सोमवार, 1 जून 2015

आई.एस.आई.एस. का खतरा और अमेरिकी साम्राज्यवाद

-कविता
       आज दुनिया को पश्चिमी साम्राज्यवादी फिर एक नये खतरे के बारे में बता रहे हैं-आई.एस.आई.एस. का खतरा। यह ठीक वैसे ही है जैसे ओसामा बिन लादेन के बारे में व अलकायदा के बारे में दुनिया को बताया गया था। ठीक वैसे ही, एक दूसरे संदर्भ में, जैसे इराक और सद्दाम हुसैन के खतरे के बारे में दुनिया को बताया गया था। 
फीलिक्स ग्रीन ने अपनी पुस्तक ‘दुश्मन’ मेें एक जगह लिखा है कि अमेरिका में क्या छपेगा, क्या विचार प्रसारित होगा इसे कुछ मीडिया एकाधिकारी कंपनियां तय करती हैं। अमेरिकी जनमानस की मानसिकता का निर्माण जाहिर है मीडिया क्षेत्र में कार्यरत एकाधिकारी कंपनियां करती हैं। ठीक वैसे ही दुनिया के जनमानस की सोच, विचार प्रक्रिया और उसके सोच के तरीकों का निर्माण आमतौर पर पश्चिमी साम्राज्यवाद और उसका मीडिया करता है।
        आज अमेरिकी साम्राज्यवाद के नेतृत्व में पश्चिमी साम्राज्यवाद ने जिस आई.एस.आई.एस. के खतरे पर चीख पुकार मचानी शुरू की है; उसकी उत्पत्ति व इतिहास पर एक नजर डालना उचित होगा।
इस संगठन की शुरुआत 1999 में ‘‘जमायत अल-तवाहिद वल-जिहाद’’ नामक समूह से हुई थी, जो एक सैन्य जिहादी संगठन और जार्डन का अबू मुसाब अल जरकावी इसका नेता था। 2004 में अलकायदा के साथ अपनी निष्ठा रखते हुए जरकावी ने इराक में अलकायदा को स्थापित कर दिया। मार्च 2003 में इराक में अमेरिकी आक्रमण के बाद अगस्त में उठ खड़े हुए ‘इराकी विद्रोह’ के दौरान इस समूह ने उसमें भाग लिया था। जनवरी 2006 में विभिन्न सुन्नी विद्रोही संगठनों को मिलाकर इसने ‘‘मुजाहिद्दीन शूरा काउसिल’ का गठन किया। इसने अक्टूबर 2006 में ‘‘इस्लामिक स्टेट आफ इराक’’ के गठन की घोषणा की। इराक के कई प्रांतों में विशेषकर अल अनवर व बगदाद में इसका प्रभाव बहुत ज्यादा हो गया।
सीरियाई गृहयुद्ध (मार्च 2011) के बाद ‘‘इस्लामिक स्टेट आॅफ इराक’’ (ISIS) के सरगना अल बगदादी ने अगस्त में एक प्रतिनिधिमंडल सीरिया भेजा। इस शाखा का नाम ‘‘अल नूसरा फ्रंट’’ रखा गया जिसने जल्दी ही सीरिया के सुन्नी बहुल इलाकों में अपना प्रभाव जमा लिया। अप्रैल 2013 में अबू वकर अल-बगदादी ने ‘‘इस्लामिक स्टेट आफ इराक’’ और अपनी इस सीरियाई शाखा ‘‘अल नूसरा फ्रंट’’ का विलय करके एकीकृत संगठन का नाम ‘‘इस्लामिक स्टेट आफ इराक एण्ड सीरिया’’ (आई.एस.आई.एस.) रखा। हालांकि ‘‘अलकायदा’’ और ‘‘अल नूसरा फ्रंट’’ दोनों के सरगनाओं ने इस विलय को अस्वीकार कर दिया। 29 जून, 2014 को इस संगठन ने पुनः अपना नाम बदलकर ‘‘इस्लामिक स्टेट’’ रख लिया।
यह ग्रुप दुनिया में इस्लामी राज्य कायम करना चाहता है। इसी के मद्देनजर जून 2014 में इस ग्रुप ने अपने सरगना अल-बगदादी को खलीफा घोषित कर दिया और इसके अनुसार ही नाम बदलकर ‘इस्लामिक स्टेट’ रख दिया गया। खलीफा के तौर पर यह पूरी दुनिया के मुस्लिमों पर अपने धार्मिक, राजनैतिक और सैनिक अधिकार का दावा करता है। 
‘‘इस्लामिक स्टेट’’ के विकास में साम्राज्यवाद और उसके खाड़ी के सहयोगी देशों की क्या भूमिका है? इराक में तो शिया और सुन्नी शांतिपूर्वक रहते आये थे, फिर 2003 के बाद ऐसा क्या हुआ कि वे एक-दूसरे के खून के प्यासे बन बैठे? यह अमेरिकी षड़यंत्र का परिणाम था या कुछ और?
अमेरिकी नेतृत्व में यूरोपीय साम्राज्यवादियों ने वही खेल इराक में खेला, जिसका उपयोग करने का उनके पास वर्षो पुराना हुनर रहा है। इराक में अमेरिकी बमों और मिसाइलोें से ज्यादा खतरनाक हथियार ‘फूट डालो और राज करो’ का हथियार था। 2003 मेें सद्दाम हुसैन की सरकार को बमों और मिसाइलों से नेस्तानाबूद करने के बाद अमेरिकियों ने इराक की मिली-जुली संस्कृति व धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों को नष्ट करने की योजना बना डाली। उन्होंने शिया और सुन्नी के बीच खाई को चैड़ा करना शुरू कर दिया। सुन्नी समुदाय को सत्ता प्रतिष्ठानों से दूर कर शियाओं को सचेत तौर पर स्थापित करने की रणनीति पर काम किया।
दरअसल अमेरिकी साम्राज्यवादी सद्दाम शासन के अंत के बाद इराक पर अपना अधिपत्य बनाये रखना चाहते थे। वे हर तरह से इराकी तेल भंडारों पर अपना अधिकार मुकम्मिल करना चाहते थे। अमेरिकी साम्राज्यवादियों की सद्दाम की सत्ता के पतन के बावजूद सैन्य मौजूदगी के खिलाफ इराक एक तरह से उठ खड़ा हुआ। इराक में प्रत्यक्ष चुनावों के द्वारा सरकार गठन में देरी के परिणामस्वरूप और अमेरिकी मौजूदगी के विरुद्ध एक ओर मुक्तदा अल सद्र के नेतृत्व में(जो कि शिया नेता है) शिया बहुल क्षेत्रों में भारी विरोध प्रदर्शन और अमेरिकियों से सीधा संघर्ष हुआ तो दूसरी ओर इराकी सेना के पूर्व सैनिकों, बाथ पार्टी से जुड़े लोगों और सुन्नी बहुल क्षेत्रों में तो 2003 से ही अमेरिकी सेना को भारी विरोध और संघर्ष का सामना करना पड़ा था। 
इस प्रकार अमेरिका के नेतृत्व में साम्राज्यवादियों के इराक कब्जे के विरुद्ध इराकी जनता की इस एकजुटता से भयभीत अमेरिका ने इराक की राष्ट्रीय एकता को तोड़ने के लिए ही शिया-सुन्नी विवाद को हवा दी। एक तरफ आर्थिक और राजनीतिक तौर पर 2003 के बाद से ही हाशिये पर ढकेले जा रहे सुन्नियों में असंतोष था तो दूसरी ओर अमेरिकियों द्वारा शियाओं को राजनीतिक तौर पर आगे बढ़ाने से सुन्नियों में यह भावना उत्पन्न हुई कि शिया उनकी राजनीतिक और अर्थिक जमीन हथिया रहे हैं। शिया समुदाय के लोगों का राजनीति वे सेना में आबादी में बहुमत के हिसाब से प्रतिनिधित्व नहीं रहा था। इसका परिणाम यह निकला कि जो जिहादी संगठन अभी तक इराक में अपनीजड़ें नहीं जमा पा रहे थे, 2004 का अंत आते-आते सुन्नी जिहादी संगठन ताकतवर होने लगे। शुरू में शियाओं पर व उनके धर्मस्थलों पर छिटपुट तो 2006 के बाद इनके हमलों में व्यापक तेजी आई। इस तेजी के दो कारण अह्म थे। पहला, इराक में राजनीतिक प्रक्रिया की अमेरिका की निगरानी में शुरुआत और दूसरा, 2003 के बाद पुनः गठित होने वाली इराकी सेना। इन दोनों में ही शियाओं की भागीदारी ने शिया-सुन्नियों के बीच अविश्वास को और भी ज्यादा पुख्ता किया। हालांकि यह अविश्वास तब भी बढ़ा था जब सद्दाम शासन के खात्मे के लिए शियाओं के धार्मिक व राजनैतिक नेताओं ने सद्दाम की सेना के खिलाफ खड़े होकर प्रकारान्तर से अमेरिकी साम्राज्यवाद की मद्द की थी। 
इस बढ़ती हुई खाई का ही परिणाम था कि ‘‘इस्लामिक स्टेट आफ इराक’’ एक ओर अमेरिका से लड़ना चाहता था तो दूसरी ओर शियाओं से। इस प्रकार इराक 2007 तक आते-आते पूरी तरह शिया-सुन्नी संघर्षों में फंस गया। सुन्नी जिहादी संगठनों का जवाब शियाओं की मेहदी आर्मी व बद्र ब्रिगेड देने लगे। इराक पूरी तरह गृहयुद्ध में फंस चुका था। अमेरिकी साम्राज्यवादियों का मकसद सफल रहा है, क्योंकि इस प्र्रकार इराक में रहने, अपने प्रभुत्व को जायज ठहराने का बहाना मिल गया था।
अमेरिका और अरब के उसके सहयोगी देश दो स्तरों पर क्रियाशील थे। अमेरिका एक ओर शिया-सुन्नी झगड़े को बढ़ाने का हरसंभव प्रयास कर रहा था, वहीं दूसरी ओर वह स्वयं व अपने सहयोगी देशों विशेषकर सऊदी अरब व तुर्की के सहयोग से ‘‘इस्लामिक स्टेट आफ इराक’’ की हरसम्भव मदद भी कर रहा था। 
केवल साम्राज्यवादी ही नहीं अरब के देश व तुर्की भी अपने-अपने कारणों से इराक में राजनैतिक खेल खेलने में लगे हुए थे। ईरान सरकार अगर हर तरह से मेंहदी व बद्र सेना को मदद कर रही थी तो अल मलीकी के पीछे भी वह मजबूती से खड़ी थी और इस प्रकार अलग-अलग कारणों से ईरान व अमेरिका; इराक में एक साथ खड़े थे। दूसरी ओर सऊदी अरब जैसी सुन्नी शासक अपने पड़ोस में एक और ईरान नहीं देखना चाहते थे। कुर्द समस्या के कारण ऐसा ही खेल तुर्की भी खेल रहा था। 
इस प्रकार आतंरिक व बाहृा राजनीति के परिणामस्वरूप ‘‘इस्लामिक स्टेट आफ इराक’’ इतनी तेजी से उभार पा सका। पश्चिमी इराक के हिस्सों में अपने प्रभाव के परिणामस्वरूप 2006 के बाद से ही इराकी तेल की बिक्री उसकी आय का सबसे महत्वपूर्ण जरिया रहा है। दूसरी ओर तुर्की, सऊदी अरब व कतर जैसे अमेेरिकी सहयोगी उसे धन मुहैय्या करा रहे हैं या धन मुहैय्या होने में मद्द कर रहे हैं।
मार्च 2011 के बाद इस संगठन के सीरिया में प्रवेश और उसके प्रभाव में वृद्धि के परिणामस्वरूप यह संगठन आर्थिक तौर पर सबसे शक्तिशाली जिहादी संगठन बन बैठा। सीरिया के सीमावर्ती क्षेत्रों पर कब्जे के बाद इसने अपनी बढ़ोत्तरी का इस्तेमाल पुनः इराक पर कब्जे के लिये किया। सीरिया में असद के खिलाफ अमेरिका 2011 से ही सुन्नी विद्रोही संगठनों की हथियारों व साजो सामान से मदद करता रहा है। अमेरिकी-अरब सहयोगी देश भी असद सरकार को अपदस्थ करने के लिए पैसा पानी की तरह बहा रहे हैं। अमेरिका व उसके सहयोगी सीरियाई क्षेत्र में अलकायदा व उससे जुड़े जिहादी संगठनों तथा आई.एस.आई.एस. की भी मदद करते रहे हैं। 
इस प्रकार अमेरिकी साम्राज्यवाद व उसके सहयोगी देशों को तब तक कोई परेशानी नहीं थी जब तक कि वह उनकी मंशाओं के अनुरूप असद को अपदस्थ करने के लिए लड़ रहे थे। उन्हें परेशानी तब भी नहीं थी जब ‘‘इस्लामिक स्टेट आफ इराक’’ इराक में शिया आबादी का कत्लेआम कर रहा था। उसे परेशानी तब हुई जब ‘‘इस्लामिक स्टेट’’ अपनी बढ़ी हुई ताकत के साथ इराक के बहुत बड़े हिस्से पर कब्जा करने की तरफ बढ़ने लगा और इराकी सरकार व अमेरिकी हितों के लिए खतरा बन गया। दरअसल अमेरिका एक ओर ‘‘इस्लामिक स्टेट’’, अलकायदा व अन्य विद्रोही संगठनांे के मार्फत असद को धाराशाही करना वहीं दूसरी ओर इराक में ‘‘इस्लामिक स्टेट’’ पर बमबारी के नाम पर उसकी मदद भी कर रहा है तो उसके प्रभाव को इराक में सीमित भी करना चाहता है। इसका कारण यह है कि वह इराक में अव्यवस्था व इस प्रकार की परिस्थितियां उत्पन्न करना चाहता है ताकि उसे इराक में सैन्य उपस्थिति बढ़ाने का बहाना मिल सके। यह सही है कि मलिकी को गद्दी; अमेरिकी आक्रमण से उत्पन्न हुई परिस्थितियों में; मिली थी परंतु मलिकी रूस व चीन के साथ सटने लगे। इसके साथ ही सापेक्षिक रूप से बढ़ती स्थिरता और बढ़ते तेल उत्पादन ने इराकी सरकार के लिए यह संभावना पैदा की कि वह अमेरिका के सैन्य प्रभाव से दूर जा सकें।
जाहिर है अमेरिका-ब्रिटेन धुरी ऐसा बिल्कुल नहीं चाहती। स्थायी इराक के लिए इस धुरी ने सद्दाम को अपदस्थ नहीं किया था। इसलिए अब अमेरिकी ‘‘इस्लामिक स्टेट’’ के बहाने मलीकी को हटाना चाहते हैं। 
इस प्रकार ‘‘इस्लामिक स्टेट’’ को पालने पोसने वाले अमेरिकी साम्राज्यवादी व उसकी ‘क्लाइन्ट स्टेट’ हैं। अगर अमेरिका व उसके सहयोगी देश इस आतंकवादी संगठन के आर्थिक स्रोत बंद कर दें तो आधी मौत तो वह खुद मर जायेगा। अमेरिकी साम्राज्यवाद ‘‘इस्लामिक स्टेट’’ व ‘‘अलकायदा’’ जैसे संगठनों को अपने फायदे के लिए पैदा करते हैं या फिर उन्हें बड़ा होने में मदद करते हैं और जब वे उनकी सीमाओं से बाहर चले जाते हैं तो वे एक तीर से दो शिकार करते नजर आते हैं। पहला, दुनिया को इस प्रकार के आतंकवादी संगठनों का डर दिखाया जाता है और उन आतंकवादी संगठनों को कुचलने के नाम पर स्वतंत्र राष्ट्रों की सत्ताओं पर हमला बोल दिया जाता है। अगर अमेरिकी साम्राज्यवाद ‘‘इस्तेमाल करो और मारो’’ की इस रणनीति पर न चलता तो ‘‘अलकायदा’’ व ‘‘इस्लामिक स्टेट’’ का संबंधित देशों की जनता ने ही हिसाब बराबर कर लिया होता। अमेरिकी साम्राज्यवाद अरब व अन्य देशों में कट्टरपंथ व आतंकवाद का सबसे बड़ा संरक्षक है। कट्टरपंथ और आतंकवाद अमेरिकी नेतृत्व वाली साम्राज्यवादी व्यवस्था की जरूरत है और कट्टरपंथियों और आतंकवाद की जरूरत साम्राज्यवादी व्यवस्था को है। दोनों एक-दूसरे को आगे बढ़ातेे और एक-दूसरे की मदद करते हैं। अरब की शेखशाहियां बिना अमेरिकी साम्राज्यवाद के नहीं बची रह सकतीं और ‘‘वाल स्ट्रीट’’ बिना पेट्रो डालर के। 
इस तरह से अमेरिकी साम्राज्यवादी खुद ‘‘खतरा’’ पैदा करते हैं और फिर इस खतरे का अपने मीडिया द्वारा प्रचार करते हैं ताकि जनमानस के बीच इस खतरे के नाम पर किये जाने वाले कुकृत्यों को वह जायज ठहरा सके। ‘‘इस्लामिक स्टेट’’ जैसे संगठन इराक व सीरिया में जिस प्रकार निरीह जनता का कत्लेआम कर रहे हैं, उसके असली गुनहगार पश्चिमी साम्राज्यवादी शक्तियां हैं। ‘‘इस्लामिक स्टेट’’ व ‘‘अलकायदा’’ जैसे संगठनों को और न ही साम्राज्यवादियों को इस्लाम से कुछ लेना-देना  है। वे तो बस इस्लाम के नाम पर मुसलमानों को ही सबसे ज्यादा मौत के घाट उतार रहे हैं, और दूसरा वाला इस्लाम के नाम पर आतंकवादी गिरोहों का इस्तेमाल कर रहा है। अरब देशों की जनता के ये दोनों ही दुश्मन हैं। साम्राज्यवाद के विनाश के बिना कट्टरपंथ, आतंकवाद, शेखशाहियों से मुस्लिम जनमानस व दुनिया की अन्य जनता को मुक्ति नहीं मिलेगी। अलकायदा व इस्लामिक स्टेट की ताकत अमेरिकी साम्राज्यवाद रूपी रावण की नाभि में है। अमेरिकी साम्राज्यवाद के नेतृत्व वाली साम्राज्यवादी व्यवस्था का विनाश किये बिना ‘‘इस्लामिक स्टेट’’ जैसे संगठनों का सफाया होना असंभव है। 

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