शनिवार, 25 जनवरी 2020

सुपर 30
बाजारीकरण के दौर में शिक्षा का यतीमखाना उर्फ ‘सुपर 30’


विकास बहल निर्देशित ‘सुपर 30’ फिल्म पिछले दिनों काफी चर्चा में रही। यह फिल्म आई.आई.टी. प्रवेश परीक्षा के लिए गरीब बच्चों को मुफ्त कोचिंग देने वाले आनंद कुमार के जीवन पर आधारित(बायोपिक) है। ‘सुपर 30’ इन्हीं आनंद कुमार का मुफ्त कोचिंग सेन्टर का नाम है, जिसमें वे हर साल प्रतियोगिता द्वारा चयनित 30 गरीब बच्चों को मुफ्त कोचिंग व रहने-खाने की व्यवस्था मुहैया कराते हैं। 

यह फिल्म आनंद कुमार को एक आदर्श शिक्षक के रूप में और उनके ‘सुपर 30’ कोचिंग सेन्टर को शिक्षा के व्यवसायीकरण-बाजारीकरण के खिलाफ प्रतिरोध के एक सार्थक, सराहनीय प्रयास के रूप में पेश करती है। इसी के साथ इस बात को भी स्थापित करने का प्रयास करती है कि गरीब, बेसहारा तथा समाज व शिक्षा व्यवस्था में पूरी तरह उपेक्षित छात्र भी कामयाबी की बुलंदियों को छू सकते हैं। कामयाबी से यहां तात्पर्य यह है कि इस विषमता और भयंकर गरीबी-असमानता की दुनिया में वे उस मुकाम तक पहुंच सकते हैं, जहां केवल खाते-पीते अभिजात घराने व अंग्रेजीदां पृष्ठभूमि के छात्र ही पहुंच सकते हैं। बशर्ते इन गरीब-बेसहारा-उपेक्षित बच्चों की आंखों में आगे बढ़ने, ऊपर उठने का एक सपना हो। उस सपने को पूरा करने के लिए दृढ़ संकल्प व जद्दोजहद हो और उस सपने की तामीर के लिए उन्हें आनंद कुमार और उनके ‘सुपर 30’ जैसे किसी समाजसेवी प्रयास का सहारा मिल जाये।


फिल्म आनंद कुमार को एक रियल लाइफ हीरो के रूप में पेश करती है जो गरीबी के चलते अधूरे रहे अपने जीवन के ख्वाब को मेधावी गरीब छात्रों को मुफ्त कोचिंग प्रदान कर उनकी सफलता में पूरे होता देखता है। 

आनंद कुमार के अतीत में जाते हुए फिल्म एक करिश्माई मेधावी छात्र और एक गरीब पोस्ट मैन के लड़के के रूप में उनका परिचय कराती है। हालांकि भारत जैसे भयंकर गरीबी व विषमता वाले देश में सरकारी नौकरी वाला कोई व्यक्ति गरीब की परिभाषा में फिट नहीं बैठता चाहे व पोस्ट मैन ही क्यों न हो।

यह करिश्माई छात्र विलक्षण गणितज्ञ है जो घर की दीवारों से लेकर किसी भी खाली जगह को गणित के सवालों और उनके हल से भर देता है। हर हफ्ते बनारस जाकर कैम्ब्रिज के गणित के जर्नलों में से गणित के कठिन सवालों को हल करता है। इसी क्रम में बी.एच.यू. का लाईब्रेरियन उसे बाहरी जानकर लाईब्रेरी से भगा देता है। यह विलक्षण गणितज्ञ आनंद कुमार अपनी प्रेमिका के रूप-रंग को भी गणित की भाषा में मापता है। इसी समय आनंद कुमार ने कैम्ब्रिज के जर्नल में एक गणित की पहेली का सही हल जो भेजा था, उसके आधार पर कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय उन्हें अपने यहां दाखिले के लिए बुलाता है। आनंद कुमार के पिता बहुत भागदौड़ के बाद भी कैम्ब्रिज जाने का खर्च नहीं जुगाड़ पाते हैं। इसी सिलसिले में वे एक नेता जो कि शिक्षा मंत्री भी है, से मदद के लिए मिलते हैं। इस शिक्षा मंत्री ने कभी आनंद कुमार को मैथमैटिक्स ओलंपियाड टॉप करने पर भविष्य में हर तरह की मदद करने का आश्वासन दिया था। यह मंत्री दरअसल एक कोचिंग माफिया है जो नालंदा, तक्षशिला का गौरव वापस लाने की बातें करता है। हताशा और निराशा में आनंद कुमार के पिता की मृत्यु हो जाती है। इसके बाद आनंद कुमार परिवार के भरण-पोषण के लिए पापड़ बेचना शुरू करते हैं। पापड़ बेचते हुए शिक्षा मंत्री के एक गुर्गे लल्लन सिंह, जो खुद एक कोचिंग सेन्टर चलाता है, की नजर उस पर पड़ती है। वह आनंद कुमार को अपने कोचिंग में प्रीमियम क्लास लेने के लिए रख लेता है। 

इसके बाद चकाचौंध और एय्याशी की जिंदगी में आनंद कुमार कुछ समय के लिए रम जाते हैं। सहसा उनकी मुलाकात पान के खोके पर छोटू का काम करने वाले एक छात्र से होती है जो काम से थोड़ा फुरसत पाते ही रात में लैंप पोस्ट के नीचे गणित के सवाल हल करता है। यहां से आनंद कुमार के जीवन में एक निर्णायक परिवर्तन आता है और वह होनहार गरीब बच्चों के लिए मुफ्त कोचिंग देने का संकल्प लेते हैं। उनके इस फैसले पर उनकी बचपन की प्रेमिका भी उनसे किनारा कर लेती है। वह  एक उजाड़ खंडहर जैसी बिल्डिंग में अपनी संचित राशि से एक कोचिंग शुरू करते हैं। वह एक साल में प्रतियोगिता के माध्यम से केवल 30 बच्चों का चयन करते हैं और फिर बच्चों के खाने-पीने से लेकर रहने और पढ़ने का खुद इंतजाम करते हैं। इस क्रम में ट्यूशन माफिया लल्लन सिंह व शिक्षा मंत्री से उनका टकराव होता है। उन पर जानलेवा हमला होता है। अस्पताल में भी उन पर हमला होता है, जिसे उनके छात्र अपनी गणितीय प्रतिभा व वैज्ञानिक सूझबूझ से नाटकीय अंदाज में विफल कर देते हैं। 

अंततः आई.आई.टी. प्रवेश परीक्षा का जब परिणाम आता है, जिसमें आनंद कुमार के सभी बच्चे सफल होते हैं और उनका एक स्वप्न पूरा होता है। 

फिल्म में देश-दुनिया से मिले तमाम प्रशस्ति पत्रों, ओबामा द्वारा दुनिया के सबसे बेहतरीन स्कूल जैसे खिताबों के माध्यम से आनंद कुमार और उनके इस ‘सुपर 30’ मॉडल का प्रशस्ति गान किया गया है। 

कुल मिलाकर यह फिल्म शिक्षा के व्यवसायीकरण की बात करते हुए उसका मुकाबला निजी उद्यम, व्यक्तिगत प्रतिभा व दृढ़ संकल्प से करने का संदेश देती है। फिल्म में आनंद कुमार के ‘सुपर 30’ स्कूल के बच्चों के लिए खर्च या आमदनी का स्रोत नहीं बताया गया है। जबकि आनंद कुमार ‘सुपर 30’ से अलग ‘रामानुजन स्कूल आफ मैथेमैटिक्स’ भी चलाते हैं, जिसमें अच्छी-खासी फीस है और उसमें लगभग 500 बच्चों को कोचिंग दी जाती है। इस कोचिंग से अर्जित मुनाफे के एक अंश से ‘सुपर 30’ का खर्च निकलता है। 

इस फिल्म के रिलीज होने से पहले इसकी प्रचार माध्यमों में काफी तारीफ होने लगी थी। ‘सुपर 30’ के पुण्य प्रताप का प्रशस्ति गान करते हुए प्रचार माध्यमों ने इसे शिक्षा के बाजारीकरण व व्यवसायीकरण के खिलाफ एक मॉडल के रूप में प्रस्तुत किया। 

अब बात करें कि क्या यह फिल्म शिक्षा के व्यवसायीकरण या बाजारीकरण के खिलाफ वास्तव में किसी सरोकार से प्रेरित है? क्या शिक्षा के किन्हीं उदात्त उद्देश्यों से इस फिल्म का कोई लेना-देना है? और आखिर में यह फिल्म किस चीज को स्थापित करती है?

जहां तक इस फिल्म में शिक्षा के व्यवसायीकरण की बात है तो यह फिल्म शिक्षा के व्यवसायीकरण को केवल प्राइवेट कोचिंग सेन्टरों तक ही सीमित करके देखती है। व्यापक शिक्षा जगत के व्यवसायीकरण को फिल्म नजरअंदाज करती है। फिल्म शिक्षा के व्यवसायीकरण की बेहद संकीर्ण व सीमित अर्थों में (प्राइवेट कोचिंग सेन्टरों की बाढ़) चर्चा करते हुए भी शिक्षा के व्यवसायीकरण को किसी सामाजिक-राजनीतिक परिघटना का हिस्सा या प्रतिफल नहीं मानती। निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों का शिक्षा जगत पर प्रभाव के रूप में व्यवसायीकरण की कहीं चर्चा नहीं है। इसके विपरीत कोचिंग सेन्टरों व ट्यूशन माफियाओं के पैदा होने की परिघटना को फिल्म व्यक्तिगत लालच, स्वार्थ व ‘नैतिक मूल्यों’ के पतन से जोड़कर उसका एक आदर्शवादी समाधान पेश करती है जो कि व्यक्तिगत उद्यमीयता का ‘सुपर 30’ का उपक्रम है। मजे की बात यह है कि शिक्षा के व्यवसायीकरण के खिलाफ ‘सुपर 30’ के मॉडल से निकले लोग उसी साम्राज्यवादी वैश्वीकरण व निजीकरण की नीतियों की सेवा करते हैं, जिसने शिक्षा को पूरी तरह उपभोक्ता माल बना दिया है। इसका मिशन है शिक्षा के ‘निजीकरण’ का निजी उद्यमों द्वारा जवाब देकर वैश्विक पूंजीवाद की सेवा। ‘विह्टा टू बेल्जियम’  या ‘आरा टू अमेरिका’ ही ‘सुपर 30’ मॉडल का मिशन है। 

‘सुपर 30’ में कही भी शिक्षा को सार्वभौम तौर पर सबको निशुल्क प्रदान करने की बात नहीं है और न ही शिक्षा के सामाजिक सरोकार की बात है। यह फिल्म सबको निशुल्क शिक्षा देने की बजाय गरीबों के कुछ गिनती के होनहार बच्चों को खास तरह से शिक्षित कर उनकी प्रतिभा को व्यवस्था की सेवा में नियोजित कर उनके सामाजिक उत्थान की बात करती है। यानी कुल मिलाकर उन्हें इस पूंजीवादी व्यवस्था के बेहतर कलपुर्जों में रूपांतरित करने को ही फिल्म में सफलता का पर्याय बताया गया है। वैसे यह कोई नई बात नहीं है। विपन्न व गरीबों के महासागर के बीच से कुछ गिने-चुने प्रतिभावान लोगों को आगे बढ़ाकर शासक वर्गीय पातों में शामिल करके अपने आधार का विस्तार करने का काम शासक वर्ग पहले से करता रहा है। तमाम भौतिक प्रोत्साहन व नवोदय विद्यालय जैसी परियोजनायें वंचितों-शोषितों के बीच से चुनिंदा तत्वों का व्यवस्था में आत्मसातीकरण के उपक्रम रहे हैं। भारत से लेकर अमेरिका तक में शोषितों-वंचितों के बीच से चुनिंदा तत्वों का व्यवस्था में आत्मसातीकरण कर व्यवस्था के आधार का विस्तार करने तथा उसे वंचितों-शोषितों के किसी संभावित कोप से बचाने की यह नीति पूंजीवादी सरकारें अमल में लाती हैं। व्यापक मेहनतकश आबादी को ज्ञान व शिक्षा के बेहतर अवसरों से महरूम रखते हुए तथा शिक्षा व्यवस्था के बाजारीकरण को आगे बढ़ाते हुए भी शासक वर्ग के लिए वंचितों-शोषितों के बीच से चुनिंदा तत्वों का व्यवस्था में आत्मसातीकरण एक फायदे का सौदा है। गरीबों के बीच से ‘सफल’ और व्यवस्था में ऊंची जगह बनाने वाले लोग वस्तुतः शासकवर्ग के एजेण्ट ही साबित होते हैं। 

गरीब व निम्न वर्गों के लोगों का सामाजिक सोपानक्रम ऊपरी संस्तरों में प्रवेश पाने का जो सीमित अवसर शासक वर्ग अपनी आत्मसातीकरण की नीति के चलते देता है उसमें व्यवसायिक शिक्षा व सरकारी नौकरी का बड़ा योगदान है। आई.आई.टी. का इसमें विशेष महत्व है क्योंकि इसके जरिये देशी के साथ वैश्विक पूंजीवादी व्यवस्था की सेवा करने तथा छलांग लगाकर सामाजिक सोपानक्रम में ऊपर उठने की बहुत संभावनाएं होती हैं। इसलिए आई.आई.टी. निम्न मध्य व मध्यम वर्ग के छात्रों के लिए एक सुखद स्वप्न बन जाता है। 

बहरहाल जो शासक वर्ग का व्यवस्था के हित में नीतिगत उपक्रम था वह किसी के लिए आदर्श उद्यम बन जाये तो शासक वर्ग के लिए इससे खुशी की क्या बात हो सकती है। यही कारण है कि देशी-विदेशी शासक वर्गों द्वारा आनंद कुमार के ‘सुपर 30’ का प्रशस्तिगान किया जाता है। 

आनंद कुमार और उनके ‘सुपर 30’ को एक आदर्श के रूप में स्थापित करना पूंजीपति वर्ग के लिए कितना मुफीद है इसका अंदाजा इसी से लग जाता है कि इसके निर्माताओं में नाडियाडवाला ग्रैंडसन एंटरटेनमेन्ट व फैंटम फिल्म के साथ रिलायंस एंटरटेनमेन्ट भी है। रिलायंस एंटरटेनमेन्ट उन्हीं अंबानी समूह का उपक्रम है जिसे शिक्षा के बाजारीकरण के लिए अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के दौर में गठित कुख्यात ‘अंबानी बिड़ला आयोग’ के लिए भी जाना जाता है। अंबानी-बिड़ला आयोग ने शिक्षा के क्षेत्र में बड़े बाजार की संभावना को चिन्हित करते हुए उच्च शिक्षा के निजीकरण की वकालत की थी। 

कुल मिलाकर गरीब-वंचितों को निजी उद्यम, निजी आकांक्षा, प्रतिस्पर्धा व निजी जीवन की सफलता का दिवास्वप्न दिखाना ही ‘सुपर 30’ की विषय वस्तु है। आनंद कुमार के ‘सुपर 30’ और उसके जरिये शिक्षा का भी यही उद्देश्य स्थापित किया गया है। 

‘सुपर 30’ के व्यक्तिगत सफलता व व्यक्तिगत उन्नति के पूंजीवादी मंत्र के विपरीत मजदूर-मेहनतकश समुदाय के लिए शिक्षा का क्या उददेश्य हो सकता है; इसे समाजवादी रूस के शिक्षा कमिसार अनातोली लुनाचार्स्की ने ‘शिक्षा का ध्येय’ पुस्तक में निम्न शब्दों में व्यक्त किया है-

‘‘हम एक ऐसे मनुष्य को शिक्षित करना चाहते हैं जो हमारे समय का सामुहिकतावादी होगा, जो व्यक्तिगत हितों के बजाय सामाजिक जीवन के सहारे भी रहता रहेगा। नया नागरिक समाजवादी निर्माण के राजनीतिक तथा आर्थिक संबंधों की सहानुभूति से ओत-प्रोत होना चाहिए........

‘‘.....आदमी को ‘हम’ की दृष्टि से सोचना चाहिए। उसे इस हम का एक जीवंत, उपयोगी और सुसंगत अंग बनना चाहिए। उसे अपने सभी व्यक्तिगत स्वार्थों को दरकिनार कर देना चाहिए। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि हम मानव की स्वाभाविक इच्छाओं, अपनी आवश्यकता पूरी करने की इच्छाओं, व्यक्तिगत सहज प्रवृतियों को नष्ट करना चाहते हैं। हम तो सिर्फ यही कहते हैं कि सामुहिक जीवन के तकाजों को वरीयता दी जानी चाहिए।’’                                   (वर्ष- 10 अंक-4 जुलाई-सितम्बर, 2019)

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