बुधवार, 1 अप्रैल 2015

जलियांवाला बाग नरसंहार:साम्राज्यवादी नृशंसता का अमिट अध्याय

-कैलाश
साम्राज्यवादियों की रणनीति बदली है, किंतु फितरत नहीं। आज भी मुनाफे और कब्जों के लिए खून की नदियां बहा रहे हैं। बीसवीं सदी का क्रूर साम्राज्यवादी सत्य इक्कीसवीं सदी में भी नहीं बदला है। अफगानिस्तान, इराक, सीरिया, यूक्रेन, आदि-आदि इस सच की गवाही देते हैं। खुले-छिपे युद्धों में आज भी प्रतिवर्ष हजारों लोग मारे जा रहे हैं। इन साम्राज्यवादियों के साथ आजाद हुए मुल्कों के शासक पूंजीपति वर्ग ने भी जुगलबंदी कायम कर ली है। 
        पूंजीवाद-साम्राज्यवाद का अतीत और वर्तमान बारूद और लहू से सना हुआ है। बीसवीं सदी साम्राज्यवादी नृशंसताओं से भरी पड़ी है। महाविनाशक दो विश्व युद्धों के अलावा भी दुनियाभर में हुए सैकड़ों नरसंहारक अपराध साम्राज्यवादी सत्तातंत्र के नाम दर्ज हैं। 13 अप्रैल, 1919 को अमृतसर में घटित जलियांवाला बाग नरसंहार इनमें से एक है। 
  13 अप्रैल, 1919 का यह नरसंहार भारत मेें ब्रिटिश उपनिवेशवादियों की क्रूरता व दमन का निरूपक वृतांत है। 1857-58 के प्रत्यक्ष साम्राज्यवादी दमन के बाद से यह एक महत्वपूर्ण सैनिक कार्यवाही थी, जिसने भारतीय जनमानस से ‘‘ब्रिटिश उदारता’’ व ‘‘प्रशासनिक कुशलता’’ के सारे धुम्रावरण छांट कर दूर कर दिये। इस एक घटना ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उस समय तक प्रमुख ‘समझौता-संघर्ष-समझौता’ की धारा से भिन्न सोचने के लिए भारतीय मेहनतकशों को मजबूर कर दिया। प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति पर ब्रिटिश शासकों से दरियादिली की उम्मीद लगाये बैठे भारतीय राजनीतिज्ञों की धारा के लिए इस हत्याकांड के बाद स्वतंत्रता संग्राम में कोई जगह नहीं रह गयी थी। जलियांवाला बाग का यह खूनी खेेल भारत मेें ब्र्रिटिश साम्राज्यवाद के पतन की एक निर्णायक शुरूआत साबित हुआ।
  जलियांवाला बाग कांड यकायक घटित नहीं हुआ। यह संघर्ष-दमन-संघर्ष की एक लंबी श्रृंखला में अवस्थित एक कड़ी है। इसकी पृष्ठभूमि में ब्रिटिश काले कानूनों की एक लंबी फेहरिस्त है। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान का साम्राज्यवादी छल-कपट है। नवम्बर,1917 की रूसी समाजवादी क्रांति से उपजी जनजागृति और शासक वर्गों की घबराहट-बौखलाहट है। 
  1914-18 के महायुद्ध के दौरान अधिकांश कांग्रेसी नेता इस मुगालते का शिकार थे कि अगर भारतीय जनता युद्ध में ब्रिटिश शासकों की मदद करती है तो वे जरूर ही उनकी राजनीतिक मांगों को स्वीकार कर लेंगे। ऐसे राष्ट्रीय नेता जिनमें महात्मा गांधी भी शामिल थे, न केवल स्वयं भ्रमित थे बल्कि अपना भ्रम भारतीय जनता में भी प्रचारित कर रहे थे। ब्रिटिश फौज में ज्यादा से ज्यादा भारतीय नौजवानों को भर्ती हेतु प्रेरित करने के लिए अभियान चला रहे थे। जिनमें से हजारों भारतीय सैनिक यूरोप व पश्चिम एशिया के मोर्चों पर मारे गये। ये मौतें एक ऐसयुद्ध में हुईं जिसे न तो भारतीय मेहनतकशों ने चुना था और न जिससे उनके कोई हित सधते थे।
  प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के उपरांत हुए पेरिस समझौतों में विजेता साम्राज्यवादी मुल्कों ने यूरोप व उपनिवेशों के भूमंडलों की अपने बीच बंदरबांट कर डाली। उपनिवेशों की राजनीतिक मुक्ति का तो कोई सवाल ही नहीं उठा। सारी चर्चा व नतीजे उपनिवेशों पर कब्जे के पुनर्वितरण तक ही सीमित थे। यह सारा घटनाक्रम सारे साम्राज्यवादी छलावे को खोलकर रख देने वाला था। इसने भारतीय मेहनतकश जनता की चेतना व संघर्ष को नये स्तर पर पहुंचा दिया। 
  प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ही रूसी मजदूर वर्ग अपनी बोल्शेविक पार्टी के नेतृत्व मेें समाजवादी क्रांति करने में सफल हो गया। इस क्रांति ने न केवल विश्व युद्ध का रुख बदल डाला बल्कि आने वाले कालखंड के लिए विश्व इतिहास की धारा को ही एक नई दिशा दे डाली। इस क्रांति ने दुनिया भर के मजदूर वर्ग को प्रेरित करने के साथ-साथ राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों को भी तेजी प्रदान कर दी। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम पर भी यह प्रभाव स्पष्ट देखे जा सकते हैं। 
  1918-19 के साल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में खासे उथल-पुथल के साल थे। बिहार, गुजरात, संयुक्त प्रांत(वर्तमान उ0प्र0) व पंजाब में किसान आंदोलन रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। 1918 में ही अहमदाबाद के मिल मजदूरों की एक जबर्दस्त सफल हड़ताल हुई। किसान आंदोलनों के लिहाज से पंजाब क्षेत्र खासा सरगर्म था। गदर आंदोलन की प्रेरणा व बचे हुए गदरियों के नेतृत्व से पंजाब के किसान आंदोलन में अदम्य ऊर्जा भरी हुई थी। गांधी जी का औपचारिक नेतृत्व स्वीकारने के बावजूद यह आंदोलन गांधीवादी तौर-तरीकों तक सीमित नहीं थे। 
  भारतीय मेहनतकशों के इस बढ़ते संघर्ष के दमन के लिए ब्रिटिश शासकोें ने 18 मार्च,1919 को पूरे देश में कई काले प्रावधान लागू कर दिये, जिन्हें रोलेट एक्ट के नाम से जाना जाता है। इन प्रावधानों के तहत ब्रिटिश सरकार राजद्रोह के संदेह में किसी व्यक्ति को बिना किसी मुकदमे के जेल में बंद कर सकती थी, उसे नजरबंद कर सकती थी, उससे जमानत का अधिकार छीन सकती थी। किसी भी कार्यवाही पर बंदिश लगा सकती थी। ब्रिटिश सरकार ने एक प्रकार से युद्धकाल के आपात प्रावधानों को रोलेट एक्ट के नाम से जारी रखने का ही काम किया। रूसी क्रांति और बढ़ते भारतीय जनसंघर्ष से घबराकर ब्रिटिश सरकार अपनी बौखलाहट मेें खुले दमन पर उतारू हो चुकी थी। 
  रोलेेट एक्ट का देशभर में जबर्दस्त विरोध हुआ। महात्मा गांधी के नेतृत्व में ‘सत्याग्रह लीग’ इसके विरोध हेतु गठित की गई। कुल जमा इस प्रावधान ने संघर्ष को और भड़का दिया। खासकर पंजाब प्रांत में। 30 मार्च को दिल्ली, अमृतसर, मुल्तान, जालंधर, करनाल, अहमदाबाद, आदि शहरों में जबर्दस्त सफल हड़ताल का आयोजन हुआ। इसके बाद 6 अप्रैल को हुई हड़ताल ने तो ब्रिटिश सरकार व कांग्रेसी नेताओं दोनों को ही चैंका दिया।
  6 अप्रैल की इस हड़ताल से पंजाब के लेफ्टीनेंट गर्वनर ओडायर का पारा तो खास तौर पर चढ़ गया। वह पंजाब के संघर्षशील किसानों को तगड़ा सबक सिखाने का मन बना चुका था। अगले एक हफ्ते के घटनाक्रम व 6 माह लंबे मार्शल लाॅ से स्पष्ट है कि 13 अप्रैल 1919 का नरसंहार एक सोची-समझी दमनकारी नीति का परिणाम था।
  9 अप्रैल को रामनवमी का त्यौहार अमृतसर में राष्ट्रीय प्रतिरोध का उत्सव बन गया। उस दिन हिंदू-मुसलमानों के संयुक्त जुलूस निकलेे। इस एकजुटता से ब्रिटिश शासक और चिढ़ गये। उन्होंने इस एकजुटता के प्रतीक और पंजाब में आंदोलन के प्रमुख नेताओं डा. सत्यपाल व डा. किचलू को गिरफ्तार कर लिया। अमृतसर में फौज का भारी जमावड़ा इकट्ठा कर लिया गया। अपने नेताओं की गिरफ्तारी का विरोध करने के लिए 10 अप्रैल को लगभग 30 हजार लोगों का हुजूम डिप्टी कमिश्नर के बंगले पर पहुंचा। उस शांतिपूर्ण जन समूह पर गोली चलवा दी गई, जिसमें 20 लोग मारे गये। लेकिन शासकों की रक्तपिपासु आत्मा इतने से ही संतुष्ट नहीं थी। वह और ज्यादा खून बहाकर संघर्ष के जज्बे को डुबो देना चाहते थे। 13 अप्रैल को जलियांवाला बाग में उनकी यही मंशा थी। 
  जलियांवाला में; अपने नेताओं की गिरफ्तारी व रोलेट एक्ट का शांतिपूर्ण विरोध कर रहे; लगभग 20 हजार लोगों के हुजूम पर घेरकर गोलीबारी की। इस सभा की घोषणा से एक-दो दिन पहले ही लेफ्टीनेंट गवर्नर ओडायर ने अमृतसर शहर पूरी तरह से जनरल डायर की सैनिक टुकड़ी के हाथों सौंप दिया था। शहर के चप्पे-चप्पे में फौज थी, फिर भी बहादुर भारतीय मेहनतकश अपने संघर्ष की गरिमा के लिए जलियांवाला बाग में इकट्ठे हुए थे। जलियांवाला बाग की यह सभा नंगे दमन को खुली चुनौती थी। इस चुनौती को कुचलने के लिए जनरल डायर ने सारी हदें पार कर दीं। ब्रिटिश सरकार द्वारा गठित हंटर कमीशन के ही अनुसार करीब 379 लोग मारे गये। निश्चित ही वास्तविक आंकडे़ इससे कहीं ज्यादा थे। 
  जलियांवाला बाग हत्याकांड के तुरंत बाद पूंरे पंजाब में मार्शल लाॅ लागू कर दिया गया। यह मार्शल लाॅ अगले कुछ महीनों तक जारी रहा। इस दौरान भी बहुत सी हत्याएं की गईं। लोगों को नंगा कर चैराहों पर पीटा गया, सड़कों पर घसीटा गया। कल्पना को भयावह स्तर तक बढ़ाकर जो सोचा जा सकता है, वे सारे अत्याचार किये गये। किंतु यह सारे अत्याचार भी उस जज्बे को नहीं दबा सके, जिसे लेकर जलियांवाला बाग के शहीद जनसभा करने उतरे थे। 
  14-15 अप्रैल को इस हत्याकांड के विरोध में देश के 50 से ज्यादा शहरों में बड़े-बड़े प्रदर्शन हुए। लाहौर के भारतीय सैनिकों ने बगावत कर दी। दिल्ली और उत्तर-पश्चिम रेलवे के मजदूरों ने हड़ताल कर दी। उनके साथ-साथ किरानियों ने भी अपनी दुकानें बंद कर दीं। उत्तर, उत्तर-पश्चिम व मध्य भारत के कई जिलों में आक्रोशित जनता द्वारा सरकारी भवनों को आग के हवाले कर दिया गया। 
  उपरोक्त तात्कालिक आक्रोश अभिव्यक्ति के इतर इस हत्याकांड से ब्रिटिश शासकों के लिए उभरी घृणा ने भारत के मजदूरों-किसानों में संघर्ष के दीर्घजीवी बीज बो दिये। गौरतलब है कि भगतसिंह और उनके साथी क्रांतिकारियों की पीढ़ी जलियांवाला बागके घावों को दिलों पर लेकर ही बढ़ी हुई थी। 
  इतिहास में न जाने कितने जलियांवाला बाग रचे गये हैं और न जाने कितने रचे जाने बाकी हैं। किंतु एक बात पूर्णतः इतिहास प्रमाणित है। वह यह कि मेहनतकश आवाम के न्यायपूर्ण संघर्षों का जज्बा खून की नदियों में डुबोये कभी नहीं डूबता। ब्रिटिश शासकों के अत्याचारों का परिणाम भी इसे ही प्रमाणित करता है। अंततः जो डूबा वह ब्रिटिश साम्राज्यवाद का सूरज था न कि मेहनतकशों के संघर्ष का जज्बा। जलियांवाला बाग कांड के 28 साल बाद अंग्रेजों को भारत छोड़कर भागना पड़ा। पूरी दुनिया में ही अगले कुछ सालों में साम्राज्यवाद को प्रत्यक्ष औपनिवेशिक कब्जों की रणनीति से पीछे हटना पड़ा। एशिया-अफ्रीका के गुलाम देश एक के बाद एक आजाद होते चले गये।
  आज हम आजाद हैं किंतु फिर भी साम्राज्यवाद हमारे रूबरू है। साम्राज्यवादियों की रणनीति बदली है, किंतु फितरत नहीं। आज भी मुनाफे और कब्जों के लिए खून की नदियां बहा रहे हैं। बीसवीं सदी का क्रूर साम्राज्यवादी सत्य इक्कीसवीं सदी में भी नहीं बदला है। अफगानिस्तान, इराक, सीरिया, यूक्रेन, आदि-आदि इस सच की गवाही देते हैं। खुले-छिपे युद्धों में आज भी प्रतिवर्ष हजारों लोग मारे जा रहे हैं। इन साम्राज्यवादियों के साथ आजाद हुए मुल्कों के शासक पूंजीपति वर्ग ने भी जुगलबंदी कायम कर ली है। आजाद भारत में भारतीय शासक वर्ग ने अपने खुद के सैकड़ों जलियांवाला बाग रचे हैं। दमन की यह विरासत भारतीय पूंजीवादी शासकों ने अपने अग्रज अंग्रेजों से बखूबी सीखी है। कालेे कानूनों की परंपरा बदस्तूर जारी है।
  13 अप्रैल को जलियांवाला बाग के शहीदों को श्रद्धांजलि देते हुए हमें याद रखना होगा कि शहीद ऊधमसिंह ने ओडायर के शरीर को मार दिया था किंतु उसकी आत्मा आज भी हर पूंजीवादी व साम्राज्यवादी शासक के अंदर मौजूद है। ‘ओडायरों’ व ‘जनरल डायरों’ का अंतिम खात्मा पूंजीवाद-साम्राज्यवाद के खात्मे के साथ ही संभव है।

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