कविताएं


वर्ष 15, अंक 1    2023 अक्टूबर- दिसम्बर 


फ़िलिस्तीन

                                                                 प्रभात मिलिंद

एक

अभी तो ठीक से उसके 

सपनों के पंख भी नहीं उगे थे 

अभी-अभी तो रंगों को पहचानना 

शुरू किया था उसने 

अभी तो उसकी नाजुक 

उँगलियों ने लम्स के मायने सीखे थे 

और डगमगाते थे उनके नन्हें पाँव 

तितली और जुगनुओं के पीछे दौड़ते हुए 


अभी तो आँख भर दुनिया तक नहीं देखी थी 

कि मूँद दी गईं उसकी आँखें 

और, वह भी तब जब मुब्तिला था वह 

खूबसूरत परियों के साथ 

नींद की अपनी बेफिक्र दुनिया में


यह एक बच्चे की क्षत-विक्षत,

रक्तस्नात और निश्चेत देह है 

बच्चा अपने पिता की गोद में है

जो उसे अपने सूखे होठों से बेतहाशा चूम रहा है

और लिए जा रहा है सफेद कफन में लपेटे

सुपुर्दे-खाक करने उसको 


हवा में मुट्ठियाँ लहराते हुए 

नारे लगा रहे हैं कुछ बेऔकात लोग

और पीछे-पीछे विलाप करतीं 

औरतों का अर्थहीन समूह है


आप इस बच्चे की मासूमियत 

और स्यापे पर हरगिज मत जाइए 

कौम के लिए फिक्रमंद निजाम की नजर में 

यह बच्चा चैनो-अमन के लिए 

खतरा साबित हो सकता था 

खतरा भी खासा बड़ा कि मारना पड़ा

उसे मिसाइलों के इस्तेमाल से 

और आँख भर दुनिया देखने के पहले

बंद कर दी गईं उसकी आँखें हमेशा-हमेशा के लिए 


यह जश्नों की जमीन है

ऐसे वाकये यहाँ रोजमर्रा के नजारे हैं


यहाँ बारूद की शाश्वत गंधों के बीच 

बम और कारतूसों की दिवाली

और सुर्ख-ताजा इंसानी लहू के 

साथ होली खेलने की रवायत है 


यह एक ऐसा मुल्क है 

जो चंद सिरफिरे लोगों के 

तसव्वुर और फितूर में जिंदा है फकत 


लेकिन कौम के फिक्रमंद निजाम के 

जेहन और दुनिया के नक्शे पर 

तकरीबन नहीं के बराबर है


यह फिलिस्तीन है!




दो

उन लोगों के बारे में सोच कर देखिए जरा 
जिनकी कोई हस्ती नहीं होती 
न घर अपना, न कोई मुल्क और मर्जी..
जो कई पीढ़ियों से अपनी जड़ें तलाश रहे हैं
मुसलसल.. इसी रेत और मिट्टी में 
और बेसब्र हैं जानने के लिए 
अपने होने का मतलब और मक़सद 

जो बरसों-बरस से जलावतन हैं 
अपने ही पुरखों की जमीन पर..
हक और ताकत की इस जोर आजमाइश में 
जो रोज जिबह किए जा रहे हैं
बेकसूर और बेजुबान जानवरों की तरह.. बेवजह 

कभी रही होगी यह सभ्यताओं के उत्स की धरती
पैगंबर और मसीह की पैदाइश की पाकीजा जमीन
फिलहाल तो यह मनुष्यता के अवसान की जमीन है

इस जमीन पर बेवा और बेऔलाद हो चुकी 
औरतों का समवेत विलाप अब 
मरघट के उदास और भयावह कोरस 
की तरह गूँजता है.. अनवरत 

जमींदोज होती बस्तियों में कब्रगाहों से भी 
अब कम रह गई हैं मकानों की तादाद

बेरुत हो कि बग़दाद..
काबुल, समरकंद, कश्मीर या फिर गाजा 
कभी इन्हें लोग दुनिया की जीनत 
और जन्नत कहते थे!

अलादीन, सिंदबाद और मुल्ला नसीरुद्दीन के 
किस्से पढ़ कर जाना था हमने भी 

परीकथाओं के जादुई और खूबसूरत शहर
अब किसी सल्तनत की हरम की अधेड़ 
और उजड़ी माँगों वाली रखैलें हैं
उनके पूरे जिस्म और चेहरों पर 
दाँत और नाखूनों के बेशुमार दाग हैं
जिनसे रिसता रहता है खून और मवाद.. 
लगातार और बेहिसाब 

दरअसल सुदूर पश्चिम में अपने सुरक्षित शुभ्रमहल 
के भीतर 
अमनपरस्त और तरक्कीपसंद हुक्मरान के किरदार में 
नफीस सूट पहने बैठा है जो शख्स,
नरमुंड के उस बर्बर सौदागर का उद्दीपन और पौरुष 
आज भी खून-मवाद की इसी गंध से जिंदा है!

तीन
बादलों और परिंदों की खातिर अब कोई जगह नहीं है 
अब काले-चिरायंध धुएँ से भरे आसमान में 
बारूद की चिरंतन गंध ने अगवा कर लिया है 
फूलों की खुशबू.. वनस्पतियों का हरापन 

बच्चों का बचपन, युवाओं के प्रेमपत्र, 
औरतों की अस्मत और बुजुर्गों की शामें 
सब की सब गिरवी हैं आज जंग 
और दहशतगर्दी के जालिम हाथों..

जंग और फसाद में जिंदा बच कर भी 
जो मारे जाते हैं वे बच्चे और औरतें हैं
मासूम बच्चे.. मजलूम बच्चे.. अपाहिज बच्चे.. 
यतीम बच्चे..
बेवा औरतें.. बेऔलाद औरतें.. रेज़ा-रेज़ा औरतें.. हवस 
की शिकार औरतें 

बच्चे उस वक्त मारे गए जब वे
खेल रहे थे अपने मेमनों के साथ 
औरतें इबादतगाहों में मारी गईं.. या फिर बावर्चीखानों में 
बुजुर्ग मसरूफ थे जब अमन के मसौदे पर बहस में तब मारे गए
और, जवान होते लड़कों को तो 
मारा गया बेसबब.. सिर्फ शक की बिना पर 

नरमुंडों की तिजारत करने वाले हुक्मरानों!
इस पृथ्वी पर कुछ भी नश्वर नहीं..
न तुम्हारी हुकूमत और न तुम्हारी तिजारत
कुछ बचे रहेंगे तो इतिहास के कुछ जर्द पन्ने 
और उन पन्नों में दर्ज तुम्हारी फ़तह के टुच्चे क़िस्से

सोचो जरा, जब कौमें ही नहीं बचेंगी 
तब क्या करोगे तुम तेल के इन कुँओं का 
और किसके खिलाफ काम आएगी असले और बारूद की 
तुम्हारी ये बड़ी-बड़ी दुकानें!

एक सियासी नक्शे से एक मुल्क को 
बेशक खारिज किया जा सकता है 
लेकिन हक की लड़ाई और आजादी के 
सपनों को किसी कीमत पर हरगिज नहीं 

इसी रेत और मिट्टी में एक रोज फिर से बसेंगे 
तंबुओं के जगमग और धड़कते हुए डेरे 
बच्चे फिर से खेलेंगे अपनी नींदों में परियों के साथ
और भागते-फिरेंगे अपने मेमनों के पीछे 

औरतें पकाएँगी खुशबूदार मुर्ग-रिजाला 
और खुबानी-मकलुबा मेहमानों की खिदमत में
सर्दियों की रात काम से थके लौटे मर्द 
अलाव जलाए बैठ कर गाएँगे अपनी पसंद के गाने 
बुजुक और रवाब की धुनों पर 

एक दिन लौट आएँगे कबूतरों के परदेशी झुंड 
बचे हुए गुंबद और मीनारों पर फिर अपने-अपने बसेरों में 

देखिए तो सिर्फ एक अंधी सुरंग का नाम है यह 
सोचिए तो उम्मीद और मुख़ालफत की एक लौ है फ़िलिस्तीन!



वर्ष 14, अंक 3   अप्रैल - जून  2023
धर्म मे लिपटी वतन परस्ती क्या, क्या स्वांग रचाएगी
मसली कलियाँ, झुलसा गुलशन, ज़र्द खिज़ां दिखलाएगी

यूरोप जिस वहशत से अब भी सहमा, सहमा रहता है
खतरा है वो वहशत मेरे मुल्क में आग लगाएगी

जर्मन गैसकदों से अब तक खून की बदबू आती है
अंधी वतन परस्ती हम को उस रस्ते ले जाएगी

अंधे कुएं में झूट की नाव तेज चली थी मान लिया
लेकिन बाहर रौशन दुनियां तुम से सच बुलवाएगी

नफ़रत में जो पले बढ़े हैं, नफ़रत में जो खेले हैं
नफ़रत देखो आगे आगे उनसे क्या करवाएगी

फ़नकारों से पूछ रहे हो क्यों लौटाए हैं सम्मान
पूछो कितने चुप बैठे हैं, शर्म उन्हें कब आएगी

ये मत खाओ, वो मत पहनो, इश्क़ तो बिल्कुल करना मत
देश द्रोह की छाप तुम्हारे ऊपर भी लग जायेगी

ये मत भूलो अगली नस्लें रौशन शोला होती हैं
आग कुरेदोगे, चिंगारी दामन तक तो आएगी।
                                                                                                     
                                                                                    - गौहर रज़ा     








गीत गाने दो मुझे
                                                    -सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’
गीत गाने दो मुझे तो,
वेदना को रोकने को।

चोट खाकर राह चलते
होश के भी होश छूटे,
हाथ जो पाथेय थे, ठग-
ठाकुरों ने रात लूटे,
कंठ रूकता जा रहा है,
आ रहा है काल देखो।

भर गया है ज़हर से
संसार जैसे हार खाकर,
देखते हैं लोग लोगों को,
सही परिचय न पाकर,
बुझ गई है लौ पृथा की,
जल उठो फिर सींचने को।





वर्ष 14, अंक 2  जनवरी-मार्च, 2023

एक तरफ बर्बाद बस्तियाँ - एक तरफ हो तुम
                                                                       गिरीश तिवारी ’गिर्दा’

एक तरफ डूबती कश्तियाँ - एक तरफ हो तुम।
एक तरफ हैं सूखी नदियाँ - एक तरफ हो तुम।
एक तरफ है प्यासी दुनियाँ - एक तरफ हो तुम।

अजी वाह! क्या बात तुम्हारी,
तुम तो पानी के व्योपारी,
खेल तुम्हारा, तुम्हीं खिलाड़ी,
बिछी हुई ये बिसात तुम्हारी,

सारा पानी चूस रहे हो,
नदी-समन्दर लूट रहे हो,
गंगा-यमुना की छाती पर
कंकड़-पत्थर कूट रहे हो,

उफ!! तुम्हारी ये खुदगर्जी,
चलेगी कब तक ये मनमर्जी,
जिस दिन डोलगी ये धरती,
सर से निकलेगी सब मस्ती,

महल-चैबारे बह जायेंगे
खाली रौखड़ रह जायेंगे
बूँद-बूँद को तरसोगे जब -

बोल व्योपारी - तब क्या होगा?
नगद - उधारी - तब क्या होगा??

आज भले ही मौज उड़ा लो,
नदियों को प्यासा तड़पा लो,
गंगा को कीचड़ कर डालो,

लेकिन डोलेगी जब धरती - बोल व्योपारी - तब क्या होगा?
वल्र्ड बैंक के टोकनधारी - तब क्या होगा ?
योजनकारी - तब क्या होगा ?
नगद-उधारी तब क्या होगा ?

एक तरफ हैं सूखी नदियाँ - एक तरफ हो तुम।
एक तरफ है प्यासी दुनियाँ - एक तरफ हो तुम।









ये दुनिया दो रंगी है
                                     - साहिर लुधियानवी

ये दुनिया दो-रंगी है
एक तरफ से रेशम ओढे़, एक तरफ से नंगी है

एक तरफ अंधी दौलत की पागल ऐश-परस्ती
एक तरफ जिस्मों की कीमत रोटी से भी सस्ती
एक तरफ है सोनागाची, एक तरफ चैरंगी है
ये दुनिया दो रंगी है

आधे मुंह पर नूर बरसता, आधे मुंह पर चीरे
आधे तन पर कोढ़ के धब्बे, आधे तन पर हीरे
आधे घर में खुश-हाली है, आधे घर पर तंगी है
ये दुनिया दो-रंगी है

माथे ऊपर मुकुट सजाए, सर पर ढोए गंदा
दाएं हाथ से भिक्षा मांगे, बांए से दे चंदा
एक तरफ भंडार चलाए, एक तरफ भिखमंगी है
ये दुनिया दो-रंगी है

इक संगम पर लानी होगी दुःख और सुख की धारा
नए सिरे से करना होगा दौलत का बटवारा
जब तक ऊंच और नीच है बाकी, हर सूरत बे-ढंगी है
ये दुनिया दो-रंगी है








प्रश्न 
                                      केदारनाथअग्रवाल                                                                                             
मोड़ोगे मन
या सावन के घन मोड़ोगे?
मोड़ोगे तन
या शासन के फन मोड़ोगे?
बोलो साथी! क्या मोड़ोगे?

तोड़ोगे तृण
या धीरज धारण तोड़ोगे?
तोड़ोगे प्रण
या भीषण शोषण तोड़ोगे?
बोलो साथी! क्या तोड़ोगे?

जोड़ोगे कन
या विश्वासी मन जोड़ोगे?
जोड़ोगे धन
या मेधावी जन जोड़ोगे?
बोलो साथी! क्या जोड़ोगे?


 







वर्ष 14, अंक 1  अक्टूबर - दिसम्बर

अट्ठारह साल की उम्र

-सुकांत भट्टाचार्य 

कितनी असहनीय होती है अट्ठारह साल की उम्र
स्पर्द्धा से लेती है सिर उठाने की जिम्मेवारी,
अट्ठारह की उम्र में ही रोज
झांकने जो लगते हैं बड़े-बडे़ दुस्साहस।

अट्ठारह की उम्र में नहीं होता है डर
लात मारकर तोड़ डालना चाहती है पत्थर सी बाधाएं, 
इस उम्र में कोई सिर नहीं झुकाता
अट्ठारह साल की उम्र रोना नहीं जानती।

यह उम्र जानती है बलिदान देने का पुण्य
भाप की गति से स्टीमर की तरह चलती है,
सौंप कर आत्मा को शपथ के कोलाहल में 
जान लेने-देने की झोली खाली नहीं रहती।

भयंकर है अट्ठारह साल की उम्र 
ताजे-ताजे प्राणों में तकलीफ होती है असहनीय,
इस उम्र में तेज और प्रखर होते हैं प्राण 
इस उम्र में कितनी मन्त्रणाएं आती हैं कानों में।

कितनी दुर्वार है अट्ठारह साल की उम्र
पथ-प्रांतर में पैदा करती है कितने ही तूफान,
आंधी-बरसात में पतवार सम्भालना मुश्किल है
क्षत-विक्षत होती हैं हजारों जानें।

अट्ठारह साल की उम्र में आती हैं चोटें 
लगातार, एक-एक कर जमती जाती हैं,
यह उम्र लाखों उसासों से हो जाती है स्याह
पीड़ा से थर-थर कांपती है यह उम्र।

फिर भी मैंने अट्ठारह साल की जयध्वनियां सुनी हैं
यह उम्र बची रहती है दुर्दिनों और तूफानों में भी,
विपत्ति के समय सबसे आगे होती है यह उम्र
यह उम्र कुछ तो नया करती है।

तुम जानना, यह उम्र कायर नहीं होती
नहीं होती कापुरूष,
राह चलते हुए नहीं थम जाती यह उम्र,
इसीलिए इस उम्र में कोई संशय नहीं होते..
काश इस मुल्क के सीने में अट्ठारह उतर आए!!



भूख

-सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

जब भी भूख से लड़ने
कोई खड़ा हो जाता है
सुन्दर दीखने लगता है।
झपटता बाज,
फन उठाये सांप,
दो पैरों पर खड़ी
कांटों में नन्हीं पत्तियां खाती बकरी,
दबे पांव झाड़ियों में चलता चीता,
डाल पर उलटा लटका
फल कुतरता तोता,
या उन सबकी जगह आदमी होता।
जब भी भूख से लड़ते
कोई खड़ा हो जाता है
सुन्दर दीखने लगता है।



वर्ष 13, अंक 4 जुलाई - सितम्बर 

26 जनवरी, 15 अगस्त
    -नागार्जुन                                                      
किसकी है जनवरी,
किसका अगस्त है?
कौन यहां सुखी है, कौन यहां मस्त है?
 
सेठ है, शोषक है, नामी गला-काटू है
गालियां भी सुनता है, भारी थूक-चाटू है
चोर है, डाकू है, झूठा-मक्कार है
कातिल है, छलिया है, लुच्चा-लबार है
जैसे भी टिकट मिला
जहां भी टिकट मिला
 
शासन के घोड़े पर वह भी सवार है
उसी की जनवरी छब्बीस
उसी का पन्द्रह अगस्त है
बाकी सब दुखी हैं, बाकी सब पस्त हैं...
 
कौन है खिला-खिला, बुझा-बुझा कौन है
कौन है बुलन्द आज, कौन आज मस्त है?
खिला-खिला सेठ है, श्रमिक है बुझा-बुझा
मालिक बुलन्द है, कुली-मजूर पस्त है
सेठ यहां सुखी है, सेठ यहां मस्त है
उसकी है जनवरी, उसी का अगस्त है
 
पटना है, दिल्ली है, वहीं सब जुगाड़ है
मेला है, ठेला है, भारी भीड़-भाड़ है
फ्रिज है, सोफा है, बिजली का झाड़ है
फैशन की ओट है, सब कुछ उघाड़ है
पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो
मास्टर की छाती में कै ठो हाड़ है!
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो
मजदूर की छाती में कै ठो हाड़ है!
गिन लो जी, गिन लो जी, गिन लो
बच्चे की छाती में कै ठो हाड़ है!
देख लो जी, देख लो जी, देख लो
पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है!
 
मेला है, ठेला है, भारी भीड़-भाड़ है
पटना है, दिल्ली है, वहीं सब जुगाड़ है
फ्रिज है, सोफा है, बिजली का झाड़ है
महल आबाद है, झोपड़ी उजाड़ है
गरीबों की बस्ती में
 
उखाड़ है, पछाड़ है
धत तेरी, धत तेरी, कुच्छो नहीं! कुच्छो नहीं
ताड़ का तिल है, तिल का ताड़ है
ताड़ के पत्ते हैं, पत्तों के पंखे हैं
 
पंखों की ओट है, पंखों की आड़ है
कुच्छो नहीं, कुच्छो नहीं...
ताड़ का तिल है, तिल का ताड़ है
पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है
 
किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है!
कौन यहां सुखी है, कौन यहां मस्त है!
सेठ ही सुखी है, सेठ ही मस्त है
मन्त्री ही सुखी है, मन्त्री ही मस्त है
उसी की है जनवरी, उसी का अगस्त है!




वर्ष 13, अंक 3 अप्रैल-जून, 2022



इतने भले नहीं बन जाना

 - वीरेन डंगवाल


इतने भले नहीं बन जाना साथी

जितने भले हुआ करते हैं सरकस के हाथी

गदहा बनने में लगा दी अपनी सारी कुव्वत सारी प्रतिभा

किसी से कुछ लिया नहीं न किसी को कुछ दिया

ऐसा भी जिया जीवन तो क्या जिया?


इतने दुर्गम मत बन जाना

सम्भव ही रह जाय न तुम तक कोई राह बनाना

अपने ऊंचे सन्नाटे में सर धुनते रह गए

लेकिन किंचित भी जीवन का मर्म नहीं जाना


इतने चालू मत हो जाना

सुन-सुन कर हरकतें तुम्हारी पड़े हमें शरमाना

बगल दबी हो बोतल मुँह में जनता का अफसाना

ऐसे घाघ नहीं हो जाना


ऐसे कठमुल्ले मत बनना

बात नहीं हो मन की तो बस तन जाना

दुनिया देख चुके हो यारो

एक नजर थोड़ा-सा अपने जीवन पर भी मारो

पोथी-पतरा-ज्ञान-कपट से बहुत बड़ा है मानव

कठमुल्लापन छोड़ो

उस पर भी तो तनिक विचारो


काफी बुरा समय है साथी

गरज रहे हैं घन घमण्ड के नभ की फटती है छाती

अंधकार की सत्ता चिल-बिल चिल-बिल मानव-जीवन

जिस पर बिजली रह-रह अपना चाबुक चमकाती

संस्कृति के दर्पण में ये जो शक्लें हैं मुस्काती

इनकी असल समझना साथी

अपनी समझ बदलना साथी




 वर्ष 13, अंक- 2 जनवरी-मार्च, 2022


हम झूठ-मूठ का कुछ भी नहीं चाहते
- अवतार सिंह पाश
हम झूठ-मूठ का कुछ भी नहीं चाहते
जिस तरह हमारे बाजुओं में मछलियाँ हैं,
जिस तरह बैलों की पीठ पर उभरे
सोटियों के निशान हैं,
जिस तरह कर्ज़ के काग़ज़ों में
हमारा सहमा और सिकुड़ा भविष्य है
हम ज़िन्दगी, बराबरी या कुछ भी और
इसी तरह सचमुच का चाहते हैं
हम झूठ-मूठ का कुछ भी नहीं चाहते
और हम सब कुछ सचमुच का देखना चाहते हैं
ज़िन्दगी, समाजवाद, या कुछ भी और..

भगत सिंह ने पहली बार

भगत सिंह ने पहली बार पंजाब को
जंगलीपन, पहलवानी व जहालत से
बुद्धिवाद की ओर मोड़ा था

जिस दिन फाँसी दी गई
उनकी कोठरी में लेनिन की किताब मिली
जिसका एक पन्ना मुड़ा हुआ था
पंजाब की जवानी को
उसके आखिरी दिन से
इस मुड़े पन्ने से बढ़ना है आगे, चलना है आगे

वर्ष- 13, अंक- 1 अक्टूबर-दिसम्बर, 2021

उम्मीद
                                            - नाज़िम हिक़मत

मैं कविताएँ लिखता हूँ
पर उनको कोई नहीं छापता
एक दिन ऐसा ज़रूर आएगा जब छपेंगी मेरी कविताएँ।

मुझे इन्तज़ार है एक चिट्ठी का
जिसमें आएगी कोई अच्छी ख़बर
हो सकता है उसके आने का दिन वही हो
जिस दिन मैं लेने लगूँ आखिरी साँसें...
पर ये हो नहीं सकता
कि न आए वो चिट्ठी।

दुनिया सरकारें या दौलत नहीं चलाती
दुनिया को चलाने वाली है अवाम
हो सकता है मेरा कहा सच होने में लग जाएँ
सैकड़ों साल
पर ऐसा होना है ज़रूर।


यही तो सवाल है 
                                   (लम्बी कविता का एक अंश)

दुनिया की सारी दौलत से पूरी नहीं हो सकती उनकी हवस
चाहते हैं बनाना वे ढेर सारी रक़म
उनके लिए दौलत के अम्बार लगाने के लिए
तुम्हें मारना होगा औरों को, ख़ुद भी मरना होगा दम-ब-दम ।

झाँसा पट्टी में उनकी आना है?
या धता बताना है ?
तुम्हारे सामने यही तो सवाल है !
झाँसें में न आए तो जियोगे ता-क़यामत
और अगर आ गए तो मरना हर हाल है ।


जीने के बारे में


जीना कोई हँसी-मज़ाक नहीं,
तुम्हें पूरी संजीदगी से जीना चाहिए
मसलन, किसी गिलहरी की तरह
मेरा मतलब ज़िन्दगी से परे और उससे ऊपर
किसी भी चीज़ की तलाश किए बगैर,
मतलब जीना तुम्हारा मुकम्मल कारोबार होना चाहिए।

जीना कोई मज़ाक नहीं,
इसे पूरी संजीदगी से लेना चाहिए,
इतना और इस हद तक
कि मसलन, तुम्हारे हाथ बंधे हों पीठ के पीछे
पीठ सटी हो दीवार से,
या फिर किसी लेबोरेटरी के अन्दर
सफ़ेद कोट और हिफाज़ती चश्मे में ही,
तुम मर सकते हो लोगों के लिए-
उन लोगों के लिए भी जिनसे कभी रूबरू नहीं हुए,
हालाँकि तुम्हें पता है ज़िन्दगी
सबसे असली, सबसे ख़ूबसूरत शै है ।

मतलब, तुम्हें ज़िन्दगी को इतनी ही संजीदगी से लेना है
कि मिसाल के लिए, सत्तर की उम्र में भी
तुम रोपो जैतून के पेड़-
और वह भी महज अपने बच्चों की खातिर नहीं,
बल्कि इसलिए कि भले ही तुम डरते हो मौत से-
मगर यक़ीन नहीं करते उस पर,

क्योंकि ज़िन्दा रहना, मेरे ख़याल से, मौत से कहीं भारी है।


वर्ष- 9, अंक- 4

जुलाई-सितम्बर, 2018

अफ़ीम फिर भी ठीक है, धर्म तो हेमलाक विष है
-रुद्र मुहम्मद शहीदुल्लाह 
जैसे ख़ून में जनमती है पीली बीमारी
और बाद में फूट पड़ता है त्वचा और माँस का बीभत्स क्षरण,
राष्ट्र के बदन में आज वैसे ही देखो एक असाध्य रोग
धर्मांध पिशाचों और परलोक बेचनेवालों की शक़्ल में,
धीरे-धीरे प्रकट हो गया है क्षयरोग,
जो धर्म कभी अन्धेरे में रोशनी लाया था,
इस रोग से ग्रसित आज उसका कंकाल और सड़ा माँस
बेचते फिर रहे हैं स्वार्थपरायण बेईमान लोग -
सृष्टि के अज्ञात अंश को गप्पों से पूरते हुए।
अफ़ीम फिर भी ठीक है, धर्म तो हेमलाक विष है।
धर्मांध के पास धर्म नहीं है, लोभ है, घिनौनी चतुराई है,
आदमी की धरती को सौ हिस्सों में बाँट रखा है
इन्होंने, क़ायम रखा है वर्गभेद
ईश्वर के नाम पर।
ईश्वर के नाम पर
दुराचार को जायज़ बना दिया है।
हाय री अन्धता ! हाय री मूर्खता !
कितनी दूर, कहाँ है ईश्वर !
अज्ञात शक्ति के नाम पर कितने नरमेध,
कितना रक्तपात,
कितने निर्मम तूफ़ान आए हज़ार सालों में।

कौन हैं वे बहिश्त की हूरें, कैसी जन्नत की शराब और
कैसा अन्तहीन यौनाचार में निमग्न अनन्त काल
जिनके लोभ में आदमी जानवर से बदतर हो जाए?
और कौन सा नरक है इससे अधिक भयावह,
भूख की आग सातवें नरक की आग से कुछ कम है?
वह रौरव की ज्वाला से कम आँचवाली, कम कठोर है?
इहकाल को छोड़कर जो परकाल के नशे में चूर हैं
उनका सब कुछ उस पार बहिश्त में चला जाए,
हम रहेंगे इस पृथ्वी की मिट्टी, पानी और आकाश में,
द्वन्द्वात्मक सभ्यता के गतिमान स्रोत की धारा में,
भविष्य के स्वप्न में मुग्ध, समता के बीज बोते जाएँगे।


वर्ष- 9, अंक- 3

अप्रैल-जून, 2018

 कचोटती स्वतन्त्रता
                                                                       - नाजिम हिकमत 

तुम खर्च करते हो अपनी आँखों का शऊर,
अपने हाथों की जगमगाती मेहनत,
और गूँथते हो आटा दर्जनों रोटियों के लिए काफी
मगर खुद एक भी कौर नहीं चख पाते,
तुम स्वतन्त्र हो दूसरों के वास्ते खटने के लिए
अमीरों को और अमीर बनाने के लिए
तुम स्वतन्त्र हो ।

जन्म लेते ही तुम्हारे चारों ओर
वे गाड़ देते हैं झूठ कातने वाली तकलियाँ
जो जीवनभर के लिए लपेट देती हैं
तुम्हें झूठ के जाल में ।
अपनी महान स्वतन्त्रता के साथ
सिर पर हाथ धरे सोचते हो तुम
जमीर की आजादी के लिए तुम स्वतन्त्र हो ।

तुम्हारा सिर झुका हुआ मानो आधा कटा हो
गर्दन से,
लुंज-पुंज लटकती हैं बाँहें,
यहाँ-वहाँ भटकते हो तुम
अपनी महान स्वतन्त्रता में,
बेरोजगार रहने की आजादी के साथ
तुम स्वतन्त्र हो ।

तुम प्यार करते हो देश को
सबसे करीबी, सबसे कीमती चीज के समान ।
लेकिन एक दिन, वे उसे बेच देंगे,
उदाहरण के लिए अमेरिका को
साथ में तुम्हें भी, तुम्हारी महान आजादी समेत
सैनिक अड्डा बन जाने के लिए तुम स्वतन्त्र हो।
तुम दावा कर सकते हो कि तुम नहीं हो
महज एक औजार, एक संख्या या एक कड़ी
बल्कि एक जीता-जागते इन्सान
वे फौरन हथकड़ियाँ जड़ देंगे
तुम्हारी कलाइयों पर ।
गिरफ्तार होने, जेल जाने
या फिर फाँसी चढ़ जाने के लिए
तुम स्वतन्त्र हो ।

नहीं है तुम्हारे जीवन में लोहे, काठ
या टाट का भी परदा,
स्वतन्त्रता का वरण करने की कोई जरूरत नहींः
तुम तो हो ही स्वतन्त्र ।
मगर तारों की छाँह के नीचे
इस किस्म की स्वतन्त्रता कचोटती है ।

वर्ष- 8, अंक- 3
अप्रैल-जून, 2017 




झूठ

-येव्गेनी यव्तुशेन्को 



गलत है बच्चों से झूठ बोलना 

गलत है झूठ को सत्य सिद्ध करना 



गलत है उन्हें यह बताना कि ईश्वर है स्वर्ग में 

और दुनिया में सब ठीक-ठाक है 

आपका क्या मतलब है बच्चे सब जानते 

वे पूरे लोग हैं 

उन्हें यह बताओ मुश्किलें बेहिसाब हैं 

देखें उसको ही नहीं जो कि कल आयेगा 

देखें वे उसको भी जो कि वर्तमान है 

बताओ अस्तित्व उन्हें बाधा का 

कठिनाई और पीड़ा के आने का 

जिसका वे सामना करें

खुशियों की कीमत को जिसने नहीं जाना है 

अभागा-बेगाना है 

गलती को जब भी पहचानो माफ मत करना 

अपने को फिर भी दुहरायेगी वरना 

बढ़ती ही जायेगी 


अपने ही आदमी बाद में माफी नहीं देंगे
  
हमने जिसे था माफ कर दिया




वर्ष- 8, अंक- 2
जनवरी-मार्च, 2017

23 मार्च
अवतार सिंह ‘पाश’ का शहीदी दिवस

9 सितम्बर 1950 को क्रांतिकारी कवि पाश का जन्म पंजाब में हुआ। इनका मूल नाम अवतार सिंह संधू था। इन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से पूंजीवादी व्यवस्था द्वारा किये जाने वाले शोषण उत्पीड़न को बेनकाब किया और मजदूर-मेहनतकश के दर्द व मुक्ति के रास्ते को लिखा। पाश द्वारा अलगाववादी खालिस्तानी आंदोलन का सशक्त विरोध किया गया। 23 मार्च 1988 को पाश की हत्या इन्हीं अलगाववादियों द्वारा कर दी गयी।






घास

मैं घास हूँ
मैं आपके हर किए-धरे पर उग आऊँगा

बम फेंक दो चाहे विश्वविद्यालय पर
बना दो होस्टल को मलबे का ढेर
सुहागा फिरा दो भले ही हमारी झोपड़ियों पर

मेरा क्या करोगे
मैं तो घास हूँ हर चीज पर उग आऊँगा

बंगे को ढेर कर दो
संगरूर मिटा डालो
धूल में मिला दो लुधियाना जिला
मेरी हरियाली अपना काम करेगी
दो साल दस साल बाद
वारियाँ फिर किसी कंडक्टर से पूछेंगी
यह कौन-सी जगह है
मुझे बरनाला उतार देना
जहाँ हरे घास का जंगल है

मैं घास हूँ, मैं अपना काम करूँगा
मैं आपके हर किए-धरे पर उग आऊँगा ।



उनके शब्द लहू के होते हैं 

जिन्होंने उम्र भर तलवार का गीत गाया है
उनके शब्द लहू के होते हैं
लहू लोहे का होता है
जो मौत के किनारे जीते हैं
उनकी मौत से जिन्दगी का सफर शुरू होता है
जिनका लहू और पसीना मिट्टी में गिर जाता है
वे मिट्टी में दब कर उग आते हैं


वर्ष- 8, अंक- 1

अक्टूबर-दिसंबर, 2016 


कलम आज उनकी जय बोल

- रामधारी सिंह ‘दिनकर

               जला अस्थियां बारी-बारी                 
चिटकाई जिनमें चिंगारी,
जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर
लिए बिना गर्दन का मोल
कलम, आज उनकी जय बोल।

जो अगणित लघु दीप हमारे
तूफानों में एक किनारे,
जल-जलाकर बुझ गये किसी दिन  
मांगा नहीं स्नेह मुहं खोल
कलम, आज उनकी जय बोल।’

पीकर जिनकी लाल शिखाएं

उगल रही सौ लपट दिशाएं,

जिनके सिंहनाद से सहमी

धरती रही अभी तक डोल

कलम, आज उनकी जय बोल।



अंधा चकाचैंध का मारा

क्या जाने इतिहास बेचारा, 

साखी हैं उनकी महिमा के 

सूर्य चन्द्र भूगोल खगोल

कलम, आज उनकी जय बोल। 


एक गीत
- रामप्रसाद बिस्मिल

बला से हमको लटकाए अगर सरकार फांसी से,
लटकते आए अक्सर पैकरे-ईसार फांसी से।

लबे-दम भी न खोली जालिमों ने हथकड़ी मेरी,
तमन्ना थी कि करता मैं लिपटकर प्यार फांसी से।

खुली है मुझको लेने के लिए आगोशे आजादी, 
खुशी है, हो गया महबूब का दीदार फांसी से।

कभी ओ बेखबर तहरीके-आजादी भी रुकती है?
बढ़ा करती है उसकी तेजी-ए-रफ्तार फांसी से,

यहां तक सरफरोशाने-वतन बढ़ जाएंगे कातिल,
कि लटकाने पड़ेंगे नित मुझे दो-चार फांसी से।

साभार: कविता कोश


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