बुधवार, 3 जून 2015

बात भाषाओं और लिपियों की

-जावेद
     भाषाओं और लिपियों की कहानी बहुत रोचक है। जहां भाषा विचारों और भावनाओं को अभिव्यक्त करने का, उन्हें संप्रेषित करने का माध्यम है, वहीं लिपियां स्वयं इन भाषाओं को व्यक्त करने का एक तरीका। कोई भाषा बोली व लिखी दोनों जा सकती है, हालांकि बोलना प्रारंभिक और बुनियादी है। लिखकर भाषा को संप्रेषित करना बाद की बात है। बाकी जीवों से अलग भाषा इंसान का विशिष्ट बुनियादी गुण है और इसने हाथों और मस्तिष्क के साथ इंसान को बाकी जानवरों से बुनियादी तौर पर अलग किया। तब भी लिखित भाषा बहुत हाल की, पांच-दस हजार सालों की ही चीज है जबकि आदिम इंसान को करीब 20 लाख साल हो चुके हैं और आधुनिक इंसान को एक लाख साल।

आज सारी दुनिया में ही प्राचीन से लेकर आधुनिक काल तक की मौजूद सभी भाषाओं (उनकी बोलियों सहित) और उनकी लिपियों पर शोध-अध्ययन इतिहास के अध्ययन का महत्वपूर्ण हिस्सा है। इसमें काफी वैज्ञानिक प्रगति भी हुई है। जैसा कि स्वभाविक है, विज्ञान के किसी भी अन्य क्षेत्र की तरह इस क्षेत्र में भी विशेषज्ञों के बीच काफी मतभेद और बहस-मुबाहसा है पर ढेर सारी बातों पर मोटा-माटी एकता भी है। अध्ययन की वैज्ञानिक-तकनीकी प्रगति (खासकर कम्प्यूटर से तुलनात्मक अध्ययन) के साथ इस दिशा में और भी प्रगति निकट भविष्य में होगी। 
भाषाविदों ने व्यापक अनुसंधान के बाद पाया कि दुनियाभर में आज विद्यमान भाषाएं और उनकी लिपियां कुछ इस तरह से विकसित हुई हैं कि उन्हें निश्चित भाषा समूहों और लिपि समूहों (या परिवारों) में वर्गीकृत किया जा सकता है। उदाहरण के लिए यूरोप-एशिया के एक बड़े भाग में प्रचलित आज की भाषाओं को प्राक् भारोपीय (प्रोटो इंडो-यूरोपीयन) भाषा की वंशज माना जाता है। उत्तर भारत की आज की प्रमुख भाषाएं व यूरोप की आज की प्रमुख भाषाएं सब इसी की वंशज हैं। जैसे यदि हिन्दी की वंशावली खोजनी हो तो वह कुछ इस प्रकार निकलेगी: प्राक् भारोपीय-पूर्वी शाखा-आर्य-भारतीय-प्राकृत-अपभ्रंश-हिन्दी। यानि हिन्दी प्राक् भारोपीय भाषा की पूर्वी शाखा की प्राकृत से उपजी है। चित्र-1 यूरोप और भारत की कुछ प्रमुख भाषाओं की वंशावली को दिखाता है। (देखें चित्र-1)
चित्र-1
       लेकिन यह सोचना ठीक नहीं होगा कि भारत में प्राक्-भारोपीय भाषा की वंशज शाखाएं ही हैं। भारत में इसके अलावा तीन भाषा समूह और भी हैं। ये हैं; द्रविड़ भाषा समूह, चीनी-तिब्बती समूह और आस्ट्रो-एशियाई समूह। पहला समूह दक्षिण भारत से सम्बन्धित है, दूसरा उत्तर-पूर्वी भारत से, तो तीसरा मध्य भारत से। चीनी-तिब्बती समूह मूलतः भारत के प्रभाव में विकसित विदेशी भाषाओं से संबंध रखता है पर देेश के उत्तर-पूर्वी हिस्से में इस भाषा समूह की उपस्थिति है। चित्र-2 इन भाषा समूहों को दिखाता है। (देखें चित्र-2)
चित्र-2
      जैसा कि सर्वविदित है, सारे प्रयासों के बावजूद सिन्धु घाटी की सभ्यता या हड़प्पा-मोहनजोदड़ों की सभ्यता की भाषा की लिपि को अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है। इस सभ्यता की भाषा के बारे में कोई और जानकारी भी नहीं है। आज से करीब साढ़े चार-चार हजार साल पहले यह सभ्यता एक बड़े भाग में फैली हुई थी। पश्चिम में अफगानिस्तान के कंधार से लेकर पूरब में हरियाणा तक और दक्षिण में गुजरात से लेकर उत्तर में पंजाब तक इस सभ्यता का प्रसार था। भारत की यह प्राचीन सभ्यता भारत में आर्यों के आगमन से पहले विद्यमान थी और जब आर्य यहां आये तो यह ढलान पर थी। यह खेती पर आधारित नगरीय सभ्यता थी जो पशुपालक आर्यों की सभ्यता से एकदम भिन्न थी। इसलिए आर्यों के भारत में आने पर दोनों के बीच कुछ टकराव हुआ ही होगा, खासकर इसलिए कि आर्य इसी रास्ते से भारत आये और पहले-पहल सप्त-सैन्धव के मैदानों में ही बसे। 
जो भी हो, सिन्धु घाटी सभ्यता के लोगों की भाषा आर्यों की भाषा से भिन्न थी। यह आज माना जाता है कि दक्षिण भारत की द्रविड़ भाषा समूहों का इस विलुप्त भाषा से कुछ संबंध था। 
आर्य जब भारत आये तो वे एक खास तरह की भाषा बोलते थे। इसे आज वैदिक संस्कृत के नाम से जाना जाता है। वेदों की संहिताओं की यही भाषा है। तब यह भाषा आम जन की भी भाषा थी। बाद के समय में पाणिनी ने (छठी शताब्दी ईसा पूर्व) इसका एक मानक व्याकरण तैयार कर इसे मानक रूप प्रदान किया। मानक रूप ग्रहण करने के पहले ही यह धीमे-धीमे आम जन की भाषा नहीं रह गई थी और मानक रूप ग्रहण के करने बाद यह केवल विद्वानों के ज्ञान-विज्ञान की भाषा बन कर रह गई। यहां तक कि शासक वर्गीय लोगों में इसका चलन कम होने लगा हालांकि ईसा बाद की शताब्दियों में, खासकर गुप्त काल में इसका शासक वर्गों में चलन बढ़ा। पर उस समय भी शासकों की महिलाएं और उनके नौकर-चाकर संस्कृत के बदले प्राकृत बोलते थे। 
प्राकृत पिछले करीब तीन हजार सालों से भारत में आम-जन की भाषा रही है और उत्तर भारत की सभी प्रमुख भाषाएं इसी की वंशज हैं। यानि आम संघी धारणा के विपरीत उत्तर भारत की प्रमुख भाषाएं संस्कृत की नहीं बल्कि प्राकृत की वंशज हैं। 
       प्राकृत की उत्पत्ति के बारे में विद्वानों में एकमत नहीं हैं। कुछ इसे संस्कृत के पहले की मूल भाषा (प्राकृत का एक अर्थ सहज या  मूल भी है) मानते हैं जिसका परिष्कृत रूप संस्कृत है (संस्कृत शब्द का अर्थ है परिष्कृत)। कुछ इसे संस्कृत का अपभ्रंश मानते हैं। कुछ इसे संस्कृत बोलने वाले आर्योें और उनके गैर आर्य दासों के बीच संचार से पैदा हुई दासों की भाषा मानते हैं, जो कालांतर में आम जन की भाषा बन गई। 
जो भी हो, छठी शताब्दी ईसा पूर्व तक (जब पाणिनी ने संस्कृत का अपना मानक व्याकरण तैयार किया) प्राकृत आम जन की इस हद तक भाषा बन गई थी कि बौद्ध और जैन धर्म के प्रवर्तकों ने इसी भाषा में अपने उपदेश दिये। बौद्ध धर्म ग्रंथ प्राकृत के एक रूप पाली में संकलित किये गये।            यह प्राकृत भाषा थोड़ा-बहुत स्थानीय परिवर्तनों के साथ सारे देश में ही प्रचलित थी। ईसा बाद की शताब्दियों तक इसका एक रूप प्रभावी हुआ जिसे अपभ्रंश कहा जाता था। इसी अपभ्रंश से आठवीं-नवीं-दसवीं शताब्दियों में हिन्दी, मराठी, गुजराती आदि आज की भाषाओं का जन्म हुआ। इन भाषाओं के साथ अब प्राकृत या अपभ्रंश ने अपना सार्विक रूप त्याग कर स्थानीय या विशिष्ट रूप ग्रहण कर लिया। बाद में इन भाषाओं का अलग-अलग तरह से और अलग-अलग गति से विकास हुआ। इन भाषाओं का मानकीकरण भी अलग-अलग समय में हुआ। उदाहरण के लिए आज की हिन्दी का मानकीकरण उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में हुआ और इसका आधार दिल्ली के आस-पास के इलाके की खड़ी बोली को बनाया गया। काफी समय बाद तक हिन्दी की मानक भाषा को आम जन में खड़ी बोली के नाम से जाना जाता था। (यहां भारत सरकार द्वारा हिन्दी के मानकीकरण के प्रयास की चर्चा नहीं की जा रही है जिसका मतलब है संस्कृत के शब्दों को हिन्दी में ठूंसकर उसे दुरूह बना देना।)
भाषाओं के मानक रूप ग्रहण कर लेने के बाद भी उन बोलियों का अस्तित्व समाप्त नहीं होे गया जिन पर यह मानक भाषा खड़ी थी। आज भी बोलियों का चलन कम या ज्यादा मात्रा में मौजूद है। हिन्दी जैसे बड़े क्षेत्र की भाषा के लिए ये बोलियां स्वयं एक उपभाषा के रूप में हैं मसलन राजस्थानी, हरियाणवी, अवधी, ब्रज, छत्तीसगढ़ी, भोजपुरी, कुमाऊंनी, गढ़वाली इत्यादि। 
भाषाओं के विकास की तरह लिपियों के विकास का इतिहास भी काफी दिलचस्प है। आज दक्षिण भारत सहित सभी प्रमुख भाषाओं को जिन लिपियों में लिखा जाता है वे देखने में इतने भिन्न लगती हैं कि उनमें आपस में कोई संबंध नजर नहीं आता। पर हकीकत यह है कि ये सारी लिपियां मूलतः एक ही वर्णमाला(क, ख, ग.....इत्यादि) की हैं और सबका स्रोत एक ही है- बाह्मी (ब्राह्मी) लिपि। 
  भारत में बाह्मी लिपि के बड़े पैमाने के पहले अवशेष सम्राट अशोक के वे स्तंभ हैं जिसमें उसने पाली भाषा में अपनी राजाज्ञाएं या प्रशस्तियां खुदवाईं थीं। लेकिन माना जाता है कि ब्राह्मी लिपि गौतमबुद्ध के पहले ही चलन में आ चुकी थी। इसका आदि स्रोत ज्ञात नहीं है। यहां यह गौरतलब है कि अशोक के कुछ स्तंभों पर खरोष्ठी लिपि में पाली भाषा लिखी हुई है। खरोष्ठी मध्य और पश्चिम एशिया में प्रचलित थी। भारत में भी यह अशोक से लेकर गुप्त वंश तक प्रचलित रही। 
  संस्कृत और प्राकृत की वर्णमाला एक ही है। इसकी खासियत है कि इसमें स्वर और व्यजंन अलग-अलग हैं। इसलिए इस वर्णमाला की लिपि को भी इन्हें अभिव्यक्त करने वाला होना चाहिए था। इस मायने में यह वर्णमाला और इसकी लिपि दुनिया की अन्य भाषाओं से भिन्न रही है। यह वर्णमाला ज्यादा विकसित है हालांकि संघियों की इस बात को नहीं माना जा सकता कि यह पूर्णतया विकसित और वैज्ञानिक वर्णमाला है। इसका एक प्रमाण तो यही है स्वयं दक्षिण भारत की भाषाओं में कुछ ध्वनियों के लिए नये अक्षर जोड़ने पड़े हैं।उर्दू की कुछ ध्वनियों के लिए इस वर्णमाला में जगह नहीं है। 
  ज्यादा विकसित वर्णमाला व लिपि होनेे के चलते दक्षिण भारत की भाषाओं ने भी इसी को अपना लिया हालांकि आज उनकी लिपियों को देखकर उनका स्रोत ब्राह्मी में ढूढ़ना मुश्किल है। इस परिवर्तन का कारण लेखन सामग्री में बताया जाता है। प्राचीन और मध्य काल में, जब अभी भारत में कागज बनाने की तकनीक विकसित नहीं थी (जो चीन में विकसित हुई थी और कई रास्तों से भारत पहुंची) तब लेखन या तो भूर्जपत्र पर किया जाता था या ताड़ पत्र पर। दक्षिण व पूर्वी भारत में ताड़पत्र का चलन था जो ताड़ के पत्तों से बनाया जाता था। उत्तर भारत में भूर्जपत्र का चलन था जसका भूर्ज नामक पेड़ हिमालय पर्वत पर करीब चार हजार मीटर की ऊंचाई पर मिलता है। इसके तने की भीतरी नरम छाल से भूर्ज पत्र बनता था। भूर्जपत्र पर नरकुल की कलम से स्याही से लिखा जाता था। इससे सीधी रेखाएं बनाई जा सकती थीं। इसलिए इस पर लिखी ब्राह्मी लिपि सीधी रह सकती थी। इसके विपरीत ताड़ पत्र पर लोहे की शलाका या कील से लिखा जाता था। इससे सीधा लिखने पर ताड़ पत्र फट सकता था (क्योंकि ताड़ पत्र पर स्याही से लिखने के बदले कील से अक्षर उकेरे जाते थे और उनमें रंग भरा जाता था)। इसलिए इस पर लेखन गोल होता गया और अक्षर भी क्रमशः गोल होते गये। इसीलिए आज की पूर्वी और दक्षिणी भारत की लिपियां गोल हैं। 
       आज हिंदी भाषा जिस लिपि में लिखी जाती है वह नागरी या देवनागरी कही जाती है। संघियों की धारणा के विपरीत इसका देवभाषा (संस्कृत) से कोई संबंध नहीं है और न ही यह देव लिपि है। संस्कृत एक लंबे समय तक सुत यानी बोलने-सुनने और याद करने वाली भाषा ही रही। लिखी जाने वाली भाषा तो प्राकृत थी जो ब्राह्मी लिपि में लिखी जाती थी। इसी ब्राह्मी से नागरी का जन्म हुआ। हां, इसका संबंध पटना या वाराणसी से हो सकता है जो प्राचीन काल में देवनगर माने जाते थे। इसकी उत्पत्ति को दक्षिण के विजयनगर से भी जोड़ा जाता है। नागरी के सबसे पुराने लेख दक्षिण भारत से मिले हैं। दसवीं शताब्दी तक इसका काफी चलन हो चुका था और यहां तक कि इसके बाद आने वाले बाहरी मुस्लिम शासकों ने भी इसका इस्तेमाल किया हालांकि उनकी अपनी भाषा के लिए अरबी या अरबी-फारसी लिपि मौजूद थी। 
  ब्राह्मी से नागरी लिपि का विकास यह चित्र दिखाता है:(देखें चित्र- 3,उपलब्ध नहीं)
  आज भारत की विभिन्न भाषाओं में कितनी भिन्नता आ गई है (हालांकि सबका मूल स्रोत ब्राह्मी लिपि है) इसे यह चित्र दिखाता है: (देखें चित्र- 4,उपलब्ध नहीं)
  यह मजेदार बात है कि भारत की सभी लिपियों के स्रोत ब्राह्मी की तरह आज पश्चिम एशिया-अफ्रीका और यूरोप में प्रचलित सभी लिपियों का स्रोत एक ही है। जिस हद तक यूरोप की भाषाएं बाकी दुनिया में प्रचलित हैं, वहां भी लिपि का मूल स्रोत यही है। (देखें चित्र-5)
चित्र-5
       चित्र से स्पष्ट है कि मिस्र की सभ्यता के चित्राक्षरों से एक ओर सामी और दूसरी ओर यूरोपीय लिपियों का विकास हुआ। इनके आदि रूप क्रमशः प्राचीन हिब्रू और फिनिशियन थे। मजे की बात है कि ये दोनों भाषा समूह अलग-अलग हैं। जहां सामी लिपियां सामी भाषाओं की हैं, वहीं यूरोपीय लिपियां भारोपीय भाषाओं की। इसीलिए इनमें मौजूद स्वर-व्यंजन के हिसाब से लिपियों में परिवर्तन भी हुआ। सामी भाषाओं में स्वर नहीं हैं, जबकि भारोपीयभाषाओं में स्वर हैं। प्राचीन हिब्रू फिनिशियन काल के अरबी अक्षर इस प्रकार हैं (जो इराक-सीरिया के इलाके में विकसित हुए): अलिफ, बेथ, गिमेल, दलिथ, हे, वाव, जाइन, हेथ, थेत्, योथ्, काफ्, लामेथ, मेम, नून, सामेख, अयिन्, पे, सादे, क्राफ, रेश, शिन्, ताव। इसके बरक्स यूनानी अक्षर इस प्रकार हैं: अल्फा, बीटा, गामा, डेल्टा, इप्सिलान, जीटा, इटा, थीटा, आयोटा, कप्पा, लाम्डा, म्यू, न्यू, साई, आमेक्रान, पाई, हवो, सिग्मा, टाऊ, फाई, खाई, साई, आमेगा। अंग्रेजी (या रोमन) अक्षरों से हम सभी परिचित हैं: अलिफ-ए, बेथ-बी इत्यादि; अल्फा-ए, बीटा-बी इत्यादि। अरबी अक्षरों की बात करें तो वे इस प्रकार हैं: अलिफ, बे, जीम, दाल, हे, बाव, जे, हे, वाव, थे, काफ, लाम, मीम, नून, सीन, अयिन, फे, स्वाद, काफ, रे, शीन, ते। ये अक्षर प्राचीन आरमी के अनुरूप हैं। इनमें छः और अक्षर जोड़कर आज की अरबी वर्णमाला बनती है। चूंकि फारसी आर्य परिवार की भाषा थी इसलिए अरबी में चार और अक्षरों को जोड़कर अरबी-फारसी वर्णमाला बनाई गई। जब भारत में उर्दू का विकास हुआ तो अरबी-फारसी वर्णमाला में तीन अक्षर और बढ़ गये और वह 35 अक्षरों की लिपि बन गई।
  अंकों की बात किये बिना भाषा और लिपि की यह चर्चा अधूरी रहेगी। आज हम सारी संख्याओं को दस अंकों में लिखते हैं, जिसमें हर अंक का अपना मान होता है लेकिन स्थान के हिसाब से भी मान होता है। उदाहरण के लिए 1, 2 व 3 का अपना मान क्रमशः एक, दो व तीन है, पर 123 में 1 का मान 100, 2 का मान 20 है और 3 का मान केवल 3। इसीलिए 123 का मतलब है- 100+20+3 यानी एक सौ तेईस। 
  इस अंक प्रणाली का, जिसे दाशमिक प्रणाली कहते हैं, आविष्कार भारत में करीब दो हजार साल पहले हुआ। इसके पहले भारत में संख्याओं के अलग-अलग संकेत थे और कोई संख्या लिखने के लिए उनके जोड़ की सारी संख्याओं के संकेतों को लिखा जाता था। मसलन अशोक के एक स्तंभ पर 256 लिखने के लिए तीन संकेत बनाये गये हैंः एक 200 का, दूसरा 50 का और तीसरा 6 का। यह इस प्रकार था-
इसी संख्या को तब के लैैटिन में लिखा जाता तो वह इस प्रकार होता- CCLVI जहां C का मतलब 100, L का मतलब 50, V का मतलब 5 और I का मतलब एक है। यानी 100+100+50+5+1=256 । गुप्त काल में भारत में संख्याओं के कुल 20 संकेत थे। इसमें शून्य का संकेत नहीं था। 
  भारत में दाशमिक प्रणाली का प्रसार धीमे-धीमे हुआ। इसी के अनुरूप दसों अंकों के चित्र का भी विकास हुआ। चित्र 6 में यह विकास नजर आता है। (देखें चित्र- 6,उपलब्ध नहीं)
  भारत से इन अंक चित्रों और दाशमिक प्रणाली का प्रसार सारी दुनिया में हुआ। अरब के गणितज्ञों ने इस पद्धति को अपना लिया, जिसे वे हिन्दी के अंक या गुबार अंक कहते थे। अरबों के जरिये यह अंक पद्धति यूरोप जा पहुंची, जहां उसे अरबी अंकों का नाम मिला। यूरोप में इन अंक चिन्हों का विकास हुआ और धीमे-धीमे उन्होंने आधुनिक स्वरूप ग्रहण किया। चित्र 7 इसे दिखाता है। (देखें चित्र- 7,उपलब्ध नहीं)
  आज अपने आधुनिक अंक चिन्हों के साथ यह अंक पद्धति सारी दुनिया में प्रचलित है जिसे ‘भारतीय अंतर्राष्ट्रीय अंक’ कहा जाता है। (1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 0)
  दुनिया भर की भाषाओं और लिपियों का यह संक्षिप्त रेखाचित्र यह बताता है कि दुनिया की सभ्यता-संस्कृति का विकास वैसे हरगिज नहीं हुआ जैसा कि संघी पोंगापंथी प्रचारित कर रहे हैं। भाषा और लिपि सभ्यता-संस्कृति का अहम् हिस्सा हैं, जिनके बना उनकी कल्पना ही नहीं की जा सकती।लेकिन भाषाओं और लिपियों का विकास दिखाता है कि यह बहुत सारी सभ्यताओं और संस्कृतियों के आपस में आदान-प्रदान से हुआ जिसकी वंश परंपरायें सुदूर अतीत में चली जाती हैं। एक मायने में हम सुदूर अतीत से ही एक वैश्विक सभ्यता में रहे हैं। यदि कभी पता चले कि ब्राह्मी लिपि का मूल सिन्धु घाटी की सभ्यता में और उसके जरिये किसी सुदूर अतीत की सभ्यता में हैं तो आश्चर्य नहीं होगा। 
(तथ्यों और चित्रों के लिए आभारः ‘अक्षर बोलते हैं’-गुणाकर मुले, यात्री प्रकाशन)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें