बुधवार, 5 अगस्त 2015

एक अध्यापक ऐसा भीः‘मास्टर दा’ सूर्यसेन

-राजेन्द्र
        भारत के पूर्व राष्ट्रपति व शिक्षक डा0 सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म दिन प्रत्येक वर्ष 5 सितंबर को हमारे देश में ‘शिक्षक दिवस’ के रूप में सभी शिक्षण संस्थानों में मनाया जाता है। सभी इस अवसर पर शिक्षकों की महानता का गुणगान करते हैं। साथ ही सभी विद्यार्थियों को भी शिक्षकों का पदानुसरण करने को प्रोत्साहित करते हैं। भारत में शिक्षकों को सम्मान से देखा जाता था जिसका कारण उनका त्याग, विद्यार्थियों के प्रति प्रेम तथा सामाजिक कार्याें में उनका समर्पण था। आज यह दीगर बात है कि शिक्षकों को प्राप्त सम्मान में कुछ कमी सी आ गयी है। पूंजीवादी विकास ने अध्यापक व छात्रों के सम्बन्धों को भी गहरे से प्रभावित किया है।
   शिक्षकों को पुनः वह सम्मान तभी प्राप्त हो सकता है जब वे विद्यार्थियों से प्रेमपूर्ण सम्बन्ध बनायें, समाज से जुड़े तथा किताबों व बंद कक्षाओं की घुटन भरी जिन्दगी से निकलकर विद्यार्थियों के जीवन का हिस्सा बनें। साथ ही समाज में व्याप्त बुराईयों के प्रति उन्हें सचेत कर समाज विकास हेतु उन्हें प्रेरित भी करें। हमारे इतिहास में ऐसे कई शिक्षक रहे हैं जिन्होनें किताबों-कमरों की हदों को न सिर्फ तोड़ा है, बल्कि अपने विद्यार्थियों के साथ कदम से कदम मिलाकर इस समाज की सूरत बदलने की हिम्मत दिखाते हुए अपने जीवन तक को समाप्त कर दिया।
ऐसा ही एक नाम है सूर्यसेन। पेशे से अध्यापक होते हुए सूर्यसेन ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान चटगांव विद्रोह का नेतृत्व करते हुए कुछ समय के लिए ही सही चटगांव से अंग्रेजी हुकूमत की ‘काली रात’ का ‘भोर के सूरज’ की तरह अंत कर दिया। 
        सूर्यसेन का जन्म 12 जनवरी 1894 में कलकत्ता के चटगांव के नाओपारा में हुआ था। इनके पिता रामनिरंजन एक अध्यापक थे। 1916 में इण्टरमीडिएट की पढ़ाई के दौरान अपने एक अध्यापक के क्रांतिकारी विचारों से प्रेरित होकर सूर्यसेन बंगाल के एक प्रमुख क्रांतिकारी संगठन अनुशीलन समिति मेें शामिल हो गये। उस समय इनकी आयु 22 वर्ष थी। बाद में सूर्यसेन बीए की पढ़ाई हेतु बहरामपुर चले गये। यहां से एक अन्य क्रांतिकारी संगठन युगान्तर के संपर्क में आये। 
  उस समय समूचा देश ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के बूूटों तले कुचला जा रहा था। युवा जगत में इसे लेकर काफी हलचल थी। सूर्यसेन का युवा मन भी ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ नफरत से भर गया। 1918 में अपने गांव चटगांव वापस आकर सूर्यसेन युवाओं को ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ एकजुट करने में लग गये। इन्हीं प्रयासों के दौरान सूर्यसेन नन्दन कानन में सरकारी विद्यालय के अध्यापक नियुक्त हो गये। यहीं से उन्हें जनता व उनके विद्यार्थियों ने नया नाम ‘मास्टर दा’ से संबोधित करना शुरू किया। 
  सन 1918 में ही चटगांव में एक क्रांतिकारी दल का गठन किया गया जिसकी केन्द्रीय कमेटी में पांच सदस्य सूर्यसेन(मास्टर दा), नेशनल हाईस्कूल के सीनियर ग्रेजुएट अनुरूप सेन, बुडुल हाईस्कूल के प्रधान शिक्षक नगेन सेन(जुलू सेन), बंगाल रेजिमेन्ट के सूबेदार अंबिका चक्रवर्ती, चारु विकास दत्त थे।  इस कमेटी के अधीन ऐसे ही छः अन्य लोग भी प्रथम पंक्ति के कार्यकर्ता थे। 
  सूर्यसेन निरंतर अपने विद्यार्थियों-युवाओं में ब्रिटिश शोषण के खिलाफ तथा अपने देश की स्थिति पर बातचीत करते। इससे समूचे चटगांव के नौजवान विद्यार्थी ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आक्रोश से भर गये। यही हाल समूचे देश में था। चूंकि असहयोग असफल हो चुका था तथा क्रांतिकारी विचारधारा अपने यौवन पर थी। इस कारण मास्टर दा व उनके साथियों ने सशस्त्र संघर्ष का रास्ता चुना। 1919-23 के दौरान मास्टर दा के इस क्रांतिकारी दल को अब हथियारों के लिए धन की आवश्यकता थी। चटगांव के क्रांतिकारियों ने एक मीटिंग कर यह तय किया कि किसी परिवार पर डाका डालने के बजाय A.B रेलवे के खजाने को लूट लिया जाय। इसके लिए 18 सितंबर 1923 का दिन चुना गया। योजना बनायी गयी जिसमें निर्मल सेन, खोखा, राजेन सेन, अवनी भट्टाचार्य(उपेन दा) और अनन्त सिंह को दो दलों में बंटकर रेलवे की लूट को अंजाम देना था।
        18 सितंबर की सुबह लगभग 945 मिनट पर ये लोग दो हिस्सों में बंटकर गाडी का इंतजार करने लगे। लगभग 10 बजे एक घोड़ा गाड़ी पहाड़ी ढलान वाली सड़क पर आती दिखाई दी। यही वह गाड़ी थी जिसे लूटा जाना था। दो साथी रिवाल्वर तानकर सड़क के बीचों बीच खड़े हो गये। गाड़ी के कोचवान ने गाड़ी और तेज करनी चाही परंतु किसी ने घोड़ों की लगाम खींचकर घोड़ों को रुका दिया। गाड़ी मंद पड़ गयी। दो अन्य साथी गाड़ी के कोचवान पर रिवाल्वर ताने खड़े हो गये। सभी सैनिकों को नीचे उतारकर सारे साथी गाड़ी पर चढ़कर तेजी से गाड़ी दौड़ाने लगे। रेलवे का खजाना लूटा जा चुका था। निर्धारित पड़ाव पर पहुंचकर रुपये गिने गये। कुल सत्रह हजार रुपये। हांलाकि मास्टर दा इस लूट काण्ड में सीधे शामिल नहीं थे परंतु उनकी प्रेरणा के बिना यह संभव भी नहीं हो पाता। पुलिस चैकन्नी हो चुकी थी। सभी तरफ लुटेरों की तलाश की जा रही थी। इसे देखते हुए यह तय किया गया कि अंबिका चक्रवर्ती हथियार खरीदने कलकत्ता जायेंगे परंतु तब तक रुपयों को कहीं छिपा दिया जाय। 
  लूट की घटना के 10 दिन बाद सुबह आठ बजे मास्टर दा व अंबिका दा सुलकबहार भवन में अन्य साथियों से मिले तय किया गया कि कुछ समय के लिए हेड क्वार्टर को बंद कर दिये जायें। सभी हथियार कहीं छिपा दिये जायें। मीटिंग के दौरान ही पांचालाइस थाने के इंचार्ज ने पुलिस बल के साथ मकान को घेर लिया। मास्टर दा व अंबिका दा को गिरफ्तार कर लिया गया। अन्य साथी हथियारों के साथ किसी प्रकार बच निकलने में सफल हो गये और कलकत्ता पहुंच गये। उसी सप्ताह एक अन्य साथी अनन्त सिंह को भी पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। तीनों पर रेलवे डकैती का मुकदमा चलाया गया परंतु किसी गवाह के न होने के कारण दोष साबित न हो सका और तीनों ही साथी रिहा हो गये।
  मास्टर दा पुनः चटगांव मेें नौजवान युवकों को प्रेरित कर सशस्त्र क्रांति दल के संगठन में जुट गये। मई 1929 मेें संगठन की केन्द्रीय काउंसिल की बैठक हुयी जिसमें यह तय किया गया कि भविष्य में यह संगठन चटगांव के इण्डियन रिपब्लिकन आर्मी के नाम से जाना जायेगा। चटगांव की आर्मी की शाखा ने सर्वसम्मति से मास्टर दा को अपना अध्यक्ष चुना। यह बैठक लगभग पांच घंटे चली। इसमें तय किया गया कि 18 अप्रैल 1930 के दिन शहर पर कब्जा कर लिया जाय। चूंकि यह दिन आयरलैण्ड के स्वतंत्रता संग्राम में ईस्टर विद्रोह का भी दिन था। इसके लिए निम्न प्रकार कार्यक्रम घोषित किया गया।
        शस्त्रागार पर कब्जा कर हथियार जुटाये जायेंगे। 
       रेलवे की संपर्क व्यवस्था तथा अभ्यांतरित टेलीफोन, टेलीग्राफ की    लाइनों को ध्वस्त किया जायेगा।
बंदूकों-हथियारों की दुकानों पर कब्जा किया जायेगा।
शहर पर कब्जा कर लड़ाई के मोर्चे बनाये जायेंगे तथा अस्थाई सरकार की स्थापना की जायेगी। 
बुनियादी संकल्प-
डकैती नहीं की जायेगी, अपनी क्षमता से धन एकत्र कर बारूद और बम तैयार किये जायेंगे। 
व्यक्तिगत हत्या के स्थान पर संगठित रूप से हमला व विद्रोह किया जायेगा। 
  योजना को अमली जामा पहनाने के लिए हथियार जरूरी थे। इस हेतु हथियार खरीदे गये। जिसमें एक मुस्लिम जहाजी याकूब की मदद ली गयी। चटगांव में दो इलाके प्रमुखतः थे। पहला- असम बंगाल रेलवे बटालियन (एबीआरबी) हेडक्वार्टर तथा दूसरा- पुलिस लाइन हेडक्वार्टर। इसके अलावा शहर में इम्पीरियल बैंक, जेल, कोतवाली तथा एक बन्दूक की दुकान भी थी। इन सभी पर एक साथ कब्जा किया जाना था। 
  हमले की तैयारी का एक खास काम बम बनाना अभी बाकी था। खाली खोलों में बारूद भरा जा रहा था। इस दौरान विस्फोट हो गया जिसमें तारकेश्वर, अर्दधेन्दु बुरी तरह घायल हो गये। इससे पुलिस की तत्परता बढ़ गयी। पुलिस सघन तलाशियां लेने लगी। हमले में मात्र दो सप्ताह ही शेष बचे थे। इस लिहाज से कोतवाली, पुलिस चैकी, डीआईबी, इंस्पेक्टर व सब इंस्पेक्टर के घरों पर नजर रखने हेतु कुछ सदस्य कार्यकर्ताओं की तैनाती भी की गयी। 
  अब वह दिन आ चुका था जिसका सभी क्रांतिकारियों को इंतजार था। 18 अप्रैल 1930 की रात आठ बजे सभी युवा क्रांतिकारियों ने सैनिक भेष में दो दल बनाये। एक गणेश घोष तथा दूसरा लोकनाथ वट के नेतृत्व में। दोनों दलों को क्रमशः पुलिस शस्त्रागार तथा चटगांव के सहायक सैनिक शस्त्रागार पर कब्जा करना था। 
  भारत को साम्राज्यवादी दासता से मुक्त कराने की चाहत लिए युवा क्रांतिकारियों ने रेलवे सम्पर्क मार्ग अवरुद्ध कर दिये। साथ ही टेलीफोन व टेलीग्राफ की लाइनों को भी ध्वस्त कर दिया गया। दोनों टोलियों ने एक-एक कर दोनों शस्त्रागारों पर कब्जा कर लिया। बैंक, बन्दूकों की दुकान, कोतवाली सभी को क्रांतिकारियों ने अपने कब्जे में ले लिया। इस अचानक हुई कार्यवाही ने पुलिस को भौंचक्का सा कर दिया था। चटगांव इंडियन रिपब्लिकन आर्मी के कब्जे में था। अंग्रेजी शासन के चाकर दुम दबाकर भाग खड़े हुए। कब्जे के बाद क्रांतिकारियों का दल पुलिस शस्त्रागार पर एकत्र हुआ जहां मास्टर दा ने अपनी सेना की सलामी ली, राष्ट्रध्वज फहराया तथा अस्थाई सरकार की घोषणा कर चटगांव से अंग्रेजी शासन के खात्मे की भी घोषणा कर दी गयी। 
  इस घटना ने पूरे बंगाल के साथ देश के अन्य हिस्सों में भी स्वतंत्रता संग्राम को बल दिया। पंजाब में हरिकिशन नामक व्यक्ति ने पंजाब के गर्वनर की हत्या कर दी। दिसंबर 1930 में ही विनय बोस, बादल गुप्ता व दिनेश गुप्ता ने कलकत्ता की राइटर्स बिल्डिंग में प्रवेश कर क्रांतिकारियों पर जुल्म ढाने वाले पुलिस अधीक्षक को मौत की नींद सुला दिया। आईआरए की इस क्रांतिकारी कार्यवाही में दो युवतियों प्रीतिलता वाडेकर तथा कल्पना दत्त ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
  इस घटना ने ब्रिटिश हुकूमत को हिलाकर रख दिया। शासक तिलमिला उठे। इस बात को सूर्यसेन जानते थे कि शीघ्र ही पुलिस जवाबी कार्यवाही करेगी। खुफिया पुलिस सक्रिय हो गयी थी। सुरक्षा के उद्देश्य से क्रांतिकारी नगर के करीब ही पहाड़ियों पर शरण लिए हुए थे। 22 अप्रैल 1930 को सैकड़ों पुलिसकर्मियों ने जलालाबाद व उसके आस-पास की पहाड़ियों को घेर लिया। मुठभेड़ में 80 से अधिक ब्रिटिश सैनिक मारे गये थे तथा 12 क्रांतिकारी शहीद हो गये। मास्टर दा किसी प्रकार अपने साथियों के साथ कलकत्ता पहुंचने में सफल रहे। पुलिस ने मास्टर दा पर 10,000 रु. का इनाम भी घोषित किया। अंग्रेजी फौज से घिरने पर प्रीतिलता ने जहर खाकर मृत्यु को गले लगाया, जबकि कल्पना दत्त को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गयी। 1930-32 के दौरान आईआरए ने 22 से अधिक पुलिस अधिकारियों की हत्या की। 
  मास्टर दा के कई साथी पकड़े गये। मास्टर दा स्वयं भेष बदलकर पुलिस को चकमा देते रहे। परंतु उन्हीं के एक साथी नेत्रसेन ने लालच में आकर पुलिस को उनकी सूचना दे दी। पुलिस ने 16 फरवरी 1933 को मास्टर दा तथा तारकेश्वर को गिरफ्तार कर लिया। दोनों पर मुकदमा चलाया गया। पुलिस हिरासत में मास्टर दा को अमानवीय यातनाएं दी गयीं तथा 12 जनवरी 1934 को मास्टर दा व तारकेश्वर को फांसी पर लटका दिया गया। 
  पुलिस ने मास्टर दा के शरीर को एक बक्से में बंद कर बंगाल की खाड़ी में फिंकवा दिया। 11 जनवरी को मास्टर दा ने अपना अंतिम पत्र अपने एक मित्र के लिए लिखा। उन्होंने लिखा था- ‘‘मृत्यु मेरा द्वार खटखटा रही है। यह वह पल है जब मैं मृत्यु को अपने परम मित्र के रूप में अंगीकार करूं। इस सौभाग्यशील व निर्णायक पल में मैं तुम सब के लिए एक चीज छोड़कर जा रहा हूं! मेरा स्वप्न, मेरा सुनहरा स्वप्न, स्वतंत्र भारत का स्वप्न! मित्रों आगे बढ़ो! कदम पीछे मत खींचना। सफलता अवश्य मिलेगी।’’
  भारत की आजादी का सपना देखते हुए मास्टर दा सूर्यसेन ने फांसी के फन्दे को गले लगा लिया। एक अध्यापक अपने जीवन का सबसे मूल्यवान कार्य कर चुका था। मास्टर दा ने पूरी एक पीढ़ी को साम्राज्यवाद के प्रति नफरत तथा देश के प्रति प्रेम व समर्पण का पाठ पढ़ाया। सूर्यसेन का जीवन आज भी भारतीय छात्रों-नौजवानों को सामाजिक व राजनैतिक दायित्वों के निर्वहन की प्रेरणा देता है। वह शोषण से नफरत व साथियों से सहयोग सिखाता है। आज पूंजीवादी युग में सूर्यसेन और भी अधिक प्रासंगिक हैं जितना कि वे अपने समय में थे। छात्रों-नौजवानों को ही नहीं आज अध्यापकों को भी सूर्यसेन से प्रेरणा लेने की आवश्यकता है ताकि वे पढ़ाई से इतर समाज में मौजूद समस्याओं को हल करने का प्रयास भी करें। तथा अपने विद्यार्थियों में बेहतर समाज के निर्माण का माद्दा भी पैदा कर सकें। 
चटगांव पर आधारित फिल्में-
चटगांव
करो और मरो
खेले हम जी जान से
        

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