कहानियां

वर्ष- 8, अंक- 2

जनवरी-मार्च, 2017

अमरता
-पूरन मुद्गल

इमली का वह पेड़ कब और किसने लगाया था, किसी को मालूम नहीं है। स्कूल के आंगन में खड़ा वह पेड़ बच्चों के लिए विशेष आकर्षण बना रहता था। जब इमली की फलियां लगतीं तो बच्चे उन्हें तोड़ने के लिए उस पर चढ़ जाते और चटखारे लेकर उनकी खटाई का आनंद लेते। चपरासी ने पेड़ के साथ घंटी बांध रखी थी। जब किसी लड़के को घण्टी बजाने के लिए कहा जाता तो वह घण्टी बजाने से पहले पेड़ के नीचे चारों ओर नजर घुमाता और यदि उसे कहीं कोई फली नजर आ जाती तो मुंह में डाल देता। 

        हर वर्ष स्कूल में नये बालक प्रवेश लेते और पुराने परीक्षा पास करके स्कूूल छोड़ जाते। इमली के पेड़ से नये बच्चों का रिश्ता स्थापित हो जाता और पुरानों का टूट जाता। 

        इस बार गर्मी की छुट्टियों के बाद स्कूल खुला तो मैने देखा कि इमली का पेड़ सूख गया है-माली ने छोटी-बड़ी सब टहनियां काट दीं और केवल तना शेष रह गया है। कुछ ही दिनों में उसे भी काटकर गिरा दिया जायेगा। चपरासी ने तने से बंधी घंटी उतार ली थी और उसे बरामदे में कील के सहारे लटका दिया था। 

        रविवार की छुट्टियां थीं, लेकिन मैं किसी कार्यवश स्कूल गया था। सूखे तने के पास इमली का एक बीज अंकुरित हो गया था-माली उसके चारों ओर बड़ी सावधानी से ईंटों की बाड़ खड़ी कर रहा था। मैं उस अंकुर को टकटकी बांधकर देख रहा था। मुझेे लगा जैसे वह अंकुर बड़ा पेड़ बन गया है चपरासी ने उसके तने के साथ घण्टी बांध दी है और लड़के उस पर चढ़ गये हैं और असंख्य हरी-पीली पत्तियों में लटकी फलियों को तोड़ रहे हैं। अचानक एक दिन वह पेड़ ठूंठ में बदल जाता है। पास ही उस पेड़ से गिरा एक बीज अंकुरित हो रहा है। और फिर पेड़.....और फिर अंकुर...


अंधविश्वास 
-मोहन राकेश


पेशेंट की हालत देखते ही डाॅक्टर शर्मा खिन्न हो उठे- ‘ हूं, अब लाया है, जब गिनती की सांसें रही हैं छोकरी में’। उस मरियल से बूढ़े को हिकारत से देखते हुए उन्होंने लताड़ा-‘सोया हुआ था अब तक।’ 

        नहीं डाॅक्टर साब, झाड़ो लगवाई थी फेर चैकी की परकमा दी फेर...’ बूढ़ा विस्तार से अपने प्रयत्नों का ब्यौरा देना चाहता था कि उन्होंने डपट दिया’-बस-बस जानता हूं, तुम सब लोग एक ही थैली के हो। पहले पंडे-पुजारियों की पूर्जा-अर्चना, फिर ओझा-गुनियों के डोरे-डंडे और झाड़ू फूंक बाद में गांव के वैद्य जी की पुड़िया फाकेंगे, तब रोग काबू से बाहर हो जायेगा तो दौड़ेंगे डाॅक्टर के पास जैसे..

        डाॅक्टर शर्मा कुछ कहना चाहते थे कि एकाएक उन्हें मेरी उपस्थिति का आभास हो आया, अपनी झुंझलाहट छिपा, चेेहरे पर सुपरिचित अभिजात्य ओढते हुए वे मेरी ओर मुखातिब हुए- ‘अब आप ही देखिए प्रोफेसर। ये जाहिल लोग सिर से पैर तक इस प्रकार अंधविश्वास मेें डूबे हुए हैं कि दुनिया चाहे आसमान में क्यों न पहुंच जाये ये लोग ओझाओं की झाड़-फूंक और फकीरों के गण्डे-ताबीजों से मुक्त नहीं हो सकते। अब ऐसे लोगों का है कोई इलाज!’- उन्होंने कुछ ऐसी मुद्रा में पूछा मानो डाॅक्टर में हूं।

        मुझ जैसे ‘इंटलैक्चुअल’ से ग्रामीण के अज्ञान एवं अशिक्षा जनित अंधविश्वासों पर अच्छे खासे ‘लेक्चर’ की अपेक्षा रही होगी उन्हें पर जाने क्यों और कब मेरी दृष्टि उनकी दाहिनी बांह मे बंधे उस मोटे से धागे पर स्थिर हो रही थी, जो उनकी हाफ स्लीव शर्ट से यदा कदा बाहर झांक जाता था।

        डाॅक्टर शर्मा ने अब तक मेरी निगाह भांप ली थी। इस स्थिति में जैसा भी हो सकता था, उसी लहजे में बोले- ‘श्रीमती जी की जिद थी यार, इसलिए बांध लिया है। पुश्तैनी पंडित जी हैं न अपने। उन्हीं के द्वारा अभिमंत्रित सूत्र है। इन दिनों प्रैक्टिस कुछ डल सी रही थी न.....’ उन्होंने खिसियानी हंसी बिखेरते हुये मेरी ओर देखा और मेरा चेहरा सपाट देख बुझ से गये और उस देहाती बच्ची के परिक्षण में व्यस्त हो गये।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें