वर्ष- 11 अंक- 2
जनवरी-मार्च, 2020
छात्रों का संघर्ष और फासीवादी षड़यंत्र
वर्ष- 11 अंक- 1
जनवरी-मार्च, 2020
छात्रों का संघर्ष और फासीवादी षड़यंत्र
5 नवम्बर को जवाहर लाल विश्वविद्यालय में फीसें बढ़ाकर छात्रों का एक ढंग से उत्पीड़न किया गया तो 5 जनवरी को कायरतापूर्ण हमला करके छात्रों का दूसरे ढंग से उत्पीड़न किया गया। वि.वि. प्रशासन का हो या लम्पट गिरोह का हमला छात्र बहुत बहादुरी से इसका जवाब दे रहे हैं। देश के छात्र इन हमलों के जवाब में अपनी एकजुटता को लगातार मजबूत कर रहे हैं।
ज्ञात हो कि 5 नवम्बर को जेएनयू प्रशासन ने फीसों में भारी वृद्धि कर दी। कई मदों में यह वृद्धि कई-कई गुना की थी। साथ ही तमाम तरह के प्रतिबंध लगाकर छात्रों के जनवाद और उनकी पढ़ाई को भी प्रभावित किया जा रहा है। जेएनयू के छात्र इन छात्र विरोधी फैसलों के खिलाफ एकजुट हुए और आंदोलन करने लगे। 11 नवम्बर को दीक्षांत समारोह के दिन मानव संसाधन विकास मंत्रालय (एमएचआरडी) मंत्री का घेराव किया गया। आंदोलित छात्रों के दबाव में मंत्री जी ने कमेटी बनाने और उचित कदम उठाने की बात तो कही किन्तु कुलपति की तानाशाही पर कुछ नहीं कहा। आंदोलन की अगली कड़ी में 18 नवम्बर को छात्रों ने संसद तक मार्च का कार्यक्रम बनाया। 18 नवम्बर के जुलूस को रोकने के लिए पुलिस ने जेएनयू के बाहर बेरिकेटिंग कर दी ताकि वह छात्रों को कैम्पस में ही रोक सके। और संसद में बैठे गणमान्य कह सकें कि सब कुछ ठीक है। देश मजे में है, महंगाई, फीस वृद्धि से किसी को कोई समस्या नहीं है। किन्तु पुलिस की बेरिकेटिंग छात्रों को रोक न सकी वे अपनी बात कहने को आगे बढे़, कैम्पस से बाहर निकले। किन्तु कुछ ही दूरी पर और अधिक पुलिस फोर्स के साथ छात्रों का रास्ता रोक दिया गया। और उन पर बर्बर लाठीचार्ज कर दिया गया। पुलिस के इस हमले में कई छात्र घायल हुये। पुलिस की बेरहम लाठियों ने लड़कियों को, विकलांगों तक को नहीं बख्शा।
छात्रों पर हुये इस बर्बर दमन के खिलाफ देश के कई विश्वविद्यालयों में प्रदर्शन हुए। छात्रों के आंदोलन और उनकी मांगों को मिल रहे समर्थन के कारण सरकार कुछ फीस कम करने को पीछे हुयी। पर यह नाम मात्र की कमी और जनविरोधी फैसलों का छात्र विरोध करते रहे। छात्र पूरी फीस वृद्धि वापस लेने और छात्र विरोधी, जनवाद विरोधी कदमों को वापस लेने की मांग करते रहे। शिक्षकों का एक छोटा समूह और भाजपा का अनुषांगी संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद वि.वि. की इस घोषणा के बाद आंदोलन समाप्त करने पर जोर देने लगा।
छात्रों की मांगों को अनसुना और छात्र आंदोलन को अनदेखा करते हुए जेएनयू प्रशासन बढ़ी हुयी फीसों को जमा करवाने लगा। एबीवीपी छात्रों पर दबाव बनाता रहा कि वे बढ़ी हुयी फीसें जमा कर रजिस्ट्रेशन करवायें। वहीं दूसरी तरफ संघर्षरत छात्र इससे इंकार करते हुए पूरी फीस वृद्धि वापस लेने की मांग करते रहे। ज्यादातर छात्र रजिस्ट्रेशन नहीं करवा रहे थे। वि.वि. प्रशासन की बड़ी किरकिरी हो रही थी। वह अपने मंसूबों में कामयाब नहीं हो पा रहा था। छात्रों की एकजुटता देख एबीवीपी अब खुली गुड़ांगर्दी पर उतारू हो गया। वह जगह-जगह छात्रों पर हमला कर भय और आंतक का माहौल बना रहा था। जब इससे भी बात न बनी तो छात्रों पर एक बड़े हमले की योजना बनायी गयी।
5 जनवरी की रात में लाठी डंड़ां और विभिन्न हथियारों से लैश होकर 50 से अधिक लम्पटों द्वारा छात्रों पर हमला बोल दिय गया। छात्रों, छात्राओं के हास्टल में घुसकर उन्हें बुरी तरह से पीटा गया। कई छात्र-छात्राएं इस हमले में घायल हुये। आंदोलन के समय से ही जेएनयू कैम्पस के गेट में पुलिस, गार्ड तैनात रहते हैं। जो हर किसी का आईकार्ड देखकर उन्हें कैम्पस में जाने देते हैं। किसी व्यक्ति की पूरी तफतीश के बाद ही उसे कैम्पस में जाने की अनुमति दी जाती है। फिर कैसे इतनी भारी संख्या में मुंह में नकाब पहने हाथों में हथियार लिये लोग कैम्पस में घुस जाते हैं। और इतमिनान से घंटो तक मारपीट का तांड़व रच कर बाहर भी निकल जाते हैं। इस सवाल का जवाब दिल्ली पुलिस के पास नहीं है ना ही वह जवाब दे रही है। घंटो तक यह हमला चलता रहा और छात्र-छात्राएं मदद की गुहार लगाते रहे दिल्ली पुलिस वीसी की अनुमति ना होने का बहान बनाकर खामोश बैठी रही। याद रहे यह वही पुलिस है जो जामिया में घुसकर प्रदर्शनकारी छात्रों को बर्बर तरीके से पीटती है। पुस्तकालयों, टायलेट तक में जाकर छात्र-छात्राओं की पिटाई करती है। यह कैसा रवैया है? यह कैसा पक्षपात है? प्रदर्शनकारियों के दमन के लिए आप अत्यधिक सक्रिय है और आंदोलनकारियों को पीटने वाले लम्पटों के सामने आप मूकदर्शक बनकर उनको शय दे रहे हैं।
इस घटना की आड़ में प्रशासन व तमाम सरकार पंसद बुद्धिजीवी पुलिस को वि.वि. में बेरोक टोक घुसने की वकालत भी कर रहे हैं। ताकि आगे से पुलिस ऐसी घटनाओं को रोक सके। परंतु इतिहास गवाह है कि पुलिस का वि.वि. में घुसने से क्या होता है। पुलिस संघर्षरत छात्रों का तो दमन करती है किन्तु असामाजिक तत्वों को खुली छूट देती है। इस घटना में सवाल पुलिस के वि.वि. में आने ना आने का नहीं है बल्कि सवाल यह है कि पुलिस की मौजूदगी में कैसे इतनी बढ़ी संख्या में नकाबपोश वि.वि. में हथियारों के साथ दाखिल हुए। और सारी मारपीट करने के बाद कहां गायब हो गये।
देश के दूर दराज के इलाकों तक में छात्रों पर हमले की खबर पहुंच जाती है पर वीसी कई घंटो तक कोई खबर छात्रों की नहीं लेता ना ही कोई कार्यवाही करता है। करें भी क्यों आखिर इस सब से फायदा तो वि.वि. प्रशासन को ही है। अगर छात्रों को मार पीट कर, डरा धमकाकर वो आंदोलन ना करें तो इससे बढ़िया क्या होगा। छात्र अकारण ही वीसी के इस्तीफे की मांग नहीं कर रहे हैं।
छात्रों पर हमले की घटना जिस तरह से अंजाम दी गयी यह छात्रों के गुटों का यूं ही झगड़ पड़ने से बहुत ज्यादा है। इस घटना में पूरी योजनाबद्धता है जो बिना ऊंचे दर्जें के संरक्षण के संभव नहीं है। घटना को अंजाम देने के लिए बाकायदा एक वाटसऐप ग्रुप बनाया गया जो पूरे हमले को निदेर्शित करता रहा। चुन-चुन कर आंदोलनकारी छात्रों को टारगेट किया गया। इस घटना में बताया जा रहा है कि कुछ जेएनयू के छात्र-छात्राएं भी थे और ढेरों बाहरी लोग थे। और ये सभी दक्षिणपंथी छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के या इनके सम्पर्क के लोग थे।
कोई भी सामान्य छात्र, सामान्य संगठन यहां तक कि कोई गुण्डा इस तरह की घटना को अंजाम नहीं दे सकता। इस तरह की घटना के लिए दंगा करने का एक लम्बा अनुभव चाहिए। देश में हुए दंगों में कुछ बातें आम हैं। वे हैं; दुष्प्रचार करना, टारगेट सैट करना, हमलावर गिरोह बनाना, हमलावर लोगों के बीच सम्पर्क की व्यवस्था करना, हमलावरों को पूर्णता नियोजित निदेर्शित करना, पुलिस प्रशासन से सहयोग कायम करना आदि। जेएनयू छात्रों पर हुये हमले में यही योजनाबद्धता साफ-साफ देखी जा सकती है। इसलिए यह घटना महज यह नहीं कि कुछ लम्पट लोगों ने छात्रों पर हमला कर दिया। बल्कि यह घटना दिखाती है कि फांसीवादी संगठन कितने उच्च स्तर का प्रशिक्षण हासिल कर हमलों को अंजाम दे रहे हैं। एबीवीपी से जुडे़ आम छात्र जो देशप्रेम, मोदी या किसी और कारण से इसमें शामिल हो गये हैं उन छात्रों को एक दंगाई भीड़ के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। युवावस्था की सारे आदर्शवाद और समाज के लिए कुछ कर गुजरने की उमंग को दंगों और हमलों का एक टूल बनाया जा रहा है।
फासीवादियों का यह षड़यंत्र निश्चत ही हम युवाओं के लिए एक बड़ी चुनौती बन जाता है। ऐसे चुनौतीपूर्ण समय में हमें अपने पुराने क्रांतिकारी इतिहास में देखना होगा। हमें भगत सिंह से सीखना होगा। जिन्होंने भाजपा-संघ से विपरीत देश भक्ति की अलग मिसाल दी। जिन्होंने हमेशा साम्प्रदायिकता, जातिवाद का विरोध किया। जिन्होंने सारी समस्याओं के लिए पूंजीवाद को मुख्य जिम्मेदार के तौर पर देखा और समाजवाद को एक सुनहरे भविष्य के तौर पर देखा। भगत सिह के सपनों का भारत एक समाजवादी भारत था। जहां ना कोई बेरोजगार होगा, ना कोई किसी का शोषण कर पायेगा और ना एक देश दूसरे देश को गुलाम बना पायेगा। आज इस चुनौतीपूर्ण समय में हम नौजवानों को भगत सिंह का रास्ता अपनाने की जरूरत है।
अक्टूबर-दिसम्बर, 2019
दिल्ली वि.वि. में भगत सिंह-सावरकर मूर्ति विवाद
19 अगस्त की रात को दिल्ली विश्वविद्यालय के आर्ट फैकल्टी के गेट पर एबीवीपी द्वारा बिना प्रशासन की अनुमति के भगत सिंह और सुभाष चन्द्र बोस की मूर्ति के साथ सावरकर की मूर्ति लगा दी जाती है। इस घटना का तत्काल संज्ञान लेते हुए डीयू के क्रांतिकारी-वामपंथी छात्र संगठनों ने एक स्वर में इसका विरोध किया।
हिन्दुत्ववादी विचारधारा के पोषक सावरकर की प्रतिमा को भगत सिंह और सुभाष चन्द्र बोस के साथ स्थापित करना ही अपने आप में एक विरोधाभाष की स्थिति उत्पन्न करता है। भगत सिंह और सुभाषचन्द्र जैसे देशभक्तों का सहारा लेकर दक्षिणपंथी विचारधारा के नायक को एक प्रकार से वैधता दिलवाने की पुरजोर कोशिश की गई। लेकिन डीयू के छात्र संगठनों और छात्रों द्वारा इस मूर्ति स्थापना का विरोध किया गया और संघर्ष कर इसे हटाया भी गया। इस संघर्ष और प्रदर्शन में दो छात्रों (परिवर्तनकामी छात्र संगठन के दो कार्यकर्ताओं) को पुलिस द्वारा थाने भी ले जाया गया। इन्हें डराया-धमकाया जाता है डीयू के अपनी एकजुटता दिखाते हुए इस विवादित मूर्ति के खिलाफ डटे रहे और उसे हटा कर ही माने।
भगत सिंह और सुभाषचन्द्र बोस के साथ जिन सावरकर की मूर्ति लगायी जाती है अगर हम उनके इतिहास और उनकी विचारधारा का मूल्यांकन करें तो अपने आप सारी स्थिति स्पष्ट हो जाती है। क्यों इनकी मूर्ति इन दो महान देशभक्तों के साथ लगाना गलत है?
यह विवाद सिर्फ मूर्ति स्थापना का नहीं था बल्कि दो विरोधी विचारधाराओं को एक साथ रखने का प्रयास किया जा रहा है जो कि अपने आप में विरोधात्मक है। असल में एबीवीपी वहां सावरकर की ही मूर्ति लगाना चाहती थी लेकिन उनका साहस जवाब दे जाता। एबीवीपी के लिए भगत सिंह व सुभाष चन्द्र की मूर्तियां तो सावरकर की मूर्ति के लिए एक सहारे का, एक ओट का काम कर रही थी। वो जानते थे कि छात्र भगत सिंह व सुभाष चन्द्र का विरोध नहीं करेंगे। इन्हीं के साथ सावरकर को भी भिड़ाने की चाल चली गयी। लेकिन छात्र उनकी इस कुटिल चाल को भांप गये।
आइये देखते हैं कि वी.डी.सावरकर जिन्हें आर.एस.एस जैसे संगठन ‘‘वीर’’ घोषित करते हैं उनके द्वारा किये गये वास्तविक कार्य क्या है?
वी.डी. सावरकर जीवन परिचय-
-सन 1911 में कलेक्टर हत्या मामले में इन्हें 50 साल की काला सन 1920 तक 5 दया याचिकाएं लिखते हैं। जिसमें वह माफी सहित अंग्रेजी सरकार के प्रति जीवनभर वफादार रहने का वचन देते हैं। जिससे उनकी सजा माफ हो जाती है और वे सिर्फ 13 साल में रिहा हो जाते हैं।
-जेल से छूटने के बाद कभी भी आजादी की लड़ाई में हिस्सा नहीं लिया।
-अंग्रेजों की 'फूट डालो और राज करो' की नीति को आगे बढ़ाने के लिए जिन्ना से भी पहले 1924 में ‘द्विराष्ट्र’ का विभाजनकारी सिद्धांत दिया।
-1942 में भारत छोड़ो आंदोलन को धोखा देते हुए 1942 में सिंध और बंगाल में मुस्लिम लीग के साथ सरकार चलाई।
-सुभाष चन्द्र बोस की सेना के खिलाफ अंग्रेजी सेना में लाखों युवाओं को भर्ती करवाने में मदद दी ताकि बोस की सेना को हराया जा सके।
-जीवन लाल कमीशन द्वारा महात्मा गांधी हत्या में आरोपित थे।
-हिटलर को आदर्श मानते थे तथा बलात्कार जैसे जघन्य अपराध को राजनीतिक हथियार के रूप में पेश करते थे।
इस संपूर्ण घटना के मूल्यांकन करने पर हम देखते हैं कि आज सत्ता पर उग्र दक्षिणपंथी, फासीवादी विचारों को पोषित करने वाली पार्टी काबिज है। इसका ही छात्र संगठन एबीवीपी है। इनका मुख्य एजेण्डा ही प्रगतिशील विचारों का दमन करके जनता के मन में संकीर्णता एवं सांप्रदायिकता का जहर भरना है। तथा अपने गद्दारी के इतिहास को छुपाना है। सबसे पहले स्तर पर यह विचारों का दमन कर रहे हैं, हमने देखा तमाम जगहों पर अंबेडकर और त्रिपुरा में लेनिन की मूर्ति तोड़ी गयी। विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में गलत तरीके से बदलाव किया जा रहा है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दमन और मीडिया को पंगु बनाकर सत्ता पक्ष के लिए पूरा वातावरण तैयार किया जा रहा है। अपने छद्म राष्ट्रवाद के नाम पर एक वर्ग से घृणा उत्पन्न करा कर बहुसंख्यक वर्ग से अपना समर्थन हासिल करना यही इनकी चाल है। अपने हिन्दुत्ववादी संकीर्ण मानसिकता तथा अपने काले इतिहास को छुपाने के प्रयास के बतौर ही यह पूरा मूर्ति प्रकरण रचा गया था। लेकिन डीयू की जागरुक और प्रगतिशील छात्रों द्वारा इनके इन मंसूबे को पूरा नहीं होने दिया गया और इसी प्रकार आगे भी इन फासीवादी ताकतों के खिलाफ छात्रों का संघर्ष जारी रहेगा।
बांग्लादेश में छात्र की हत्या के विरोध में छात्रों-युवाओं का प्रदर्शन
अपनी बात कहने की कीमत एक छात्र को अपनी जान देकर चुकानी पड़ी। यह छात्र बांग्लादेश के ढाका में स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ इंजीनियरिंग टैक्नोलॉजी का 21 वर्ष का छात्र था, जिसका नाम अबरार फहाद था। हत्यारे छात्र को उसके कमरे से उठाकर ले गये और कई घंटों उसे तब तक पीटते रहे जब तक की वह मर नहीं गया। इस नृशंस हत्या को सत्तारूढ़ पार्टी अवामी लीग के छात्र संगठन बांग्लादेश छात्र लीग के सदस्यों ने अंजाम दिया।
अबरार का दोष सिर्फ इतना था कि उसने फेसबुक पर एक पोस्ट के माध्यम से सरकार की आलोचना की थी। उसने बांग्लादेश और भारत के बीच पानी के बंटवारे को लेकर हुई संधि पर बांग्लादेश सरकार की आलोचना की थी। बस यही चीज बांग्लादेश छात्र लीग को नागवार गुजरी और उन्होंने अबरार की यातनाएं देते हुए हत्या कर दी। बाद में पता चला कि बांग्लादेश छात्र लीग के सदस्य उससे ‘पूछताछ’ कर रहे थे। अबरार पर इस्लामिक पार्टी से संबंध रखने का आरोप लगाया गया। सरकार के विरोध में मात्र एक पोस्ट लिख देना इतना बड़ा अपराध बन गया कि बांग्लादेश छात्र लीग को स्वयं की उससे पूछताछ करनी पड़ी। जाहिर सी बात है कि यह सब विरोधियों को, असहमति रखने वालों को ठिकाने लगाने का एक तरीका बन गया है। बांग्लादेश छात्र लीग के दुस्साहस का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है वह स्वयं ही पुलिस और स्वयं ही न्यायालय बन कर ‘‘न्याय’’ करने लग गये हैं। इस यूनिवर्सिटी में विरोधी विचारों वाले व सरकार की आलोचना करने वाले छात्रों को यातना देना आम बात है। आवामी लीग का छात्र संगठन जब-तब यूनिवर्सिटी में ऐसी हिंसा और भय पैदा करने वाली घटनाओं को अंजाम देता रहा है। नये छात्रों को हास्टल में रोकने के लिए यह छात्र संगठन जबरदस्ती रैलियों में शामिल होने के लिए मजबूर करता है। बांग्लादेश छात्र लीग आवामी लीग की लंपट गुण्डावाहिनी के रूप में तब्दील हो गया है। जाहिर सी बात है इस गुण्डागर्दी को सरकार से लेकर कालेज प्रशासन तक का संरक्षण प्राप्त होता है। इसी संरक्षण के चलते मारपीट और डराने-धमकाने की कार्यवाही करने वाली यह गुण्डावाहिनी अब खुलेआम कत्लों को अंजाम देने लगी है। देश के विश्वविद्यालयों में यह आम माहौल है कि सरकार की आलोचना करना, उसकी नीतियों का विरोध करने वालों को हिंसा के जरिये चुप कराया जाता है। आवामी लीग ने अपने गुण्डावाहिनी बांग्लादेश छात्र लीग को हिंसा और मारपीट की खुली छूट दे रखी है। भारत में यही सब कुछ विरोधियों को देशद्रोही या पाकिस्तान का एजेण्ट कहकर किया जाता है। बांग्लादेश में बांग्लादेश छात्र लीग जो काम कर रहा है वही हमारे देश में एबीवीपी कर रही है। इस मामले में आवामी लीग-बांग्लादेश छात्र लीग और भाजपा-एबीवीपी में एकदम समानता है।
इस घटना के बाद पूरे बांग्लादेश की राजधानी ढाका सहित अन्य शहरों में रोष की लहर छौड़ पड़ी। लंबे समय से इस गुण्डावाहिनी के अत्याचारों से परेशान छात्रों-युवाओं ने मोर्चा बुलंद कर दिया। लोग सड़कों पर उतर आये और उन्होंने सड़कों को ब्लाक कर दिया। आक्रोशित युवा प्रदर्शनकारी अबरार की हत्या के दाषियों को मौत की सजा देने की मांग कर रहे थे। इसके अलावा इस यूनिवर्सिटी के भूतपूर्व छात्रों व शिक्षकों ने प्रदर्शन में भागीदारी कर अपना आक्रोश व्यक्त किया। वर्तमान शिक्षक संघ ने भी घटना की निंदा की और प्रशासन द्वारा छात्रों को सुरक्षा मुहैया करने असफल होने का दोषी ठहराया। छात्रों-युवाओं के इस आक्रोश और आंदोलन के दबाव में आवामी लीग ने अपने छात्र संगठन के हत्या के 13 दोषियों पर कार्यवाही की और उन्हें गिरफ्तार किया गया है। और सरकार ने यह वायदा किया है कि वह अबरार के साथ न्याय करेगी। यह सभी जानते हैं कि सरकारी हिंसा और सत्तारूढ़ दल की गुण्डावाहिनियों का मुकाबला ऐसे ही किया जा सकता है। बांग्लादेश के छात्रों का आंदोलन यही सबक देता है कि ऐसे हमलों, हत्याओं और यातनाओं का जवाब संगठित होकर दिया जा सकता है।
महाविद्यालय से 6 छात्रों का निष्कासन
महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विष्वविद्यालय वर्धा के 6 छात्रों को भी अपने मन की बात कहने के अपराध में विवि से निष्कासित कर दिया गया है। उन्होंने भी दलितों ,अल्पसंख्यकों पर मॉब लिंचिंग, बलात्कार समेत कश्मीर और एनआरसी के मुद्दे पर सामूहिक रूप से पीएम को एक पत्र लिखने का आयोजन 9 अक्टूबर को किया था और साथ ही 9 अक्टूबर को ही काषीराम परिनिर्वाण दिवस की अनुमति भी मांगी थी। अनुमति के लिए कुलसचिव कार्यालय में आधा घंटे बैठाए जाने के बावजूद भी उन्हें इसकी अनुमति नहीं मिली। छात्रों के यह कहने पर कि आप हमें प्रधानमंत्री को पत्र लिखने या काशीराम परिनिर्वाण दिवस मनाने से कैसे रोक सकते हैं विष्वविद्यालय ने मौखिक रूप से अनुमति देने से मना किया। इस पर छात्रों ने लिखित में कारण बताने को कहा। पत्र में साफ-साफ तिथि अंकित होने के बावजूद विश्वविद्यालय ने पत्र में तिथि ना होने की हास्यास्पद बात कही। छात्रों ने 9 अक्टूबर को गांधी हिल पर जाकर इस घटना का विरोध करने की ठानी। पुलिस द्वारा भारी संख्या में छात्रों को रोके जाने से छात्रों ने गेट पर ही विरोध दर्ज करवाया। इससे पूर्व भी भगत सिंह जयंती मनाने की अनुमति नहीं दी गई थी। आज हिंदू फासीवादी सरकार विरोध प्रदर्शनों से बुरी तरह घबराई हुई है। यह किसी भी किस्म को विरोध को दबा देना चाहती। विरोध की आवाज को शांत कर देना चाहती है।
इस घटना के कुछ समय पूर्व देश के अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के जाने माने कलाकारों, गायकों ,फिल्म निर्देशकों, बुद्धीजीवियों आदि ने प्रधानमंत्री को एक चिट्ठी लिखी जिसमें बताया गया था कि हमारा देश धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी, गणतंत्र है जहां सब मतों,धर्म ,लिंग आदि के नागरिक एक समान हैं। उसमें कहा गया था कि जनवरी 2009 से 2018 के बीच धर्म आधारित अपराधों में 90 लोग मारे गए और 600 लोग घायल हुए। भारत की जनसंख्या में मुसलमान 14 प्रतिशत हैं और उसके सापेक्ष 62 प्रतिशत मुसलमान धर्म आधारित अपराधों मे पीड़ित हैं। ईसाइयों के मामले में जो कि कुल जनसंख्या का 2 प्रतिशत हैं पीड़ित लोगों की संख्या 14 प्रतिशत है। इन मामलों में 90 प्रतिशत सन 2014 से 2019 तक हुए हैं। मोदी के बाद। जय श्री राम आज युद्ध का नारा बन चुका है। जनवाद के लिए आवाज उठाने वालों को आज एन्टी नेशनल कहना या अर्बन नक्सल कहना एक फैशन में आ चुका है। पत्र यह भी कहता है कि संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत अभिव्यक्ति की आजादी मूलभूत अधिकार है जिसमें असहमति का अधिकार अंतर्निहित है। यह मध्ययुग नहीं है जबकि आप राजा के खिलाफ, सामंतों के खिलाफ आवाज नहीं उठा सकते थे। लोकतंत्र की कल्पना विरोध के बिना नहीं की जा सकती और किसी सरकार की आलोचना देशद्रोह नहीं है और सत्तासीन पार्टी देश का पर्याय नहीं है।
आई.आई.टी में छात्रों पर ‘‘सर्जिकल स्ट्राइक’’
-सलमान हुसैन, दिल्ली वि.वि.
IIT में पढ़ना बच्चों का सपना होता है, उसके लिए वे बहुत कम उम्र से ही उसकी प्रवेश परीक्षा को पार करने की तैयारियों में जुट जाते हैं, दिन-रात की कड़ी मेहनत के बावज़ूद केवल कुछ ही उसमें दाखिला ले पाते हैं क्योंकि उसकी सीटों की संख्या बहुत कम है। ऐसी परिस्थितियों में सरकार को चाहिए कि उसमें छात्रों के लिए सीटों की सँख्या में वृद्धि करे।
लेकिन सरकार इसके बजाय ठीक इसके विपरीत कार्य कर रही है। हाल ही में 2020 से शुरू होने वाले सत्र में एडमिशन लेने वाले छात्रों के लिए फीस सम्बन्धी बहुत ही खतरनाक और शिक्षा-विरोधी फैसले लिए गए हैं। जिसमें 5 महत्वपूर्ण बिंदु तैयार किये हुए हैं। जो क्रमशः निम्नलिखित हैंः-
1. IIT में M-Tech करने वाले जो छात्र हैं ,उनकी फीस B- Tech की जितनी होगी। जो कि पहले 20 हजार से लेकर 60 हजार थी, लेकिन यह अब अलग अलग ना होकर 2 लाख रुपए सालाना होगी।
2. जो छात्र Graduate Aptitude Test in Engineering (GATE) की परीक्षा पास करके प्रवेश लेते हैं, सरकार की ओर उनको छात्रवृत्ति के तौर पर 12400 रुपये की मासिक धनराशि दिए जाने का प्रावधान है, उसको अब बिल्कुल पूर्ण रूप से खत्म किया जाएगा।
3. बढ़ी हुई फीस का 50 प्रतिशत भाग उन छात्रों के लिए माफ् किया जा सकता है, जो Phd- करते समय TA (teaching Asistant) के रूप में कार्य करते हैं।
4. Phd में सर्वोच्च अंक लाने वाले 1 प्रतिशत छात्रों की फीस माफ् की जा सकती है।
5. जो छात्र B-Tech करने के बाद कोई नौकरी करने लगते हैं उनकी उनकी कम्पनी द्वारा आगे ड.ज्मबी करने के लिए आर्थिक सहायता करती है। प्प्ज् उसको आगे बढ़ाएगी।
साथ ही कहा गया है कि जो छात्र अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति से हैं उनका और जिनकी वार्षिक पारिवारिक आय मात्र एक लाख रुपए तक है उनको फीस में रियायत दी जा सकती है और 1 लाख से लेकर 5 लाख तक की आय वाले परिवार के छात्रों को भी फीस में कुछ रियायत दिया जा सकती है। जिसकी स्थिति अभी तक स्पष्ट नहीं है कि ऐसा वास्तव में होगा या नहीं क्योंकि इसको "की जा सकती है" के रूप में कहा IIT दिल्ली के निदेशक वी.रामगोपाल राव ने इस फीस वृद्धि के फैसले को ना केवल सही बताया बल्कि बड़ी बेशर्मी से इसको "सर्जिकल स्ट्राइक" का तमगा भी दे दिया ।
हम भी कहते हैं कि ये सर्जीकल स्ट्राइक है, मगर किस पर? तो जवाब है छात्रों पर, उनके सपनों पर, भारत की प्रौद्योगिकी विकास पर, शिक्षा की मूल भावना पर, संविधान पर, इस देश की करोड़ो मेहनतकश आवाम की उम्मीदों पर जो सोचते हैं कि अगर उनका बच्चा ठीक से पढ़ ले तो उसका भी प्रवेश प्प्ज् जैसे संस्थान में हो जाएगा। लेकिन इस तरह के फैसले उनकी उम्मीदों का कत्ल कर रहे हैं। आम लोगों के बच्चे जो रात-दिन मेहनत करके इसकी कठिन प्रवेश परीक्षा को पास करते हैं, वे बढ़ी हुई फीस को चुकाने के अभाव में इंजीनियर बनने का सपना अपने मन से हमेशा के लिए निकाल देंगे। और बाकी सभी चीजों की तरह ‘‘जिसके पास जितना पैसा -उसको उतनी शिक्षा“ वाला सिद्धान्त लागू करके शिक्षा पर कुछ लोगों का कब्ज़ा करने की साजिश बनाई जा रही है। हम इसकी बानगी ‘‘नई शिक्षा नीति’ के प्रारूप में ही देख सकते हैं जिसमे खुलेआम सभी शिक्षण संस्थानों का निजीकरण करने की बात की गई है। ये बिल्कुल सरकार की नाकाबिलियत का प्रदर्शन है। उसका हर क्षेत्र को निजी हाथों में सौंप देने की नीयत है ताकि देश के केवल कुछ पूंजीपति फूले-फलें, शिक्षा तथा अन्य सभी सुविधाओं तक कुछ ही लोगों की पहुंच हो। इसके लिए तरह- तरह के हथकंडे अपनाए जा रहे हैं।
इस फीस वृद्धि के विरोध में देश भर में छात्र तथा सभी प्रगतिशील संगठन, बुद्धिजीवी वर्ग सामने आए हैं, 4 अक्टूबर से छात्र लगातार प्प्ज् के समक्ष धरना प्रदर्शन कर रहे हैं, 66 हज़ार से भी अधिक छात्रों ने सामने आकर प्रत्यक्ष रूप से इस फैसले का कड़ा विरोध किया है और वे लगातार विभिन्न माध्यमों से अपना विरोध जता रहे हैं। मगर आम जनमानस को इस फैसले और अन्य सभी अमानवीय अव्यवहारिक तथा अनैतिक नीतियो की भनक तक नहीं है, उनका ध्यान कभी छत्ब् के नाम पर देष के साम्प्रदायिक सौहार्द को बिगाड़ने, भारत-पाकिस्तान के कुछ दलालों के बीच टी.वी के माध्यम से अनावश्यक बहस के जरिए राष्ट्रवाद परोसा जा रहा और जो भी इनकी नीतियों का विरोध करने वाले को देश के सामने एक खलनायक के रूप में पेश किया जा रहा है।
परन्तु इतनी सारी जद्दोजहद करने के बाद भी वे अपने मक़सद में पूरी तरह से ना तो सफल हो पाए हैं और न ही हम कभी ऐसा होने देंगे, उसके लिए जो भी रास्ते वे हमारे सामने रखे हमें बिल्कुल मन्ज़ूर है। हम देष के एक जिम्मेदार नागरिक होते हुए इस तरीक़े के निर्णयों को सही नहीं बता सकते बल्कि इसका हमें पुरजोर तरीक़े से प्रतिरोध करने की ज़रूरत है।
आश्वासन और समझौते के बाद शिक्षकों का आंदोलन समाप्त
-अभिलाख सिंह,पंतनगर
पंतनगर, दिनांक 24 जुलाई, 2019 से शिक्षकों के संगठन पूटा के नेतृत्व में सातवें वेतनमान लागू करने एवं वर्षो से परियोजनाओं में लगातार कार्यरत शिक्षकों को वेतन, पेंशन देने, समान ग्रेड पे पर नियुक्ति देने तथा मृतक शिक्षकों के आश्रितों को नौकरी की मांग को लेकर चले आंदोलन अंततः 31 अगस्त, 2019 को लिखित आश्वासन-समझौते के बाद समाप्त हो गया।
मालूम हो कि वर्ष 2016 से शिक्षकों की मांग के बावजूद पंतनगर विश्वविद्यालय के परियोजनाओं में कार्यरत शिक्षकों को अभी तक सातवां वेतनमान लागू नहीं किया गया है। विश्व विद्यालय में कार्यरत कर्मचारियों और गैर परियोजना सामान्य बजट में कार्यरत शिक्षकों को सातवें वेतनमान का लाभ दिया जा चुका है।
आंदोलन के दौरान महाविद्यालयों के सामने परिसर में जुलूस निकालने के बाद कभी-कभी प्रशासनिक भवन पर सभा करते थे। ज्यादातर काउंसलिंग का विरोध करते हुए काउंसलिंग भवन प्रौद्योगिकी महाविद्यालय के बाहर धरना-प्रदर्शन-सभा करते थे। हालांकि काउंसलिंग नहीं रोकी गई। काउंसलिंग के बाद छात्रों के पंजीकरण का बहिष्कार किया गया था। जिससे 16 अगस्त से होने वाली कक्षाओं को विश्व विद्यालय प्रशासन द्वारा 02 सितंबर तक टालनी पड़ी। इधर प्रशासन शिक्षकों को केवल आश्वासन के जरिए मनाने में लगा रहा उधर उत्तराखंड सरकार के मुख्यमंत्री का कहना था कि, ‘हम आंदोलन के दबाव में कोई काम नहीं करेंगे।’ फीस जमा कराने के बावजूद समय से कक्षाएं शुरू न होने को लेकर (इसके बावजूद पंतनगर विश्वविद्यालय में छात्रों का कोई संगठन नहीं है फिर भी ) छात्रों ने इकट्ठे होकर कुलपति से मिलकर अपना गुस्सा जाहिर किया और शिक्षकों की समस्यायों का समाधान करते हुए शीघ्र कक्षाएं शुरू करने की मांग की गई। जबकि छात्रों की समस्यायों को लेकर पूटा हो या यूनियनों द्वारा मांग उठाना तो दूर की बात कभी समर्थन तक नहीं दिया जाता। मूकदर्शक बने रहते हैं। बहरहाल अंततः शासन से तो कोई आश्वासन नहीं मिला पर कुलपति द्वारा ए आई सी आर पी तथा के वी के के तहत परियोजनाओं में कार्यरत शिक्षकों की तीन महीने में शासन से वेतन, पेंशन की समस्या का समाधान कराने ,और एक महीने में सातवां वेतनमान लागू करने के लिए लिखित आश्वासन समझौता के बाद आंदोलन समाप्त हो गया है।
पंतनगर विश्वविद्यालय मे भी समय यही मांग कर रहा है कि शिक्षक, कर्मचारी, छात्र, मजदूर सब एकजुट हो कर संघर्ष करें।
वर्ष- 10 अंक-4
जुलाई-सितम्बर, 2019
कक्षा में कैमरे : छात्रों-शिक्षकों के खिलाफ
दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने एक परियोजना के माध्यम से दिल्ली के लगभग 1000 स्कूलों में सीसीटीवी कैमरे लगवाने का ऐलान कर दिया है। मुख्यमंत्री केजरीवाल ने दिल्ली के लाजपत नगर के शहीद हेमू कालोनी सर्वोदय बाल विद्यालय में इस परियोजना की शुरुआत करते हुए यह कहा कि हर कक्षा में दो सीसीटीवी कैमरे लगाए जाएंगे और कहा कि नवंबर तक हर स्कूल में कैमरे लग जाएंगे। केजरीवाल ने उन तमाम चिंताओं को खारिज कर दिया कि सीसीटीवी कैमरे स्कूली बच्चों की निजता (प्राइवेसी) का उल्लघंन करेंगे। साथ ही केजरीवाल ने यह भी कहा कि दिल्ली के सरकारी स्कूलों के परिणामों (रिजल्ट) में भी सुधार आएगा। किंतु बहुत से ऐसे सवाल हैं जिसका उत्तर यह सरकार नहीं दे पाती कि किस तरह से सीसीटीवी कैमरे लगाए जाने से रिजल्ट में सुधार आ सकता है? और बच्चे अनुशासित रह सकते हैं? क्या कैमरे लग जाने से बच्चों व शिक्षकों की समस्याओं का समाधान हो सकता है? किस तरह से कैमरे लगने से अपराधों को रोका जा सकता है? ऐसे कई सवाल है जिसका उत्तर यह सरकार नहीं दे पाती।
दरअसल केजरीवाल सरकार ने बच्चों की सुरक्षा व अपराधों को रोकने आदि जैसे बहानों के द्वारा यह सिद्ध कर दिया कि राज्य सरकारें विद्यालयों में भी बच्चों पर पैनी नजर रख सकती है, चाहे यह कार्य बच्चों के माहौल के विरुद्ध ही क्यूं न हो। बच्चों के माता-पिता एक मोबाइल एप्लीकेशन के माध्यम से अपने बच्चों पर भी पैनी नजर रख सकते हैं। माता-पिता सीधा प्रसारण के माध्यम से यह देख सकते हैं कि उनका बच्चा स्कूल में क्या कर रहा है।
स्कूलों में कैमरे लगाना प्रत्यक्ष तौर पर बच्चों की आजादी के खिलाफ है, इससे हमारे मौलिक अधिकारों का हनन भी होता है। यह परियोजना बच्चों की प्राइवेसी का उल्लघंन तो करती ही है साथ ही साथ बच्चों को सीसीटीवी कैमरे का डर दिखाकर, पढ़ाई करने का मानसिक दबाव भी बनाती है। कक्षा में बच्चे अक्सर गलतियां करते हैं, शरारत करते हैं, कक्षा से गायब रहते हैं किन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि आप उन पर कैमरे की निगरानी रखें। सवाल यह भी उठता है कि किस प्रकार सीसीटीवी कैमरे का डर दिखाकर बच्चे अच्छे अंक प्राप्त कर सकते हैं? किस तरह से उनका मन पढ़ाई में लग सकता है? लगभग 600 करोड़ की इस परियोजना का पैसा अगर सरकार अच्छी पुस्तकें व पुस्तकालय जैसी सुविधाओं में लगाए तो शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार हो सकता है। शिक्षा का कार्य केवल अनुशासन देना नहीं होता। वह बच्चों को नैतिक मूल्यों की जानकारी दे यह भी महत्वपूर्ण है। सरकार जिन कंपनियों को कैमरे लगाने का ठेका दे रही है वह महंगे कैमरे देंगी। सरकार सिर्फ पूंजीपतियों की बात मानेगी। पूंजीपति भी इसके बदले में सरकार को बड़ा चंदा देते हैं। इस परियोजना के सफल होने के भी कम आसार लग रहें हैं क्योंकि सरकार ने कैमरों के रखरखाव, नियंत्रण आदि का खास इंतजाम नहीं किया है। चूंकि दिल्ली विधानसभा का चुनाव भी नजदीक आ रहा है इसलिए यह परियोजना भी केवल जनता को बहलाने वाली हो सकती है। दिल्ली सरकार इस परियोजना का भी चुनावी फायदा उठाना चाहेगी। इसलिए कक्षा में कैमरों का होना बच्चों व शिक्षकों की आजादी के खिलाफ है।
डीयू में फीस वृद्धि के खिलाफ लामबंद तमाम छात्र संगठन
-कुसुम
दिल्ली विश्वविद्यालय और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय जैसे बड़े संस्थान अपनी पढ़ाई के साथ-साथ इसके लिए भी अधिक प्रासंगिक हैं कि यहां किसानों, मजदूरों और कमज़ोर आर्थिक पृष्ठभूमि के परिवारों के बच्चे भी आकर पढ़ पाते हैं। लेकिन भारत की पूंजीवादी व्यवस्था और खासकर वर्तमान सरकार के कार्यक्रम में आए दिन ऐसे नियम बनाए जा रहे हैं कि इन विश्वविद्यालयों में भी केवल बड़े लोगां के बच्चे पढ़ पाएंगे।
ताजा घटना दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) में फीस वृद्धि की है। डीयू हर साल दाखिलों के लिए नया प्रोस्पेक्टस जारी करता है जिसमें हर नियम, फीस प्रणाली और दाखिले से जुड़ी बातें निहित होती हैं। जैसे ही विश्वविद्यालय द्वारा इस वर्ष का प्रोस्पेक्टस जारी किया गया तो पता चला कि इस वर्ष केवल दाखिला फॉर्म भरने की फीस पिछले वर्षों के मुलाबले कई गुना तक बढ़ा दी गई है। न केवल फीस बढ़ाई गयी साथ ही कैंपस में आर्थिक गैरबराबरी पैदा कर अस्थिरता का माहौल बनाने का भी षड़यंत्र पूंजीवादी सरकार ने रचा।
इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि मास्टर्स डिग्री की प्रवेश परीक्षा में पंजीकरण मात्र के लिए ओबीसी छात्रों के लिए 750 रुपये फीस रखी गई, जोकि पिछले वर्ष 500 रुपये थी। यही फीस EWS कैटेगरी (आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्ण) छात्रों के लिए 300 रुपये निर्धारित की गई। इसमें विचित्र बात यह थी कि OBC और EWS दोनों के लिए मानक है कि सालाना आय 8 लाख से कम होनी चाहिए। अब सवाल यह उपजता है कि यदि मानक एक ही है तो फीस में इतना बड़ा अंतर कैसे न्यायसंगत है? स्नातक के दाखिलों के लिए भी इस वर्ष फीस में भारी बढ़ोतरी की गयी। इससे साफ होता है कि विश्वविद्यालय प्रशासन कैंपस के छात्रों के बीच आर्थिक गैरबराबरी को बढ़ावा देना चाहता है।
इस फीस वृद्धि से छात्र वर्ग के लिए सबसे खास बात यह रही कि छात्रों ने एकजुट होकर संघर्ष का रास्ता चुना। प्रोस्पेक्टस जारी होने के दो-तीन ही दिनों के बाद दिल्ली विश्वविद्यालय के अधिकांश छात्र संगठनों ने एक मंच पर आकर फीस वृद्धि का विरोध किया। विश्वविद्यालय प्रशासन और पुलिस विभाग ने तमाम हथकंडे अपना, दमनकारी रास्ता अपनाकर छात्रों के इस आंदोलन को कमजोर करने की कोशिशें कीं। लेकिन भीषण गर्मी और पुलिसिया दमन के बावजूद भी छात्रों द्वारा भूख हड़ताल की गई और बड़ी संख्या में नए छात्रों को आंदोलन में जोड़ने में कामयाबी मिली।
यह आंदोलन अभी अपने अंत तक नहीं पहुंचा है। तमाम छात्र संगठन आज भी एक होकर दिल्ली विश्वविद्यालय में इसके खिलाफ लड़ रहे हैं। कैंपसों में इस प्रकार के अपने उदाहरण बेहद कम देखने को मिलते हैं, जब छात्रों के शोषण के खिलाफ विश्वविद्यालय के तमाम संगठन एकजुट होकर अपनी आवाज बुलंद करते हैं तथा छात्र हितों की लड़ाई को मजबूत बनाते है। ऐसे ही आंदोलनों से छात्रों में सामाजिक चेतना पैदा होती है और वो सर्वहारा वर्ग के लिए क्रांति के नए आंदोलनों की पृष्ठभूमि तय करता है।
शिक्षा पर बढ़ते फासीवादी हमले
-सलमान
इस धरती पर आजतक जितने भी महान विचारक हुए हैं, सभी ने ज्ञानार्जन की बात की है। ज्ञान प्राप्ति के लिए सबसे जरूरी जो चीज है - वह है शिक्षा। शिक्षा एक ऐसी चीज है जो मनुष्य को मनुष्यता का अहसास कराती है। भारत की शिक्षा व्यवस्था का हाल बहुत अच्छा नहीं है, यह बात कोई नई नहीं है और हर प्रगतिशील नागरिक इस बात पर सहमति देगा।
लेकिन फिर भी जितने भी शिक्षण संस्थान हैं वे निसन्देह हमारे लिए लाभकारी हैं; उनसे ही हम खुद को, अपने समाज को, अपने इतिहास को जानते और समझ पाते हैं। ये ही गलत को गलत और सही को सही बोलने वाले लोगों को तैयार करते हैं। लेकिन यह तभी सम्भव हो सकता है जब हमारे पास जो शिक्षा आ रही है वह सत्य पर आधारित हो, बिना किसी द्वेष भाव से हो और किसी बात या पहलू को छिपाने की मंशा से प्रस्तुत न की गई हो।
उच्च शिक्षा को छात्रों को क्या पढ़ाना है और उनका पाठ्यक्रम क्या होगा, इन सबको तय करने की जिम्मेदारी कॉलेज/विश्वविद्यालय एकेडमिक काउन्सिल की होती है। उनके पास यह पूर्ण स्वायत्ता होती है कि वो किस चीज को कितना पाठ्यक्रम में जोडें या हटाएँ और अभी तक ऐसा ही होता आ रहा है। लेकिन मौजूदा जो मोदी सरकार है, वह जिस तरह से अपने इतिहास को छुपाने और यहाँ तक कि इतिहास को अपनी सहूलियत के हिसाब से हमारे सामने परोसने की जी-तोड़ कोशिश में लगी हुई है, वह इस देश के इतिहास और वास्तविकता के लिए अत्यंत घातक है।
इस वर्ष (2019-2020) में स्नातक में राजनीतिक विज्ञान, समाजशास्त्र, इतिहास और अंग्रेजी के पाठ्यक्रमों में कुछ नई चीजें जोड़ी गई हैं। जिन पर भाजपा की छात्र इकाई (एबीवीपी-अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद) का आरोप है कि वो उनको पसन्द नहीं है। क्योंकि उसमें उनकी देश के प्रति गद्दारी और राज्यों में सत्ता के जरिए किये गए नरसंहार को दर्शाया गया है इसीलिए उनको पाठ्यक्रम से हटा दिया जाए। इसका विरोध करने के नाम पर वे 16 जुलाई को सीधे एकेडमिक काउन्सिल के दफ्तर में घुस जाते हैं। वहाँ अध्यापकों को डराने-धमकाने की कोशिश करते हैं और उन अध्यापकों को उनके हवाले कर देने को कहते हैं जिन्होंने उन चीजों को पाठ्यक्रम में जोड़ा है। इस दौरान विश्वविद्यालय प्रशासन का जो रवैया रहा वह अचम्भित करने वाला है। उन गुंडागर्दी वाली मानसिकता से ग्रसित छात्रों पर कोई वैधानिक कार्यवाही नहीं जाती, ना तो वहाँ की स्थानीय सुरक्षा उनको रोकने की कोशिश करती है और ना तो पुलिस आती है बल्कि वहाँ के जो लोग सुरक्षा में तैनात थे वे उन गुंडों से डरकर भागने लगते हैं और चारों तरफ दहशत और अफरातफरी का माहौल उत्पन्न हो जाता है। प्रशासन द्वारा उन धमकाए गए शिक्षकों की कोई सुध नहीं लेता और उनको अपने हाल पर छोड़ दिया जाता है। उनको लगातार धमकियाँ दी जाती हैं। जिससे वे खुद को बिल्कुल असहाय से महसूस करने लगे हैं। वे समझ नहीं पा रहे हैं कि वो इन ‘गुंडों’ से निपटें या उनका जो कर्त्तव्य है पढ़ाने का वो करें...
इस कृत्य का सभी लोकतांत्रिक और उदारवादी संगठनों ने कठोरतम शब्दों में खण्डन किया, राज्यसभा के 18 सांसदों ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर अपना रोष जताया और इस घटना की सारी जानकारी से अवगत कराया। लेकिन फासीवादी आरएसएस की मानसिक बीमारी से ग्रसित हमारे प्रधानमंत्री ने उस पत्र का ना जाने क्या किया क्योंकि 19 जुलाई की चिट्ठी का अभी तक प्रधानमंत्री ऑफिस की ओर से कोई जवाब तक नहीं आया है। इस आतंकित करने वाली घटना पर अब तक न तो विश्वविद्यालय प्रशासन और ना ही पुलिस प्रशासन की ओर से कोई संज्ञान लिया गया है बल्कि सत्ता के दबाव में आकर प्रशासन अपने प्रस्तावित पाठ्यक्रम को वापस लेने को राजी हो गया है। इससे ज्यादा शर्म की बात और क्या होगी कि जिनके पुरखों का इतिहास अंग्रेजों को माफ़ीनामे लिखने में गुजर गया हो वो आज हमें इतिहास बता रहे हैं। और सिर्फ बता नहीं रहे हैं बल्कि इतिहास को गलत ढंग से तोड़-मरोड़कर अलग ही रंग दिया जा रहा है। ये तो ऐसी-ऐसी बातें बताकर लोगों को भ्रमित करने में लगे हुए हैं जो बिल्कुल सत्य से परे हैं और जो कभी घटित हुआ ही नहीं है।
इनके इतिहास का ज्ञान इस बात से पता लग जाता है कि खुद प्रधानमंत्री जब कहते हैं कि श्यामा प्रसाद मुखर्जी और स्वामी विवेकानंद एक साथ उठते-बैठते थे और दोनों मित्र थे। जबकि वास्तविकता यह है कि स्वामी विवेकानंद जी की जब मृत्यु हुई थी तब श्यामा प्रसाद मुखर्जी की उम्र एक वर्ष की थी। हमारे पूर्व मानव संसाधन विकास मंत्री जिनको सामान्यतः शिक्षा मंत्री भी कहा जाता है, प्रकाश जावडेकर ने छिंदवाडा(मध्य प्रदेश) में 22 अगस्त, 2016 को कहा था ‘‘सुभाष चन्द्र बोस, सरदार पटेल, पं0 नेहरू, भगत सिंह, राजगुरू सभी फांसी पर चढ़े।’’ ऐसे ज्ञान के भंडार और भी हैं इनकी टीम में। लेकिन वो कभी आपको यह कभी नहीं बताएंगे कि विनायक दामोदर सावरकर अंग्रेजों से माफीनामा लिखकर बचे थे और अंग्रेजों के प्रति वफादारी के कारण ब्रिटिश सरकार उनको जीवनभर पेंशन देती थीं। जबकि देश के लिए और उसकी आजादी के लिए बोलने वालों को वही अंग्रेजी शासन सजा के तौर पर सीधे मौत देती थी। देश के साथ इन लोगां ने हमेशा ही गद्दारी की है। 2002 में गुजरात के गोधरा कांड में हुए सुसज्जित शासकीय नरसंहार जो कि भारत के इतिहास में कभी भी नहीं भुलाया जा सकने वाला काला सच है। अगर उसी बात को हमारे पाठ्यक्रम में शामिल किया जा रहा है तो इन फासीवादियों को शर्म महसूस होती है और इनको अपने किये कामों के लिए हमेशा ही शर्मिंदा रहना भी पड़ेगा। लेकिन ये उस चीज को सीधे पलटकर हमारे सामने रखने की कोशिश कर रहे हैं, जिसकी बानगी ये लगातार पाठ्यक्रमों में छेड़छाड़ करके दिखा रहे हैं। स्नातक अंग्रेजी के पाठ्यक्रम में एक पुस्तक होती है maniben alias bibijan जो आरएसएस और उसकी सोच का पर्दाफाश करती है। इनको उस पुस्तक से भी दिक्कत होती है।
16 जुलाई की इनकी जो हरकत थी वह बिल्कुल निंदनीय है, वह सीधे-सीधे इस देश के लोकतंत्र पर हमला है। शिक्षा की स्वतंत्रता पर हमला है। क्योंकि मौजूदा भाजपा सरकार चाहती है कि जो वे चाहते हैं वही चीज हम पढें, जो बिलकुल अमान्य है। सरकार चाहे जितने भी जतन आजमा ले वह हम पर अपना फासीवादी झूठा इतिहास नहीं थोंप सकती। हालांकि कोशिश पूरी कर रहे हैं लेकिन जब तक प्रगतिशील तबका जिंदा है हमें वह बिल्कुल भी स्वीकार्य नहीं है। इसी 16 जुलाई की घटना के विरोध में 23 जुलाई को दिल्ली विश्वविद्यालय में सभी वामपंथी छात्र संगठन तथा शिक्षक संगठन ने उनके विरोध में मार्च निकाला और अपना प्रतिरोध जताया था लेकिन बिकाऊ मीडिया ने उस घटना को एक अलग ही रंग देकर प्रस्तुत किया। ये जितने भी दमनकारी रास्ते अपना लें हमारी लड़ाई हमेशा जारी रहेगी।
वर्ष- 10 अंक- 3
अप्रैल-जून, 2019
सेमेस्टर परीक्षा में फेल करने के खिलाफ डी.यू. के छात्र आंदोलनरत
दिल्ली विश्वविद्यालय (डी.यू.) में गणित और अंग्रेजी विभाग के छात्रों को एम.ए./एम.एस.सी. की सेमेस्टर परीक्षा में 39 में से 35 छात्रों को फेल करने के खिलाफ छात्र कुलपति ऑफिस के सामने धरना दे रहे हैं। बहुतायत में फेल गणित विभाग के छात्र भूख हड़ताल पर चले गए। पुलिस ने छात्रों के आन्दोलन को तोड़ने की कोशिश की इस दौरान छात्रों की पुलिस से झड़प भी हुई।
गणित सहित विभिन्न विभागों में हर वर्ष बहुतायत में छात्र फेल किये जा रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों में भौतिकी, रसायन विज्ञान, अंग्रेजी, गणित, जैसे विषयों में यह देखने को मिला है। इस वर्ष भौतिकी में 94 प्रतिशत छात्र फेल किये गये। बहुतायत में फेल किये जाने के पीछे शिक्षकों की कमी, अन्य शैक्षणिक संसाधनों की कमी के खिलाफ वि.वि. में छात्र-शिक्षक आन्दोलनरत रहे हैं। इन कारणों के अलावा एक आर्थिक कारण भी बहुतायत में फेल करने के पीछे है। छात्रों को पुनःमूल्यांकन (रीइवेल्यूएशन) के लिए एक विषय में 1000 रुपये फीस, पुनःपरीक्षण (रीचेक) के लिए 750 रुपये फीस, उत्तर पुस्तिका देखने की फीस चुकानी होती है। 2015-16 व 2017-18 में वि.वि. ने क्रमशः 2,89,12,310 रुपये, 23,29,500 रुपये, 6,49,500 रुपये की आय की। कुछ छात्रों की शिकायत है कि छात्रों को परीक्षा के दिन उपस्थित होने के बावजूद अनुपस्थित दिखाया गया।
विभिन्न परीक्षायें पास कर वि.वि. तक पहुंचे छात्रों का बहुतायत में फेल होना बड़ी लापरवाही को उजागर करता है। न सिर्फ छात्र परीक्षाओं को पास कर यहां पहुंचे हैं बल्कि इसके बाद भी नेट, जे.आर.एफ. सहित विभिन्न परीक्षाओं को पास करते हैं। इससे साफ जाहिर होता है कि वि.वि. परीक्षाओं की कॉपी जांचने में भारी लापरवाही करता है।
14 फरवरी से छात्र कक्षाओं का बहिष्कार कर रहे थे। विश्वविद्यालय प्रशासन से बातचीत करने के बाद भी उनके मामले को गम्भीरता से न लेने के विरोध में छात्रों ने एक मार्च निकाला। तानाशाह विश्वविद्यालय प्रशासन ने छात्रों की बात सुनने के बजाय उनको विभाग के अन्दर बन्द कर दिया। अन्य लोगों को अन्दर जाने से रोका ताकि छात्रों को विरोध करने से रोका जा सके। विश्वविद्यालय प्रशासन के इशारे पर सुरक्षा अधिकारियों ने कैदियों की तरह छात्रों को विभाग में ताला जड़ बन्द कर दिया। छात्रों की ताला खोलने की मांग पर सुरक्षा गार्डों ने छात्रों के साथ मारपीट की। छात्राओं के साथ छेड़खानी की। इस दौरान कई छात्र घायल हो गये।
छात्रों का आरोप है कि उत्तर पुस्तिकाओं को जांचे बिना अंक दिए गए हैं। ना ही उन्हें उत्तर पुस्तिकाएं दिखाई जा रही हैं। विभाग के एक अन्य छात्र प्रभात ने बताया ‘‘वे सभी परीक्षा में गये थे। उन्होंने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई थी। लेकिन उन्हें सभी परीक्षाओं में अनुपस्थित दिखाया गया। उन्होंने बताया तकरीबन 10 प्रतिशत छात्रों के साथ ऐसा हुआ है। लेकिन विश्वविद्यालय प्रशासन इसका समाधान करने के बजाय जायज मांगों को लेकर प्रदर्शन कर रहे छात्रों को धमका रहा है’’।
14 फरवरी से धरने पर बैठी छात्राओं को परेशान करने के लिए प्रशासन ने गणित विभाग के महिला शौचालय में ताला लगा दिया है। डिप्टी प्राक्टर सहित पुलिस को बुलाकर छात्राओं को धमकाया जा रहा है। छात्र भी विश्वविद्यालय प्रशासन के तानाशाहीपूर्ण रवैय्ये के खिलाफ लड़ रहे हैं। छात्र अपनी मांगें माने जाने तक सामूहिक रूप से भूख हड़ताल पर जाने का फैसला कर चुके हैं। उनका कहना है जब तक हमारी मांगें नहीं मानी जाती, यह संघर्ष जारी रहेगा। परीक्षाओं में बहुतायत में फेल करने के अलावा, छात्राओं की समस्याओं को सुनने के लिए शिकायत कमेटी गठित कर जांच करने, दोषी शिक्षकों पर कार्यवाही करने, बैक परीक्षाओं को मुख्य परीक्षा के दो माह के अन्दर करवाये जाने, पुनःमूल्यांकन की फीस 100 रुपये से कम रखने, उत्तर पुस्तिकायें दिखाये जाने, आदि मांगें भी आन्दोलन में की जा रही हैं।
छात्रों पर पुलिस का बर्बरतापूर्ण लाठीचार्ज
करनाल (हरियाणा) 11 अप्रैल को हरियाणा के करनाल में एक आई.टी.आई. का छात्र रोडवेज की बस में चढ़ने का प्रयास करते हुए बस के नीचे आ गया। जिससे छात्र की मौत हो गई। बस ड्राइवर आई.टी.आई. के छात्रों के लिए नहीं रोकते हैं, उन्हें दौड़कर बस को पकड़ना पड़ता है। इस दुर्घटना से आक्रोशित छात्र 12 अप्रैल को आई.टी.आई. चौक के पास सड़क पर आ गये और जाम लगा दिया। पुलिस ने आंदोलित और आक्रोशित छात्रों को विश्वास में लेने की जगह ‘लॉ एंड ऑर्डर’ की भाषा में बात की। एक छात्र की मौत के बाद आक्रोशित छात्रों को पुलिस की यह भाषा समझ नहीं आनी थी, न आयी। छात्रों ने बसों के न रुकने और भागते हुए पकड़ने की समस्या को लेकर राज्य परिवहन निगम, बस ड्राइवरों को इसके लिए जिम्मेदार माना और कार्यवाही पर अड़े रहे। पुलिस के दबाव डालने पर छात्रों ने पत्थर फेंककर पुलिस से पीछा छुड़ाना चाहा। इस पर पुलिस ने छात्रों पर आंसू गैस के गोले छोड़े, हवाई फायरिंग की, पत्थर फेंके।
उसके बाद पुलिस ने अपने असल जनविरोधी चरित्र को उजागर किया। पुलिस ने आई.टी.आई. कैम्पस के अन्दर जाकर छात्रों-अध्यापकों पर लाठीचार्ज किया। पुलिस ने यह मामला पुलिस बनाम आई.टी.आई. बना दिया। जो भी छात्र-शिक्षक मिला उसे पीटा। प्रधानाचार्य का मोबाइल भी जब्त कर लिया गया। छात्राओं को भी नहीं बख्शा गया। उनके साथ भी निर्लज्ज तरीके से मारपीट की गई। 103 छात्रों को नामजद कर सैकड़ों अज्ञात छात्रों पर मुकदमें दर्ज कर दिये।
बाद में पुलिस के आला अधिकारियों ने मामले की जांच करवाने, दोषी पुलिस कर्मियों पर कार्यवाही करने, आदि के जरिये मामले में लीपापोती की। साथ ही छात्रों को भी दोषी ठहराने की कोशिश की।
कॉलेज-आई.टी.आई. आदि कई शिक्षण संस्थानों में छात्र-छात्राएं उचित आवागमन की सुविधा न होने के कारण बसों, अन्य वाहनों में खड़े होकर, जानवरों की तरह बसों में ठुसे रहते हैं। कई बार लटकते हुए यात्रा करने को मजबूर होते हैं। इस तरह कई लोगों की जीवन लीला समाप्त हो जाती है।
सरकारें, शिक्षण संस्थान आवागमन की कोई समुचित व्यवस्था नहीं करते हैं। समय-समय पर होने वाली दुर्घटना के बाद उठने वाली आवाजों को डण्डे के दम पर दबा दिया जाता है। इस तरह फिर अगली मौत तक खामोशी ओढ़ ली जाती है। आम छात्र ऐसे ही बेमौत मरते रहते हैं।
छात्रों का यह आक्रोश स्वाभाविक व ठीक है। इसको संगठित कर न केवल राज्य परिवहन या ड्राइवरों के बुरे बर्ताव के खिलाफ बल्कि छात्रों के आवागमन की जिम्मेदारी सरकार व शिक्षण संस्थान को उठाने की मांग की ओर बढ़ना चाहिए। पढ़ने जाने की समस्याओं में आवागमन भी एक प्रमुख समस्या है। आज जब सरकार शिक्षा ही छीनने को तैयार है तो आवागमन की सुविधाओं की मांग का संघर्ष समग्र शिक्षा को बचाने के संघर्ष का ही हिस्सा बनता है।
भूख हड़ताल पर जाने को मजबूर छात्र
हरियाणा के कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय ने मूलभूत सुविधाओं की मांग कर रहे 19 छात्रों का निष्कासन कर दिया था, जिनमें 8 छात्रायें भी शामिल हैं। 17 मार्च को विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा किए गए इस फैसले के विरोध में छात्रों ने ‘संयुक्त संघर्ष समिति’ का गठन कर आंदोलन को तेज कर दिया। 26 मार्च से छात्र अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर चले गये। प्रदर्शन कर रहे छात्रों को क्षेत्र के तमाम जन संगठनों का समर्थन मिल रहा है।
कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय में फरवरी माह में मैस की फीस बढ़ोत्तरी वापस लेने, बैकलॉग पेपर तीन माह के भीतर कराए जाने, छात्राओं की सुरक्षा, पीने का साफ पानी, साफ खाना, साफ बाथरूम, बिजली का प्रबंध, लाईब्रेरी सुविधा, प्राध्यापकों की नियुक्ति, फीस माफी, आदि मांगों को लेकर आंदोलन किया था। इस आंदोलन के लिये छात्रों ने संयुक्त संघर्ष समिति बनाई। उसी के तहत यह आंदोलन चलाया। छात्रों ने समस्याओं को लेकर कुलपति से मिलना चाहा। कई बार उनके ऑफिस के चक्कर काटे। कुलपति अपने अड़ियल रवैय्ये के कारण छात्रों से मिलने को तैयार नहीं थे। जब छात्र-छात्राएं कुलपति कार्यालय के बाहर धरना देते तो विश्वविद्यालय के अधिकारी कुलपति से बात करने का आश्वासन देते। अगले दिन बुलाकर छात्रों को बात करवाने के बजाय बाहर निकलवा दिया जाता था। इस तानाशाहीपूर्ण रवैय्ये को देखते हुए 28 फरवरी से ‘‘छात्र संघर्ष समिति’’ ने हड़ताल करने का फैसला किया। छात्रों से बात करने के बजाय विश्वविद्यालय प्रशासन ने पुलिस बुला ली। इस दौरान लाठीचार्ज के बाद पुलिस ने 44 छात्रों को गिरफ्तार कर लिया।
इसने आग में घी का काम किया और आंदोलन तेज हो गया। इसके दबाव में आकर विश्वविद्यालय प्रशासन वार्ता को तैयार हुआ। छात्रों की कुछ मांगें मानी गई। कुछ मांगों पर कमेटी का गठन करके समाधान का आश्वासन दिया। लेकिन विश्वविद्यालय प्रशासन ने बदले की कार्यवाही के तहत 20 दिन बाद 19 छात्रों के दाखिले रद्द कर दिये। इसी के विरोध में छात्र भूख हड़ताल पर जाने को मजबूर हुए।
निष्कासित की गई छात्रा ने बताया ‘‘मैं बी.कॉम अंतिम वर्ष की छात्रा हूं विश्वविद्यालय में दाखिला लेने से पहले मैंने विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा मुहैय्या करवाई जाने वाली सुविधाओं के बारे में बहुत सुना था लेकिन जब मैंने क्लास लेनी शुरू की तो मुझे पता चला हमारे कॉलेज में लड़कियों के लिए सिर्फ एक ही बाथरूम है। जिसकी सफाई भी दो-दो महीनों के बाद होती है। इन समस्याओं के समाधान के लिए मेरे दिमाग में विश्वविद्यालय के कुलपति महोदय व प्रशासन का विचार आया कि वह हमारी समस्याओं को सुनेंगे और समाधान करेंगे। लेकिन जब हम इन समस्याओं को लेकर विश्वविद्यालय प्रशासन से मिलने जाते हैं तो उनके द्वारा हमारे ऊपर हाथापाई, धक्का-मुक्की, लाठीचार्ज तक किया जाता है। हमें निष्कासित व प्रतिबंधित कर दिया जाता है।’’
एक अन्य छात्र ने बताया ‘‘छात्रों की जायज मांगों को लेकर संघर्ष करना कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय ने अपराध घोषित कर दिया है। जायज मांगों के लिए आवाज उठाना जिस तरह पूरे देश में शिक्षण संस्थानों में अपराध बताया जा रहा है उसी तरह हमारी आवाज को दबाने के लिए प्रशासन ने बिना किसी नोटिस के 19 छात्रों को सबक सिखाने के उद्देश्य से निष्कासित कर दिया है। यह न सिर्फ छात्रों के जनवादी अधिकारों पर हमला है बल्कि विश्वविद्यालय प्रशासन की तानाशाही है। छात्रों की परीक्षाएं सिर पर हैं ऐसे समय में छात्रों को परेशान करना उनका छात्र विरोधी रवैय्या है। प्रशासन के कान में जूं तक नहीं रेंग रही है। क्या आवाज उठाना जुर्म है? हक की मांग करना जुर्म है? अगर है, तो आज नौजवान चुप बैठने वाले नहीं हैं, इसके खिलाफ आवाज बुलन्द होगी, हर शिक्षण संस्थान में बुलन्द होगी हर उस जगह पर होगी जहां अन्याय होगा।’’
एक अन्य छात्र ने बताया ‘‘कुलपति उनको निशाना बना रहे हैं जो उनकी गलत नीतियों का विरोध कर रहे हैं।’’ आगे कहा कि ‘‘वो कैम्पस में खास विचारधारा को स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं। वो पहले अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के अध्यक्ष रह चुके हैं। शायद वो अपनी इस पहचान को छोड़ नहीं पाए हैं। परन्तु हम उन्हें बताना चाहते हैं कि ये कैंपस है संघ की शाखा नहीं।’’
पिछले पांच सालों में तमाम शिक्षण संस्थानों में जिम्मेदार पदों पर संघी मानसिकता के लोगों को बैठा दिया गया है। वहां पहुंच कर वे उन्हें मिली हिटलरी शिक्षा को वैसे ही उगल दे रहे हैं। वे चाहते हैं कि संस्थानों के भीतर बचे-खुचे जनवाद के माहौल का गला घोंट दिया जाये। कुरुक्षेत्र वि.वि. के छात्रों ने संघर्ष कर चुनौती पेश की है। देश के अन्य शिक्षण संस्थानों में संघर्षरत छात्रों की तरह कुरुक्षेत्र वि.वि. के छात्रों ने भी संघर्ष की ध्वजा को फहराया है।
वर्ष-10, अंक-2
जनवरी-मार्च, 2019
सड़क पर उतरने को मजबूर हुए विकलांग छात्र
-मनोहर
13 दिसंबर, 2018 को केरल में शारीरिक व मानसिक रूप से अक्षम छात्रों के स्कूलों के अध्यापकों, शिक्षणेत्तर कर्मचारियों तथा अभिभावकों ने तिरूवंतपुरम में विधान सभा के समक्ष प्रदर्शन कर अपना आक्रोश व्यक्त किया। दरअसल अध्यापक, शिक्षणेत्तर कर्मचारी व अभिभावक सरकार से कई दौर की वार्ताएं कर चुके थे, लेकिन राज्य सरकार की असंवेदनशीलता व रूढ़ व्यवहार के चलते ये वार्ताएं बेनतीजा रहीं। शारीरिक व मानसिक रूप से अक्षम छात्र-छात्राओं को सभी सरकारों ने ठगा है और उनको झूठे आश्वासन दिये हैं। परिणामस्वरूप आक्रोश फूट पड़ा और 13 दिसंबर को विधान सभा के समक्ष प्रदर्शन कर अपने गुस्से का इजहार किया।
इस प्रदर्शन में राजनीतिक दलों के नेता भी शामिल हुए। इस प्रदर्शन को देश भर से छात्रों व न्यायप्रिय लोगों ने सोशल मीडिया के जरिये समर्थन देकर अपनी एकजुटता प्रदर्शित की।
केरल में ऐसे 288 स्कूल हैं जहां पर 6000 कर्मचारी-शिक्षक कार्यरत हैं। इनकी मांग ऐसे स्कूलों के लिए विस्तृत पैकेज, आर्थिक मदद, स्टाफ के लिए कल्याण व पेंशन योजना की थी। इन मांगों के लिए उन्होंने अनिश्चित काल के लिए प्रदर्शन का निर्णय लिया।
इन स्कूलों में कार्यरत स्टाफ की कार्यपरिस्थितियां बहुत ही बुरी हैं। इनका वेतन समान ग्रेड पे, सर्व शिक्षा अभियान व विकलांग बच्चों हेतु समावेशी शिक्षा(आईईडी) विभागों के कर्मचारियों की तुलना में बेहद कम है। केरल सरकार द्वारा शारीरिक व मानसिक रूप से कमजोर बच्चों के लिए चलाये जाने वाले संस्थान (बीयूडीएस) के कर्मचारियों की तुलना में भी इनका वेतन कम है। संघर्षरत शिक्षकों को 4500 से 6500 रू0 प्रतिमाह वेतन मिलता है जबकि आईईडी व बीयूडीएस के शिक्षकों को क्रमशः 28500 से 30650 रू0 प्रतिमाह वेतन मिलता है। जबकि शिक्षणेत्तर कर्मचारियों को मात्र 2500 से 3500 रू0 प्रतिमाह वेतन दिया जाता है। मानसिक पक्षाघात व मानसिक रूप से कमजोर प्रत्येक बच्चे पर सरकार मात्र 6500 रू0 खर्च करती है जबकि प्रत्येक मूक-बधिर बच्चे के लिए 1,25,000 रू0। वामपंथी गठबंधन (एलडीएफ) की सरकार ने ऐसे स्कूलों के विकास हेतु 400 करोड़ देने का वायदा किया लेकिन यह वायदा समय के साथ हवा हो गया।
हालांकि संविधान में विकलांग व सामान्य दोनों तरह के नागरिकों को समान अधिकार मिले हैं। शिक्षा का अधिकार भी समान है। अनेकों कानून विकलांगों की सुरक्षा हेतु पारित किए गये हैं। 1995 में बना कानून कहता है कि विकलांग लोगों की शिक्षा व पुनर्वास को पुख्ता किया जायेगा, उनके प्रति भेदभाव को खत्म किया जायेगा और उनको सरकारी नौकरियों में 3 प्रतिशत का आरक्षण देने का वायदा किया गया। 2016 में इस कानून को बदलकर नये कानून में विकलांगता के प्रकारों को 7 से बढ़ाकर 20 कर दिया गया है और आरक्षण को निजी क्षेत्र में भी लागू कर दिया है। लेकिन इन सुंदर बातों का स्थान कानून की किताबों में ही है। संविधान और कानून जितना सुंदर शब्दों में है, उतना ही असुंदर व्यवहारिक जीवन में है। इन सुंदर बातों के आलोक में प्रदर्शन कर रहे शिक्षकों व अभिभावकों की मांगों को देखने में कथनी और करनी का विशाल अंतर स्वयं पता चल जाता है।
अधिकतर राज्य सरकारें विकलांग जनों और उनके संस्थानों के लिए आधारभूत ढांचा या जरूरी स्रोतों को पूरा नहीं करती। न ही निजी क्षेत्र मुश्किल से ही उनको मिलने वाले आरक्षण को पूरा करता है।
हालांकि उनके लिए जो संस्थान बने हुए हैं वहां भी प्रशिक्षित स्टाफ व पूर्ण संसाधनों का अभाव है। ऐसे में स्पष्ट है कि विकलांग जन अभी भी सरकारी व राज्य स्तरीय भेदभाव का शिकार बने हुए हैं। सरकारें प्रचार ऐसे करती हैं जैसे विकलांग जनों के लिए वह काफी चिंतित है लेकिन असल जमीन पर ढाक के 3 पात ही हकीकत है। विकलांग जनों हेतु प्रचार में उनका नाम बदलकर ‘दिव्यांग’ कहकर उनकी स्थिति नहीं बदल सकती। उसके लिए ठोस कदम उठाने की जरूरत है जो आज की पूंजीपरस्त सरकारें कभी नहीं कर सकती। छुट्टे पूंजीवाद के आज के दौर में उनको मिल रही सुविधा/सुरक्षा भी क्रमशः छीनी जा रही है।
केरल एक ऐसा राज्य है जो सर्वाधिक साक्षर राज्यों में गिना जाता है। पब्लिक अफेयर्स सेन्टर ने 2018 में केरल को सबसे अच्छे प्रशासित राज्यों का दर्जा दिया है। जो सामाजिक व आर्थिक विकास की रैंक में सबसे ऊपर है। ऐसे में अंदाजा लगाया जा सकता है कि जब केरल में विकलांग बच्चों व उनके स्कूलों की हालत ऐसी है तो अन्य राज्यों का क्या हाल होगा?
3 वर्षों में उच्च शिक्षण संस्थानों में 2.34 लाख शिक्षकों की कमी
-उमेश
उच्च शिक्षा पर अखिल भारतीय सर्वे की रिपोर्ट (2017-18) के अनुसार उच्च शिक्षण संस्थानों के कुल शिक्षकों की संख्या में लगभग 2.34 लाख की कमी आयी है। यह कमी पिछले 3 वर्षों की है।
इसमें प्रोफेसर से लेकर अस्थाई शिक्षक सभी शामिल हैं। आगे दी गयी तालिका शिक्षकों के रिक्त पदों की स्थिति और शिक्षण संस्थानों की बुरी स्थिति को बयां कर देती है।
तालिका शिक्षकों के पदों में हो रही क्रमशः कमी को अच्छे से बयां कर रही है। इसके अतिरिक्त भारत में उच्च शिक्षण संस्थानों में शिक्षकों के कुल पदों (नियमित व अस्थाई सभी को मिलाकर) की संख्या वर्ष 2017-18 में 12.84 लाख है। जबकि 2016-17 में यह संख्या इससे अधिक 13.65 लाख तथा 2015-16 में 15.18 लाख थी। साल दर साल शिक्षकों की संख्या में हो रही कमी हमारे शासकों के उच्च शिक्षा के प्रति हिकारत के व्यवहार को दर्शाती है। उच्च शिक्षण संस्थानों में शिक्षकों की यह कमी शिक्षा की गुणवत्ता को बुरी तरह गिरा दे रही है।
उच्च शिक्षण संस्थानों में शिक्षक पदों से रिटायर्ड होने वाले पदों पर पुनः नियुक्ति नहीं हो रही है। पहले तो अस्थाई, एडहाक, गेस्ट आदि-आदि रूपों में भर्तियां की जा रही थी लेकिन अब सरकारें इससे भी पीछे हट रही हैं। मोदी सरकार के शासन काल में कालेज-कैंपसों में कभी राष्ट्रविरोधी तो कभी किसी अन्य रूप में हमले तो जारी हैं, लेकिन शिक्षण संस्थानों की हालत को सुधारने की बात तो दूर पुरानी स्थिति भी बरकरार नहीं रखी गयी।
दरअसल भारत के उच्च शिक्षण संस्थानों में शिक्षकों की यह कमी पूंजीवादी सरकारों की ठोस नीतियों का परिणाम है। ये नीतियां शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे सामाजिक मदों में कटौती करने वाली तथा कारपोरेटों को लाभ पहुंचाने वाली हैं। शिक्षा को बाजार के हवाले करने की इन नीतियों का ही परिणाम है कि शिक्षा में होने वाले खर्च में निरंतर कटौती की जा रही है। अडानी-अंबानी की प्रिय मोदी सरकार इसमें दो कदम आगे है। मोदी सरकार ने हर प्रकार से शिक्षा को अपना निशाना बनाया है और शिक्षण संस्थानों को बरबाद करने का काम किया है।
लेकिन बेशर्म मोदी सरकार और उसका मानव संस्थान विकास मंत्रालय कहता है कि जिन शिक्षकों ने अपना आधार नंबर दिया है उन्हीं को शिक्षक के बतौर दर्ज किया जाता है। जाहिर है कि मोदी सरकार झूठ बोलने में माहिर है। जिस तरह बेरोजगारी के आंकड़े जुटाना बंद कर मोदी सरकार ने अपनी काहिली का परिचय दिया, ठीक उसी तरह उच्च शिक्षण संस्थानों में शिक्षकों की कमी के बारे में मानव संसाधन मंत्रालय यह तर्क दे रहा है।
एक तरफ प्रशिक्षित बेरोजगार हैं वहीं दूसरी तरफ शिक्षकों के रिक्त पद। सरकार की नीतियां एक तरफ प्रशिक्षित बेरोजगारों के खिलाफ हैं तो दूसरी तरफ उन छात्रों के खिलाफ हैं जो इन संस्थानों में पढ़ते हैं। छात्रों-बेरोजगार युवाओं व शिक्षकों को इसके विरूद्ध एकजुट होने की जरूरत है ताकि छात्र, बेरोजगार व शिक्षा विरोधी इन नीतियों को खत्म किया जा सके।
अब नये साल से ‘जय हिंद’, ‘जय भारत’
-हरिओम
गुजरात के स्कूलों में नये वर्ष (2019) से छात्र-छात्राएं ‘यस सर’, ‘प्रेजेंट सर’ के स्थान पर ‘जयहिंद’, ‘जय भारत’ कहकर अपनी उपस्थिति दर्ज करायेंगे। प्राथमिक शिक्षा निदेशालय और गुजरात माध्यमिक व उच्चतर माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ने अधिसूचना जारी कर कहा है कि सरकारी, अनुदान प्राप्त और स्ववित्तपोषित स्कूलों में कक्षा 1 से कक्षा 12 तक छात्र-छात्राओं को अटेंडेंस के समय ‘जयहिंद’, ‘जय भारत’ कहना होगा। 1 जनवरी, 2019 से इसे लागू करने के निर्देश जिला शिक्षा अधिकारियों को कर दिये गये हैं।
यह जानकर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि सरकार ने इस आदेश का उद्देश्य बचपन से छात्र-छात्राओं के मध्य देशभक्ति को बढ़ावा देना बताया है। ज्ञात हो कि गुजरात में भाजपा की सरकार है और नरेन्द्र मोदी यही लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहे थे। भाजपा सरकार की इस कार्यवाही को आरएसएस और अभाविप द्वारा सराहा गया है।
जब से भाजपा-संघ सत्ता में काबिज हुए हैं, वे अपने अलावा किसी और को देशभक्त नहीं पाते हैं। भाजपा, आरएसएस, एबीवीपी मंडली इसीलिए ‘देशद्रोही’ जेएनयू में टैंक रखवाने, सिनेमा हालों में राष्ट्रगान गंवाने और सभी को अनिवार्यतः खड़ा होने, शहरों में ऊंचे से ऊंचा झण्डा फहराने आदि-आदि के जरिये जनता को देशभक्ति का पाठ पढ़ाते हैं। ‘जयहिंद’, ‘जयभारत’ ‘देशभक्ति’ को सिखाने की उनकी अगली कड़ी है। यह अलग बात है कि अंग्रेजों से आजादी के संघर्ष में यह संघ भारतीय जनता के बजाय अंग्रेजों के साथ खड़ा रहा। अंग्रेजों से आजादी के लिए संघर्ष करने के बजाय अंग्रेजों का हिमायती बना रहा और अपनी जनता ‘हिन्दुओं’ को मुसलमानों से लड़ने की महान देशभक्ति का परिचय देता रहा। आज मुसलमानों, दलितों, बुद्धिजीवियों पर हमले कर, उनकी हत्याएं करवाकर वह अपनी ‘देशभक्ति’ को जाहिर कर रहा है।
सत्ता के नशे में चूर पूरी संघी मंडली सबको देशभक्ति का पाठ पढ़ाती है लेकिन अगर किसी ने उनके काले इतिहास पर या उनके कुकर्मों पर किसी भी तरह की रौशनी डाली तो उसे काल कोठरी के अंधेरों में डाल दिया जाता है। ऐसे लोग राष्ट्रविरोधी घोषित कर दिये जाते हैं। यह सिलसिला 2014 से लगातार जारी है।
देश के आत्महत्या करते किसानों, शोषण की भट्टी में तपते मजदूरों, यौन उत्पीड़न की शिकार महिलाओं की दर्दनाक चीखें संघी मंडली को सुनायी नहीं देती। ये लोग उनके लिए देश नहीं हैं। उनका देश अडानी, अंबानी, टाटा सरीखे बड़े पूंजीपति हैं। इनकी सेवा करने की कीमत ही मजदूर, किसान, छात्र, महिलाएं चुका रहे हैं। यही कारण है कि बड़े पूंजीपति वर्ग की सेवा में संघ-भाजपा नतमस्तक है और जनता पर हमलावर। रोटी, रोजगार और सुरक्षा का मुद्दा दबा रहे इसीलिए नकली और ओछी राष्ट्रवाद, देशभक्ति का ढोल पीटा जा रहा है। मूर्ख मंडली ‘जयहिंद’, ‘जय भारत’ ,‘भारत माता की जय’ कहलाकर या ऊंचे झण्डे फहराकर, कैंपसों में टैंक रखवाकर लोगों को देशभक्त बनाने के अभियान पर है। यह अलग बात है कि संघ मंडली ऐसा करके अभी तक खुद देशभक्त नहीं बन पायी है। बल्कि मेहनतकश जनता, छात्रों-युवाओं के खिलाफ खड़ी है।
यह जरूरी है कि संघ मंडली के देशभक्ति की इन नकली कार्यवाहियों का पर्दाफाश किया जाय। यह पर्दाफाश किया जाय कि संघ-भाजपा मंडली के सारे कर्म-कुकर्म पूंजीपति वर्ग की सेवा में हैं और मेहनतकशों को निचोड़ने वाले हैं। देश के छात्रों को इनसे देशभक्ति सीखने की जरूरत नहीं है बल्कि ये इस लायक नहीं हैं कि छात्रों को कुछ भी सिखा सके। एक दिन ऐसा जरूर आयेगा जब इस देश के छात्र मेहनतकशों के साथ मिलकर इनको अपनी देशभक्ति का परिचय देंगे। वे भगत सिंह के बताये रास्ते इंकलाब की ओर बढ़कर ऐसा करेंगे।
किशारों के आत्महत्या के केन्द्र बनते नवोदय विद्यालय
- सुखवीर
जवाहर नवोदय विद्यालय (जेएनवी) में पिछले 3 वर्षों के दौरान 49 छात्र-छात्राओं ने आत्महत्या कर अपनी जान दी। इनमें से आधे छात्र-छात्राएं अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) से थे। सर्वाधिक 14 छात्रों ने वर्ष 2017 में आत्महत्या की। आत्महत्या करने वालों में 16 छात्र एस.सी के थे। अगर एससी व एसटी के छात्रों की संख्या(9) को मिला दिया जाय तो आत्महत्याओं की यह संख्या 25 हो जाती है। वहीं सामान्य व पिछड़ी जाति के 12-12 बच्चों ने आत्महत्या कर मौत को गले लगाया। इनमें 35 लड़के व 14 लड़कियां शामिल हैं।
ये आंकड़े हैरान और परेशान करने वाले हैं। आत्महत्याओं के ये आंकड़े इस बात को स्पष्ट कर देते हैं कि शिक्षा संस्थानों को कैसे चलाया जा रहा है। यह इन विद्यालयों के प्रशासन, मानव संसाधन विकास मंत्रालय और केन्द्र सरकार के रवैये पर भी प्रश्न चिन्ह खड़ा कर देता है। यह सोचने वाली बात है कि अच्छी शिक्षा के लिए पहचाने जाने वाले ये विद्यालय किशोरों की आत्महत्या के केन्द्र बन रहे हैं।
ज्ञात हो कि जेएनवी की शुरूआत 1985-86 में हुयी। ये बोर्ड परीक्षा में सबसे अच्छा परिणाम देने वाले संस्थान हैं। वर्ष 2012 से लगातार कक्षा 10 का पास परिणाम 99 प्रतिशत या ज्यादा तो कक्षा 12 के लिए यह प्रतिशत 95 प्रतिशत या इससे ज्यादा था। इन विद्यालयों का परिणाम महंगे निजी स्कूलों या अन्य सीबीएसई के राष्ट्रीय औसत से कहीं ज्यादा है।
नवोदय विद्यालय समिति मानव संसाधन विकास मंत्रालय का एक स्वायत्त संगठन है जो देशभर में 635 स्कूल संचालित करता है। जिनमें 2.8 लाख छात्र-छात्रायें पढ़ रहे हैं। 31 मार्च 2017 तक, 9 से 19 वर्ष के 2.53 लाख छात्रों ने लगभग 600 नवोदय विद्यालयों में दाखिला लिया। नियमों के अनुसार स्कूल की 75 प्रतिशत सीट ग्रामीण छात्रों के लिए आरक्षित होती हैं। यही कारण है कि नवोदय विद्यालय को 100 प्रतिशत शहरी आबादी वाली जगह पर नहीं स्थापित किया जाता। नवोदय विद्यालय में एससी व एसटी समुदाय के छात्रों के लिए जिले में उनकी संख्या के आधार पर सीटें आरक्षित होती हैं। हालांकि ये आकंडा एससी के लिए राष्ट्रीय औसत 15 प्रतिशत और एसटी के लिए 7.5 प्रतिशत से कम नहीं हो सकता। यह माना जाता है कि ये विद्यालय ग्रामीण, वंचित व गरीब छात्रों को अपना भविष्य संवारने का सुनहरा मौका देते हैं। आत्महत्याओं की बढ़ती संख्या ने उनका भविष्य तो दूर वर्तमान भी समाप्त कर दिया है।
जेएनवी में छठी से प्रवेश होता है और 12 वीं तक की पढ़ाई होती है। यहां प्रवेश के लिए परीक्षा होती है और मैरिट के आधार पर प्रवेश दिया जाता है। यहां प्रवेश पाना आसान नहीं होता। हर वर्ष जितने छात्र-छात्राएं इसकी प्रवेश परीक्षा देते हैं; उसके मात्र 3 प्रतिशत से भी कम उसे पास कर पाते हैं।
ऐसे में जब नवोदय विद्यालय में प्रवेश पाने की इतनी होड़ हो, ऐसे में जब उनका परीक्षा परिणाम अन्य संस्थानों से बेहतर हो, ऐसे में जब सामाजिक न्याय की खूबसूरत बातों के साथ इन विद्यालयों को खोला गया हो, ऐसे में जब दलित, आदिवासी व गरीब छात्रों के भविष्य संवारने के रूप में इन विद्यालयों को जाना जाता हो तब किशोरों की ये आत्महत्याएं बहुत कुछ कह देती हैं। दलित, गरीब (वंचित) व आदिवासी तबकों का जीवन इस व्यवस्था के भीतर आम तौर पर कष्टों से भरा हुआ है। व्यवस्था के हासिये पर खड़े इन समुदायों के साथ अफसर, नेता, स्थानीय दबंग, जातीय श्रेष्ठता से कुंठित लोगों के द्वारा रोज ही अपमान, उत्पीड़न का व्यवहार किया जाता है। यह पूंजीवादी व्यवस्था और इसका तंत्र भी इनके साथ इनसे भिन्न व्यवहार नहीं करता। सामाजिक न्याय के रूप में जो अधिकार इनको मिले हुए हैं वह भी इनको मुश्किल से ही मिल पाते हैं। ऐसे में इन तबकों के नाममात्र के मेधावी छात्र नवोदय विद्यालय सरीखे विशिष्ट स्कूलों में प्रवेश पाकर अपना भविष्य संवारने का सपना देखते हैं तो वहां भी उनके साथ वही व्यवहार होता है। भविष्य संवारने के सपने की कीमत उन्हें अपनी जान ही देकर चुकानी पड़ रही है।
ये आत्महत्याएं बयान कर रही हैं कि भारतीय शिक्षण संस्थान किशोरों को शिक्षित बनाने के बजाय उनको तनावग्रस्त कर रहे हैं। जैसे पूंजीवादी व्यवस्था मजदूरों-किसानों-दलितों-आदिवासियों के साथ दमन-उत्पीड़न का व्यवहार करती है ठीक वैसे ही उसकी शिक्षा प्रणाली भी उत्पीड़नकारी है। शिक्षा व्यवस्था का यह उत्पीड़न आम बात है लेकिन नवोदय विद्यालय भी इससे अछूते नहीं हैं। उत्पीड़न व तनाव वहां भी इतना ज्यादा है कि छात्रों को आत्महत्या करने की ओर बढ़ा दे रहा है।
ये आत्महत्याएं स्पष्ट कर रहीं हैं कि विशिष्टता के सुंदर शब्दों के नाम पर चलाये जा रहे ये संस्थान छात्रों का दम घोंट रहे हैं। इन संस्थानों में क्या चल रहा है और कैसा चल रहा है इसकी किसी को परवाह नहीं है। पूंजीवादी व्यवस्था और उसके अंगों की असंवेदनशीलता का यह आत्महत्याएं एक जीता-जागता उदाहरण हैं। इतनी बड़ी संख्या में और लगातार हो रही आत्महत्याओं के बाद भी कोई ठोस कदम नहीं उठाये गये। कार्यवाही के नाम पर हुआ बस यह है कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इस मामले में मानव संसाधन विकास मंत्रालय को एक नोटिस भेज 6 सप्ताह में जवाब मांगा है। इसे कहते हैं सांप के निकल जाने पर लकीर पीटना। पूंजीवादी व्यवस्था और उसके अंग ऐसा ही व्यवहार हर ऐसी घटना के बाद करते हैं। उनको किशोरों, छात्रों की आत्महत्याओं, उनके मानसिक उत्पीड़न, तनावों से कोई लेना-देना नहीं है। मामला उठ जाने पर उसकी खानापूर्ति करना आम बात है।
ये आत्महत्याएं एक बार पुनः बता रही हैं कि हमारे समाज में अलगाव, तनाव, उत्पीड़न का आलम यह है कि किशोर भी बड़ी संख्या में मौत को गले लगा रहे हैं। पूंजीवादी समाज में चौतरफा छाया संकट किशोरों, युवाओं को नशे की तरफ और आत्महत्याओं की तरफ तेजी से बढ़ा रहा है। उत्पीड़नकारी यह पूंजीवादी व्यवस्था भिन्न-भिन्न रूप में मौत बांट रही है। कुछ इसके सीधे शिकार बन रहे हैं तो कुछ को यह अपनी जीवन लीला आप समाप्त करने की ओर बढ़ा रही है।
शासक पूंजीपति वर्ग और उसके चाकर ये कहते हैं कि आत्महत्याएं समाधान नहीं हैं। और ऐसी आत्हत्याओं के बाद जांच बैठाने, काउंसलिंग करने आदि-आदि नुस्खे हमें सुझाते हैं। हम यह जानते हैं कि आत्महत्याएं समाधान नहीं हैं लेकिन हम यह भी अच्छे से जानते हैं कि पूंजीवाद और पूंजीवादी शिक्षा प्रणाली भी समाधान नहीं है। शिक्षा का उत्पीड़नकारी चरित्र उत्पीड़नकारी पूंजीवादी व्यवस्था के नाश के साथ ही समाप्त होगा। इसीलिए जरूरी है कि अपनी ऊर्जा और आक्रोश को पूंजीवाद के खिलाफ केन्द्रित किया जाय। तभी छात्रों, युवाओं, किशोरों को आत्महत्या करने से बचाया जा सकता है।
वर्ष-10, अंक-1
अक्टूबर-दिसम्बर, 2018
मणिपुरः छात्र-शिक्षक आंदोलन
-उमेश
मणिपुर विश्वविद्यालय में छात्र-शिक्षक 30 मई, 2018 से आंदोलन कर रहे हैं। इस आंदोलन में छात्र-शिक्षकों की एकता नजर आयी तथा इस आंदोलन को शासन-प्रशासन द्वारा जितना दबाने की कोशिश की गयी आंदोलन और तेजी से बढ़ा। 9 जुलाई से छात्र क्रमिक अनशन पर आ गये। 22 अगस्त को प्रदर्शन बंद हो गये। क्योंकि मुख्यमंत्री द्वारा केन्द्र सरकार से बात करके कुलपति को निलंबित कर छुट्टी पर भेज दिया गया तथा प्रोफेसर पांडेय के खिलाफ जांच शुरू हो गयी थी। उन्हें समिति के सामने पेश होने का आदेश दिया गया था। पांडेय ने अपने निलंबन और छुट्टी पर जाने के बाद एक रजिस्ट्रार और प्रति उपकुलपति की नियुक्ति कर दी। कुलपति अपने निलंबन के दौरान प्रति उपकुलपति की नियुक्ति नहीं कर सकता। इसी तरह रजिस्ट्रार की नियुक्ति भी नहीं की जा सकती।
विश्वविद्यालय परिसर में पुलिस तथा सीआरपीएफ की टीम ने रात में छापा मारा गया। जिसमें 6 प्रोफेसर सहित 100 से अधिक छात्रों को गिरफ्तार कर लिया गया। सभी परीक्षाओं और कक्षाओं को स्थगित कर दिया गया। इंटरनेट सेवाओं पर भी रोक लगा दी गयी। 25 सितम्बर तक यह रोक जारी रही।
100 में से 13 वि.वि. के विद्यार्थियों को हिरासत में रखा तथा बाकी को छोड़ दिया गया। इस छापेमारी में विद्यार्थियों पर आंसू गैस के गोले दागे गये तथा छोटे बमों का उपयोग भी किया गया जिससे बहुत छात्रों को गंभीर चोटें भी आयीं। पूर्व मुख्यमंत्री ओ.इबोबी ने कहा कि यह घटना तानाशाही के सिवाय और कुछ नहीं है। कुछ ने इसकी तुलना आपातकाल से की।
विश्वविद्यालय को 3 महीने तक बंद करने के बाद यहां माहौल शांत हो गया था। लेकिन कुलपति द्वारा नियुक्त किये गये प्रति उपकुलपति तथा रजिस्ट्रार को केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्रालय ने पदभार ग्रहण करने का निर्देश दे दिया। पुलिस द्वारा कुलपति के कार्यालय की सील तोड़ने के बाद प्रो. के.मुगिद्रों ने प्रति कुलपति का पदभार ग्रहण कर लिया था। लेकिन विश्वविद्यालय के छात्र तथा शिक्षक/कर्मचारी प्रो. पांडेय के खिलाफ जांच पूरी होने तक उनके कार्यालय को सील रखने के पक्षधर थे ताकि दस्तावेजों के साथ किसी तरह की छेड़छाड़ न हो।
20 सितंबर की मध्य रात्रि में हुई छापेमारी में पकड़े गये छात्रों को रिहा कर दिया गया। एक छात्र जिस पर कुलपति की गाड़ी पर अंडे फेंकने का आरोप था उसे पुलिस ने जेल भेज दिया। बाकी छात्रों के एक ज्ञापन समझौते पर हस्ताक्षर हुए हैं जिसके तहत गिरफ्तार लोगों को बिना शर्त रिहा किया जायेगा।
छात्रों का यह आंदोलन सराहनीय है। इस आंदोलन से यह पता लगता है कि किस प्रकार से सरकारें अपने चहेतों को बचाने के लिए किसी भी हद तक जा सकती हैं जो एक निन्दनीय कृत्य है। भ्रष्ट प्रोफेसर को बचाने का पूरा इंतजाम राज्य व केन्द्र में बैठी संघी सरकार द्वारा किया गया। मोदी सरकार कितना भी चिल्लाती रहे की वे भ्रष्टाचार को खत्म करेंगे इन घटनाओं से उनकी कथनी और करनी झलकती है।
पंजाबी यूनिवर्सिटी (पटियाला) की छात्राओं का संघर्ष रंग लाया
-जसविन्दर
18 सितम्बर से अपनी विभिन्न मांगों को लेकर संघर्षरत पंजाबी यूनिवर्सिटी की छात्राओं का बहादुराना संघर्ष 12 अक्टूबर को जीत के साथ समाप्त हुआ। हाॅस्टल गेट बंद होने की समय सीमा बढ़ाने, हाॅस्टल की सीटों के बंटवारे में पारदर्शिता लाने, विश्वविद्यालय में लाइट की उचित व्यवस्था करने, आंदोलनरत छात्रों पर लगे मुकदमे हटाने आदि मांगों को लेकर विश्वविद्यालय की छात्राएं 24 दिनों तक संघर्ष पर थीं। वी.सी. का घेराव, धरना, भूख हड़ताल आदि-आदि तरीकों से छात्राओं ने आंदोलन को आगे बढ़ाया।
छात्राओं की लड़ाई आसान नहीं रही। विश्वविद्यालय प्रशासन से लेकर लम्पट छात्र संगठनों द्वारा लगातार उन पर हमले किए गए। प्रशासन ने उन्हें डराने के लिए उनके वीडियो बनाकर उनके अभिभावकों से शिकायत भी की। तो दूसरी तरफ लम्पट छात्र संगठनों ने आंदोलनरत छात्रों पर लाठियों से हमला किया। पुलिस-प्रशासन भी आंदोलन के खिलाफ खड़ा रहा और 12 आंदोलनकारियों पर मुकदमे दर्ज कर दिए। शासन-प्रशासन का ये दमन भी छात्राओं के हौसलों को तोड़ नहीं पाया और अन्ततः उसे आंदोलन के सामने झुकते हुए सभी मांगें माननी पड़ीं।
इस जीत के बाद छात्राओं की हाॅस्टल टाइमिंग को बढ़ाकर 10 बजे तक कर दिया गया है जोकि पहले 8 बजे तक हुआ करती थी। साथ ही लाइबे्ररी की टाइमिंग को भी सभी के लिए 11 बजे तक कर दिया गया है। पूरे देश के कैम्पसों में छात्राओं के साथ गैरबराबरी का व्यवहार किया जाता है। सुरक्षा, इज्जत के नाम पर हाॅस्टलों को छात्राओं के लिए जेलखानों में तब्दील कर दिया गया है। ऐसे में जेलखानों से निकलने के लिए छटपटाती छात्राओं को पंजाबी विवि. की छात्राओं का संघर्ष राह दिखाता है। सभी छात्राओं को इससे प्रेरणा लेते हुए कैम्पसों और समाज में बराबरी के लिए संघर्ष को तेज करना होगा।
बरेली कालेज में एबीवीपी की गुण्डागर्दी
-हरिओम
बीते 13 अक्टूबर को बरेली कालेज में आयी एक उर्दू पुस्तक वैन को एबीवीपी के लम्पटों ने जलाने की धमकी देते हुए कालेज परिसर से बाहर निकाल दिया। दरअसल नेशनल काउंसिल फाॅर प्रमोशन आॅफ उर्दू लेंग्वेज (एनसीपीयूएल) शिक्षा मंत्रालय (एमएचआरडी) के तहत आने वाली एक स्वायत्त संस्था है। जो देशभर में उर्दू भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए एक पुस्तक वैन के माध्यम से छात्रों तक सस्ती उर्दू की किताबें पहुंचाने का काम भी करती है। 13 अक्टूबर को विभिन्न संस्थानों में घूमते हुए यह वैन बरेली कालेज में पहुंची थी। कालेज में गाड़ी लगाने के लिए प्रशासन से अनुमति भी ले ली गयी थी। इसके बावजूद वहां पहुंचे एबीवीपी के कुछ गुण्डों ने यह जानने के बाद कि गाड़ी उर्दू किताबों की है, उसे परिसर से बाहर निकाल दिया। उनका कहना था कि ‘जब एएमयू में संस्कृत विद्यालय नही है तो हम उर्दू किताबों को यहां क्यों बिकने दें’। वैसे एबीवीपी के लम्पट यह नही जानते कि एएमयू में पहले से ही संस्कृत विभाग मौजूद है।
एबीवीपी की ये गुण्डागर्दी इस चीज को साबित करने के लिए है कि उर्दू एक खास धर्म की भाषा है और उसके प्रचार-प्रसार को हम आगे नहीं बढ़ने देंगे। जबकि उर्दू का जन्म हिन्दुस्तान में ही हुआ है और वहीं से आगे बढ़कर वो दक्षिण एशिया के कई देशों में बोली जाती है। हिन्दी बोलने वाले भी (बिना जाने) उर्दू के कई शब्दों का इस्तेमाल धड़ल्ले से करते हैं। ये दिखाता है कि भारत की संस्कृति में उर्दू कितनी गहरी पैठी हुई है। परंतु इन फासिस्टों को इससे क्या मतलब? संस्कृति की दुहाई देने वाले ये फासिस्ट संगठन खुद भारत की संस्कृति को कुचलने पर अमादा हैं। छात्रों और मेहनतकश जनता का एक सशक्त आंदोलन ही इन फासिस्टों की गुण्डागर्दी पर रोक लगा सकता है।
कुलपति के आश्वासन के बाद विश्वविद्यालय के छात्रों का आंदोलन खत्म
- अभिलाख सिंह
28 सितम्बर 2018 को गोविन्द बल्लभ पंत कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय पंतनगर के सैकड़ों छात्र-छात्राएं अपनी विभिन्न माँगो को लेकर कई दिनों से कुलपति निवास, तराई भवन पर बैठे थे। कुलपति ने मजबूर होकर गाँधी हाल में सामूहिक रूप से छात्रों से वार्ता की। आखिरकार माँगो पर कुलपति के आश्वासन के बाद छात्रों का आंदोलन खत्म हो गया।
वि .वि. के छात्र अपनी विभिन्न समस्याओं को लेकर काफी दिनों से आक्रोशित थे कि अचानक एक घटना से यह आक्रोश फूट पड़ा।
मालूम हो कि परिसर के स्टेडियम के पास वैटनरी काॅलेज के प्रोफेसर की कार की टक्कर से बाइक सवार कृषि महाविद्यालय के दो छात्र बुरी तरह घायल हो गये थे। इसी को लेकर अपने साथी के इलाज औऱ दोषी कार चालक की गिरफ्तारी को लेकर कुलपति निवास का घेराव किया था। इसमे पुलिस-प्रशासन औऱ अफसरों ने दोषियों पर कानूनी कार्यवाही करने का आश्वासन दिया था। पर व्यवहार में अपने वर्गीय चरित्र के चलते वि.वि. प्रशासन और पुलिस-प्रशासन ने कोई कार्यवाही नहीं की। प्रोफेसर को बचाने में ही लग गए। गुस्साए छात्रों ने कक्षाओं का बहिष्कार कर दिया। इधर वि.वि. प्रशासन औऱ पुलिस प्रशासन घायल छात्र के इलाज औऱ छात्रों की माँगो पर कार्यवाही करने के बजाय, छात्रों को कानूनी पाठ पढ़ाने, छात्रों को धमकाने आंदोलन खत्म कराने का दबाव बना रहे थे। आक्रोशित छात्रों ने क्षेत्रीय विधायक से तो बात ही नहीं की। वापस लौटा दिया। पहले तो अफसरों, प्रोफेसरो द्वारा छात्रों को फेल करने की धमकी दी गई, औऱ छात्र पुलिस प्रशासन के लाव-लश्कर का भय देखकर सहमे हुए थे। वि.वि. में छात्रों का कोई संगठन भी नहीं है। जब पंतनगर में 1978 में शासन-प्रशासन द्वारा मजदूरों पर बर्बर लाठीचार्ज, गोलीकाण्ड किया गया था। उस समय कई मजदूर शहीद हुए थे। इसमें मजदूरों के समर्थन में वि.वि. के छात्रों का सहयोग, साझा आंदोलन सराहनीय था। छात्रों के आंदोलन को इंकलाबी मजदूर केंद्र औऱ ठेका मजदूर कल्याण समिति के साथियों ने समर्थन दिया। एक टीम बनाकर आंदोलन करने का सुझाव दिया। छात्रों ने साहस के साथ अपने बीच एक टीम बनाई जो सामूहिक नेतृत्व दे रही थी। रात-दिन तराई भवन में धरने पर बैठे, गुस्साए छात्रों ने कहा कि हमारी माँगो पर कुलपति से वार्ता के बाद ही आंदोलन खत्म होगा। उन्होंने माँग की कि --
1-घायल छात्रों के इलाज का खर्चा विश्वविद्यालय प्रशासन वहन करे।
2-हादसे में घायल छात्रों की पढ़ाई का नुकसान न हो।
3-कार चालक के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया जाए।
4- छात्रों के लिए जो नियम बनें उसमें छात्रों का भी प्रतिनिधित्व दिया जाए।
5- 70 फीसदी से कम उपस्थिति पर सेमेस्टर ब्रेक नहीं किया जाए।
6- छात्रावास के शौचालय की हालत को सुधारा जाए।
7- आंदोलन के दौरान हुए पढ़ाई के हर्जाने की भरपाई की जाए।
8- आंदोलित छात्रों पर कोई कार्यवाही न की जाए।
वि.वि. प्रशासन द्वारा किसी अनुभवी नेतृत्व को वार्ता में नहीं जाने दिया गया। गाँधी हाल में छात्रों ने ही सामूहिक रूप से कुलपति से वार्ता में मोर्चा संभाला। वार्ता में कुलपति ने माँगों के समाधान में लिखित आदेश तो नहीं किया, पर छात्रों के आंदोलन के दबाव में कार चालक पर कागजी, कानूनी कार्यवाही, रिपोर्ट दर्ज की गई। वर्तमान में वह जमानत पर है। छात्र के इलाज का डेढ़ लाख रूपये इंश्योरेन्स के अलावा बृजलाल अस्पताल, हल्द्वानी का इलाज खर्च प्रशासन को देने को मजबूर होना पड़ा। अस्पताल से डिस्चार्ज होने के बाद अभी छात्र पूरी तरह ठीक नहीं हुआ है। प्रशासन ने पल्ला झाड़ लिया है। छात्रों ने सामूहिक रूप से चंदा इकट्ठा करके अपने साथी की मदद की। बहरहाल छात्रों के बिना संगठन, अकुशल नेतृत्व में अन्य मजदूर-मेहनतकशों की साझी एकता की व्यवहारिक ताकत नहीं लग पाई। इसके बावजूद छात्रों के आंदोलन के दम पर प्रशासन को काफी माँगें मानने को मजबूर होना पड़ा। समय की माँग है कि छात्रों की समस्या हो आम जनता की समस्या। शासक वर्ग से छात्रों, मजदूर-मेहनतकशों को वर्गीय एकता के आधार पर संगठित होकर साझा संघर्ष लड़ने की जरूरत है।
मोदी सरकार ने शिक्षकों पर बोला नया हमला
-प्रिया
यू.जी.सी. के 1 मई, 2018 में पारित एक नए नियम के अनुसार केन्द्रीय विश्वविद्यालयों से जुड़े शिक्षक अब सरकार के खिलाफ अपनी आवाज नहीं उठा पाएंगे। इस नए नियम; केन्द्रीय सिविल सेवा (सी.सी.एस.) नियमावली; के तहत शिक्षकों पर भी वही नियम लागू होंगे जो कि केन्द्रीय कर्मचारियों पर लागू होते हैं। इस नियम के लागू होने के बाद सरकार की नीतियों का विरोध करना, किसी संगठन से जुड़ना, बिना अनुमति के किसी कार्यक्रम में हिस्सा लेना आदि गैरकानूनी घोषित हो जाएगा। नियमों की अवहेलना करने पर सरकार किसी भी शिक्षक पर कानूनी कार्यवाही कर सकती है।
केन्द्रीय विश्वविद्यालय देश के भीतर उन चुनिंदा शिक्षा संस्थानों में से हैं जहां आज भी शिक्षकों की ताकतवर एसोसियेशनें मौजूद हैं। कई दफा ये एसोसियेशनें सरकार की शिक्षा विरोधी नीतियों को पर्दाफाश करते हुए सड़कों पर भी उतरती रही हैं। जे.एन.यू. एवं डी.यू. के शिक्षक एसोसियेशन इसके उदाहरण हैं।
पिछले चार सालों में मोदी सरकार द्वारा उच्च शिक्षा पर चैतरफा हमला बोला गया है। स्वायत्ता, हेफा, एच.ई.सी.आई, आदि-आदि कदमों के जरिए सरकार उच्च शिक्षा को लगातार निजी हाथों में देने की योजना बना रही है। जिसका ये शिक्षक अपने संस्थानों के छात्रों के साथ मिलकर विरोध करते रहे हैं। सरकार पहले भी इन आंदोलनों को तोड़ने व दमन करने के कई प्रयास करती रही है। हालिया सी.सी.एस. नियमावली भी सरकार के इन्ही प्रयासों का नतीजा है। अब वो कानून का सहारा लेकर शिक्षकों की आवाज को सदा के लिए बंद कर देना चाहती है। जे.एन.यू. में इस नई नियमावली को लागू कर दिया गया है, जिसके बाद से ही शिक्षक इसका विरोध कर रहे हैं। आगे इसे अन्य संस्थानों में लागू करने की योजना है। सभी संस्थानों के शिक्षकों को छात्रों, कर्मचारियों को साथ में लेते हुए इस नियम के विरोध में सड़कों पर उतरना होगा। तभी सरकार के इस फासीवादी कदम को रोका जा सकता है
प्रत्यक्ष छात्र संघ चुनाव कराने की मांग को लेकर
छात्रों ने चलाया आंदोलन
-हरीश
पिछले 11 अक्टूबर को खट्टर सरकार द्वारा छात्र संघ चुनाव की घोषणा होते ही हरियाणा के सभी छात्र संगठनों ने (एबीवीपी को छोड़कर) इसके विरोध में आंदोलन छेड़ दिया। इस घोषणा के अनुसार 22 साल बाद 17 अक्टूबर को हरियाणा में छात्र संघ चुनाव कराए जाने थे। हरियाणा में 1996 से ही छात्र संघ चुनाव पर बैन लगा हुआ था। परंतु इस बार चुनाव अप्रत्यक्ष तरीके से करवाए जा रहे थे। जिसके तहत छात्रों की अपने पदाधिकारियों को चुनने में कोई भूमिका नहीं थी बल्कि छात्र सिर्फ अपनी कक्षाओं के कक्षा प्रतिनिधि व विभाग प्रतिनिधि का चुनाव करते। इसके बाद ये प्रतिनिधि पदाधिकारियों का चुनाव करते। इस वर्ष 2019 के चुनावों को देखते हुए छात्रों तक अपने वोट बैंक को बढ़ाने के उद्देश्य से भाजपा सरकार ने चुनाव कराने का फैसला लिया था। साथ ही अप्रत्यक्ष चुनावों के माध्यम से वो चाहते थे कि हर जगह एबीवीपी ही जीते। जिसका हरियाणा के हर संस्थान में विरोध किया गया।
छात्रों के प्रत्यक्ष चुनाव कराने की जायज मांग का दमन करने में भी भाजपा सरकार पीछे नहीं रही। लाठीचार्ज, आंसू गैस के गोले, सैकड़ों छात्रों को गिरफ्तार करके सरकार ने आंदोलन दबाने की कोशिश की। परंतु आंदोलन दिन पर दिन तेज होता गया। दमन के अपने तमाम हथकण्डों का इस्तेमाल कर भाजपा सरकार इस वर्ष अप्रत्यक्ष चुनाव कराने में सफल रही परंतु मौजूदा छात्र आंदोलन ने दिखा दिया है कि वो सरकार के हर छात्र विरोधी कदम के खिलाफ मजबूती से खड़े हैं।
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