-सम्पादकीय
मौजूदा समाज व्यवस्था पूंजीवादी है। उसी अनुरूप मौजूदा शिक्षा व्यवस्था भी पूंजीवादी है। यह मुनाफाखोर पूंजीवादी व्यवस्था को स्थायित्व प्रदान करने का साधन है। यह समाज में शोषण-उत्पीड़त-गैर बराबरी को बनाये रखने में मददगार है। इस प्रकार मौजूदा शिक्षा व्यवस्था साररूप में मेहनतकशों के लिए शोषक-उत्पीड़क है। मेहनतकशों के लिए इस शिक्षण प्रक्रिया का उत्पीड़नकारी चरित्र सबसे ज्यादा इसकी परीक्षा प्रणाली में उभरकर सामने आता है।
मौजूदा शिक्षा व्यवस्था के अनुरूप इसकी परीक्षा प्रणाली भी पूरी तरह व्यवहार से कटी हुई है। नाम के लिए प्रयोगशालाएं और प्रयोगात्मक परीक्षाएं होती हैं किन्तु उनका हाल क्या है यह हम सभी अच्छे से जानते हैं। साल भर कुछ जानकारियों और सूत्रों को अनुपयोगी ढंग से रटते रहना और अंत में परीक्षा की काॅपी में उतार देना, यही इस शिक्षा व्यवस्था में योग्यता का पैमाना है। जो छात्र इस काम को जितने बेहतर ढंग से कर पाते हैं वही सफल माने जाते हैं। भले ही अपनी जानकारियों का एक भी व्यावहारिक इस्तेमाल करने में वे कितने ही अक्षम क्यों न हों।
इस वर्ष पर्यन्त रटंट शिक्षा व्यवस्था और एकांगी परीक्षा प्रणाली में मेहनतकश पृष्ठभूमि के छात्र-छात्राओं की जीवनदशाओं का कोई ख्याल नहीं रखा जाता है। यह उन छात्र-छात्राओं की नहीं सोचती जो प्रतिदिन कई घंटे स्वतंत्र तौर पर अथवा पारिवारिक रोजगार में लगातार अपने परिवार की आजीविका में सहयोग करते हैं। यह उन लड़कियों की नहीं सोचती जिनके कई घंटे दैनिक घरेलू कामकाज में निकल जाते हैं और पढ़ने के लिए समय ही बहुत कम निकलता है। इन गरीब परिवारों के बच्चों की स्कूल-कालेजों में कितनी पढ़ाई होती है और वह परीक्षाओं के लिए कितनी कारगर है इसकी सच्चाई हम सभी जानते हैं। किंतु आखिर में जिंदगी भर के लिए एक परीक्षा परिणाम थमा दिया जाता है। जो हमारे जीवन और हमारे शैक्षिक हालात के बारे में कुछ नहीं बताता बस सिरे से हमारी ‘अयोग्यता’ की घोषणा कर देता है। और व्यक्तिगत तौर पर हमें इस सब के लिए जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है। हमारे शिक्षक, हमारे स्कूल-कालेज, शिक्षा विभाग, विभिन्न सरकारें, सम्पूर्ण शिक्षा व्यवस्था हमारी गरीबी और इसे पैदा करने वाली पूंजीवादी व्यवस्था आदि सभी हमारी इस ‘अयोग्यता’ के अपराध के लिए दोषमुक्त घोषित कर दिये जाते हैं।
स्कूली परीक्षाओं से लेकर काॅलेज परीक्षाओं तक का मुख्य काम पूंजीवादी व्यवस्था के लिए मेहनतकश बच्चों को छांटने का है। यह विभिन्न स्तरों पर छंटनी का एक साधन है। आधे गरीब बच्चे तो अपनी गरीबी के कारण ही नहीं पढ़ पाते हैं। उनकी छंटनी तो उनके आर्थिक हालात कर देते हैं। बाकियों की छंटनी स्कूली शिक्षा के दौरान हर स्तर पर होने वाली परीक्षाएं कर देती हैं। केवल 10 प्रतिशत ही उच्च शिक्षा तक पहुंच पाते हैं। इनमें मेहनतकश गरीब परिवारों के छात्र-छात्राएं अल्प मात्रा में होते हैं। इसमें से भी अधिकांश सामान्य बी.ए., एम.ए. जैसे पाठ्यक्रमों में, कस्बे व छोटे शहरों के महाविद्यालयों में पहुंच पाते हैं धन, समय, संसाधनों की कमी व एक साथ बैठने की प्रतियोगी परीक्षाओं के कारण व्यावसायिक पाठ्यक्रमों व प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों में उनकी मौजूदगी न के बराबर बन पाती है। इस प्रकार बेहद कारगर ढंग से यह शिक्षा व्यवस्था व उसकी परीक्षा प्रणाली मेहनतकशों की छंटनी कर देती है। पूंजीवादी व्यवस्था के लिए आवश्यक गैर बराबरी कायम रहती है। मजदूरों व गरीब किसानों के बच्चे अपने भाग्य को कोसते हुए फैक्टरियों व खेतों में अपनी श्रम शक्ति को सस्ते में बेचने के लिए पूंजीपतियों को उपलबध होते रहते हैं।
मेहनतकशों के लिए रचे इस षड्यंत्र का खामियाजा अपनी बारी में पूंजीपति वर्ग के संस्तरों को भी उठाना पड़ता है। गरीब मजदूरों-किसानों के बच्चे तो असफलता को अपना दुर्भाग्य मानकर स्वीकार कर लेते हैं। किंतु मध्यम-उच्च मध्यम वर्ग के बच्चे भी परीक्षाओं के संताप से गुजरने को अभिशप्त हैं। हर वर्ष ऐसे परिवारों के बहुत से बच्चे स्कूली व प्रतियोगी परीक्षाओं में असफल होने पर आत्महत्या जैसे कदम उठा लेते हैं। परीक्षाओं का यह मानसिक संत्रास को देख सरकारें व उसके बुद्धिजीवी विभिन्न शैक्षिक सुधारों की ओर बढ़ते हैं। नीम-हकीमी सुधार किये जाते हैं, किंतु पूंजीवादी व्यवस्था को बदले बिना उसके प्रभावों से क्यों कर मुक्ति मिलेगी।
आखिर पूंजीवाद एक सर्वग्राही व्यवस्था है। वह जितना ज्यादा मेहनतकश विरोधी होती जाती है उतना ही अधिक स्वयं संकटग्रस्त बनती जाती है। यह बात पूंजीवादी व्यवस्था के साथ-साथ उसके सभी अंगों-उपांगों के लिए सच है। मौजूदा शिक्षा व्यवस्था व उसकी परीक्षा प्रणाली पूंजीवादी व्यवस्था का एक अंग ही है। बच्चों का बड़े पैमाने पर फेल होना, परीक्षाओं के कारण अवसादों का शिकार होना शिक्षा व्यवस्था के उत्पीड़क चरित्र व उसकी संकटग्रस्तता को ही दिखाता है। पूंजीवादी व्यवस्था की शिक्षा प्रणाली से इससे इतर कोई उम्मीद भी नहीं की जा सकती है।
सवाल उठता है कि हम ऐसी पूंजीवादी शिक्षा और उसकी परीक्षा प्रणाली का क्या करें? यह सवाल एक व्यक्ति के बतौर हमारी भूमिका के साथ-साथ सभी मेहनतकशों के समक्ष है।
इस सवाल का जवाब एक विद्यार्थी के तौर पर यह हो सकता है कि हम पूरे आलोचक होकर जो भी जैसी भी शिक्षा दी जा रही है उसे ग्रहण करें और साबित करें कि हम अपने जीवन की बुरी परिस्थितियों के बावजूद सफल हो सकते हैं। जैसे कि अतीत में शहीद भगत सिंह अथवा रूस के प्रसिद्ध महान क्रांतिकारी लेनिन थे। लेनिन भगत सिंह के भी आदर्श थे। इस सड़ी-गली पंूजीवादी व्यवस्था को उसकी शिक्षा प्रणाली के साथ ठीक ढंग से समझना होगा ताकि हम इसे भविष्य में नष्ट कर एक ऐसी समाज व शिक्षा व्यवस्था की नींव डाल सेकें जो मजदूर-मेहनतकशों की सेवा करे।
असल में सम्पूर्ण मानवीय ज्ञान के तीन स्रोत्र: उत्पादन, वर्ग संघर्ष और वैज्ञानिक प्रयोग हैं। पूंजीवादी व्यवस्था में मजदूर-मेहनतकश उत्पादन के कार्यों में तो लगे होते हैं। परंतु उन्हें पूंजीवादी व्यवस्था उत्पादन के सम्बंध में हासिल की गयी उपलब्धियां और उसके विज्ञान को समझने और उसे विकसित करने का अवसर नहीं देती है। इसी तरह वैज्ञानिक प्रयोगों में अपनी गरीबी, अशिक्षा और अवसरों के अभाव के कारण उनका योगदान कुछ नहीं होता। समाज में पूंजीपति वर्ग के प्रभुत्व के खिलाफ लड़ने के दौरन ही मजदूर-मेहनतकश और उनकी संतानें हम विद्यार्थी उस ज्ञान को सीखते हैं जो हमें वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था को ठीक से समझने और बदल कर मजदूर-मेहनतकशों के समाज व्यवस्था की स्थापना की प्रेरणा देता है। भगत सिंह की तरह अपने विचारों पर दृढ़ रहने और लगातार कार्य करने की परीक्षा काल कोठरी और फांसी के फंदे के जरिये तक देनी पड़ सकती है।
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