-शिप्रा
इतिहास में कई ऐसी घटनाएं होती हैं जो संसार की कल्पनाशक्ति को जगा देती है और आगे बढ़ने के रास्ते खोल देती है। चिली छात्र आंदोलन उनमें से एक है। 2011 के छात्र आंदोलन को समझने के लिए हमें उन आर्थिक नीतियों को समझना पड़ेगा जो चिली में 1980 के शुरूआत में लागू की गयी थीं। 1970 से पहले चिली में हर स्तर पर राज्य द्वारा प्रदत्त सरकारी शिक्षा प्रणाली लागू थी। 1973 से 1990 तक अगस्टो पिनोकेट की सैनिक तानाशाही के शासनकाल में लागू किए गए नवउदारवादी सुधारों के दौरान भी यह प्रणाली चलती रही। 30 सालों से शिक्षा में जारी नवउदारवादी सुधारों ने तेजी से छात्रों को सरकारी संस्थानों से प्राइवेट संस्थानों की ओर धकेला।
1981 में 78% चिली के छात्र सरकारी विद्याालयों में पढ़ रहे थे जबकि केवल 15% छात्र, बाउचर प्रणाली वाले प्राइवेट विद्याालयों में पढ़ रहे थे। 2009 तक प्राइवेट-बाउचर( बाउचर प्रणाली में प्राइवेट स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों को सरकार की तरफ से कूपन के रूप में आर्थिक सहायता दी जाती थी) स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों की संख्या 51% हो गयी जबकि सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों की संख्या 42% लगभग आधी रह गयी। स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों का आर्थिक आधार पर बंटवारा भी साफ तौर पर हो चुका था। उच्च स्तर के लोगों के बच्चे जहां प्राइवेट स्कूलों में पढ़ते थे वहीं सरकारी स्कूलों में केवल वे छात्र पढ़ते थे जिनके मां-बाप की आर्थिक हैसियत अच्छी नही थे। इस पूरे समय में निजीकरण को बढ़ावा देकर उच्च शिक्षा में भी कई बदलाव किए गए। इन बदलावों के चलते 1990 में उच्च शिक्षा में 15.6% छात्रों के मुकाबले 2010 में उच्च शिक्षा लेने वाले छात्रों की संख्या बढ़कर 80% हो गयी। पर इन्हीं नीतियों ने उन छात्रों की संख्या को भी बढ़ाया जिन पर अपनी शिक्षा पूरी करने के लिए, लिए गए लोन का अत्यधिक कर्ज चढ़ चुका था। इसके मुकाबले रोजगार, जिससे की छात्र अपना कर्ज चुका सकते थे, की कमी ने इस समस्या को और भयानक बना दिया। वास्तव में हर स्नातक पर औसतन अपनी भावी वार्षिक आय का 17 फीसदी ऋण है जो कि संयुक्त राज्य अमेरिका की तुलना में 57 फीसदी है। इन सब कारणों ने शिक्षा में संकटों को जन्म दिया और इसमें छुपी असमानता ने छात्रों के आगे बढ़े हुए तबके को उद्वेलित करने का काम किया। इसके खिलाफ 2006 में छात्रों के आंदोलन फूट पड़े। सेकेण्डरी स्कूलों के छात्र सड़कों पर उतर पड़े। उन्होने स्कूलों पर कब्जा कर लिया। सरकारी सहायता को बढ़ाने की मांग करते हुए एक दिन की राष्ट्रीय हड़ताल भी की गयी। छात्रों के इस आंदोलन के आगे सरकार ने झुकते हुए स्कूलों में प्राइवेट-बाउचर प्रणाली को खत्म कर दिया। गोरे और काले छात्रों की सहभागिता की वजह से बाद में इस आंदोलन को पेंग्विन क्रांति के नामसे प्रसिद्धि मिली। यधपि यह आंदोलन अपनी सभी मांगों को नही मनवा सका फिर भी इसने 2011 में होने वाले छात्र आंदोलन के लिए एक मिशाल पेश की। पेंग्विन क्रांति के चार साल बाद 2010 में सेबेश्चियन पिनेरा केन्द्रीय-दक्षिण गठबंधन सरकार में राष्ट्रपति चुने गए। यूनिवर्सिडड सेन्ट्रल स्टूडेंट ने सरकार द्वारा शिक्षा में लागू की गयी ‘हिस्सेदारी’ की व्यवस्था की भत्र्सना करते हुए कैम्पसों पर कब्जा करना शुरू कर दिया। जिसकी वजह से पिनेरा सरकार को शिक्षा में कुछ सुधारों को लागू करना पड़ा। यूनिवर्सिडड सेन्ट्रल आंदोलन ने सरकार के सामने मुश्किलें खड़ी कर दी। इन परिस्थितियों का फायदा कोनफेडरेशन आफ चिलियन स्टूडेंट (कोनफेक) ने उठाते हुए नए स्तर पर आंदोलन शुरू कर दिए। जोकि परम्परागत विद्याालयों में छात्रों के बीच काम कर रहे बहुत से छात्र संगठनों का एक संयुक्त मंच था। चिली की दो सबसे बड़ी यूनिवर्सिटी, यूनिवर्सिटी आफ चिली और कैथोलिक यूनिवर्सिटी के फेडरेशनों के छात्र कोनफेक के प्रवक्ता बनाए गए। शुरूआती दौर में इन आंदोलनों की मांग परम्परागत शिक्षा में सरकारी खर्च बढ़ाए जाने की ही थी पर जैसे-जैसे आंदोलन आगे बढ़ता गया, इसे चिली की जनता का भारी समर्थन मिलने लगा। जिससे ‘शिक्षा के व्यापारीकरण’ के खिलाफ आंदोलन जोर पकड़ने लगा। जल्द ही समाज के अन्य तबकों के संगठन जैसे- मजदूर संगठन, शिक्षक संगठन, पर्यावरणवादी, स्वतंत्र वामदल आदि इस आंदोलन में शामिल होने लगे। आंदोलन के मीडिया में प्रचारित होने से भी लोग इससे जुड़ते चले गए। कई बार रैलियों में हिस्सा लेने वाले लोगों की संख्या लाखों में पहुंच जाती थी।
1981 में 78% चिली के छात्र सरकारी विद्याालयों में पढ़ रहे थे जबकि केवल 15% छात्र, बाउचर प्रणाली वाले प्राइवेट विद्याालयों में पढ़ रहे थे। 2009 तक प्राइवेट-बाउचर( बाउचर प्रणाली में प्राइवेट स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों को सरकार की तरफ से कूपन के रूप में आर्थिक सहायता दी जाती थी) स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों की संख्या 51% हो गयी जबकि सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों की संख्या 42% लगभग आधी रह गयी। स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों का आर्थिक आधार पर बंटवारा भी साफ तौर पर हो चुका था। उच्च स्तर के लोगों के बच्चे जहां प्राइवेट स्कूलों में पढ़ते थे वहीं सरकारी स्कूलों में केवल वे छात्र पढ़ते थे जिनके मां-बाप की आर्थिक हैसियत अच्छी नही थे। इस पूरे समय में निजीकरण को बढ़ावा देकर उच्च शिक्षा में भी कई बदलाव किए गए। इन बदलावों के चलते 1990 में उच्च शिक्षा में 15.6% छात्रों के मुकाबले 2010 में उच्च शिक्षा लेने वाले छात्रों की संख्या बढ़कर 80% हो गयी। पर इन्हीं नीतियों ने उन छात्रों की संख्या को भी बढ़ाया जिन पर अपनी शिक्षा पूरी करने के लिए, लिए गए लोन का अत्यधिक कर्ज चढ़ चुका था। इसके मुकाबले रोजगार, जिससे की छात्र अपना कर्ज चुका सकते थे, की कमी ने इस समस्या को और भयानक बना दिया। वास्तव में हर स्नातक पर औसतन अपनी भावी वार्षिक आय का 17 फीसदी ऋण है जो कि संयुक्त राज्य अमेरिका की तुलना में 57 फीसदी है। इन सब कारणों ने शिक्षा में संकटों को जन्म दिया और इसमें छुपी असमानता ने छात्रों के आगे बढ़े हुए तबके को उद्वेलित करने का काम किया। इसके खिलाफ 2006 में छात्रों के आंदोलन फूट पड़े। सेकेण्डरी स्कूलों के छात्र सड़कों पर उतर पड़े। उन्होने स्कूलों पर कब्जा कर लिया। सरकारी सहायता को बढ़ाने की मांग करते हुए एक दिन की राष्ट्रीय हड़ताल भी की गयी। छात्रों के इस आंदोलन के आगे सरकार ने झुकते हुए स्कूलों में प्राइवेट-बाउचर प्रणाली को खत्म कर दिया। गोरे और काले छात्रों की सहभागिता की वजह से बाद में इस आंदोलन को पेंग्विन क्रांति के नामसे प्रसिद्धि मिली। यधपि यह आंदोलन अपनी सभी मांगों को नही मनवा सका फिर भी इसने 2011 में होने वाले छात्र आंदोलन के लिए एक मिशाल पेश की। पेंग्विन क्रांति के चार साल बाद 2010 में सेबेश्चियन पिनेरा केन्द्रीय-दक्षिण गठबंधन सरकार में राष्ट्रपति चुने गए। यूनिवर्सिडड सेन्ट्रल स्टूडेंट ने सरकार द्वारा शिक्षा में लागू की गयी ‘हिस्सेदारी’ की व्यवस्था की भत्र्सना करते हुए कैम्पसों पर कब्जा करना शुरू कर दिया। जिसकी वजह से पिनेरा सरकार को शिक्षा में कुछ सुधारों को लागू करना पड़ा। यूनिवर्सिडड सेन्ट्रल आंदोलन ने सरकार के सामने मुश्किलें खड़ी कर दी। इन परिस्थितियों का फायदा कोनफेडरेशन आफ चिलियन स्टूडेंट (कोनफेक) ने उठाते हुए नए स्तर पर आंदोलन शुरू कर दिए। जोकि परम्परागत विद्याालयों में छात्रों के बीच काम कर रहे बहुत से छात्र संगठनों का एक संयुक्त मंच था। चिली की दो सबसे बड़ी यूनिवर्सिटी, यूनिवर्सिटी आफ चिली और कैथोलिक यूनिवर्सिटी के फेडरेशनों के छात्र कोनफेक के प्रवक्ता बनाए गए। शुरूआती दौर में इन आंदोलनों की मांग परम्परागत शिक्षा में सरकारी खर्च बढ़ाए जाने की ही थी पर जैसे-जैसे आंदोलन आगे बढ़ता गया, इसे चिली की जनता का भारी समर्थन मिलने लगा। जिससे ‘शिक्षा के व्यापारीकरण’ के खिलाफ आंदोलन जोर पकड़ने लगा। जल्द ही समाज के अन्य तबकों के संगठन जैसे- मजदूर संगठन, शिक्षक संगठन, पर्यावरणवादी, स्वतंत्र वामदल आदि इस आंदोलन में शामिल होने लगे। आंदोलन के मीडिया में प्रचारित होने से भी लोग इससे जुड़ते चले गए। कई बार रैलियों में हिस्सा लेने वाले लोगों की संख्या लाखों में पहुंच जाती थी।
सालों तक चले इस आंदोलन को चिली के छात्रों ने जिस तरह से पूरे ताप-तेवर के साथ चलाया वह एक उदाहरण बनता है। चिली के छात्र संगठनों ने आंदोलन के लम्बा खिंचने के बावजूद उसे सुस्त नहीं होने दिया। आंदोलन में कई तरह के रचनात्मक तौर-तरीकों का भी प्रयोग किया गया जैसे- ‘शिक्षा के लिए 1800 घण्टे’ आंदोलन। जिसमें छात्रों का एक समूह ला मोनेडा महल के पास 1800 घण्टों तक लगातार दौड़ता रहा। क्योंकि आंदोलनकारियों का मानना था कि शिक्षा को मुफ्त करने के लिए लगभग 1.8 अरब डालर की आवश्यकता है। अन्य कई प्रतीकात्मक रूपों का प्रयोग किया गया। एक खास दिन लगभग 4000 छात्रों ने जोम्बिज की तरह कपड़े पहन कर प्रदर्शन किया जो इस बात का प्रतीक था कि छात्रों के मरने के बाद भी उनसे कर्ज वसूला जा रहा है। आमरण अनशन से लेकर विधालयों में कब्जे तक हर एक तरीके ने शासकों को परेशानी में डाले रखा। आंदोलन को प्रचारित करने के लिए सोशल मीडिया का जम कर इस्तेमाल किया गया। कोनफेक की एक प्रवक्ता केमिला वेलेजो के अनुसार ‘ये एक ऐसी पीढ़ी है जिसे डर नहीं लगता’। पिनेरा के शासनकाल में मिले कुछ जनवादी अधिकारों का भी छात्रों ने शिक्षा में किए गए सुधारों का विरोध करने में शानदार तरीके से प्रयोग किया। छात्रों के अड़ियल रुख ने मौजूदा राष्ट्रपति मिकेल बेखलेत को मुफ्त शिक्षा देने और घाटे की भरपाई के लिए कारपोरेट टैक्स बढ़ाने पर मजबूर कर दिया।
स्वतः स्फूर्त आंदोलनों का तेजी से व्यापक रूप ग्रहण कर लेना 21 वीं सदी में हो रहे आंदोलनों की एक विशेषता है। जिंदगी के बुरे होते जाने के खिलाफ जनता लगातार सड़कों पर उतर रही है। ये सभी आंदोलन व्यवस्था के भीतर ही समाधान ढूंढ रहे हैं। चिली का छात्र आंदोलन भी इसका एक उदाहरण है। आने वाले कुछ समय में वहां सबको मुफ्त शिक्षा मिलेगी पर ये व्यवस्था पर चोट नही करता। मजदूर वर्ग और पूंजीपति वर्ग के बीच बढ़ रही असमानता समाज में नए अंतर्विरोधों को जन्म देगी। पूंजीपति वर्ग द्वारा दी जा रही शिक्षा व्यवस्था का बचाव करते रहेगी। जब तक निजी सम्पत्ति मौजूद है, मुफ्त शिक्षा समाज में असमानता को खत्म नहीं कर सकती। पर इस तरह के आंदोलन खड़े करके हम पूंजीवादी व्यवस्था का चेहरा बेनकाब कर सकते हैं और समाजवादी व्यवस्था के और करीब पहुंच सकते है।
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