चौपाल

                                वर्ष- 9, अंक- 3
                              अप्रैल -जून 2022

पिछली बार वर्ष-13 अंक-2 की जो परचम निकली थी मैंने उसके कई लेख पढ़े। ‘‘जंग सीमाओं पर नहीं, औरतों के शरीरों पर भी लड़ी जाती हैं’’ लेख मुझे गंभीर लेख लगा। लेख में बताया गया है कि जब किसी देश में कोई युद्ध होता है तब उसमें महिलाओं की क्या स्थिति होती है। सैनिक अपनी खुशी या अपने गुस्से को निकालने के लिए महिलाओं पर जुल्म करते हैं। लेकिन जब सारे युद्ध समाप्त हो जाते हैं, सारे व्यापार अच्छे से चलने लगते हैं तो रुकी रहती है सिर्फ वो महिलाएं जो युद्ध में शामिल तो थी लेकिन बिना मरी हुई। इन सारी घटनाओं को देखकर हमें यह सोचना चाहिए कि महिलाओं पर अत्याचार कहां और कब खत्म होंगे। वो सिर्फ समाजवाद में ही खत्म होंगे जिसके लिए हमें संघर्ष करना है।
मुझे ‘‘हम पढ़ेंगे और अपना जनवादी अधिकार ले के रहेंगे’’ लेख भी अच्छा लगा। सरकारें कहती हैं कि ‘‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’’ लेकिन न तो आज बेटी बच रही है और न ही पढ़ रही है। जब लड़कियां पढ़ने जाती हैं तो उसको टोका जाता है उसके पहनावे पर, शिक्षा लेना छात्राओं का मुख्य अधिकार है। छात्राओं को कालेजों में पहनावे के नाम पर शिक्षा से वंचित करना उनके मौलिक अधिकारों का हनन है। हिजाब हो या घूंघट किसी भी धर्म का पर्दा प्रगतिशीलता की निशानी नहीं है। हमें इसका विरोध करना होेगा और ऐसी पिछड़ी मूल्य-मान्यताओं पर टिके समाज को बदलना होगा।
मुझे लगता है कि महिलाओं को लेकर ऐसे और भी लेख आने चाहिए। महिलाओं के हर तरह के संघर्ष को बताया जाए तो ज्यादा बेहतर होगा।
      निशा, कक्षा-12, बरेली

मुझे ‘‘भगत सिंह का बताया रास्ता हम सब का रास्ता है’’ लेख सबसे अच्छा लगा। इसमें भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरू के बलिदान को याद किया गया है। ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ लड़ते हुए दमन और उत्पीड़न झेलते हुए वे शहीद हुए। छात्रों-नौजवानों-मेहनतकशों के हकों के लिए आज हमें भी खड़े होना होगा।
‘‘विवाह की उम्र में वृद्धि लड़कियों की रूढ़िवादी कैद को और पुख्ता करता मोदी सरकार का फैसला’’ लेख भी अच्छा लगा। 
    -जसप्रीत कौर संधू, कक्षा-11, थारी, रामनगर 
(आपकी ‘‘भगत सिंह पर कविता’’ भी प्राप्त हुई पर स्थानाभाव के कारण यहां पर उसे जगह देने में हम असमर्थ हैं।-सम्पादक)

वर्ष-13 अंक-2 में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में रूस और यूक्रेन वाला लेख समझदारी देने वाला था। युद्ध में रूस के लोगों ने सड़क पर उतर कर आन्दोलन कर युद्ध को रोकने की मांग की। इस लड़ाई में मजदूर-मेहनतकश जनता के लोग ही मारे जायेंगे।
‘‘पहले इंसान तो बन जाओ’’ लेख में समाज किस तरीके से काम करता है, बताया गया है। इंसान समाज में समाज की परिस्थितियों के अनुसार चलता है। समाज में समय के साथ जो परिवर्तन होता है वो जीवन को बदलता रहता है। आज हर किसी को पैसा कमाने और बड़ा आदमी बनने की चाहत है। इसीलिए कहते हैं कि पहले इंसान तो बन जाओ ऐसे इंसान जो इंकलाबी और सामाजिक तौर पर संगठनों में रहकर समाज के प्रति कार्य करें।
ऐसे ही शिक्षा पर लेख में स्कूलों, कालेजों में मिलने वाली सुविधाओं की कमी के बारे में समझ आया। इसी को आगे बढ़ाने के लिए शिक्षा में परिवर्तन हो रहे हैं।
- परमवीर, रामनगर

वर्ष-13 अंक-02 की परचम में भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरू की शहादत दिवस पर क्रांतिकारी विरासत से जुड़े लेख अच्छे लगे। लेख क्रांतिकारी विरासत को जिंदा रखने की सीख देते हैं। हमें शहीदों के छूटे कार्यों को आज पूरा करने की बहुत ही ज्यादा जरूरत है। 
मुझे सबसे अच्छा लेख ‘‘जंग सीमाओं पर नहीं, औरतों के शरीरों पर भी लड़ी जाती है’’ लगा। उक्त लेख में साम्राज्यवादियों के युद्ध में महिलाओं-लड़कियों के ऊपर सैनिकों द्वारा होने वाली यौन हिंसा को मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। शासक इस सच्चाई को छिपाते हैं। 
इस बार की परचम को लेकर मेरे अपने कुछ सुझाव यह हैं। एक तो परचम में क्रांतिकारियों की विरासत को लगातार प्रस्तुत करते रहने की मुझे जरूरत महसूस होती है। परचम को हर पढ़ने वाले छात्र-नौजवान, बुद्धिजीवियों के पास पहुंचाने की भी आज बहुत जरूरत बनती है।
- रवि, रामनगर


                              वर्ष- 9, अंक- 3
अप्रैल-जून, 2018





        इस बार की परचम (वर्ष 9,अंक-2) जो भगत सिंह की शहादत दिवस को ध्यान में रखकर प्रकाशित की गयी थी। परचम के इस अंक में भगत सिंह का ‘युवक’ लेख व दर्शन की सीरीज का अंतिम लेख ‘एक भूली बिसरी पुरानी कहानी’ बहुत रोचक थे। जहां जेनेटिक विज्ञान के जरिये दर्शन को समझाया गया। भगत सिंह के ‘युवक’ लेख द्वारा युवावस्था किसे कहते हैं समझाया गया। यह लेख युवाओं में जोश भरने वाला है। ‘इंजीनियरिंग कालेजों का बुरा हाल’ वाला लेख इस देश के कुशल बेरोजगारों की स्थिति को प्रदर्शित करता है। इस अंक में परिचर्चा का विषय भी काफी रोचक था।                                            - उमेश, हल्द्वानी
       वर्ष 9, अंक-2 परचम अच्छी लगी। जिसमें ‘युवक’ लेख जोश से भरा हुआ था। ‘इंजीनियरिंग कालेजों का बुरा हाल’ लेख में देश में कुकुरमुत्तों की तरह खुलते प्राइवेट कालेजों की स्थिति बयां की गयी है। ‘मी टू बनाम वास्तविक नारी मुक्ति’ लेख भी अच्छा लगा। इससे पता चला कि ‘मी टू’ जैसे आंदोलन किस तरह  महिलाओं की वास्तविक मुक्ति को भटकाने का काम करते हैं। दर्शन का लेख काफी अच्छा लगा। जो सरल और सीधे-सीधे विज्ञान-दर्शन-समाज के बीच के संबंध बताता है। ‘हिंसक होते भारतीय किशोर’ देश में किशोरों की हिंसक प्रवृत्ति को दिखाता है। जिसमें किशोर वीडियो गेम में किसी को मारने के बाद खुश होता है। ‘अंतराष्ट्रीय महिला दिवस’ के अवसर पर इतिहास में महिलाओं की बहादुराना गाथा के लेख की कमी लगी। दोनों कवर पृष्ठ काफी आकर्षक थे। आगे भी इस तरह के दर्शन और विज्ञान के लेख जारी रखे जायें। 
                                     - सुनिल, एम.एस.सी, द्वितीय वर्ष, नैनीताल

         इस बार की परचम हमारे देश के शहीदों की शहादत को याद करते हुए निकाली गयी। भगत सिंह का ‘युवक’ लेख यह बताता है कि युवाओं को क्या करना चाहिए। युवक ही हैं जो अपने समाज को बदल सकते हैं। 
         इस बार की परचम के सारे ही लेख पूंजीवादी व्यवस्था को बदलने के बारे में आये हैं। चाहे यौन हिंसा की घटनाएं हों, बेरोजगारी हो या फिर आत्महत्याएं। इन सारी ही समस्याओं को सिर्फ इस पूंजीवादी व्यवस्था को बदल कर ही हल किया जा सकता है।      - रवि, रामनगर

        परचम वर्ष 9, अंक-2 के लेख अच्छे लगे। वैसे तो हमेशा मैं पहले कविता पढ़ती हूं लेकिन इस बार भगत सिंह का लेख बहुत अच्छा लगा। हम छात्र हैं इसलिए परचम विशेष रूप से हमारे लिए ही निकाली जाती है। इस बार ‘इंजीनियरिंग कालेजों का बुरा हाल’, महिलाओं से जुडे़ मुद्दों पर जो लेख आये वह भी अच्छे लगे। कवर पृष्ठ भी अच्छा था। परिचर्चा पर आयी परचम की अवस्थिति भी सही लगी। ‘दर्शन’ पर लेख थोड़ा कठिन लगा। इतनी कठिन हिन्दी का प्रयोग होता है कि कभी-कभी थोड़ा समस्या हो जाती है।                                                  - पिंकी, कक्षा-11, लालकुआं



वर्ष- 8, अंक- 3
अप्रैल-जून, 2017




परचम वर्ष 8 अंक 2 में सभी लेख बहुत ही अच्छे थे। इस बार दो लघु कहानियां भी परचम में थी। अमरता व अंधविश्वास जो काफी अच्छी थी। दर्शन के बारे में बहुत बड़ा लेख आया था जो दर्शन को समझने के लिए बहुुत अच्छा है। इस लेख में ऐसी बहुत सी बातें हैं जो जानते सभी हैं पर समझ नहीं पाते। एक लेख नोटबंदी पर भी था, वह भी अच्छा था। इस लेख में ज्यादा स्पष्ट तरीके से बताया गया कि किस तरह आम जनता को नोटबंदी से परेशानी हो रही है और वो किस तरह अपनी जान देने को तैयार है।
- दीपाली, रामनगर

मैंने वर्ष 8 अंक 2 की पूरी परचम पढ़ी। परचम को मुख्यतः पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों पर केन्द्रीयकृत किया गया है। ‘विधानसभा चुनाव 2017’ नामक लेख में उत्तरप्रदेेश पर ज्यादा केन्द्रीयकृत कर दिया अन्य राज्यों के बारे में इतना चित्रण नहीं किया गया। नोटबंदी का लेख अच्छा लगा। दर्शन का भी लेख काफी महत्वपूर्ण लगा। वर्तमान परिप्रेक्ष्य और चन्द्रशेखर आजाद का लेख राजनीतिक रूप से कमजोर लगा। जे.एन.यू. व नजीब से सम्बन्धित लेख परचम को छात्रों की जीवंत पत्रिका दर्शाते हैं। अमरता व अंधविश्वास नामक शीर्षक से लघु कहानियां प्रेरक व अंधविश्वास व शिक्षा व्यवस्था पर सवाल खड़ा करती हैं।  भगत सिंह व महिला दिवस पर लेख को परचम में जगह देनी चाहिए थी।
- सूर्यप्रकाश, बरेली
वर्ष 8, अंक 2 के परचम में लिखे गये लेख विभिन्नता लिये हुए हैं, जो मुझे अच्छा लगा। जो कि राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चल रही समस्याओं को उठाता है, तथा उसका समाधान भी देता है। परचम पूंजीवादी उथल-पुथल को उजागर करता है, समस्याओं को भी चिन्हित करता है तथा समाजवाद पूंजीवाद से बेहतर व्यवस्था है, बताता है। इसमें विधानसभा चुनाव पर जो लेख थे काफी अच्छे थे जो कि मजदूरों के पक्ष में थे। परचम का कवर पेज अच्छा था। परचम में हर बार जो परिचर्चा का एक विषय रखा जाता है, जो कि चल रही समस्याओं को लेकर होता है। जिसमें सबकी राय ली जाती है। यह एक संदेश आम लोगों में जाता है कि वो अपना विचार स्वतंत्र रूप से रख सकते हैं, जो एक अच्छा पहलू है।
- रूपाली, नरेन्द्रनगर, (टिहरी गढ़वाल)

परचम के वर्ष 8 अंक 2 के सभी लेख बहुत अच्छे लगे। राष्ट्रीय राजनीति में ‘नोटबंदी से क्या खोया क्या पाया’ लेख ने वर्तमान परिस्थितियों को बहुत अच्छे ढंग से बताया। नोटबंदी को विस्तृत तौर से तथ्यों व आंकड़ों के द्वारा प्रस्तुत किया गया था, जिसने समझ बढ़ाने में मदद की। साथ ही, अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में ‘घोर दक्षिणपंथी का राष्ट्रपति बनना’, छात्र जगत में ‘अंधराष्ट्रवाद की आंधी में गुम हो गया नजीब’, दर्शन में ‘दर्शन के कुछ सवाल: ईश्वर’ ने भी खासा प्रभावित किया। कवर पेज भी बहुत आकर्षक था व विधानसभा चुनाव के मद्देनजर था। साथ ही, शहीदे आजम भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु की शहादत को भी कवर पेज द्वारा दर्शाया गया, जो कवर को और आकर्षित बना रहा था। पाश की कविताएं व कार्टून भी वर्तमान राष्ट्रीय राजनेता व उनकी राजनीति को ही दर्शाता है। संक्षेप में इस बार की परचम काफी अच्छी लगी व गुणवत्ता की दृष्टि से भी बेहतर थी।
- रंजना, कोटद्वार

वर्ष 8 अंक 2 की इस बार की परचम पांच राज्यों के विधान सभा चुनाव   और देश का मेहनतकश के बारे मे थी। परचम का डिजाइन बहुत बढ़िया लगा। इसमें जो वोट की मशीन कार्टून के रूप में बनाई गयी है समझाती है कि हम किसी को भी वोट दें, उसने तो अपना पक्ष पहले ही चुन लिया। इसलिए जो भी वोट कर रहा है मशीन उस पर हंस रही है। बैक साइड का कवर है उसमें 23 मार्च 1931 के शहीदों का चित्र और भगत सिंह के 6 जून 1929 के लेख का अंश है, बहुत ही आकर्षित करता है। परचम को पढ़ने के लिये और भगत सिंह के विचारों की राह पर चलने के लिये और देश को एक समान अधिकार दिलाने के लिये हमें ‘इंकलाब जिन्दाबाद’ करते हुये आगे बढ़ने के लिये प्रेरित करता है। 

1. इस बार की परचम के लेख ज्यादातर पूंजीवादी तंत्र और विधानसभा के चुनावों के बारे में हैं। राजनीति को मजदूर वर्ग को समझने की जरूरत है। पूंजीवाद के खिलाफ संघर्ष करने की जरूरत है। पूूंजीवाद सिर्फ देश के पूंजीपतियों के फायदे के लिये नीतियां बनाता है और मजदूरों पर भी वही लागू करता है। 

2. नोटबंदी का लेख और ‘घोर दक्षिणपंथी का राष्ट्रपति बनना’ बहुत अच्छा लगा। हमें हर दक्षिणपंथी के विचारों, फैसलों का विरोध करने की जरूरत है। 

3. ‘दर्शन के कुछ सवालः ईश्वर’ का लेख भी बहुत अच्छा लगा, इसमें समझाया गया है कि कैसे वेदों और धर्मों के नाम पर भ्रमित किया जाता है कि अच्छे कर्म करोगे तो स्वर्ग, नहीं तो नर्क में जाओगे। यह सब अंधविश्वास है। इसके खिलाफ संघर्ष करने की जरूरत है।

4. इस बार की परचम में दो लघु कहानियां भी थी, जिसमें पता चलता है कि लोग अंधविश्वास में खोये हुये, छोटी सी बीमारी को वैद्य, पण्डित के पास जाकर बड़ा बना देते हैं। ऐसे अंधविश्वास का विरोध करने की जरूरत है।
- रवि, रामनगर



वर्ष- 8, अंक- 2
जनवरी-मार्च, 2017





‘परचम’ वर्ष-8, अंक-1 के सभी लेख काफी अच्छे थे। इसमें महान समाजवादी अक्टूबर क्रांति के बारे में कुछ लेख थे जो अक्टूबर क्रांति को समझने के लिए काफी अच्छे थे। इसमें यह बताया गया है कि किस प्रकार से मजदूर-मेहनतकश जनता यदि एकजुट हो तो वह इन साम्राज्यवादी व पूंजीवादी ताकतों को हिला सकती है। मुझे इन लेखों को पढ़कर बहुत ज्ञान मिला है। अक्टूबर क्रांति क्या थी और क्यों यह हमारे लिए जरूरी है। अक्टूबर क्रांति में महिलाओं का योगदान हमारे लिए प्रेरणादायी है। अक्टूबर क्रांति के अलावा फ्रांसीसी क्रांति, चीनी क्रांति के बारे में भी बताया गया है। जो हमारे ज्ञान को बढ़ाने में मद्द करते हैं।

        ‘परचम’ का कवर पेज अच्छा है, पर इसमें अगर इस दृश्य के बारे में थोड़ा लिखा होता तो ज्यादा अच्छा लगता। और मुझे ‘महेन्द्र नेह’ की कविता भी काफी अच्छी लगी।
            - दीपाली, आई.टी.आई.,रामनगर

वर्ष-8, अंक-1 की ‘परचम’ मैंने पढ़ी। जिसके सभी लेख बहुत अच्छे थे। ‘परचम’ इस बार क्रांति पर आधारित थी। इसके क्रांति पर लेख काफी अच्छे और समझने वाले थे। ‘परचम’ में ‘दर्शन के सवाल: द्वन्दवाद’ लेख मुझे काफी अच्छा लगा जो कि बताता है कि साम्यवाद ही एक उचित व्यवस्था हो सकती है और द्वन्द हमेशा ही परिवर्तनशील होता है।

        कवर पेज भी अच्छा था लेकिन और आकर्षक हो सकता था। जिसकी मुझे कमी लगी। मुझे लगता है कार्टून कोना भी ‘परचम’ में होना चाहिए। छात्रों के अलग-अलग मुद्दों तथा उनके आन्दोलनों का जिक्र परचम में होता है। ये मुझे काफी अच्छा लगता है। ‘परचम’ ही मेहनतकशों के मुद्दे उठाता है। ये भी काफी अच्छा लगता है।
         - रूपाली, नरेन्द्रनगर, टिहरी गढ़वाल

इस बार की ‘परचम’ वर्ष-8, अंक-1 जो मुख्यतः इतिहास में हुई क्रांतियों पर आधारित थी। जिसमें फ्रांसीसी क्रांति से लेकर चीनी क्रांति पर लेख थे। अक्टूबर क्रांति को बहुत कम शब्दों में समझा जा सका। ‘परचम’ के पहले भीतरी कवर पृष्ठ पर रामप्रसाद बिस्मिल का एक गीत (बला से हमको लटकाये अगर सरकार फांसी से) जो मुझे बेहद पसंद आया। अशफाक उल्ला खां का जीवन परिचय से पहले जो एक शायरी दी थी ‘‘उठो-उठो सो रहे हो नायक, पयामे बांगे जरस तो सुन ले। बढ़ो कि कोई बुला रहा है। निशाने मंजिल दिखा-दिखाकर।’’ बहुत अच्छी लगी। ‘परचम’ के आवरण पर बने चित्र रोचक व आकर्षक लगे। चैपाल में बहुत कम लोगों का सहयोग था। छात्र जगत से सम्बन्धित लेख भी अच्छे थे।
- उमेश, रामनगर

वर्ष-8, अंक-1 अक्टूबर से दिसम्बर 2016 की ‘परचम’ बहुत अच्छी लगी। इसका जो डिजाइन है बहुत ही बढ़िया करके बनाया गया है। इस बार की ‘परचम’ में ज्यादातर मजदूरों व महान अक्टूबर क्रांति के बारे में बताया गया है और फ्रांसीसी क्रांति के बारे में बताया गया। जिससे मजदूरों-छात्रों के बहुत ही अच्छे ढंग से समझ में आने में काफी मद्द मिलेगी। 

        अक्टूबर क्रांति कैसे हुई और उसने मजदूरों के जीवन को किस तरह से प्रभावित किया। समाज में गैरबराबरी को सिर्फ संघर्ष से ही दूर किया जा सकता है। फ्रांसीसी क्रांति विश्व की प्रथम निर्णायक पूंजीवादी क्रांति थी। जिसने पूरी दुनिया को बता दिया कि सामंती व्यवस्था को ध्वस्त करके ही समानता के अधिकार मिल सकेंगे। अशफाक उल्ला खां के जीवन परिचय से हमें यह सीख मिलती है- उठो-उठो सो रहे हो नाहक, पयामे बांगे जरस तो सुन लो बढ़ो कि कोई बुला रहा है, निशाने मंजिल दिखा-दिखाकर। अशफाक उल्ला खां ने वह कर दिखाया जो आज के हिन्दू व मुस्लिम नेता नहीं कर सकते। अशफाक ने हिन्दू और मुस्लिम को एक ही समान समझा और उन्होंने इसकी मिसाल भी पेश की। उन्होंने मुस्लिम होते हुए भी हिन्दू साथी बिस्मिल से दोस्ती की। वो अपने देश के लिए मर मिटे। इस मिसाल ने पूरी दुनिया में हिन्दू और मुस्लिम की एकता को दिखाती है और जो ब्रिटिश हो या साम्राज्यवादी उनके खिलाफ एकजुट होकर इनका मुकाबला करने की प्रेरणा देती है। बाकी सारे जो भी लेख हैं, इस बार की ‘परचम’ में, बहुत ही अच्छे लगे। शिक्षा को बाजार बना दिया। हमें इसका विरोध करना चाहिए और हमें एक समान शिक्षा के लिए एकजुट होकर लड़ने की जरूरत है। ट्रेनिंग के नाम पर शिक्षकों के द्वारा निजी प्रशिक्षण संस्थानों को बढ़ावा देना और रोजगार की 100 प्रतिशत गारंटी, बिल्कुल सफेद झूठ होता है। जो छात्रों को भ्रमित करता है। अपने मुनाफे व फीस के लिए ये झूठे सपने दिखाते हैं। हमें ऐसे प्रशिक्षण संस्थानों का विरोध करना चाहिए, जो गरीब छात्रों को लूटता हो और हमें इसके खिलाफ लड़ने की जरूरत है। 

         - रवि, बी.ए. द्वितीय वर्ष, रामनगर 


वर्ष- 8, अंक- 1

अक्टूबर-दिसंबर, 2016







मैंने ‘परचम’ का वर्ष 7 अंक 4 पढ़ा। इसका कवर पेज व सभी लेख बहुत अच्छे लगे। लेख गहराई से राष्ट्रवाद के हर पहलू पर लिखे गये हैं। राष्ट्रवाद के ऊपर लिखे गये लेखों से मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला। 

        ‘परचम’ के इस अंक में भी दर्शन के विषय में लिखे गये लेख ‘दर्शन के कुछ सवाल: ज्ञान और उसकी प्रकृति’ लेख भी मुझे अच्छा लगा। वैसे तो दर्शन के इस अंश को मैंने पहले भी पढ़ा हुआ था लेकिन ज्ञान किन चरणों से होकर गुजरता है और तब जाकर तर्क संगत ज्ञान में बदलता है और यह ज्ञान का चरण जीवन पर्यन्त चलता रहता है। यह अन्य पाठकों के लिए भी बेहद शिक्षाप्रद साबित होगा।


        ‘परचम’ के इस अंक में लिखा लेख ‘गजानन माधव मुक्तिबोध’ मुझे सबसे अच्छा लगा। जिस तरह से वर्गीय समाज में हर व्यक्ति की सचेत या अचेत रूप से वर्गीय पक्षधरता होती है उसी तरह गजानन माधव मुक्तिबोध की सचेतन पक्षधरता मजदूर-मेहनतकशों की पक्षधरता है। क्योंकि उनके द्वारा लिखी गयी तमाम रचनायें मजदूरों-मेहनतकशों का पक्ष लेती हैं।
   -उमेश, बरेली


        वर्ष-7 अंक-4 की ‘परचम’ मुझे बहुत अच्छी लगी। मुख्यतः यह परचम दर्शाती है कि ‘राष्ट्रवाद’ को लेकर कितनी होड़ मची हुई है। किस तरह से प्रतिक्रियावादी संघ तथा भाजपा राष्ट्रवाद को लेकर अंधराष्ट्रवाद फैलाना चाहते हंै। ‘परचम’ ने संघ द्वारा प्रचारित व प्रसारित ‘राष्ट्रवाद’ का कटाक्ष किया और वर्तमान और इतिहास में अंतर भी समझाया।

        ‘परचम’ में मुझे मुख्यतः यह कमी लगी कि पहले पृष्ठ पर इतिहास में राष्ट्रवाद के किसी आंदोलन का चित्र होता तो अच्छा लगता। वह इसलिए क्योंकि चित्र द्वारा पाठकों को दोनों में अंतर और अच्छी तरह से समझ आता और चित्र पाठक को आकर्षित करता। 

        बाकी, ‘परचम’ के आखिरी पृष्ठों पर आंदोलनों के चित्र बहुत अच्छे लगे जो देखने पर आकर्षित करते हैं। ऐसे आंदोलनों के चित्र और आने चाहिए। मुझे ‘‘शलभ श्रीराम सिंह’’ की कविता बहुत अच्छी लगी। मुझे लगता है चैपाल में ज्यादा लोगों की भागीदारी होनी चाहिए। मुझे दर्शन पर लेख अच्छा लगा।        
-हरिओम, बरेली


        इस बार की ‘परचम’ राष्ट्रवाद के बारे में थी। जिसका डिजाइन बहुत बढ़िया है। ‘परचम’ इस बार बहुत ही अच्छे ढंग से लिखा है। इसमें हमारे देश में राष्ट्रवाद के बारे हुये आंदोलन को बहुत ही बढ़िया करके दर्शाया गया है। इस ‘परचम’ का पहला पेज मुझे बहुत अच्छा लगा। वास्तव में यह वह सहर नहीं है जिसकी आजादी के लिए हमारे देश के क्रांतिकारियों ने लड़ाई लड़ी थी। हमारे देश को आज ब्रिटिश साम्राज्यवादियों से आजाद हुए 69 साल बाद भी हमारी स्थिति वैसी ही है। क्योंकि जैसा ब्रिटिश सरकार हमारे साथ व्यवहार करती थी, आज हमारे देश की पूंजीवादी व्यवस्था वैसा ही व्यवहार कर रही है। आज पूंजीपति वर्ग राष्ट्रभक्ति का ढांेग कर रहा है। वह हमको आपस में लड़वा रहा है। हमें एक होकर पूंजीवादी व्यवस्था को खत्म करके नई व्यवस्था को लाना है। ऐसी व्यवस्था समाजवाद ही हो सकती है। जहां सबको एक समान अधिकार मिल सकता है।  

        ‘मैक्सिको में संघर्षरत शिक्षकों का खूनी दमन’ लेख शिक्षकों के सराहनीय संघर्ष व मैक्सिको सरकार की दमन की नीति को उजागर करता है। यह मैक्सिको सरकार द्वारा अमेरिकी दबाव में किया गया। क्योंकि अमेरिका सभी देशों में अपना प्रभुत्व कायम करना चाहता है। पहले मैक्सिको में सभी को  एक हद तक समान शिक्षा मिलती थी पर आज वहां ऐसा नहीं है। इससे गरीब छात्रों की शिक्षा पर बुरा असर पड़ रहा है।    
-रवि, बी.ए. द्वितीय वर्ष रामनगर(नैनीताल)




परचम वर्ष-6 अंक-1 का कवर पेज अत्यंत आर्कषक था। फासीवादी व क्रांति के प्रतीकों के अंतर को कलात्मक रूप से बहुत बढिया ढंग से प्रकट किया गया। आवरण कथा ‘हिन्दी, हिन्दू, हिन्दू राष्ट्र’ लेख साम्प्रदायिक सोच वाली भाजपा के वास्तविक चरित्र को उजागर करता है। संघ द्वारा हिन्दू राष्ट्र वाली सोच से अन्य धर्मों के खिलाफ जो माहौल बनाया जा रहा है, उसने समाज में ध्रुवीकरण की प्रक्रिया को तेज कर दिया है। ‘विश्व आर्थिक संकट, दक्षिणपंथी राजनीति और छात्र नौजवान’ लेख में वर्तमान आर्थिक संकट के कारण दक्षिणपंथी राजनीति के उभार को दिखाया है। छात्र नौजवानों को वर्तमान आर्थिक संकट किस तरह प्रभावित कर रहा है, इस बात को ठीक ढंग से अभिव्यक्त करता है। साम्प्रदायिकता के सम्बंध में मिथक-यथार्थ लेख साम्प्रदायिक तत्वों द्वारा गढ़े गये मिथकों का यथार्थ व सर्वे रिर्पोटों के आधार पर खंडन करता है।

        ‘मुसलमान’ कविता साम्प्रदायिक सोच वाले लोगों के ऊपर एक तमाचा लगाती है। कविता साम्प्रदायिक दंगों से होने वाली पीड़ा को भी अभिव्यक्त करती है।
        ‘नवरंग बिहारी औरंगजेबः कुछ तथ्य’ लेख साम्प्रदायिक इतिहास लेखन करने वाले संगठनों को यथार्थ का आइना दिखाता है। औरंगजेब को हिन्दू विरोधी घोषित करने वाली राजनीति का पाखंड यह लेख उजागर करता है। 

        अंतर्राष्ट्रीय राजनीति ‘इराक की बर्बादी का गुनाहगार अमेरिकी साम्राज्यवाद’ लेख इराकी जनता पर हो रहे जुल्म को बयां करता है। साथ ही अमेरिकी साम्राज्यवादियों द्वारा इराक में शिया-सुन्नी-कुर्द के बीच में अलगाव पैदा करने की कोशिश लगातार जारी है। इराक में मौजूद सरकार के भ्रष्टाचार व भाई-भतीजावाद को भी इराक की वर्तमान स्थिति के लिए जिम्मेदार ठहराता है। 

        ‘सभ्यता के ठेकेदार बर्बरता के पैरोकार’ लेख नार्वे में आयोजित मेले में मानव चिड़ियाघर के रूप में मानवता के ऊपर एक कलंक मानता है क्योंकि जहां सभ्यता का विकास चरम पर है वहीं आज कुछ सभ्यताओं के लोगों के साथ अमानवीय व्यवहार किया जा रहा है। 

        ‘स्वच्छ भारत अभियान नाम बड़े और दर्शन छोटे’ लेख मोदी के स्वच्छता अभियान की पोल खोलता है। जहां तकनीकी विकास के युग में मशीनों के द्वारा सफाई की जाती है वहीं मोदी जी व्यक्तियों को दोषी ठहराकर स्वच्छता अभियान चला रहे हैं। 

        ‘विपिन चंद्रः सरकारी मार्क्सवादी इतिहासकार’ लेख में विपिन  चंद्र को प्रगतिशील बताया गया है साथ ही उनकी सीमा को भी रेखांकित किया गया है।
                                                                                                                        -जयप्रकाश, हल्द्वानी

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