘लव जिहाद’’। आज कल इसका भी बहुत हो-हल्ला मचा हुआ है। साम्प्रदायिक तत्वों और संघी मंडली ने लव जिहाद का फर्जी हव्वा खड़ा कर रखा है। महिलाओं ने बहुत मुश्किल से अभी-अभी ही कुछ हद तक आजादी पायी थी। उस आजादी को ‘‘लव जिहाद’’ की आड़ में ये पिछड़ी सामंती पितृसत्तात्मक सोच के पहरेदार महिलाओं से, उनके अपना जीनसाथी चुनने के अधिकार को छीन लेना चाहते हैं। वे महिलाओं को हमेशा से ही कमतर आंकते हैं। स्वतंत्र महिला का वजूद उनकी सोच से कोसों दूर है। ‘‘लव जिहाद’’ का हव्वा खड़ा करके वे प्रेम की कोमल भावनाओं को भी अपनी साम्प्रदायिक राजनीति की भेंट चढ़ाना चाहते हैं। पिछले कुछ सालों से, केन्द्र में भाजपा सरकार और संघी मानसिकता के लोगों के सत्ताशीन होने के बाद से यह प्रवृत्ति बहुत तेजी से बढ़ी है।
भारतीय साम्प्रदायिक राजनीति में मुस्लिम विरोध की स्थिति यहां पहुंच गई है कि किसी मुस्लिम युवक और हिन्दू युवती के प्रेम विवाह को झुठलाया जा रहा है। सरकार द्वारा पंजीकृत संस्था द्वारा जारी उनके विवाह के सर्टिफिकेट को झुठलाया जा रहा है। और मुस्लिम युवक को बलात्कारी बता कर उसकी हत्या कर दी जाती है। और एक प्रेम-विवाह पर ‘‘लव जिहाद’’ का लेबल लगा दिया जा रहा है।
आज की युवा पीढ़ी पर जिम्मेदारी है कि वो प्रेम को बाजार की ताकतों के हाथों का खिलौना बनने से रोकने के लिए तो खड़े हों ही, साथ ही प्रेम करने के अपने जनवादी अधिकार की रक्षा के लिए हिन्दू फासीवादी तत्वों के खिलाफ भी खड़े हों।
हिजाब विवाद
-रूपाली
कर्नाटक के माडया व उडुपी शहरों में मुस्लिम छात्राओं के हिजाब पहनने को लेकर लगातार विवाद चल रहा है।
शुरूआत उडुपी के एक कॉलेज में छात्राओं के हिजाब पहन कर आने को लेकर हुई। कॉलेज द्वारा छात्राओं को हिजाब पहन कर आने की वजह से क्लास रूम में बैठने से मना किया। छात्राओं ने इसे अपना हक समझ कर हाईकोर्ट तक के दरवाजे खटखटाये।
छात्राओं द्वारा पहले भी कॉलेज में हिजाब पहनने पर कोई रोक नहीं थी, लेकिन इस समय ऐसा विवाद क्यों खड़ा हुआ?
क्योंकि इस समय पांच राज्यों में चुनाव होने हैं और हम जानते हैं कि भाजपा अपने एजेण्डों से पीछे नहीं हटना चाहती। ऐसा समय इनके लिए धर्म के नाम पर राजनीतिक रोटियां सेंकने का समय है। ये समय अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने का है।
किसी कॉलेज को छात्राओं के हिजाब पहनने से क्या दिक्कत हो सकती है जबकि इसका कोई सम्बन्ध शिक्षा से नहीं है।
पांच राज्यों में चुनाव के विशेष समय में भाजपा द्वारा विशेष इन्तजाम किया गया, जिसका नाम हिजाब विवाद है।
छात्राओं के हिजाब पहन कर आने पर कॉलेज के कुछ लम्पट छात्रों को भगवा शॉल पहना कर ‘‘जय श्री राम’’ के नाम पर डराने, छात्राओं को घेर कर उन्माद व साम्प्रदायिकता फैलाने की कोशिश की जा रही है। भाजपा सरकार द्वारा लगातार ही अल्पसंख्यकों, छात्राओं व महिलाओं पर हमला बोला जा रहा है।
हिन्दू राष्ट्र बनाने के नाम पर मुस्लिम छात्राओं के हिजाब पहनने तक को भी एजेण्डा बनाया जा रहा है जबकि भारत के संविधान तक में प्रत्येक धर्म के अनुयायी को अपने हिसाब से पहनने-खाने का अधिकार दिया गया है।
इस घटना के कारण कर्नाटक के उडुपी में कॉलेज स्कूलों को तीन दिन तक बन्द रखा गया, जिससे छात्र-छात्राओं को पढ़ाई का भी नुकसान उठाना पड़ा। जहां एक तरफ कोविड के चलते तमाम छात्रों को तरह-तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। अभी तक स्कूल-कॉलेज सही तरह से खुले भी नहीं। वहां दूसरी तरफ इस विवाद के चलते फिर से स्कूल कॉलेज बन्द कर दिये गये।
इसका असर छात्र-छात्राओं की शिक्षा पर पड़ रहा है लेकिन क्योंकि ‘‘हिन्दू राष्ट्र’’ बनाने वाले नहीं चाहते कि कोई छात्रा पढ़े और अपने हकों को पहचाने। इसलिए वे खास तौर पर अल्पसंख्यकों को शिक्षा से बाहर करने के लिए लगातार नये-नये मुद्दे उछाल रहे हैं। कभी तीन तलाक का मुद्दा तो कभी ‘‘लव जिहाद’’ का मुद्दा और कभी धर्मांतरण का मुद्दा और अब हिजाब का मुद्दा।
इन घटनाओं से जाहिर होता है कि भाजपा सरकार नहीं चाहती की हिन्दुस्तान में हिन्दू-मुस्लिम एक हों। वो चाहती है कि लोग बंटे रहें। लोग आपस में लड़ते रहें वो सत्ता की मलाई चाटते रहे।
इस घटना से केवल भाजपा ही नहीं बल्कि तमाम राजनीतिक दल अपना हित साधने की कोशिश कर रहे हैं। वोट बैंक की राजनीति कर रहे हैं। मुस्लिम कट्टरपंथी भी इसका फायदा उठा रहे हैं।
जिन स्कूल-कॉलेजों में वैज्ञानिक तार्किक शिक्षा को लेकर चर्चा होनी चाहिए वहां आज भगवा बनाम हिजाब का मुद्दा चल रहा है। हिन्दू मुस्लिम के बीच नफरत के बीज बोये जा रहे हैं। फूट डाली जा रही है। उन्हें शिक्षा के विषय पर नहीं धर्म के विषय पर बोलने के लिए तैयार किया जा रहा है।
जो लोग आज हिजाब को मुद्दा बना रहे हैं। उन लोगों ने कभी भी किसी महिला के घूंघट रखने, दुपट्टे से सिर ढकने को लेकर कभी मुद्दा नहीं बनाया क्योंकि ये उनकी पिछड़ी और सामन्ती मूल्य मान्यताओं व पुरुष प्रधान मानसिकता को बनाये रखने के लिहाज से सही है। ठीक यही बात उन कट्टरपंथी मुस्लिम संगठनों के लिए भी है जो हिजाब पहनने, बुरका पहनने को धार्मिक रूप से जरूरी बता कर महिलाओं पर अपनी पिछड़ी सोच व सामन्ती मूल्यों को थोपने का काम कर रहे हैं। हिजाब और भगवा शॉल को एक-दूसरे के विरोधी के रूप में दिखाया जाना साम्प्रदायिकता फैलाने की कारिस्तानी है।
हिजाब या घूंघट किसी भी प्रकार का पर्दा, प्रगतिशीलता की निशानी नहीं बल्कि एक सामन्ती सोच का प्रतीक है। लेकिन जब किसी सरकार द्वारा तानाशाहीपूर्ण तरीके से किसी के पहनने, खाने व बोलने की आजादी को छीनने की कोशिश की जा रही है। तो इसका विरोध जरूरी है इसके साथ ही जरूरत है कि ऐसी पिछड़ी सोच, पिछड़ी मूल्य-मान्यताओं पर टिके समाज को बदल दिया जाये। हिन्दू-मुस्लिम एकता कायम करके हम गैरबराबरी, साम्प्रदायिकता महंगाई, महंगी शिक्षा के खिलाफ आवाज उठा सकते हैं।
हिन्दू फासीवादी जहरीले हमले से बर्बाद होते युवा
- हेमलता, दिल्ली
भाजपा और आर.एस.एस. ने देश में जो धार्मिक कट्टरता और मुस्लिम विरोध का माहौल तैयार किया है उसके शिकार केवल अल्पसंख्यक ही नहीं हो रहे हैं। उसके शिकार हमारे बच्चे भी हो रहे हैं। हम अपने बच्चों को पढ़ा-लिखा कर एक सभ्य नागरिक बनाने के लिये बहुत मेहनत करते हैं। इस महंगाई के चरम में अपनी जरूरतों को लगातार कम करके अपने बच्चों को पढ़ाने के लिये उन्हें अपने से दूर भेजते हैं। स्कूलों-कॉलेजों की महंगी-महंगी फीस का भार इस उम्मीद में ढोते हैं कि आज जहां समाज खड़ा है हमारे बच्चे कल बड़े होकर इस समाज को उन्नति के एक नये धरातल पर ले जायेंगे।
लेकिन सत्ता लोलुप और धनकुबेरों ने मिलकर भारत में जो साम्प्रदायिक उन्माद मचाया है, उसने हमारे बच्चों को एक साम्प्रदायिक हथियार में तब्दील करना शुरु कर दिया है। अभी हाल ही में भारत की साम्प्रदायिक राजनीति में कुछ गम्भीर व अलग किस्म की घटनायें हुईं। जिनमें सुल्ली डील्स, बुल्ली बाई एप और अभी हाल ही में क्लब हाउस का घटनाक्रम। इन तीनों में ही ठीक-ठाक पढ़े-लिखे 20.25 साल के नौजवान संलिप्त पाये गये। ये तीनों ही ऐसे एप और सोशल मीडिया के माध्यम हैं जिनमें मुस्लिम महिलाओं को निशाना बनाया गया है। उनकी बोली लगाई गई है और उनके बारे में अश्लील बातें की गई हैं। इन तीनों ही प्लेट फार्म को डेवलप (बनाने वाले) करने वाले ये वो युवा हैं जिन्हें देश की प्रगति में अपना योगदान देना था। अपने भविष्य के सुनहरे सपने बुनने थे, उन्हें पूरा करने के लिये जद्दोजहद करनी थी, अपने भविष्य के बारे में सरकार से सवाल-जवाब करने थे। लेकिन इन सत्ता के लालचियों और धनकुबेरों ने मिलकर न केवल मुस्लिम समाज को शिकार बनाया बल्कि उससे पहले उन्होंने अपनी साम्प्रदायिक राजनीति के जरिये हमारे बच्चों को इसका शिकार बनाया। उनके मस्तिष्क पर कब्जा कर उन्हें अपने साम्प्रदायिक टूलकिट में तब्दील कर दिया। उन छात्रों से उनका भरा-पूरा भविष्य छीन लिया है। मुस्लिम समुदाय के प्रति जितनी वैमनस्यता फलाई गई है और अभी भी फैलाई जा रही है उसके सबसे अधिक शिकार ये युवा ही हैं। जिन्होंने अभी ठीक से अपने जीवन की शुरूआत भी नहीं की है। अभी उनके नन्हें पंखों ने जान पकड़ी ही थी। वे उड़ना सीख ही रहे थे। अपनी आंखों से दुनिया को देखना-समझना शुरु ही किया था कि वे साम्प्रदायिक फासीवादियों के चंगुल में फंस गये। और अब अपने को ठगा हुआ सा महसूस कर रहे हैं।
पूरे देश में अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय पर हमले किये जा रहे हैं। हमले किये जा सकने वाले किसी भी रूप शारीरिक, मानसिक, राजनीतिक या आर्थिक तौर पर ये हमले किये जा रहे हैं। ये हमले किसी भी रूप में सामने आ रहे हैं। कभी धर्म के नाम पर ‘‘अधर्म संसद’’ चलाकर उनमें मुस्लिमों को मारने-काटने की बात की जाती है। कभी मुस्लिम समुदाय के आर्थिक बहिष्कार की बात की जाती है। ‘‘लव जिहाद’’ व ‘‘गौ-रक्षा’’ के नाम पर सीधे-सीधे शारीरिक हमले मुस्लिम व दलित समाज पर किये जा रहे हैं। भाजपा, आरएसएस की ट्रोल आर्मी द्वारा सोशल मीडिया पर मुस्लिम समुदाय को लक्षित कर हमले किये जा रहे हैं।
केन्द्र की भाजपा सरकार द्वारा जम्मू-कश्मीर की घेराबंदी करके और चप्पे-चप्पे पर फौजी बूट तैनात करके कश्मीर में धारा 370 को हटाकर तथा पूरे देश में सी.ए.ए., एन.आर.सी., एन.पी.आर. लागू करके मुस्लिम समुदाय को निशाने पर लिया। मुस्लिम विरोधी, जन विरोधी कानून बनाकर सरकारी मशीनरी द्वारा उनका शिकार किया गया। देश के प्रधानमंत्री अपनी पत्नी को बिना तलाक दिये ही बरसों से छोड़े हुए हैं, उस पर बिना कोई सवाल किये मुस्लिम महिलाओं के हित साधक का नाटक करते हुए तीन तलाक कानून को मुस्लिम समुदाय पर थोप दिया गया। मुस्लिम समुदाय के लिये तलाक का अपराधिकरण कर दिया गया।
पूरे दिन टीवी, समाचार चैनलों के माध्यम से अल्पसंख्यकों के खिलाफ धार्मिक उन्माद फैलाया जा रहा है। अखबारों में ऐसी खबरों को चटपटे मसाले की तरह परोसा जा रहा है। तब क्यों नहीं हमारी नौजवान पीढ़ी इसका शिकार होगी। दूसरी और छात्रों को छात्र राजनीति से भी काट कर रखा गया है या रखा जा रहा है। बहुत से विश्वविद्यालयों में छात्रसंघ के चुनावों पर रोक लगी है। छात्रों को घर परिवारों में भी यह सिखाया जाता है कि राजनीति से दूर रहें। राजनीति अच्छी चीज नहीं है। लेकिन जैसे ही वे अपने छात्र जीवन से बाहर आकर रोजगार की तलाश में निकलते हैं तब वे पाते हैं कि यहां भी उनका कोई स्वागत करने नहीं आ रहा है। वे बस बेराजगारों की भीड़ में एक नम्बर बन गये हैं। फर्क केवल इतना है कि छात्र जीवन में वे नम्बरों के लिये पढ़ते थे और उससे बाहर आकर रोजगार के लिये उन्हें सीधे सरकार और उसके तंत्र से लड़ना पड़ रहा है। अपने इस संघर्ष में वह पाता है कि अपने हक अधिकारों की लड़ाई लड़ने का कोई अनुभव ही उनके पास नहीं है। इसलिये जरूरी है कि हमें अपने छात्र जीवन से ही सही के लिये संघर्ष करने की शुरुआत करने की आदत डाल लेनी चाहिये। तभी हम अपने भविष्य के प्रति आश्वस्त हो सकेंगे।
वर्ष 13, अंक 1
अक्टूबर-दिसम्बर, 2021
मेडिकल छात्रों का फीस वृद्धि के खिलाफ प्रदर्शन
राजकीय कालेज हल्द्वानी और देहरादून के छात्रों ने फीस वृद्धि के खिलाफ विरोध में एक महीने तक शांतिपूर्ण धरना प्रदर्शन किया। छात्रों के प्रदर्शनों में अभिभावकों ने भी भागीदारी की। मेडिकल की पढ़ाई कर रहे ये छात्र मेडिकल कालेज के बाहर तख्तियां लिये, पोस्टर लिये खड़े रहते और फीस कम किये जाने की मांग कर रहे थे।
सरकार द्वारा उत्तराखण्ड में डॉक्टरों के अभाव के कारण राजकीय मेडिकल कालेज में बॉण्ड और नान बॉण्ड की व्यवस्था की थी। जिसमें बॉण्ड के तहत शिक्षा लेने वाले छात्रों को शिक्षा ग्रहण कर 5 साल दुर्गम इलाकों में काम करना होगा। अब 2019 में सरकार ने इस सुविधा को खत्म कर दिया है। राजकीय मेडिकल कालेज में शिक्षा लेने वाले सभी छात्रों को 4 लाख रूपये की फीस देनी होगी। जिसका छात्र विरोध कर रहे थे।
छात्रों ने इस फीस वृद्धि का विरोध करते हुए कहा कि हम गरीब, मध्यम वर्ग परिवारों से आते हैं और हमारे माता-पिता अपना पेट काट कर हमें पढ़ा रहे हैं। ऐसे में बढ़ती फीस का बोझ हमारा परिवार कैसे उठायेगा। बैंक से लोन लेना कठिन से कठिन होता जा रहा है। अगर नौकरी नहीं लगती तो हमारा परिवार कंगाल हो जायेगा।
हम देखते हैं कि हमारे देश और राज्य में डॉक्टरों का कितना अभाव है। पहाड़ के दूर-दराज के गांवों में लोग भगवान भरोसे हैं। छोटी-छोटी बिमारियों का इलाज कराने के लिए भी उन्हें हल्द्वानी या फिर ऋषिकेष जैसे शहरों में आना पड़ता है। कई लोग जो अचानक गंभीर बिमारी, गंभीर चोट का शिकार हो जाते उनकों शहरों तक लाने से पूर्व ही मौत हो जाने की खबरें रोज आती हैं। गर्भवती महिलाओं की शहर लाते समय रास्ते मंे ही बच्चा जनने या मौत हो जाने की खबरंे उत्तराखण्ड में आम हैं।
स्वास्थ्य सेवाओं के ऐसे बुरे हाल के बाद भी सरकार ने बॉण्ड की व्यवस्था को खत्म कर दिया है। इस बॉण्ड की व्यवस्था से जहां कमजोर आय के लोग भी डाक्टरी की पढ़ाई कर पा रहे थे वहीं दूसरी ओर इससे पहाड़ के दुर्गम इलाकों के लोगों कम से कम प्राथमिक उपचार तो मिल जा रहा था। लेकिन इस व्यवस्था को खत्म कर अब छात्र और पहाड़ के लोग दोहरी मार झेल रहे हैं।
हर साल इलाज के अभाव में हजारों लोग अपनी जान गंवाते हैं। 21 नवंबर 1019 को केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने राज्य सभा में एक रिपोर्ट रखी। जिसके अनुसार 1445 लोगों की जिम्मेदारी एक एलोपैथिक डाक्टर पर है। हमने कोरोना काल में चरमराती स्वास्थ्य व्यवस्था को देखा।
सरकार द्वारा निरंतर शिक्षा के निजीकरण को बढ़ावा दिया जा रहा है। यह काम दो तरह से हो रहा है। एक तरफ तो निजी संस्थानों को खुलने की खुली छूट दी जा रही है। और दूसरी तरफ सरकारी संस्थानों की फीसों को बढ़ाकर वहां पहुंचा दिया गया है जहां निजी और सरकारी का अंतर ही खत्म होता जा रहा है। सरकार खुद निजी पूंजीपतियों की तरह शिक्षा से भी लाभ कमा रही है।
संसद खुल गई- बाजार खुल गए, खुल गया सारा देश!
कैम्पस अब तक बंद क्यों??
-सलमान, दिल्ली विश्वविद्यालय
पिछले साल 2020 के मार्च महीने में जब कोविड के चलते सम्पूर्ण देश में तालाबंदी हुई तो उसमें डीयू को भी बंद कर दिया गया था। उसके बाद जब जब कोरोना के संक्रमण दर में गिरावट आई तो मॉल, सिनेमा, ट्रेन, मेट्रो बस सेवा से लेकर संसद तथा विधानसभाओं के सेशन्स और अन्य तरह की तमाम चीजे दोबारा से बहाल कर दी गई। इतना ही नहीं देश के बड़े-बड़े राज्यों में विधानसभा और ढेर सारे उपचुनाव तक आयोजित किए गए।
कोरोना की ठीक होती परिस्थितियों के मद्देनजर डीयू के छात्रों ने ऑनलाइन और जितना सम्भव हो सकता था ऑफलाइन, दोनों माध्यमों से ऑनलाइन क्लासेज में फेस की जाने वाली परेशानियों के कारण डीयू को दोबारा खोलने की मांग दिल्ली विश्वविद्यालय प्रशासन के सामने उठाया। इसके प्रतिउत्तर में विश्वविद्यालय प्रशासन ने ना तो ऑनलाइन क्लासों की गुणवत्ता में सुधार किया और न ही कॉलेज कैम्पस खोलने की तरफ दिलचस्पी दिखाई।
अमानवीयता की सारी सीमाओं को लांघते हुए डीयू प्रशासन ने पुलिस से साठगांठ करके छात्रों के ऊपर ही जुल्म अत्याचार करवाया और उनके ऊपर आपराधिक धाराओं में झूठे मुकदमे तक दर्ज करवा दिए और अपराधियों जैसा व्यवहार किया गया। क्लासेज और एग्जाम ऑनलाइन होने के कारण यह लगभग तीन चौथाई छात्रों के लिए मुसीबत का सबब बन गया है। ऑनलाइन क्लासेज में अनगिनत तकलीफों से छात्रों को दो-चार होना पड़ता है। इसकी जरूरतें इतनी सारी और जटिल हैं कि कई छात्र पढ़ाई छोड़ चुके हैं तो कुछ स्टूडेंट्स आत्महत्या तक कर चुके हैं और बहुतायत में छात्र आज मानसिक तनाव और अवसाद के शिकार हैं।
छात्रों ने अनेकों बार विश्वविद्यालय प्रशासन को बताया है कि उन्हें ऑनलाइन क्लासेज से कॉन्सेप्ट क्लियर नहीं हो पाते । 4 से 5 पांच घण्टे बिना ब्रेक के क्लासेज और सेल्फ स्टडी के दौरान भी मोबाइल स्क्रीन को देखते रहने से छात्रों को कई प्रकार की शारीरिक समस्याएँ आनी शुरू हो गई हैं। छात्रों के पास पढ़ने के लिए उपयुक्त स्टडी मैटेरियल नहीं है। टीचर्स पढ़ाने के लिए बहुत ज्यादा कोशिश भी करते हैं तो सबकी अलग-अलग परिस्थितियों के कारण वे क्लास ज्वाइन नहीं कर पाते हैं। जिसके लिए सबसे बड़ा कारण है कि हर छात्र की आर्थिक,सामाजिक और भौगोलिक परिस्थितियाँ एक जैसी नहीं है। और इस ऑनलाइन क्लासेज के दौरान सबसे ज्यादा शर्म की बात यह है कि जहाँ छात्र किसी तरह से अपने लिए संसाधनों को जुटाकर क्लासेज लेने की कोशिश करता है वहीं कॉलेज और विश्वविद्यालय प्रशासन उनसे इस दौर में भी पूरी-पूरी फीस वसूल रहा है।इस फीस की रकम में पार्किंग, बिजली,पानी,स्टूडेंट यूनियन , प् क बंतक की फीस से लेकर तमाम तरह के फिजूल चीजें शामिल हैं जबकि किसी छात्र को इनमें से कुछ भी नहीं मिला, अगर कुछ मिला है तो वह है केवल और केवल प्रशासन द्वारा ऑनलाइन क्लास और एग्जाम के नाम पर सरकारी प्रताड़ना।
कॉलेज और विश्वविद्यालय बन्द होने के कारण छात्र अपने अपने घरों में हैं इसका फायदा उठाकर सरकार ने नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति एनईपी 2020 को लागू कर दिया, इसमें ऐसे ऐसे प्रावधान शामिल किए गए हैं जिनका छात्र लम्बे समय से करते आये हैं। शिक्षा के निजीकरण और भगवाकरण करने वाले सारे तत्वों को दमच में जोड़ा गया है। इतना ही नहीं लिनच जिसको 2013 में डीयू ने छात्रों के विरोध के दबाव में रिजेक्ट कर दिया था उसे भी इस एनईपी में शामिल किया गया है।
हम समझते हैं कि इस फासीवादी निजाम में पूंजीपतियों की दलाली करने वाली सरकार लगातार जनविरोधी नीतियों को जबरदस्ती देश की जनता के ऊपर थोप रही है जिसकी वजह से समाज का हर एक मेहनतकश तबका परेशान है और उसके अंदर सरकार के प्रति भारी आक्रोश भरा हुआ है लेकिन ये सारा आक्रोश प्रतिरोध की आवाज बनकर एकजुट होकर न उठ सके इसका उपाय सरकार को कॉलेज-विश्वविद्यालय बन्द रखने में दिख रहा है जोकि उसकी बिल्कुल गलत सोच है। सरकार चाहे कुछ भी कर ले, कितने ही सितम कर ले जनता के प्रतिरोध की आवाज को कतई नहीं दबा सकती। इसलिए अब हम सरकार और दिल्ली विश्वविद्यालय प्रशासन को चेतावनी देते हुए अपील करते हैं कि -
सबसे पहले तो केंद्र सरकार शिक्षा का निजीकरण और भगवाकरण करने वाली राष्ट्रीय शिक्षा नीति (2020) को रद्द करे ।
तत्काल प्रभाव से सभी कोर्सेज के क्लासेज ऑफलाइन शुरु की जाए।
यूनिवर्सिटी के स्टाफ और छात्रों के लिए वेक्सिनेशन ड्राइव चलाया जाए।
लॉक डाउन में आर्थिक तंगी की मार झेल रहे निम्न आर्थिक वर्ग के छात्रों को फीस में रियासत दी जाए। साथ ही अब तक जो फीस उनसे ली जा चुकी है वो सारा वापस किया जाए।
कॉलेज बन्द रखने के दौरान जितने छात्रों के ऊपर फर्जी तरीके से मुकदमे दर्ज किए गए हैं, वे सब वापस लिए जाए।
वर्ष- 10 अंक-4
वर्ष- 10 अंक- 3
अप्रैल-जून, 2019
पहले परीक्षा फिर परिणाम को लेकर तनाव
वर्ष- 10 अंक- 1
अक्टूबर-दिसम्बर, 2018
अखबार वितरकों की हड़ताल
वर्ष- 9 अंक- 4
जुलाई-सितम्बर, 2018
इंजीनियर का सपना देखते-देखते बना ठेका मजदूर
वर्ष- 8, अंक- 3
अप्रैल-जून, 2017
जुलाई-सितम्बर, 2019
अफसर, नेता, अस्पताल, बीमा कंपनी सबका हिस्सा फिक्स्ड है
-विपिन अघरिया
सितंबर 2018 से लागू मोदी सरकार-1 की प्रमुख योजनाओं में से एक आयुष्मान भारत योजना जिसे मोदी केयर भी कहा जा रहा है, स्वास्थ्य योजना लागू है। इसमें सामाजिक-आर्थिक जातीय जनगणना (एसईसीसी) 2011 के अनुसार कुल 10 करोड़ परिवारों जिसमें ग्रामीण इलाके के 8.03 करोड़ परिवार और शहरी इलाके के 2.33 करोड़ परिवार शामिल किये गये हैं, को 5 लाख प्रति वर्ष परिवार स्वास्थ्य बीमा कवर प्रदान किया गया है।
सरकार ने योजना के लाभ के लिए कुछ गैर सरकारी (जो सरकार के पैनल में शामिल हैं ) के साथ-साथ सरकारी अस्पताल भी शामिल किये हैं। चूंकि सरकारी अस्पतालां की स्थिति ऐसी है कि वहां पर बहुत कम संसाधनों के साथ डॉक्टर, नर्स आदि स्टाप की भी बहुत कमी है। ऐसी स्थिति में मरीज प्राइवेट अस्पताल में जाता है।
प्राइवेट अस्पतालों का हाल ये है कि वहां पर इलाज के रेट काफी ज्यादा हैं। प्राइवेट अस्पताल पैसे बनाने के लिए फर्जी बिल बना रहे हैं। डॉक्टर मामूली बिमारी में भी आपरेशन कर रहे हैं। प्राइवेट अस्पताल मरीज से भी पैसे लेते हैं और सरकारों से भी फर्जी बिल लगाकर पैसे लेते हैं।
प्राइवेट अस्पतालों, नौकरशाहों और बीमा कंपनियों का गठजोड़ काफी मजबूत है। बीमा कंपनी प्राइवेट अस्पतालों से समझौता करती है कि बीस से तीस प्रतिशत पैसा बीमा कंपनी का होगा।
भाजपा की सरकार बनने के बाद से सभी सार्वजनिक क्षेत्रों के निजीकरण में काफी तेजी आयी है। यह योजना भी एक ओर बीमा कंपनियों के मकड़जाल को बढ़ावा दे रही है और वहीं दूसरी ओर जो कोई मरीज सरकारी अस्पताल से इलाज भी करवा रहा था अब वह उसे भी ले पाने में असमर्थ होगा।
अब 2019 के बजट में इस योजना हेतु प्रस्तावित बजट को ही देखें। मोदी सरकार-2 ने 6400 करोड़ रूपये का बजट इस योजना हेतु रखा। चूंकि इस योजना में देश के 50 करोड़ से अधिक लोग शामिल हैं इस लिहाज से यह बजट बहुत ही कम है।
चूंकि पूरी व्यवस्था मुनाफाखोरी पर चल रही है तो इसमें भी अफसरों, नेताओं, बीमा कंपनियों और अस्पताल का मुनाफा फिक्स्ड रहा है।
आयुष्मान योजना में धोखाधड़ी और घोटालों का आलम यह है कि अपात्र लोगों के फर्जी तरीके से हैल्थ कार्ड बनाये गये।
एक खबर के मुताबित ऐसे भी मामले सामने आये हैं जहां एक ही डाक्टर एक ही दिन में चार जिलों में आपरेशन कर रहा है।
मरीजों की महंगी सर्जरी करने से लेकर कई अन्य मामले पूरे देश के सामने आ रहे हैं। जबकि हकीकत में जांच करने पर ऐसा नहीं पाया गया।
फर्जीवाडे की हद यह है कि डाक्टरों ने ‘पुरूषों के गर्भाशय’ निकालने के आपरेशन तक कर दिये।
असल में सरकार गरीबों के स्वास्थ्य से खिलवाड़ कर निजीकरण को बढ़ावा दे रही है और अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ रही है। चूंकि यह सरकार की जिम्मेदारी है कि देश के प्रत्येक नागरिक को स्वास्थ्य निशुल्क उपलब्ध कराया जाय लेकिन यह इस मुनाफाखोर व्यवस्था में नहीं हो सकता। इसके लिए सभी नागरिकों को एकजुट होकर सरकार की निजीकरण की नीति का विरोध करना पहला कार्यभार बन जाता है। और सबको स्वास्थ्य, निशुल्क स्वास्थ्य का नारा बुलंद करना होगा।
‘‘सुपर ब्रेन’’ योगः मानसिक स्तर बढ़ाने का नहीं गुलाम बनाने का योग
-पृथ्वी, बरेली
हम सभी लोग पूंजीवादी समाज में अपने जीवन को व्यतीत कर रहे हैं। हमारे दिमागों मेंं दिन और रात भर एक बात बार-बार घूमती रहती है कि कैसे हम अमीर बन जायें। और पूरी की पूरी दुनिया हमारी गुलाम हो। ये सोचना भी लाजमी है क्योंकि हमारे समाज ने हमारी सोच को ऐसा बनाया है। अब सभी के दिमाग में एक सवाल आया होगा कि कैसे हमारी सोच एक पूंजीवादी सोच बनी?
इस सवाल का हल भी हम सभी के पास है। जैसा कि हम सब जानते है कि हमारा समाज एक पूंजीवादी समाज है तब पूंजीवाद को कायम रखने के सभी उपाय भी पूंजी के मालिकों के पास हैं। हमारे शासकों के पास हैं। सभी प्रकार के संचार यंत्र उनके हैं। सभी किताबें, सभी समाचार चैनल, अखबार पूंजीवादी शासकों के हाथ में हैं। जब सबकुछ उनके पास है तब वह इन सभी साधनों का प्रयोग कर हमें पूंजीवादी सोच पर खड़ा करने की कोशिश करते रहते हैं। जिसमें उनका सबसे प्रमुख हथियार है शिक्षा व्यवस्था।
शिक्षा व्यवस्था एक ऐसा हथियार है जिससे पूंजीपति हमारे बचपन से ही हमें उस पूंजीवादी सोच पर खड़ा कर सकता है और हम विरोध भी नहीं करेंगे।
ऐसा ही हम देखें तो पायेंगे कि जबसे विभिन्न राज्यों और केन्द्र में भाजपा-एक पूंजीवादी पार्टी- शासन में आयी तब से बहुत तेजी से शिक्षा में आध्यात्मिक, अतार्किक, अवैज्ञानिक विचार बढ़ रहे हैं। जिसका एक उदाहरण है हरियाणा राज्य के भिवानी नामक स्थान का जिसके एक स्कूल डॉ0 एस. राधाकृष्णन स्कूल में एक नया योग आया है। जिसका नाम है सुपर ब्रेन। जिस पर हरियाणा शिक्षा बोर्ड के सचिव का कहना है कि ‘‘इस सुपर ब्रेन नामक योग से बच्चों का दिमान बहुत तेज हो जाता है। इस योग में बच्चों को 14 से 15 उठक-बैठक कान पकड़कर लगानी होती है जिससे उनका मानसिक स्तर बढ़ जाता है और वे पढ़ाई में अच्छे हो जाते हैं।’’ इस सुपर ब्रेन नामक योग को लागू करने से पहले उन्होंने इसे कुछ अध्यापकों से करवाया। उसके बाद 4 जुलाई, 2019 से डॉ0 एस. राधाकृष्णन स्कूल में पहला-दूसरा पीरियड इसी योग को करने के लिए लागू कर दिया। और बताया कि हम बच्चों को सैक्सन में बांटकर इसकी जांच करेंगे कि जिस सैक्सन के बच्चों ने इस योग को किया वे मानसिक स्तर से ऊपर उठे कि नहीं।
अब हमारे सामने इस प्रकार के बहुत से उदाहरण मौजूद हैं जो हमें बताते हैं कि हमारे जितने भी पूंजीवादी शासक हैं उनमें से कोई भी शासक यह नहीं चाहता है कि हमारे देश का प्रत्येक बच्चा व नौजवान पढ़े तथा वह देश के बारे में कुछ सोच सकने के योग्य बने, वह बस इतना चाहता है कि इस देश का नौजवान एक ऐसा जीवित प्राणी बन जाये जो किसी बात को बिना तर्क के माने व जाति, हिन्दू-मुस्लिम, ऊंच-नीच भेदभाव जैसी बेकार की चीजों में फंसकर आपस में लड़-मर जायें। और अपने आप को इस समाज का शासक होने के भ्रम में जीते-जीते एक दिन मर जाये।
अब जरूरत है कि तोड़ दिया जाय ऐसे भ्रम को और बनाया जाय एक ऐसा समाज जो हमको सिखाये कि जीना है तो आदमी के लिए। जिसमें सभी एक समान हों। कोई भी ऊंच-नीच का भेद न हो। सभी को वैज्ञानिक, तार्किक और सामाजिक ढंग से शिक्षा दी जाये। एक ऐसी दुनिया बनायी जाय जो कभी रूस और चीन में बनायी गयी थी। जिसे वहां के किसान, मजदूर, नौजवानों ने संघर्षां के द्वारा बनाया था।
वर्ष- 10 अंक- 3
अप्रैल-जून, 2019
पहले परीक्षा फिर परिणाम को लेकर तनाव
-पृथ्वी बरेली
उत्तर प्रदेश 2019 बोर्ड परीक्षा समाप्त हो चुकी है। सभी छात्र-छात्राओं के सिर से बहुत बड़ा तनाव का स्रोत समाप्त हो चुका है।
वैसे तो जब भी बोर्ड परीक्षाओं की तिथि आती है, 10वीं-12वीं के छात्र-छात्राओं के दिल की धड़कन तेज गति से चलने लगती है। सभी परीक्षार्थियों के दिल-दिमाग में एक ही ख्याल कि कैसे भी करके पूरे साल भर का कोर्स अंत के तीन चार महीनों में खा लिया जाए। और इस प्रकार खाया जाए कि वह परीक्षाओं तक पचे ना। क्योंकि परीक्षा के दिन उस खाए हुए कोर्स को 3 घंटे 15 मिनट में निकालना भी होता है। नतीजा निकलता है कि छात्र-छात्राएं अपना पेट अच्छे से खराब करते हैं, वे अच्छे अंकों से पास होते हैं। बाकी सब जिनकी तैयारी अच्छी नहीं होती वह हमेशा यही सोचते रहते हैं कि कब परीक्षा के दिन में पहला घंटा बजे और हम सू-सू के बहाने क्लास रूम से बाहर जाकर किन्हीं दूसरे छात्र-छात्राओं से मिलकर कम से कम बहुविकल्पीय प्रश्न ही पूछ लें। जिससे मन में एक ही आशा उभरती है कि शायद पास हो जाऊं। ऐसा चलते-चलते हमारी बोर्ड परीक्षा समाप्त होती हैं। और 1 दिन आता है जिस दिन अत्यधिक विद्यार्थी आत्महत्या करते हैं, परीक्षा के परिणाम का दिन। इस दिन सभी छात्र-छात्राएं अपने परिणामों को देखते हैं। जिससे लगभग 30 प्रतिशत छात्र-छात्राएं जिनका परिणाम अच्छा होता है। और बाकी बचे 70 प्रतिशत विद्यार्थी अपने मन मस्तिष्क पर बहुत सारा तनाव का बोझ लिए बोझिल से होकर किसी व्यक्ति को अपना चेहरा भी नहीं दिखाते। क्योंकि वह व्यक्ति कहीं उसका परिणाम न पूछे। अगर ऐसा होता है तब उसमें से कुछ विद्यार्थी विद्या की अर्थी चढ़ा कर आत्महत्या कर लेते हैं।
ऐसा क्यों होता है? क्यों विद्यार्थी परीक्षाओं के कारण तनाव में आकर आत्महत्या करते हैं? क्यों वे किताबों के ज्ञान को (इतिहास, भूगोल, सामाजिक विज्ञान इत्यादि) समझने के स्थान पर उसे रटने की कोशिश करते हैं तथा उम्मीद करते हैं कि वह पूरे कोर्स को कम समय में खा लेंगे। ऐसा क्यों होता है?
ऐसा होता है इस दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत की सड़ी-गली, घिसी-पिटी शिक्षा व्यवस्था के कारण। एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था जिसका उद्देश्य छात्र-छात्रा को एक जिम्मेदार नागरिक इंजीनियर, आईएएस, पीसीएस बनाना नहीं बल्कि ऐसे रोबोट को तैयार करना है, जो हमारे देश के पूंजीपति और नेताओं के द्वारा दिए गए निर्देशों का पालन करें। और जो पूंजीपतियों के हाथ की कठपुतली हांगे। और उनके आदेशों का पालन करेंगे। वे नहीं सोचेंगे कि उनकी भी जिंदगी है जिसे उन्हें सुधारना है, उनका भी कोई वजूद है। समाज में, वे यह तक नहीं सोच पाते कि वह इस समाज का हिस्सा हैं। अपनी मूलभूत आवश्यक वस्तुओं के बारे में विचार करना भी वे भूल जाते हैं। वे रोबोट केवल इतना जानते हैं कि उन्हें सुबह 6 बजे उठना है, नहाना है, धोना है और फैक्टरी में जाकर 12 घंटे ऐसा पसीना बहाना है कि मालिक बैठे-बैठे खा सके। रात में खा कर सो जाना है।
इस प्रकार के रोबोट तैयार करने के लिए भारतीय शिक्षा व्यवस्था ने सबसे पहले तो बच्चों से उसके तर्क करने की क्षमता छीन ली। जिसे हम एक उदाहरण से समझ सकते हैं। माना एक छोटा बच्चा जो 5 वीं कक्षा में पढ़ता है। वह अपने पिता से पूछता है पापा-पापा यह पृथ्वी, चंद्रमा, सूर्य गोल क्यों है? तब उसे जवाब में मिलते हैं दो थप्पड़। और कहा जाता है तुझे 9 का पहाड़ा याद हो गया। तू परीक्षा में क्या लिखेगा। तर्क करने की क्षमता यहीं तबाह हो जाती है।
और दूसरा एक फार्मूला निकलता है जिससे बहुत से छात्र-छात्राएं आत्महत्या की ओर अग्रसर होते है। और यह है मार्क्स बराबर इज्जत।
इससे यह पता लगता है कि एक विद्यार्थी के मार्क्स जितने अच्छे होंगे उसकी समाज में उतनी ही इज्जत होगी। यह विद्यार्थी समाज में एक अच्छा स्थान पाने लायक है। जिस विद्यार्थी के मार्क्स कम होते हैं वह तनाव और अवसाद, तानों और अपनी बुराई रूपी जहर को नाश्ते में खा कर आत्महत्या कर लेते हैं। और शहीद हो जाते हैं।
इस तरह भारतीय शिक्षा व्यवस्था बच्चों के तर्क करने की क्षमता अंकों के लालच में उसके शौक, उसकी भावनाओं को खत्म कर रोबोट बनाने की ओर बहुत तेज गति से अग्रसरित है। यह बनाती है एक ऐसा रोबोट जो बिना तर्क के निर्देशों का पालन करता रहे।
अब बात आती है कुछ बच्चे फेल हो जाते हैं उनकी हालत तो धोबी के कुत्त जैसी हो जाती है। हमारे समाज में वे न तो मुंह दिखाने लायक रहते हैं और न ही कोई काम करने के। उन्हें कुछ ऐसी बातें सुनने को मिलती हैं कि हमारे पड़ोस में जो लड़का है, उसके 90 प्रतिशत अंक हैं। कुछ सीख उससे।
ऐसी बातों से बचने के लिए विद्यार्थी अपनी सारी किताबों को समझने के लिए नहीं बल्कि रटने के लिए मजबूर हो जाते हैं। माना 2 दिन बाद रसायन विज्ञान की परीक्षा है तो बच्चों का जाप शुरू भ्2ैव्4 भ्2ैव्4 भ्2ैव्4 केमिस्ट्री खत्म। इतिहास की परीक्षा है तो गांधी..गांधी...गांधी... इतिहास खत्म। सबसे बेहतर और सरल है भौतिकी को रटना। माना दो व्यक्ति लड़ाई करते हैं न्यूटन खत्म। नाव को पानी पर तैराया आर्कमिडीज खत्म। पानी का बुलबुला रंगीन दिखा व्यतिकरण खत्म इत्यादि। ऐसे बहुत से उदाहरण हमें हमारे समाज में मिल जाते हैं।
अब हमें चाहिए कि इस पूंजीवादी शिक्षा व्यवस्था को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए एकजुट होना होगा और स्थापित करनी होगी एक ऐसी व्यवस्था जो प्रत्येक छात्र-छात्रा को ऐसी विचारधारा पर खड़ा कर दें जिससे प्रत्येक विद्यार्थी स्वयं को तथा इस समाज को भली-भांति समझ पाए। निर्मित करें एक ऐसे समाज को जिसमें सभी छात्र-छात्राएं आगे चलकर एक जिम्मेदार नागरिक हों तथा पूंजी को सर्वोपरि न मानकर समाज तथा समाज से जुड़ी प्रत्येक वस्तु को तार्किक ढंग से समझने का प्रयत्न करें। और वह यह भी समझे कि पूंजीवादी व्यवस्था क्या है और इसे समाप्त करने के लिए कौन सा रास्ता श्रेष्ठ है। इसे बदलने के लिए हम सभी छात्र-छात्राएं एकजुट हों। प्रयास करें कि इस समाज को बदलने का, एक क्रांति करने का।
वर्ष- 10 अंक- 1
अक्टूबर-दिसम्बर, 2018
अखबार वितरकों की हड़ताल
-मोहन मटियाली
हल्द्वानी के अखबार वितरकों ने सितम्बर माह में अपनी कमीशन बढ़ोत्तरी की मांग के लिए आंदोलन किया। आंदोलन के दौरान वितरकों ने दो दिन पूरे शहर में अखबार वितरण बंद करने के साथ-साथ अमर उजाला व दैनिक जागरण प्रेस में धरना भी दिया। हिन्दुस्तान प्रेस में धरना देने वाले दिन अखबार प्रबंधकों के साथ वार्ता की गयी। जिसमें अखबार का मूल्य 5 रूपये करने के साथ वितरकों को 1.50 रूपये कमीशन पर सहमती बनी।
आंदोलन के दौरान संघर्षरत वितरकों को अलग-अलग अनुभव हासिल हुए। जिसमें वितरकों के दबाव में अखबारों के कर्मचारी चैराहे-चैराहे पर स्टाॅल लगाकर अखबार वितरण का कार्य कर रहे थे। एक चैराहे पर वितरण कार्य कर रहे कर्मचारी से 65 वर्ष के बुर्जुग व्यक्ति अखबार लेने आये। और 100 रूपये देकर बोलते हैं अमर उजाला दे दो। कर्मचारी उनसे बोलता है अंकल खुले नहीं हैं। वह बोलते हैं मेरे पास भी खुले पैसे नहीं है। कल तक हमारे घर में एक लड़का आता था और सुबह-सुबह अखबार दे जाता था। वह आ नहीं रहा है। मैं यहां आकर अखबार ले रहा हूं और तुम कहते हो खुले नहीं हैं। चैराहे पर अखबार बेच रहे हो तो खुला रखा करो। इतने में गुस्साये चेहरे से कर्मचारी बोला में आपको अखबार बेचने वाला लगता हूं। मैं प्रेस का कर्मचारी हूं। बुजुर्ग ने कहा कर्मचारी भइया आप जो भी हों अभी तो अखबार ही बेच रहे हो। कर्मचारी बोलता है अखबार बेचने वालों की हड़ताल है इसलिए बेच रहा हूं।
यह अखबार बड़े-बडे़ विज्ञापनों से भरे पड़े होते हैं। जिससे प्रेस मालिक व प्रबंधन, खूब मुनाफा कमाकर ऐशो-आराम करते हैं। लेकिन इनके अखबारों का वितरण कर उसे घर-घर में पहुंचाकर अखबार को नम्बर वन बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले मेहनतकशों के प्रति ये लोग हेय दृष्टिकोण रखते हैं।
आंदोलनरत वितरकों की एकता को तोड़ने की भरसक कोशिश मालिकों द्वारा की गयी। लेकिन वह सफल ना हो सका। वितरकों की एकता के दबाव में प्रबंधक वर्ग वितरकों का प्रति अखबार कमीशन बढ़ाने को मजबूर हुआ। हम मेहनतकशों को अपनी एकता को और अधिक मजबूत करना होगा। ताकि हम मालिकों से अपने हक के लिए लड़ सकें।
आंदोलन के दौरान संघर्षरत वितरकों को अलग-अलग अनुभव हासिल हुए। जिसमें वितरकों के दबाव में अखबारों के कर्मचारी चैराहे-चैराहे पर स्टाॅल लगाकर अखबार वितरण का कार्य कर रहे थे। एक चैराहे पर वितरण कार्य कर रहे कर्मचारी से 65 वर्ष के बुर्जुग व्यक्ति अखबार लेने आये। और 100 रूपये देकर बोलते हैं अमर उजाला दे दो। कर्मचारी उनसे बोलता है अंकल खुले नहीं हैं। वह बोलते हैं मेरे पास भी खुले पैसे नहीं है। कल तक हमारे घर में एक लड़का आता था और सुबह-सुबह अखबार दे जाता था। वह आ नहीं रहा है। मैं यहां आकर अखबार ले रहा हूं और तुम कहते हो खुले नहीं हैं। चैराहे पर अखबार बेच रहे हो तो खुला रखा करो। इतने में गुस्साये चेहरे से कर्मचारी बोला में आपको अखबार बेचने वाला लगता हूं। मैं प्रेस का कर्मचारी हूं। बुजुर्ग ने कहा कर्मचारी भइया आप जो भी हों अभी तो अखबार ही बेच रहे हो। कर्मचारी बोलता है अखबार बेचने वालों की हड़ताल है इसलिए बेच रहा हूं।
यह अखबार बड़े-बडे़ विज्ञापनों से भरे पड़े होते हैं। जिससे प्रेस मालिक व प्रबंधन, खूब मुनाफा कमाकर ऐशो-आराम करते हैं। लेकिन इनके अखबारों का वितरण कर उसे घर-घर में पहुंचाकर अखबार को नम्बर वन बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले मेहनतकशों के प्रति ये लोग हेय दृष्टिकोण रखते हैं।
आंदोलनरत वितरकों की एकता को तोड़ने की भरसक कोशिश मालिकों द्वारा की गयी। लेकिन वह सफल ना हो सका। वितरकों की एकता के दबाव में प्रबंधक वर्ग वितरकों का प्रति अखबार कमीशन बढ़ाने को मजबूर हुआ। हम मेहनतकशों को अपनी एकता को और अधिक मजबूत करना होगा। ताकि हम मालिकों से अपने हक के लिए लड़ सकें।
मेरी प्रिय पुस्तक- ‘‘मां’’
‘‘मां’’ उपन्यास मक्सिम गोर्की द्वारा सन 1906 में लिखा गया। यह वास्तविक घटना पर लिखा गया है। इस उपन्यास में रूस में मजदूरों के जीवन का वर्णन किया गया है। साथ ही मजदूर के क्रांतिकारी बनने और उसके अदम्य साहस को भी इस उपन्यास में बताया गया है। सामान्य से मजदूर वर्ग के लोग जब क्रांतिकारी विचारों को ग्रहण करते हैं तो वे कितने जुझारू क्रांतिकारी बन जाते हैं यह इस उपन्यास में बेहतरीन ढंग से पेश किया गया है।
उपन्यास के मुख्य किरदार मां (पेलागया निलोवना) और उसका बेटा पावेल है। पावेल के पिता फैक्टरी में मिस्त्री हैं। वह हमेशा शराब पीकर घर आता और अपनी पत्नी को पीटता था। हार्निया की बिमारी के कारण उनकी मौत हो जाती है। अंतिम संस्कार में भी कोई नहीं आता। मां-बेटा और कुछ भिखमंगों द्वारा उनका अंतिम संस्कार किया जाता है। उसके बाद पावेल भी अपने पिता के समान सभी बुरी आदतों को पकड़ लेता है। वह शराब पीना, लड़ाई इत्यादि करने लगा।
कुछ समय बाद वह शराब छोड़ देता है। वह किताबें पढ़ता और फिर उन्हें छिपा देता। इसी तरह के कई बदलाव देखकर पावेल की मां बेहद चिंताग्रस्त हो जाती है। उसके जीवन में आये इन बदलावों के बारे में जब मां पूछती है तो पावेल कहता है- ‘वह ऐसी किताबें पढ़ता है, जिसमें मजदूर-मेहनतकशों की समाज में स्थिति और सच्चाई के बारे में बताया गया है।’ लोग शहर से पावेल के घर चर्चा करने आने लगे। मां शुरुआत में उन लोगों से बहुत डरती है और छिपकर उनकी बाते भी सुना करती थी। सारा (लड़की का नाम) ने कहा- ‘‘हम समाजवादी हैं, हम सभी मजदूरों-मेहनतकशों को अपना साथी मानते हैं’’। उक्रइनी कहता है ‘‘हम किसी जाति धर्म या कौम का भेद नहीं मानते सिर्फ साथी या दुश्मन मानते हैं। सारे मेहनतकश हमारे साथी हैं और सब अमीर और सरकार दुश्मन हैं।’’
वह फैक्टरी, बस्ती में पर्चे बांटते थे। कुछ लोग समझने की कोशिश करते कुछ विरोध करते थे। राजनीतिक पुलिस लोगों की तलाशी लेती और संदिग्धों को जेलों में बंद भी करती। फैक्टरी में एक संघर्ष के दौरान कुछ मजदूरों व पावेल को भी गिरफ्तार कर लिया जाता है। गिरफ्तारी के बाद मां ने बड़ी सतर्कता से पर्चे बांटे। मां धीरे-धीरे बातों को समझ रही थी वह पढ़ने की भी कोशिश कर रही है।
मजदूर दिवस के दिन जुलूस निकाला गया। जुलूस में बहुत सारे मजदूर थे। पावेल झण्डा लेकर जुलूस को सम्बोधित कर रहा था। सभी लोग ध्यानपूर्वक उसकी बात सुन रहे थे। जुलूस गीत गाता हुआ नारे लगाता हुआ आगे बढ़ रहा था। वे मांग कर रहे थे ‘मई दिवस के दिन फैक्टरी बंद करो’ पुलिस द्वारा लोगों को गिरफ्तार किया जाता है। झण्डा जमीन पर गिर जाता है। मां झण्डे के कपड़े को घर ले आती है।
मां अब राजनीतिक, सांगठनिक कामों में पहले से भी अधिक रुचि लेने लगती है। वह निकोलाई इवानोविच के साथ शहर रहने लगती है। निकोलाई की बहन सारा और मां किसानों के लिए अखबार निकालने की योजना बनाते हैं और किसानों से मिलने भी जाते हैं। मां पर्चे लेकर गांव जाती है। रीबिन और किसानों के पास वह इस बार अकेले और अलग रास्ते से जाती है। मां देखती है कि रीबिन को परचे बांटने के आरोप में पुलिस द्वारा पकड़ लिया गया है। रीबिन जोर से कहता है- ‘‘उन परचों में जो लिखा है उस पर यकीन करना मुमकिन है। उनके लिए मुझे अपनी जान की कीमत चुकानी पड़े। आप अपने घूंसों से सच्चाई को नहीं बदल सकते’’। रीबिन मां को देख लेता है। रीबिन के किसान साथी मां को वहां से ले जाते हैं और उनसे पर्चे लेकर उन्हें बांटने की जिम्मेदारी लेते हैं।
उधर पावेल और अन्य मजदूरों पर मुकदमा शुरु होता है। अदालत में खड़े होकर पावेल कहता है- ‘‘पार्टी के सदस्य की हैसियत से मैं केवल पार्टी के फैसले को ही मानता हूं। इसलिए मैं अपनी सफाई में कुछ नहीं कहूंगा। हम समाजवादी हैं। इसका मतलब है कि हम निजी सम्पति के खिलाफ हैं, जो समाज को छिन्न-भिन्न करती है। लोगों को एक दूसरे का दुश्मन बनाती है। हम क्रांतिकारी हैं उस वक्त तक क्रांतिकारी रहेगें जब तक दुनिया की हालत यही रहेगी कि कुछ लोग सिर्फ हुक्म देते हैं और कुछ लोग काम करते है, हम इस समाज के खिलाफ हैं।’’ सभी लोगों को निर्वासन की सजा सुनाई जाती है।
पावेल का भाषण छपवाया जाता है। किन्तु पुलिस के जासूस लोगों के पीछे पड़ जाते हैं। जगह-जगह पुलिस के छापे पड़ते हैं। मां भाषण के पर्चे को सूटकेस में लेकर जा रही होती है। अंत में वह पकड़ी जाती हैं। वह पर्चे को दूर-दूर तक फैलाती है। जिससे वह अधिक लोगों तक पहुंच जायें। और लोग उन्हें पढ़ लें। मां को गिरफ्तार कर लिया जाता है। मां कहती है- ‘‘सच्चाई को कभी खून की नदियों में नहीं डुबाया जा सकता जितना अत्याचार करोगे उतनी नफरत बढ़ेगी’’।
वर्ष- 9 अंक- 4
जुलाई-सितम्बर, 2018
इंजीनियर का सपना देखते-देखते बना ठेका मजदूर
बचपन में मास्टर साहब ने कक्षा में पूछा, ‘‘बेटे बड़े होकर क्या बनोगे?’’ मैंने तपाक से जवाब दिया, ‘‘इंजीनियर’’। मास्टर साहब ने कहा कि बेटे इंजीनियर बनने के लिए बहुत पढ़ाई करनी पड़ती है। मैंने कहा, मास्टर साहब मैं अपने लक्ष्य को पाने के लिए रात-दिन एक कर दूंगा। मैंने दसवीं की परीक्षा पास की। अब इंजीनियर की पढ़ाई भी साथ-साथ करता रहूंगा और टैस्ट निकाल ले जाऊंगा। जब वास्तविक दुनिया में कदम रखा तो पता चला कि बिना कोचिंग टैस्ट निकालना बेहद कठिन है। जब कोचिंगों की फीसें मालूम की तो पता चला एक वर्ष की फीस 1 लाख रूपये से अधिक है, उसके बाद भी गारंटी कुछ नहीं है। इंजीनियरिंग की अच्छी किताबें भी काफी महंगी हैं। स्कूल में 4 साल से गणित के शिक्षक लाने के लिए अभिभावक संघर्ष कर रहे थे। बाहर कोचिंगों में शिक्षकों की भरमार है। परंतु सरकार हमारे विद्यालय में गणित के शिक्षक की भर्ती क्यों नहीं कर रही होगी? जब इस बात के लिए पता किया तो पता चला कि पूरे प्रदेश में सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की स्थिति और भी बुरी है। तब सरकार के उस वायदे की हकीकत समझ में आई कि सरकारी स्कूलों में प्रवेश लो तो कहती है परंतु वहां पर शिक्षा की गुणवत्ता की जगह मिड डे मील के अंतर्गत छात्रों को भात वितरित किया जाता है। शिक्षकों के रिक्त पदों को भरवाना सरकार ने उचित नहीं समझा। सवाल दिमाग में घूमता रहा कि मेरे सपने का क्या होगा। किसी तरह अड़ोस-पड़ोस के भाईयों से सहायता लेकर इन्टर में सेकण्ड डिविजन पास हुआ। कई महाविद्यालयों में प्रवेश के लिए गया सभी ने सेकण्ड डिविजन पास होने को कारण बताया कि आपका प्रवेश नहीं हो सकता अब मुझे अपने इंजीनियर बनने के सपने को पूरा करने का हौसला कम होने लगा।
फिर मैंने सोचा हमारे गांव के बहुत से नौजवान हरिद्वार सिडकुल में जाते हैं। वहां वे पैसा भी कमाते हैं और कुछ ने साथ-साथ में बी.ए, बी.काम की पढ़ाई पूरी की। अब मेरा मन भी यह हुआ कि एक-दो साल कंपनी में काम करते हुए पैसा जमा करूंगा फिर कोचिंग लगा कर इंजीनियरिंग करूंगा।
अंततः गांव के कुछ बड़े भाईयों के साथ मैं इंजीनियरिंग के सपने के साथ सिडकुल में नौकरी के लिए निकल गया। जब मैं अपने गांव के भाईयों के साथ एक मजदूर बस्ती(रावली महदूद) पहुंचा। जहां अप्रैल माह में सड़कों में नाले का पानी बह रहा था। और चारों तरफ मच्छर मानो हमारे स्वागत के लिए उमड़ पड़े। तब सोचा कि स्कूल में रोज प्रधानाचार्य कहते थे कि ‘स्वच्छ भारत अभियान’। टीबी, अखबारों में नेता, मंत्री झाडू लगाये सड़कों पर फोटो खिचातें हैं। फिर लगा स्वच्छ भारत अभियान मजदूर बस्तियों के लिए नहीं होता होगा।
जब भाईयों के कमरे में प्रवेश किया तो उस मकान में 50-60 कमरे किराये के लिए बने थे। प्रत्येक कमरे में 4-5 लड़के मिलकर रह रहे थे। कुछ बर्तन-भाड़े, एक टिफिन, मामूली कपड़े यही संपत्ति अधिकांश कमरों में हमें झांक रही थी। सुबह 10-11 बजे देखा कि अधिकांश लड़के गहरी निद्रा में सोये हुए हैं। मैंने पूछा तो पता चला कि रात में 12-12 घंटे की ड्यूटी करके आये हैं। दिनभर सोये रहते हैं। यहां दो दिन में ही मुझे लगने लगा कि चार बहिनों में मैं अकेला भाई था। घर में इसलिए खूब नखरे पालता था। ये सब्जी खानी है, ये नहीं खानी है। साफ-सफाई का बहुत ध्यान रखता था। अकेला सोता था। पानी थोड़ा गंदा हो गया तो नहाता नहीं था।खाना बनाने के लिए घर वाले कहते थे कि ये काम तो लड़कियों का होता है तू तो हमारा प्यारा भाई है। तू पढ़ाई कर खाना व अन्य घरेलू काम तो लड़कियों के होते हैं। हमें पराये घर में जाकर भी यही काम करने होते हैं। आप सोच रहे होंगे कि मेरी पुरानी बातों का यहां क्या मतलब होगा। मतलब यह है कि अब मुझे जिंदगी में वास्तविक रूप से आगे बढ़ने में बहुत कठिनाईयों का सामना करना पड़ रहा था। अकेला सोने वाला 4-4 साथियों के साथ सोना पड़ रहा है। कभी किचन में काम न करने वाला या ये कहें कि किचन के कामों को लड़कियों व औरतों का समझने वाला आज काफी कठिनाईयों से खाना बनाना सीखा। पसंदगी-नापसंदगी सब धरी रह गयीं। कुछ हफ्ते छोटी-बड़ी फैक्टरियां में धक्के खाने के बाद कुछ ठेकेदारी के तहत काम पर रखने की बात कर रहे थे। 8 घण्टे के 5 हजार रूपये परंतु शिफ्ट बारह घंटे चलेगी। इतवार की भी छुट्टी नहीं रहती है। 30 डयूटी के 5 हजार रूपये। ओटी का दूगुना नहीं मिलेगा। कैंटीन, ड्रैस व जूते की कोई व्यवस्था नहीं है। तब मैंने सहमते हुए पूछा कि मैं ओवर टायम नहीं करना चाहता, मैं आठ घंटे ही करूं तो कोई दिक्कत तो नहीं। उस पर ठेकेदार ने कहा 8 घंटे तो औपचारिक हैं। वास्तविक रूप से अधिकांश कंपनियों में 12-12 घंटे की शिफ्ट होती है। खैर अब मेरी जिंदगी एक कंपनी में एक मजदूर से शुरू हुयी।
मैं ड्रग फैक्टरी में 12 घंटे की ड्यूटी वाला काम करने लगा। तीन-चार दिन तो मेरे लिए बहुत कष्टदायक रहे। हाथ-पैर इस कदर थक जाते थे कि कभी-कभी चाय के ब्रेक में ही नींद आ जाती थी। कमरे पर लौट कर ऐसा मन करता था कि बिना खाये सो जाऊं। सुबह जल्दी उठना सबसे ज्यादा पीड़ादायी होता था। कारखाने में सुपरवाइजर, इंजीनियर की गाली-गलौच इसलिए सुन लिया करता था कि मेरी मंजिल एक इंजीनियर बनना था।
मैने एक कहानी सुनी थी कि एक लड़का स्कूल में दाखिला पाने के लिए मजदूरी करके फुटपाथों पर सोया करता था। कई सौ किलोमीटर की दूरी पैदल व सवारी लेकर वह जब अपने सपनों के स्कूल में पहुंचा वहां उसने झाडू लगाकर अपनी परीक्षा पास की थी। इस कहानी को मैं याद करता और देश के प्रधानमंत्री का नारा ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ याद करता। किसी तरह मैंने एक-दो महीने काम किया तो पला चला कि 12 घंटे की ड्यूटी करके साढे़ सात हजार रूपये मिलने थे। जबकि मेरी 5-6 छुट्टियां हो गई, कुल मिलाकर 6000 रूपया हाथ में आया। कमरे का किराया, खाने का खर्चा, टैम्पू का किराया, मोबाइल आदि के खर्च में 5000 रूपया खर्च हो गया। अब मेरे सपने डोलने लगे। पूरे महीने भर यही सोचता रहा कि सेलरी मिलेगी तो पहले अच्छी किताबें खरीदूंगा फिर धीरे-धीरे कोचिंग के लिए फीस जमा करूंगा। लेकिन एक महीने के कारखाने के अनुभव ने बता दिया कि मेरे जैसे हजारों नवयुवक 10-15 सालों से यही सपने सजोये थे। परंतु सपने बिखरते ही गये क्योंकि मेरे को काम सिखाने वाला ओपरेटर दो हफ्ते से जौलीग्रांट में फेफड़े के इन्फेक्शन के कारण भर्ती था। ड्रग कंपनी में बिना सुरक्षा उपकरणों के डस्ट फेफड़ों पर अटैक करती है। रोज मैं दोस्तों से सुन रहा था। ज्यादा बड़ी डिग्रियां लगाओगे तो काम नहीं मिलेगा। हाईस्कूल-इंटर पास लड़कों को ही काम पर रख रहे हैं। अधिकांश लड़कों ने अपनी कुछ डिग्रियां हटाकर नए रिज्यूम बनाये। पाली. व बी.टैक किये छात्रों को भी अस्थाई काम पर 8-9 हजार रूपये में काम करना पड़ रहा था। यहां से मेरे सपनों को और झटका लगने लगा। मेरी हिम्मत टूटने लगी। जहां मैं सोच रहा था कि किसी भी तरह कठिन परिश्रम करके इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करूंगा।
यहां एक अनोखी दुनिया का एहसास हुआ जो 14 साल पहले एक फैक्टरी लगी थी, आज उसके हरिद्वार क्षेत्र में 22 प्लांट लग चुके हैं। परंतु उन फैक्टरियों में युवा जीवन में लगे मजदूर आज बहुत बुरी स्थिति में पहुंच गये हैं। 8 घंटे की जगह 12 घंटे काम लिया जाता है। काम प्रोडक्शन में कराया जाता है और खुश रखने के लिए नाम स्टाप का दिया जाता है। 10 से 12 साल ठेकेदारी के तहत काम करते हुए हो गया है। अभी कंपनी की तरफ के स्थाई नहीं हुए हैं। श्रम कानूनों में दर्ज सारे अधिकारों की खुलेआम धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। 240 दिन किसी कंपनी में काम करने पर स्थाई होना, 150 से अधिक मजदूरों पर कैंटीन की सुविधा, ओटी का दुगुना, कंपनी का परिचय पत्र, 8 घंटे से अधिक काम जबरदस्ती न कराना व अपने अधिकारों की रक्षा के लिए यूनियन बनाना आदि श्रम अधिकारों को एक-एक करके मालिकों के हक में बदला जा रहा है। और प्रधानमंत्री जी इन श्रम अधिकारों पर हमले को ‘श्रमेव जयते’ का नारा दे रहे हैं।
कई बार समाचार व मन की बात में मैंने देश के प्रधान सेवक को यह कहते हुए सुना कि मुझे हिंदुस्तान के एक सौ तीस करोड़ जनता की चिंता है। ‘सबका साथ सबका विकास’ नारा उसी तरह साबित हो रहा है जैसे एक समय देश की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने नारा दिया था- ‘गरीबी हटाओ’, गरीबी तो हटी नहीं परंतु गरीब जरूर हटे। जब तक सिडकुल नहीं पहुंचे तब तक लगा शायद देश में स्किल्ड नौजवानों की कमी है। इसलिए स्किल इंडिया का नारा दे रहे हैं परंतु वास्तविक रूप से कंपनी पहुंचने के बाद लगा कि स्किल्ड यूथ को किल (kill) किया जा रहा है।
एक रात में 5 सौ व हजार के नोटों को बंद करने की ताकत रखने वाले प्रधानमंत्री जी मजदूरों के निर्मम शोषण होने पर आपका 56 इंच का सीना क्यों सिकुड़ जाता है और मालिकों पर कोई सख्ताई नहीं दिखाते। वैसे झूठ बोलना तो आपकी पुरानी आदत है। क्योंकि प्रधानमंत्री बनने से पहले आपने भाषण दिया था कि मैं विदेश से काला धन ला कर प्रत्येक देशवासी के खाते में 15 लाख डाल दूंगा। नहीं तो सौ दिन में मुझे चौराहे पर फांसी लगा देना। इस झूठ को बोले 4 साल हो गये है।
ऐसी झूठी व्यवस्था के कारण मेरे जैसे लाखों-करोड़ों नौजवानों के सपने टूट रहे हैं, बिखर रहे हैं तथा चकनाचूर हो रहे हैं। इसके समाधान के लिए आगे आना ही होगा।
वर्ष- 8, अंक- 3
एंटी रोमियो स्क्वाइड का महिलाओं की आजादी पर हमला
सूबे में निजाम बदलने का असर प्रदेश में दिखने लगा है। यह असर सकारात्मक नहीं बल्कि घोर नकारात्मक विद्वेष से भरा है। फासीवादी मंसूबों को आगे बढ़ाने वाला है। योगी आदित्यनाथ ने अपने दफ्तर में बैठे और बिना कैबिनेट की बैठक कर कई फरमान (फतवे) सुना दिये। इन्हीं में से एक है एंटी रोमियो स्क्वाइड।
भाजपा ने अपने घोषणा पत्र में महिला सुरक्षा के नाम पर ‘एंटी रोमियो स्क्वाइड’ के गठन वायदा किया था। सर्वप्रथम इस दल को उत्तर प्रदेश के 11 जिलों में शुरू किया गया है। इसका गठन किये लगभग एक महीना पूरा होने को आया है लेकिन महिलाओं के प्रति अपराध फिर भी कम नहीं हो रहे हैं। क्योंकि ‘एंटी रोमियो स्क्वाइड’ की मंशा ही नहीं है कि महिलाओं के साथ बढ़ते अपराध खत्म किये जायें। ‘एंटी रोमियो दल’ को गठित करने वाले लोग कौन हैं? ये वह लोग हैं जो वेलेन्टाइन डे के दिन लड़के-लड़कियों के साथ अनेक तरह ही बदतमीजी करते हैं। ये वह लोग हैं जो कहते हैं कि भारत मुस्लिम राष्ट्र ना बन जाये इसके लिए हिन्दू महिलाओं को भी चार से अधिक बच्चे पैदा करने चाहिए। ये वही लोग हैं जो ‘लव जिहाद’ का झूठा प्रचार कर देश में साम्प्रदायिक धु्रवीकरण करते रहे हैं। ये महिलाओं की स्वतंत्रता के घोर विरोधी हैं। ये महिलाओं को घर की चारदीवारी में कैद करना चाहते हैं। ‘एंटी रोमियो दल’ असल में महिलाओं की स्वतंत्रता-जनवाद को खत्म कर देने, प्रेम सम्बंधों के बनने को हतोत्साहित करने और ‘लव जिहाद के नाम पर मुसलमान युवकों को निशाना बनाने के लिए गठित किया गया है। यह बात ‘एंटी रोमियो दल’ के गठन के बाद किये गये कारनामों से भली भांति पता चल जाती है।
दल के गठन के बाद इसके काम के बारे में बात करें तो पुलिस बल ने इसका पूरे तन, मन से साथ दिया है। पुलिस अधिकारियों या मुख्यमंत्री जी का कहना है कि मर्जी से घूम रहे लड़के-लडकियों को परेशान नहीं करेंगे लेकिन ऐसा व्यवहार में कहीं भी दिखाई नहीं दे रहा है। कुछ एक दिन पहले ‘एंटी रोमियों दल’ द्वारा रूहेलखंड यूनिवर्सिटी बरेली में मर्जी से बैठे लड़के-लड़कियों को परेशान किया जबकि वहां एक साथ लड़के-लड़कियों का बैठे रहना एक सामान्य बात है। इससे पता चलता है कि ‘एंटी रोमियो दल’ महिला-पुरूषों की निजता पर हमला है। तमाम स्थानों पर साथ में घूमते व बैठे नवयुवती-नवयुवकों को परेशान किया गया। उन्हें जलील किया गया कुछ जगहों पर तो भाई-बहनों को प्रेमी ना होने का सबूत देकर ही छोड़ा गया। योगी के फतवे को और अधिक मुस्तैदी के साथ लागू करते कुछ पुलिसकर्मियों ने तो लड़कों को मुर्गा बना दिया या उनकी पिटाई तक कर डाली।
इस दौरान यूपी के हाईकोर्ट के द्वारा भी ‘एंटी रोमियो दल’ की मुहिम की सराहना की गई तथा इस दल के द्वारा महिला-पुरुषों की निजता पर हमले के आरोप को निरस्त करते हुए इसे महिलाओं के लिए जरूरी बताया।
यदि बात करें कि महिलाओं के साथ अपराध बढ़ रहे हैं तब कोई भी इंकार नहीं करेगा तथा यह भी इंकार नहीं करेगा कि अपराध खत्म होने चाहिए। लेकिन क्या इस तरीके के दल द्वारा इन अपराओं को खत्म किया जा सकता है। बिल्कुल नहीं। क्योंकि महिला अपराधों की जड़ इस मुनाफाखोर व्यवस्था की जड़ में है। जैसे कि 60-70 प्रतिशत महिलाओं पर हो रहे अपराध घरों की चार दिवारी के अंदर होते हैं। यहां यह योजना फेल है तथा पौर्न फिल्मों का चलन तथा नेताओं का सदन के अंदर पौर्न फिल्म देखना उनके मानसिक दिवालियापन को दिखाता है।
क्या एंटी रोमियो दल की मंशा हो सकती है कि पौर्न फिल्मों पर बैन लगना चाहिए तथा सेंसर बोर्ड द्वारा पास किये गई आइटम सांग या भद्दी फिल्में भी बैन हो? जो महिला अपराधों के बढ़ा रही हैं। इन सब पर ‘एंटी रोमियो दल’ तथा माननीय मुख्यमंत्री जी ने एक भी शब्द नहीं कहा तथा माननीय मुख्यमंत्री जी से यह उम्मीद पालना भी बेईमानी होगी। क्योंकि चुनाव प्रचार के लिए रूपये भी ऐसे ही पूंजीपति देते हैं। जो ऐसी फिल्मों के द्वारा मुनाफा कमाते हैं। इसलिए यदि महिला अपराधों पर रोक लगानी है तब ऐसे दलों द्वारा खोखली घोषणा से ध्यान हटाते हुए मुनाफाखोर पूंजीवादी व्यवस्था तथा महिला-पुरूषों के खिलाफ संघी मानसिकता को खत्म करना होगा।
-सूर्य प्रकाश, बी.टेक, बरेली
अमेरिका में जो ट्रम्प कर रहा वही भारत में मोदी
डोनाल्ड ट्रम्प के संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति बनने के बाद से ही अमेरिका में नस्लीय हमले बढ़ने लगे हैं। यहां पर रहने वाले अल्पसंख्यकों को भय के माहौल मे जीना पड़ रहा है। जिस दक्षिणपंथी राजनीति की हवा ट्रम्प ने अमेरिका में बनाई है वह अमेरिकी समाज में नस्लीय हमलों को काफी बढ़ा रही है।
भारतीय इंजीनियर श्री निवास कुचीबोतला की गोली मारकर हत्या कर दी गयी। उनके साथ में उनके मित्र आलोक मदसानी को भी गोली मारी गयी। परंतु वह बच गये। यह नस्लीय हमले यही नहीं रुके। हरनित पटेल फिर दीप राय को गोली मारकर ट्रम्प काल का अमेरिका में उदय हुआ। यह तो कुछ घटनाएं हैं जो सामने आयीं। परंतु जो आग लोगों के मन में ट्रम्प के बयानों ने लगाई है उस दक्षिणपंथी राजनीति की हवा इतने से नहीं मानेगी। वह आग जो भीतर ही भीतर सुलग रही है वह आगे ऐसी घटनाओं को और अंजाम देने से नहीं चूकेगी।
अमेरिका में ऐसी राजनीति का कारण- चुनाव प्रचार के दौरान ही यह घोर दक्षिणपंथी मसखरा अप्रवासियों को अमेरिका में समस्यओं की वजह मानता था। उसको लगता था कि अप्रवासी कम पैसों में नौकरी कर लेते हैं। और अमेरिकियों का रोजगार छीन लेते हैं। महंगाई इनकी वजह से बढ़ रही है। अमेरिकी समाज में गरीबी बढ़ रही है। ऐसे में नागरिकों को रोजगार दे पाना शासकों के बस की बात नहीं है। वह इस समस्या को हल ना कर पाने का कारण अल्पसंख्यकों में देखते हैं। एक नकली दुश्मन खड़ा करना वह चाहे भारतीय हो, पाकिस्तानी हो या किसी भी अन्य गरीब देश का हो। उनको लगता है कि तात्कालिक तौर पर इससे राहत मिल सकती है। नस्लीय राजनीति का उभार अमेरिका में पहले से ही रहा है। ‘‘ओबामा काल’’ के दौरान भी कालों के ऊपर ऐसे हमले होते रहे हैं। कालों को जेल में डालना, उनको अमेरिका में डराना-धमकाना होता रहा है।
ट्रम्प के आने के बाद से इसमें काफी तेजी आयी है। वह इन बातों के लिए मशहूर हैं। बेरोजगारों, लम्पट तत्वों, शासकों से निराशा के कारण इनकी राजनीति को और बल मिलता है। इसी तरह के अन्य लोग इनको मद्द पहुंचाते हैं।
अमेरिकी शासकों का दक्षिणपंथ की ओर लुढ़कना- 2007 में अमेरिका से शुरु हुए ‘सब प्राइम’ संकट के बाद पूरी दुनिया आर्थिक संकट के प्रभाव में है। इस संकट ने पूरी दुनिया को एक आर्थिक संकट की ओर धकेल दिया है। दुनिया के अलग-अलग देशों में सरकारें लगातार गिरी हैं। उनको एक असमाधेय संकट ने घेर लिया। पूंजीवादी बुद्धिजीवियों के अनुसार ही इस संकट के और गहराने के संकेत हैं। इस संकट का सबसे ज्यादा प्रभाव मजदूर वर्ग पर पड़ा है।
अमेरिका में पूंजीपतियों ने बड़े पैमाने पर छंटनी की। सरकारों ने पूंजीपतियों को बचाने के नाम पर बेल आउट पैकेज दिये जिससे सरकारी खजाना खाली होता गया। सरकारी खजाने पर पडे़ बोझ को कम करने के लिए फिर जनता के टैक्सों में बढोत्तरी की, सामाजिक सेवाओं, कल्याणकारी योजनाओं (शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार आदि) में अवसर और कम दिये। इससे मेहनतकश जनता को हाथ धोना पड़ा।
यह पूंजीपतियों के स्वर्ग को बचाने के लिये मजदूरों-मेहनतकशों पर हमला था। इन सब कारणों ने मेहनतकश जनता को आक्रोश व असंतोष की ओर धकेला। शासकों के पास इन कारणों का कोई हल नहीं था ना ही है वह जनता को झूठ और भ्रमित ही कर सकता था। परंतु कब तक अमेरिका में इसके विरोध में एक संगठित प्रतिरोध खड़ा हुआ, 99 बनाम 1 प्रतिशत का। आक्यूपाई वाल स्ट्रीट नाम से खड़ा हुआ यह प्रतिरोध अमेरिका सहित अन्य देशों में भी अलग-अलग रूपों में फूट पड़ा। कई सारे देशों में नाममात्र के पूंजीवादी लोकतंत्र का खात्मा शुरू हुआ, अमेरिका में भी बेरोजगारी, शासकों से निराशा व क्रांतिकारी ताकतों के कमजोर होने के कारण उनको और बल मिला है। अमेरिकी शासकों ने अपने हितों की रक्षा के लिए ट्रम्प को हाथों-हाथ लिया। दक्षिणपंथी विचारों वाला ट्रम्प मेहनतकशों के खून पर सवार होकर उनका सच्चा सेवक बनने को तैयार था।
भारत सरकार का रुख- अपने आकाओं के बारे में बोलने की हिम्मत भारतीय शासक वर्ग नहीं कर सकता है और न ही उन्होंने ऐसा किया। वैसे भारतीय पूंजीवादी मीडिया विदेश नीति के मामले में मोदी सरकार की काफी तारीफ करता है। परंतु जब श्री निवास या अन्य की हत्या हो जाती है वहां पर रह रहे भारतीयों, भारत में रह रहे उनके मित्रों-परिवारजनों की पीड़ा को भी उसने ज्यादा तवज्जों नहीं दी। एकाद मंत्री ने केवल शव लाने में मदद की बात कर इतिश्री कर ली। अगर यही घटना बांग्लादेश या पाकिस्तान में घट जाती तो महान राष्ट्रवादी देशभक्तों से लेकर मीडिया, सरकार के मंत्री तक एक युद्धो उन्माद पैदा कर डालते। इनका यह छद्म राष्ट्रवाद अमेरिका के सामने नतमस्तक हो जाता है। एक तरफ संघी प्रधानमंत्री ट्वीट के जरिये ब्रर्थडे पहले ही विश कर देता है। वहीं श्रीनिवास के मामले में एक भी शब्द खर्च ना करना उनको अपने आकाओं के प्रति वफादारी दिखाना है।
भारत सरकार की मंशा अमेरिका के साथ सटने की ही रही है। 2008 में मनमोहन काल से परमाणु समझौते के बाद से उनकी यह मंशा और बलवती होती गयी है। बड़े दादा अमेरिका के साथ रहकर यह दक्षिण एशिया में अपना प्रभुत्व स्थापित कर खुद अमेरिका की पातों में बैठना चाहता है। असल में जो ट्रम्प अमेरिका में कर रहे हैं वह मोदी भारत में कर रहे हैं।
भारत में भी ऐसी राजनीति- खुद भारत में मोदी 2014 के चुनाव में एक घोर दक्षिणपंथी पार्टी भाजपा के जीतने के बाद प्रधानमंत्री बने। ‘‘सबका साथ सबका विकास’’ का नारा लगाकर सत्ता पर आए परंतु उसके बाद से ही मुस्लिमों, दलितों पर हमले, कल्याणकारी योजनाओं में कटौती जारी है। जो वायदे किये गये उसको पूरा कर पाने की हिम्मत ना मोदी में है ना चाहत। श्रम कानूनों में सुधार, किसानों को उनके हाल में छोड़ा जाना यह सब यहां भी किया जा रहा है। इसके बरक्स एक नकली दुश्मन यहां खड़ा किया जा रहा है ताकि इन समस्याओं व अपने किये गये वादों से ध्यान भटकाया जाए। मुस्लिमों के खिलाफ एक घृणित माहौल तैयार करना, लव जिहाद, गौहत्या व बहु-बेटी बचाओ जैसे मुद्दे उभारे जा रहे हैं।
इन सबका कारण अलग-अलग रूपों में देखा जा सकता है। अखलाख की हत्या होना इन्हीं में से एक है। जहां मोदी अपने देश में अपने नागरिकों को सुरक्षित नहीं रख पा रहा हो वह मोदी किस मुंह से अमेरिका में रह रहे अप्रवासी या प्रवासी भारतीयों की बात कर पाएंगे।
आखिर रास्ता क्या है- हमको श्रीनिवास या अन्य भारतीयों पर हमले व हत्या में दुःख व गुस्सा दोनों होना चाहिए। परंतु भारत में अखलाख की हत्या पर यह गुस्सा दिखाई नहीं देता है। अमेरिका में श्रीनिवास हमारा अखलाख ही है। इस नस्लीय, अल्पसंख्यक व नफरत की राजनीति का हमारे समाज में कोई स्थान नहीं होना चाहिए। अगर समय रहते हम चेते नही तो यह और तीखे रूप में हमको देखने को मिलेगा। प्रगतिशील ताकतों को एकजुट करके संगठित होकर ही आज फासीवादी राजनीति से मुकाबला किया जा सकता है।
अकेले-अकेले बैठने व चुप रहने से बेहतर है अपना पक्ष हम भी तय करें। नौजवानों, मजदूरों-मेहनतकशों, अल्पसंख्यकों, दलितों व समाज के हर उस इंसाफ पंसद व्यक्ति को अपना योगदान इस नफरत की राजनीति के खिलाफ लड़ने में करना पडे़गा। यह भारत की है या अमेरिका की या कहीं और की इससे फर्क नहीं पड़ता है। दूसरे की मदद करके ही इससे लड़ सकते हैं, मुक्ति पा सकते हैं।
-महेश, लालकुआं
मानव स्थिति
जैसा की हम सभी जानते हैं, मानव एक सामाजिक प्राणी है। अतः वह अपने आस-पास के वातावरण में हो रहे सभी कार्यकलापों, घटनाओं आदि से परिचित रहता है। वह समाज में अपना अस्तित्व कायम रखने के लिए प्रयासरत रहता है और समाज से अपना सामंजस्य स्थापित करता है।
लेकिन वर्तमान समय में मानव का व्यवहार इतना एकाकी हो गया है कि वह सिर्फ अपने बारे में सोच रहा है, अतः उसकी स्थिति इतनी दयनीय हो गयी है कि वह यह भी नहीं सोच पा रहा है कि वह हर स्थिति में समाज से जुड़ा हुआ है। अतः वह चाह के भी समाज से दूर नहीं हो सकता है। और वह यदि समाज (जनता) का अहित सोचता है तो यह उसके लिए भी अहित है। अतः मानव यदि सही को सही तथा गलत को गलत मानता है तो यह उसका स्वाभिमान है। और यदि वह इसके विपरीत गलत को भी सही साबित करता है या करने का प्रयास करता है तो यह उसका घमंड (अभिमान) है।
अतः मानव की एकाकी सोच तथा एकाकी जीवन, उस मानव के ही लिए नहीं तथा समाज के लिए भी खराब है। जिसे मानव समाज में सफलतापूर्वक सामजंस्य स्थापित नहीं कर पा रहा है तथा वह अनेक प्रकार की विकृतियों को जन्म दे रहा है। जैसे- चोरी, वैश्यावृति आदि जो समाज के लिए बुरा है।
अतः समाज की स्थिति में सुधार के लिए मात्र गरीबों की सहायता करना आदि पर्याप्त नहीं है, बल्कि उनको उनके हकों की जानकारी देना तथा उन्हें शिक्षित-प्रशिक्षित करके उनका समाज में वर्चस्व स्थापित करना भी है। जिसके द्वारा समाज का सही मायनो में विकास होगा।
-सोनी, एम.ए., हल्द्वानी
अक्टूबर-दिसंबर, 2016
लाल बहादुर शास्त्री महाविद्यालय में संघर्षरत छात्र
लाल बहादुर शास्त्री महाविद्यालय हल्दूचैड़, लालकुआं (नैनीताल) उत्तराखण्ड में छात्र लम्बे समय से विभिन्न मांगों को लेकर संघर्षरत हैं। 6 नवम्बर 2015 से कालेज के सरकारीकरण के बाद भी हालात जस के तस बने हुए हैं।
छात्रों ने तभी से वहां स्नातकोत्तर (पीजी) में नये पाठ्यक्रम खोलने, बीएससी में शिक्षकों की नियुक्ति करने, नई लाईब्रेरी खोलने, लाइब्रेरी में छात्रों को बैठकर पढ़ने की सुविधा देने, अंग्रेजी में पुस्तकें उपलब्ध कराने, सांस्कृतिक कार्यक्रमों के स्तर सुधारने, छात्र संघ चुनाव कराने, मनमाने ढंग से हुई नियुक्तियों की जांच करवाने, क्रीड़ा सामग्री उपलब्ध कराने जैसी मूलभूत मांगों को लेकर समय-समय पर कालेज-प्रशासन, प्रदेश स्तर के अधिकारियों व मंत्रियों को कई बार ज्ञापन दे चुके हैं।
4 अक्टूबर 2016 को छात्र अपनी विभिन्न मांगों को लेकर कालेज परिसर में शांतिपूर्वक धरने पर बैठे थे। कालेज प्रशासन ने छात्रों की मांग सुनने की बजाय उल्टा परिसर में पुलिस बुलवा ली। पुलिस ने छात्रों के साथ मारपीट-लाठीचार्ज किया। जिसके बाद छात्र काफी आक्रोशित हो गये। विभिन्न संगठनों के साथ परिवर्तनकामी छात्र संगठन ने भी आंदोलन को अपना समर्थन दिया।
लेकिन छात्र अलग-अलग पार्टियों में बंटे होने के कारण अपनी इस लड़ाई को सही ढंग से नहीं लड़ पा रहे हैं। छात्रों को यह भी समझना होगा कि इस लड़ाई को जीतना है तो अपने संघर्ष को सही मुकाम पर ले जाने के लिए महाविद्यालय के व्यापक छात्रों को जोड़ने के साथ-साथ अन्य छात्रों व इलाके के लोगों को भी अपने साथ में लाना होगा।
लेकिन कालेज प्रशासन व विश्वविद्यालय प्रशासन की मनमानी पर बोलने का साहस कर छात्रों ने एक शुरुआत तो की है। इसको जारी रखकर व्यापक करने की जरूरत बनती है।
दक्षिण अफ्रीकी छात्र एक बार फिर से सड़कों पर
दक्षिण अफ्रीकी छात्र फीस वृद्धि के खिलाफ एक बार फिर से सड़कों पर हैं। पिछले साल 14 अक्टूबर से शुरू हुआ आंदोलन सरकार द्वारा फीस वृद्धि वापस लिए जाने के बाद शांत हो गया था(देखें परचम अंक अक्टूबर-दिसम्बर, 2015)। मौजूदा उभार उपरोक्त आंदोलन की कड़ी में ही शुरु हुआ है। हालिया प्रदर्शन सरकार के उस फैसले के विरोध में पैदा हुए जिसमें 2017 में फीस बढ़ाने की योजना बनायी जा रही थी। पहले से ही शिक्षा से दूर काले छात्रों ने इस योजना के विरोध में सभी फीस वृद्धि वापस लेने की मांग करते हुए आंदोलन छेड़ दिया है। इन प्रदर्शनों का जवाब राष्ट्रपति जैकब जूमा ने भारी दमन के साथ दिया है।
दरअसल 1994 में रंगभेदी शासन के औपचारिक खात्मे के बावजूद द.अ. में काले व गोरों के बीच आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक असमानता खुले रूप में मौजूद है। इसे द.अ. परिवारोें की औसत आय से भी समझा जा सकता है। यहां काले परिवारों की औसत आय 5000 डाॅलर प्रति वर्ष है, वहीं गोरे लोगों की औसत आय 28000 डाॅलर प्रति वर्ष है। इन सबका परिणाम काले लोगों की बदहाली व नारकीय जीवन की ओर धकेलता है। शिक्षा प्राप्त कर अपनी स्थिति को बेहतर बनाने का ख्वाब भी यहां पूरा होता नहीं दिखायी देता। सरकार द्वारा 2008 के बाद से लगभग 80 प्रतिशत फीस वृद्धि उच्च शिक्षा में की गयी है। जिससे अच्छे वि.वि. में उच्च शिक्षा की फीस लगभग 3000 डाॅलर प्रति वर्ष है जो कि औसत काले परिवारों की आय की 2/3 बनती है। इस बेतहाशा फीस वृद्धि व महंगी शिक्षा का ही असर है कि उच्च संस्थानों में नये छात्रों का प्रवेश लेना मुश्किल हो गया है तथा पहले से पढ़ रहे छात्रों को अपनी पढ़ाई सुचारू रखने में कठिनाई आ रही है।
अधिकांश काले छात्रों को महंगी शिक्षा के कारण एक साल में ही उच्च शिक्षा को छोड़ना पड़ता है। अशिक्षित, अकुशल काले छात्र रोजगार की दौड़ में भी पीछे रह जाते हैं। द.अ. में काले युवाओं के बीच बेरोजगारी का प्रतिशत 28.6 है जबकि गोरों में यह केवल 7.3 प्रतिशत है। इन सब कारणों से ही द.अ. छात्रों का मौजूदा संघर्ष फूटा है।
वे पिछले साल अपनी सरकारों के छल को देख चुके हैं, इसलिए भी इस दफा संघर्ष व सरकारों द्वारा दमन तीखा है। पूरी दुनियामें जारी आर्थिक सुधारों की कड़ी में मूलभूत नागरिक सुविधाओं (शिक्षा, स्वास्थ्य, आदि) का तेजी से निजीकरण किया जा रहा है। भारत में भी इन्हीं नीतियों को तेजी से लागू किया जा रहा है। जिसका खामियाजा गरीब-मेहनतकश परिवारों से आने वाले छात्रों को उठाना पड़ रहा है। ऐसे में जरूरत बनती है कि हम अपने देश में शिक्षा, रोजगार की लड़ाई लड़ते हुए संघर्षरत द.अ. छात्रों से प्रेरणा लें। उनके संघर्ष को समर्थन व सहयोग दें व लुटेरे शासकों के खिलाफ संघर्ष का बिगुल फूंकें।
जियो मोदी!
मुकेश अम्बानी ने जब 1 सितम्बर को अपनी 4 जी सेवाओं की औपचारिक घोषणा की तो अगले दिन समाचार पत्रों के पहले पेज पर जियो 4 जी के विज्ञापन के साथ प्रधानमंत्री मोदी की बड़ी फोटो छपी। आजाद भारत में यह पहली बार हुआ था कि देश के प्रधानमंत्री का फोटो किसी निजी कम्पनी के विज्ञापन पर लगा।
कानूनी तौर पर इसमें कुछ भी गलत न होने के बावजूद यह उस सांठ-गांठ या गठजोड़ को उजागर करता है जो पूंजीपतियों व सत्ता में बैठे प्रतिनिधियों-नेताओं में है। एक देश का सबसे बड़ा पूंजीपति और दूसरा देश की सरकार का प्रमुख।
यह सांठ-गांठ का वही नमूना है जिसका विरोध नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बनने से पहले करते थे। यदि मुकेश अम्बानी देश के सबसे बड़े पूंजीपति बने तो इस सांठ-गांठ के बिना नहीं बन सकते। ऐसा वह अपने पिता धीरू भाई अम्बानी से सीखे। दरअसल सांठ-गांठ (कानूनी) के दम पर ही वह 4 जी सेवाओं का लाइसेन्स प्राप्त कर सके और इस सांठ-गांठ को छिपाया भी सांठ-गांठ से गया।
2010 में कांग्रेस की संप्रग सरकार के समय 4 जी सेवाओं के लिए स्पैक्ट्रम की नीलामी हुई। उस समय एयरटेल, आइडिया, आदि ने नीलामी में भाग लिया लेकिन वाॅयस सेवाओं के लिए ही स्पैक्ट्रम खरीदा क्योंकि इनकी आय वाॅयस सेवाओं से अधिक है, इंटरनेट से कम। तब इन कम्पनियों ने 4 जी सेवा के इस पहलू पर ध्यान नहीं दिया कि इसमें डाटा को आसानी से वायस में बदला जा सकता है।
इसके बाद 4 जी सेवाओं की नीलामी हुई इंफोटेल ब्राडबैंड सर्विसेज, को जिसने देश के सभी 22 सर्किलों के लिए आवेदन किया और लाइसेन्स भी प्राप्त हो गया। इस कम्पनी का कुल मूल्य 2.5 करोड़ रुपये था। किसी भी अधिकारी ने ये सवाल नहीं उठाया कि इतनी छोटी कम्पनी इतना बड़ा काम भला कैसे करेगी और इसे लाइसेन्स क्यों दिया जाए। इसका जवाब था कम्पनी के पीछे मुकेश अम्बानी हैं। लाइसेन्स मिलते ही अगले दिन यह कम्पनी 6 हजार करोड़ की हो गयी, जिसमें 60 प्रतिशत हिस्सेदारी मुकेश अम्बानी की थी।
खैर कांग्रेस तो थी ही सांठ-गांठ वाली पार्टी जैसा कि मोदी जी कहते थे। सत्ता पाने के बाद वे भी सांठ-गांठ का हिस्सा बन गए। उन्होंने इस सांठ-गांठ से आंखें मूंद लीं और कभी इसका जिक्र नहीं होने दिया।
अब जब इतना सब कुछ कर ही दिया था तो अपनी फोटो इस्तेमाल करने देने में प्रधानमंत्री को भला क्या आपत्ती हो सकती थी। उन्होंने तो इस सांठ-गांठ को सबके सामने अखबारों में दिखाया। भला कोई एक पूंजीपति या पूरा पूंजीपति वर्ग सरकार से सांठ-गांठ के बिना मजदूरों का खून-पसीना लूट सकता है? वैसे ही बिना पूंजीपतियों के सहयोग के ये पार्टियां कहां सत्ता तक पहुंच सकती हैं जो जितना वफादार उसको उतना पूंजीपतियों से सहयोग मिलना तय है।
मोदी जी जियो के लिए विज्ञापन में अपनी फोटो के साथ सदा याद किए जाएंगे। याद किया जाएगा पूंजीपतियों का वफादार सेवक, धिक्कार के साथ।
देश का भविष्य अंधकार व खतरे में
यदि यह कहावत सही है कि बच्चे देश का भविष्य होते हैं तो आज देश का भविष्य खतरे में है। स्वास्थ्य की दृष्टि से बच्चों का जीवन खतरे में है और शिक्षा की दृष्टि से उनका जीवन अंधकार में है।
आज दुनिया के सबसे ज्यादा कुपोषित बच्चे भारत में रहते हैं और कम उम्र में ही कुपोषण के कारण काल का ग्रास बन जाते हैं। जो बच्चे बच जाते हैं, वह भी स्वास्थ्य की दृष्टि से कमजोर ही होते हैं और जीवन में जल्द ही बीमारी की चपेट में आ जाते हैं।
शिक्षा की दृष्टि से भारत में बच्चों का भविष्य अंधकारमय है। देश में आज भी बड़ी संख्या में बच्चे स्कूल नहीं जा पाते हैं। इन बच्चों के माता-पिता की स्थिति ऐसी नहीं होती है कि वह उन्हें स्कूल भेज सकें। क्योंकि यहां पहली प्राथमिकता पेट भरना होता है। इसलिये पेट भरने के लिये यह बच्चे अपने माता-पिता का हाथ बंटाते हैं।
देश के नीति-निर्माताओं ने ‘मिड डे मील’ योजना चलाई ताकि ऐसे भूखे-गरीब बच्चों को स्कूल तक लाया जा सके। क्योंकि इस योजना का मूल उद्देश्य देश की नीची साक्षरता दर को किसी तरह ऊंचा दिखाना था। इसलिये यह योजना पूर्ण रूप से बच्चों को स्कूलों तक लाने में कामयाब नहीं हो सकी। यह योजना न तो बच्चों के कुपोषण को दूर कर पाई और न ही इनके जीवन के अंधकार को मिटा पाई।
जो बच्चे सरकारी स्कूल तक पहुंचे, उनकी स्थिति क्या है? 2005 में एक गैर-सरकारी संगठन ‘प्रथम’ ने स्कूलों में बच्चों के सीखने की गुणवत्ता पर एक सर्वेक्षण किया। जिसके आंकड़े चैंकाने वाले थे। रिपोर्ट के अनुसार 8 वीं कक्षा के 25 प्रतिशत बच्चे ऐसे थे, जो दूसरी कक्षा की किताबें नहीं पढ़ पाते हैं। दूसरी कक्षा के 32 प्रतिशत बच्चे ऐसे हैं जो हिन्दी-अंग्रेजी की वर्णमाला ठीक ढंग से नहीं पढ़ पाते। 5 वीं कक्षा के 50 प्रतिशत से अधिक बच्चे ऐसे हैं, जो वह बुनियादी शिक्षा भी हासिल नहीं कर पाये, जो उन्हें दूसरी कक्षा में हासिल हो जानी चाहिए थी। इसी प्रकार 8 वीं कक्षा के आधे से अधिक बच्चे बुनियादी गणित भी करने में सक्षम नहीं थे।
2016 में लगभग दस साल बाद, दिल्ली सरकार द्वारा कराये गये एक सर्वे के आंकड़े भी चैंकाने वाले हैं। सर्वे के अनुसार दिल्ली सरकार के स्कूलों में छठीं कक्षा में पढ़ रहे 74 प्रतिशत बच्चे हिन्दी का एक पैराग्राफ ढंग से नहीं पढ़ सकते हैं। वहीं 8 प्रतिशत बच्चे ऐसे हैं जिन्हें हिन्दी के अक्षरों की पहचान भी सही से नहीं है। अंग्रेजी में 75 प्रतिशत बच्चे दूसरी कक्षा में पढ़ाई जाने वाली कहानी भी नहीं पढ़ पा रहे हैं। 13 प्रतिशत बच्चों को अक्षरों की पहचान भी नहीं है। लगभग यही स्थिति गणित में भी है। यह स्थिति देश की राजधानी दिल्ली के सरकारी स्कूलों की है। यह सिर्फ आंकड़े नहीं हैं बल्कि जमीनी हकीकत है। मजदूर बस्ती में रहने वाले 6-7 वीं के बच्चे हिन्दी का सामान्य लिखा पैराग्राफ नहीं पढ़ पाते। यहां तक की उन्हें हिन्दी के अक्षरों की भी सही से पहचान नहीं होेती। यानि 10-12 सालों के बाद भी सरकारी स्कूलों में बुनियादी स्तर पर भी कोई फर्क नहीं पड़ा। अब इसके लिये बच्चों को दोषी ठहरायें या उस अध्यापक को जो बच्चों को पढ़ाते हैं या यह शिक्षा व्यवस्था ही दोषी है जो बच्चों को अक्षर ज्ञान तक नहीं करवा सकी।
देश में स्कूली शिक्षा की स्थिति यह है कि आज भी 1 लाख से अधिक स्कूल एक शिक्षक के भरोसे चल रहे हैं। एक शिक्षक पूरे स्कूल को कैसे पढ़ाता होगा यह समझ से परे है। यह आंकड़े देश में स्कूली शिक्षा की बदहाल होती स्थिति को पेश करते हैं।
आज स्कूलों में अध्यापकों के लाखों पद खाली पड़े हैं। परन्तु सरकारें ‘शिक्षा मित्र’, ‘गैस्ट टीचर्स’ आदि नाम से अस्थायी अध्यापकों की भर्ती कर रही है। यह सरकारों की शिक्षा नीति को दिखाता है।
देश में स्कूली-शिक्षा की बदहाल होेती स्थिति के कई कारण हैं। जिसमें एक प्रमुख कारण तो यह है कि सरकारें धीरे-धीरे शिक्षा व्यवस्था से अपना हाथ खींच रही हैं। शिक्षा व्यवस्था पर कई आयोगों की रिपोर्टोें में कहा गया है कि सरकारों को शिक्षा के बजट में वृद्धि करनी चाहिये। परन्तु सरकारें इसके उलट बजट को घटा रही हैं। आज शिक्षा व्यवस्था को निजी हाथों में सौंप कर बाजार के हवाले कर दिया है। इसे भी पूंजीपतियों के मुनाफे का जरिया बना दिया है। आज शहरों में ही नहीं बल्कि गांवों में भी शिक्षा बड़ी संख्या में निजी स्कूल खुल गये हैं। और जिसके पास भी थोड़ी क्षमता हो पा रही है वह अपने बच्चों को निजी स्कूलों में भेजने के लिये मजबूर हैं।
दूसरा कारण यह भी है कि आज सरकारी स्कूलों में अधिकतर मजदूरों-किसानों, मेहनतकश व गरीब वर्ग के बच्चे पढ़ने आते हैं। जिन्हें पढ़ाना सरकार आवश्यक नहीं समझती। इन्हें महज अक्षर ज्ञान भी हासिल हो जाये यही पर्याप्त है। इस वर्ग के बच्चों को अशिक्षित, अंधविश्वासी और कूपमंडूक बने रहने में ही इस व्यवस्था का हित है।
मजदूरों-किसानों, मेहनतकशों व गरीब वर्ग के बच्चों को उच्च गुणवत्ता की तार्किक व वैज्ञानिक शिक्षा प्राप्त हो, यह केवल और केवल मजदूर राज समाजवाद में ही संभव है। रूस में 1917 की महान अक्टूबर समाजवादी क्रांति ने यह कर दिखाया था। क्रांति के बाद समाजवादी व्यवस्था ने मजदूर-मेहनतकश वर्ग के बच्चों को न केवल शिक्षा प्रदान की। बल्कि उन्हें तार्किक व वैज्ञानिक शिक्षा दी गई। इन बच्चों ने बाद में देश के समाजवादी निर्माण में भूमिका निभाई।
तत्काल समय में, देश में एक व्यापक व जुझारू आंदोलन विकसित करने के जरूरत है ताकि शासक वर्ग पर दबाव बना कर शिक्षा के निजीकरण व व्यवसायिकरण पर रोक लगाकर दोहरी शिक्षा व्यवस्था पर रोक लगाई जाये। सरकारें शिक्षा के बजट में वृद्धि करें ताकि मजदूर-किसान, मेहनतकश व गरीब वर्ग के बच्चों को बेहतर शिक्षा प्राप्त हो सके।
गहराता संकट व कम होती नौकरियां
2007 के मध्य से शुरु हुआ विश्व आर्थिक संकट जो पूरी दुनिया में फैल चुका है। लगभग 10 वर्ष पूरे होने के बाद भी हल होने का नाम नहीं ले रहा है। इस संकट ने दुनियाभर में राजनीतिक व सामाजिक अस्थिरता को जन्म दिया है। साम्राज्यवादी-पूंजीवादी शासकों ने दक्षिणपंथी ताकतों को आगे बढ़ाया है। यह ताकतें पूंजीवादी अर्थव्यवस्था, के खिलाफ उठ रहे विरोधों को कुचलने का काम कर रही हैं तथा इस संकट का बोझ अधिकाधिक मजदूरों-मेहनतकशों पर डाल रही हैं। इस दौरान बड़े पैमाने पर छंटनी, वेतन व भत्तों में कटौती आदि कार्यक्रम शासकों द्वारा चलाये गये हैं। जिसका मजदूरों-मेहनतकशों व छात्रों-नौजवानों द्वारा विरोध व्यापक पैमाने पर हो रहा है।
हम छात्रों-नौजवानों के हालात और भी ज्यादा खराब हैं। शिक्षा के निजीकरण ने सामान्य शिक्षा व व्यवसायिक शिक्षा को बहुत महंगा कर दिया है। इससे अधिकांश छात्र व उनके परिजन कर्जजाल में फंसते चले जा रहे हैं। पढ़ाई पूरी होने के बाद छात्र बेरोजगारी के दलदल में जाकर फंस जाते हैं। कम होती नौकरियां हमें परेशानी में डालकर अवसादग्रस्त होने को मजबूर करती हैं।।
एक निजी संस्था ‘प्रहार’ के सर्वे के अनुसार भारत में रोजाना लगभग 550 नौकरियां कम हो रही हैं। अगर यही हाल रहा तो 2050 तक वर्तमान नौकरियों में भी 70 लाख नौकरियां कम हो जायेंगी।
वर्ष 2015 में विभिन्न क्षेत्रों में नौकरियों में बड़े पैमाने पर कमी आयी है, जिसमें कन्सट्रक्सन में 43.6 प्रतिशत, केबल में 20.6 प्रतिशत, हीरे व जेवरात में 28.4 प्रतिशत, विनिर्माण में 5.1 प्रतिशत आदि उद्योगों में नौकरियां घटी हैं। इसके अलावा आईटी क्षेत्र में भी नौकरियां कम हो रही हैं। कैम्पस प्लेसमैंट में 20 प्रतिशत की गिरावट आयी है। केवल एक ही क्षेत्र है वह है बैंकिंग क्षेत्र, जिसमें 2.1 प्रतिशत की मामूली वृद्धि दर्ज की गयी है।
इंजीनियरिंग कालेजों में भी नौकरियां कम हुयी हैं। इनमें 20 प्रतिशत की गिरावट आयी है। वहीं वेतन में भी कमी ही नहीं बल्कि नकारात्मक बढ़ोत्तरी हुयी है। मझले दर्जे के इंजीनियरिंग कालेज वही वेतन दे रहे हैं। 90 प्रतिशत कंपनियां वही वेतन दे रही हैं। पिछले साल से कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुयी है। टीसीएस जैसी कंपनियां पहले 2 लाख नौकरी देती थी। अब केवल 80 हजार नौकरियां दे रही है।
लेबर ब्यूरो के अनुसार वर्ष 2015 में कुल 1 लाख 35 हजार से ज्यादा नौकरियां नहीं बढ़ी हैं। पिछले 5 वर्ष में बेरोजगारी सबसे अधिक बढ़ी है। देश के कुल 45 करोड़ कामगार आबादी में 2.5 करोड़ बेरोजगार हैं, तो 16 करोड़ लोग ऐसे हैं जिन्हें सालभर काम नहीं मिलता। 2013 की तुलना में 2015 में नई नौकरियों में भारी गिरावट ने इस संकट को और बढ़ाया है। देश में काम करने योग्य कुल आबादी का लगभग एक तिहाई बेरोजगार है। वहीं 68 प्रतिशत परिवारों की आमदनी 10 हजार रू0 से कम है। लघु व मध्यम उद्योग में नौकरियां बिल्कुल नहीं बढ़ रही हैं। वहीं मशीनीकरण ने नौकरी कम होने की रफ्तार को और भी तेज किया है। इसके परिणामस्वरूप चीन में 70 प्रतिशत तो भारत में 69 प्रतिशत नौकरियां कम होंगी।
इसके अलावा असंगठित क्षेत्र की कामगार आबादी की हालात बहुत खराब है। यहां पर इन्हें श्रम कानूनों में दर्ज कोई सुविधा नहीं मिलती तथा छंटनी की तलवार लगातार इनकी गर्दन पर लटकी रहती है। इस प्रकार हम देखें तो पायेंगे कि पिछले वर्षों में संकट के दौरान बेरोजगारी भयानक रूप से बढ़ी है। नौकरियां बढ़ने के बजाय कम हुयी हैं। सुविधाओं में कटौती के साथ-साथ वेतन में नकारात्मक बढ़ोत्तरी देखने को मिल रही है। अधिकांश कंपनियां पुराने वेतन पर ही काम करवा रही हैं। ऐसे वे इस घनीभूत हो रहे संकट में भी अपना मुनाफा कायम रखने के लिए कर रही हैं। पूंजीपति-शासक वर्ग अपने इस कुकर्मों से जो मुनाफा कमा रहे हैं उसी को वृद्धि का पैमाना बता रहे हैं। वहीं मेहनतकश जनता की हालत खराब ही हो रही है। साथ ही देश की 50 प्रतिशत कामगार आबादी कृषि में लगी है जिसका सकल घरेलू उत्पाद में कुल योगदान 12 प्रतिशत है। इससे ग्रामीण लोगों में गरीबी बढ़ रही है। तथा इस छंटनी और नौकरियों की कमी ने किसान, छोटे वैन्डर आदि लोगों के सामने भी संकट खड़ा कर दिया है। अब जरूरत है कि बेरोजगारी, आर्थिक संकट आदि को पैदा करने वाली इस पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ छात्रों-नौजवानों-बेरोजगारों को संगठित किया जाये।
ट्रेनिंग के नाम पर विद्यार्थियों का शोषण
देश में बेरोजगारी बहुत ही भीषण रूप ले चुकी है। हमारी सरकारें झूठे वादे करते नहीं थक रही हैं। अगर शासन-प्रशासन रोजगार की योजनाएं बना भी रहे हैं तो वे उन्हें एनजीओ या निजी प्रशिक्षण संस्थानों के हाथों सौंप दे रहे हैं। ये प्रशिक्षण संस्थान 100 प्रतिशत रोजगार देने की गारण्टी का प्रचार मीडिया द्वारा कराते हैं। जिससे ये आज के युवा वर्ग को भ्रमित कर सस्ता श्रम या माल बनने को तैयार करते हैं। जिस कारण युवा वर्ग रोजगार के भ्रम में आसानी से आ जाते हैं। ये विद्यार्थी निजी प्रशिक्षण संस्थानों में अपना दाखिला करा देते हैं। जिसके बदले में प्रशिक्षण संस्थान उन विद्यार्थियों से रोजगार दिलाने के बहाने बड़ी मात्रा में रकम चुकाने को मजबूर करते हैं।
बेरोजगार लोग या विद्यार्थी भविष्य में देश-विदेश या 3 सितारा या 5 सितारा होटलों में या कोई मल्टीनेशनल कंपनी में काम करके मोटी कमाई करने के झांसे में आकर अपने माता-पिता को भारी फीस भरने को मजबूर करते हैं। और मजबूर माता-पिता अपने बच्चों के भविष्य के खातिर उनका दाखिला इन निजी प्रशिक्षण संस्थानों में करा देते हैं। कुछ समय बाद जब विद्यार्थियों की शिक्षा समाप्त होने को आती है तो कक्षाओं में अध्यापकों द्वारा नये-नये ढंग से गुमराह करके पैसे हथियाने के तरीके अपनाये जाते हैं। जैसे विद्यार्थियों को सम्मानजनक रोजगार न मिलना और अंकतालिका में नम्बर कम होना या फिर उस विद्यार्थी को किसी विषय में कमजोर साबित करके उसका प्लेसमैंट या ट्रेनिंग किसी छोटी कंपनी में कराने को कहते हैं। अगर विद्यार्थी 5 सितारा होटल में काम या ट्रेनिंग करने का हट करता है तो उस विद्यार्थी से और ज्यादा मोटी रकम मांगी जाती है। फिर विद्यार्थियों को 16 या 18 घंटे काम करने वाली मशीन बनाकर या सस्ता श्रमिक बनाकर पूंजीपतियों के हाथ सौंप दिया जाता है। होटलों व कल-कारखानों में भेज दिया जाता है। एक ऐसा मजदूर जो कोट-पैंट-टाई पहने हुए पूंजीपति के जैसा दिखे। ताकि उनको एहसास न हो पाये कि उनको किस तरह का रोजगार मिल रहा है। फिर इन विद्यार्थियों का रात-दिन शोषण जारी रहता है।
सस्ते मजदूर मेहनत और खून पसीना बहाकर पूंजीपति का मुनाफा बढ़ाते और उनकी तिजोरी भरते जाते हैं। जब उनके स्थाई करने की बात आती है तो मालिक और मजदूर के बीच सौंदा होता है। जिसकों इन्टव्यू कहते हैं, जिनकों कुछ शर्तों के साथ रोजगार में रखा जाता है। वक्त से एक घंटा पहले पहुंचना और छुट्टी का कोई समय नहीं, काम खत्म होने पर ही छुट्टी। जिस दिन आप काम नहीं करोगे, आपको वेतन नहीं मिलेगा। 15 दिन होने पर ही आपको सप्ताह की छुट्टी मिलेगी और छुट्टी मालिक के हिसाब से मिलेगी।
इन शर्तों से पता चलता है कि वह कर्मचारी स्थाई नहीं बल्कि अस्थाई रूप से काम करेगा। अगर वह बीमार हो गया तो उसको वेतन का आधा हिस्सा कम मिलता है और उसकी छुट्टी कट जाती है। उनको न वेतन समय पर मिलता है और न बढ़ता है। जो वेतन बढ़ाने की बात करता उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। अगर ऐसी मांग ट्रेनिंग वाले विद्यार्थी करते हैं तो उन्हें ट्रेनिंग से निकाल देते हैं या उनको प्रमाणपत्र न देने की धमकी दी जाती है। यह सिलसिला चलता रहता और मालिकों की तिजोरियां सस्ते श्रमिकों द्वारा तेजी से भरती जाती हैं। तमाम मजदूर इस शोषण के चक्रव्यूह में फंसकर दम तोड़कर मर जाते हैं या आत्महत्या कर लेते हैं।
क्या यहीं अच्छे दिन हैं? ऐसे ही अच्छे दिनों का इंतजार था हमें? हमारे माननीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के द्वारा 56 इंच के सीने में हाथ रखकर ऐसा ही रोजगार व अच्छे दिन लाने की बता कही थी। क्या यही है मेक इन इंडिया का सच? युवाओं को रोजगार के नाम पर शोषण और पूंजीपतियों को सस्ते श्रम बेचने या दिलाने वाला प्रोजेक्ट ही मेक इन इंडिया है?
भगत सिंह ने कहा था ‘‘अगर किसी देश की सरकार उस देश की जनता को उसके बुनियादी हकों से वंचित रखती है तो उस देश के नौजवानों का अधिकार ही नहीं बल्कि कर्तव्य बनता है कि ऐसी सरकार को उखाड़ फेकें या तबाह कर दें।’’ हमें ऐसी सरकार नहीं चाहिए। सत्ता परिवर्तन नहीं व्यवस्था परिवर्तन चाहिए। हमें पूंजीवादी व्यवस्था नहीं समाजवादी व्यवस्था चाहिए। हमें मजदूर राज चाहिए। हमें भगवा राजनीति नहीं, इंकलाब चाहिए। इसी में हमें सम्मानजनक रोजगार, आर्थिक व सामाजिक समानता मिलेगी। समाजवाद ही हमारी असली आजादी है। समाजवाद को कायम करने के लिए हमें संगठित होने की जरूरत है। समाज में क्रांति की जरूरत है।
बेरोजगार लोग या विद्यार्थी भविष्य में देश-विदेश या 3 सितारा या 5 सितारा होटलों में या कोई मल्टीनेशनल कंपनी में काम करके मोटी कमाई करने के झांसे में आकर अपने माता-पिता को भारी फीस भरने को मजबूर करते हैं। और मजबूर माता-पिता अपने बच्चों के भविष्य के खातिर उनका दाखिला इन निजी प्रशिक्षण संस्थानों में करा देते हैं। कुछ समय बाद जब विद्यार्थियों की शिक्षा समाप्त होने को आती है तो कक्षाओं में अध्यापकों द्वारा नये-नये ढंग से गुमराह करके पैसे हथियाने के तरीके अपनाये जाते हैं। जैसे विद्यार्थियों को सम्मानजनक रोजगार न मिलना और अंकतालिका में नम्बर कम होना या फिर उस विद्यार्थी को किसी विषय में कमजोर साबित करके उसका प्लेसमैंट या ट्रेनिंग किसी छोटी कंपनी में कराने को कहते हैं। अगर विद्यार्थी 5 सितारा होटल में काम या ट्रेनिंग करने का हट करता है तो उस विद्यार्थी से और ज्यादा मोटी रकम मांगी जाती है। फिर विद्यार्थियों को 16 या 18 घंटे काम करने वाली मशीन बनाकर या सस्ता श्रमिक बनाकर पूंजीपतियों के हाथ सौंप दिया जाता है। होटलों व कल-कारखानों में भेज दिया जाता है। एक ऐसा मजदूर जो कोट-पैंट-टाई पहने हुए पूंजीपति के जैसा दिखे। ताकि उनको एहसास न हो पाये कि उनको किस तरह का रोजगार मिल रहा है। फिर इन विद्यार्थियों का रात-दिन शोषण जारी रहता है।
सस्ते मजदूर मेहनत और खून पसीना बहाकर पूंजीपति का मुनाफा बढ़ाते और उनकी तिजोरी भरते जाते हैं। जब उनके स्थाई करने की बात आती है तो मालिक और मजदूर के बीच सौंदा होता है। जिसकों इन्टव्यू कहते हैं, जिनकों कुछ शर्तों के साथ रोजगार में रखा जाता है। वक्त से एक घंटा पहले पहुंचना और छुट्टी का कोई समय नहीं, काम खत्म होने पर ही छुट्टी। जिस दिन आप काम नहीं करोगे, आपको वेतन नहीं मिलेगा। 15 दिन होने पर ही आपको सप्ताह की छुट्टी मिलेगी और छुट्टी मालिक के हिसाब से मिलेगी।
इन शर्तों से पता चलता है कि वह कर्मचारी स्थाई नहीं बल्कि अस्थाई रूप से काम करेगा। अगर वह बीमार हो गया तो उसको वेतन का आधा हिस्सा कम मिलता है और उसकी छुट्टी कट जाती है। उनको न वेतन समय पर मिलता है और न बढ़ता है। जो वेतन बढ़ाने की बात करता उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। अगर ऐसी मांग ट्रेनिंग वाले विद्यार्थी करते हैं तो उन्हें ट्रेनिंग से निकाल देते हैं या उनको प्रमाणपत्र न देने की धमकी दी जाती है। यह सिलसिला चलता रहता और मालिकों की तिजोरियां सस्ते श्रमिकों द्वारा तेजी से भरती जाती हैं। तमाम मजदूर इस शोषण के चक्रव्यूह में फंसकर दम तोड़कर मर जाते हैं या आत्महत्या कर लेते हैं।
क्या यहीं अच्छे दिन हैं? ऐसे ही अच्छे दिनों का इंतजार था हमें? हमारे माननीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के द्वारा 56 इंच के सीने में हाथ रखकर ऐसा ही रोजगार व अच्छे दिन लाने की बता कही थी। क्या यही है मेक इन इंडिया का सच? युवाओं को रोजगार के नाम पर शोषण और पूंजीपतियों को सस्ते श्रम बेचने या दिलाने वाला प्रोजेक्ट ही मेक इन इंडिया है?
भगत सिंह ने कहा था ‘‘अगर किसी देश की सरकार उस देश की जनता को उसके बुनियादी हकों से वंचित रखती है तो उस देश के नौजवानों का अधिकार ही नहीं बल्कि कर्तव्य बनता है कि ऐसी सरकार को उखाड़ फेकें या तबाह कर दें।’’ हमें ऐसी सरकार नहीं चाहिए। सत्ता परिवर्तन नहीं व्यवस्था परिवर्तन चाहिए। हमें पूंजीवादी व्यवस्था नहीं समाजवादी व्यवस्था चाहिए। हमें मजदूर राज चाहिए। हमें भगवा राजनीति नहीं, इंकलाब चाहिए। इसी में हमें सम्मानजनक रोजगार, आर्थिक व सामाजिक समानता मिलेगी। समाजवाद ही हमारी असली आजादी है। समाजवाद को कायम करने के लिए हमें संगठित होने की जरूरत है। समाज में क्रांति की जरूरत है।
इंदर लाल, रामनगर(नैनीताल)
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