बुधवार, 1 अप्रैल 2015

सी.बी.सी.एस: पूंजीपतियों के लिए शिक्षा में एक नया सुधार

-दीपक
        विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) द्वारा प्रत्येक केन्द्रीय विश्वविद्यालय में आगामी सत्र 2015-16 से एक नया प्रोग्राम; सी.बी.सी.एस को; लागू करने के निर्देश कुलपतियों को दिये गये हैं। यूजीसी द्वारा इसे उच्च शिक्षा में ‘सुधार’ का नाम दिया जा रहा है। 
        दरअसल सी.बी.सी.एस (Choise Based Credit System) उच्च शिक्षा में चली आ रही नम्बरिंग प्रणाली को क्रेडिट में बदलने की बात करता हैै। यूजीसी के अनुसार देश में अलग-अलग विश्वविद्यालय भिन्न-भिन्न तरीका अपनाते रहे हैं। ऐसे में विभिन्न विश्वविद्यालयों में एक असमानता पैदा हो जाती है। जिसकी वजह से किसी छात्र को एक विश्वविद्यालय से दूसरे विश्वविद्यालय में प्रवेश लेने में समस्या आती है।
        यूजीसी के अनुसार ये उच्च शिक्षा में बड़ी समस्या है। जिसका समाधान क्रेडिट्स के जरिये किया जायेगा। जिसमें हर विषय के निश्चित क्रेडिट्स होंगे। प्रत्येक छात्र को अपनी डिग्री प्राप्त करने के लिए उन निश्चित क्रेडिट्स को पूरा करना होगा और ये भिन्न-भिन्न विश्वविद्यालयों से भी कर सकते हैं। यानि किसी छात्र को स्नातक करने के लिए तीन साल एक ही विश्वविद्यालय में करने की जरूरत नहीं बल्कि वे स्नातक के लिए निश्चित क्रेडिट्स को भिन्न-भिन्न विद्यालयों से पूरा कर अपनी डिग्री प्राप्त कर सकते हैं। इन अर्थों में छात्र के पास एक विकल्प है, कि वह किसी भी विद्यालय से अपनी डिग्री प्राप्त कर सकता है।
  साथ ही इस नये प्रोग्राम में कोर्स का बंटवारा तीन हिस्सों में होगा। पहला हिस्सा कोर कोर्स का होगा, जिसे करना अनिवार्य होगा। दूसरा हिस्सा इलैक्टिव कोर्स का होगा, जिसमें छात्रों के सामने अन्य विषयों के विकल्प मौजूद होंगे और उनमें से उसे चुनना होगा। इसका तीसरा हिस्सा फाउण्डेशन कोर्स का होगा, जिसमें भी अनिवार्य और चुनने के विकल्प वाले विषय मौजूद होंगे। 
  गौरतलब है कि इससे पहले भी यूजीसी ने दिल्ली विश्वविद्यालय में FYUP के जरिये उच्च शिक्षा में फाउण्डेशन कोर्स डालने की कोशिश की थी। जिसे छात्रों-शिक्षकों के विरोध के चलते खुद यूजीसी को FYUP प्रोग्राम को असंवैधानिक करार देते हुए वापस लेना पड़ा। सिर्फ एक साल बीतते ही यूजीसी फिर से फाउण्डेशन कोर्स लेकर आ रहा है। आखिर इसकी वजह क्या है? क्यों यूजीसी को उच्च शिक्षा में बदलाव की जरूरत पड़ रही है?
        दरअसल किसी भी व्यवस्था में शिक्षा का मतलब उस व्यवस्था को चलाने के लिए नये व्यक्तियों को तैयार करना होता है। क्योंकि पूंजीवादी व्यवस्था में सब कुछ बाजार और मुनाफे से तय होता है, इसलिए शिक्षा भी मुनाफे को बढ़ाने वाले लोगों को तैयार करने का साधन होती है। 1990 के बाद से ही भारतीय बाजार में तेजी से कई बदलाव हुए हैं (जिनमें उद्योगों में नई तकनीक आना, सेवा क्षेत्र का तेजी से विस्तार, विदेशी कंपनियों का तेजी से आगमन आदि शामिल है)। जिसने नये तरह के कुशल वर्करों की मांग खड़ी की है। ऐसे वर्कर जो तेजी से बदलती तकनीक के साथ सामंजस्य बैठा सकें, जो भिन्न-भिन्न प्रकार के कामों को कर सकें, आदि। पुरानी विश्वविद्यालय प्रणाली के तहत दी जा रही शिक्षा उक्त मांग को पूर्ण करने में अक्षम साबित हो रही है। इसके चलते बाजार की मांग के अनुसार शिक्षा में बदलाव किया जा रहा है। जिनको स्वयं पूंजीपति वर्ग इन शब्दों में व्यक्त करता रहा है कि हमें हमारी जरूरत के मुताबिक वर्कर नहीं मिल पा रहे हैं। इसका कहीं से ये मतलब नहीं है कि नयी प्रणाली से शिक्षित युवक को जल्दी और बेहतर रोजगार मिल जायेगा बल्कि ये बेरोजगारी को और अधिक बढ़ायेगा। फाउण्डेशन कोर्स के जरिए ऐसे व्हाइट कालर मजदूरों को तैयार किया जाएगा, जिससे एक ही व्यक्ति 2-3 प्रकार के काम कर सके। जो नौजवानों के बीच बेरोजगारी और पूंजीपतियों के मुनाफे को तेजी से बढ़ायेगा।
  यूजीसी द्वारा नम्बरिंग सिस्टम की जगह ग्रेडिंग सिस्टम लाना विश्वविद्यालयों में समानता के लिए नहीं है। क्योंकि ऐसा होता तो सभी विश्वविद्यालयों में नम्बरिंग प्रणाली लागू करके भी ये समानता लायी जा सकती थी। और यह आसान भी होता क्योंकि अधिकांश विश्वविद्यालय में पहले से ही ये प्रणाली लागू है। दरअसल इस ग्रेडिंग प्रणाली के पीछे कांग्रेस सरकार द्वारा विश्वविद्यालय विधेयक-2010 काम कर रहा है। इस बिल के तहत कई विदेशी विश्वविद्यालय अपनी ब्रांच भारत में खोलेंगे। इन विदेशी विश्वविद्यालयों में पहले से ही क्रेडिट सिस्टम लागू है। ऐसे में भारत में मौजूदा प्रणाली उनसे मेल नहीं खाती। इसी समानता को स्थापित करने के लिए यूजीसी समानता की रट लगा रही है। विदेशी वि.वि. के लिए तैयार किया जा रहा ये माहौल शिक्षा के निजीकरण को और अधिक बढ़ायेगा। पहले ही सरकार द्वारा शिक्षा बजट में कटौती करके शिक्षा देने की जिम्मेदारी से बचा जा रहा है। विदेशी वि.वि. के खुलने से ये प्रक्रिया और तेजी से बढ़ेगी। क्या पूंजीवादी व्यवस्था में स्थित सभी विश्वविद्यालयों में वाकई समानता आ सकती है? क्या दिल्ली वि.वि. और उत्तराखंड में स्थित कुमाऊं वि.वि. में समानता आ सकती है? क्या झारखण्ड के किसी विश्वविद्यालय से कुछ क्रेडिट पूरे करके छात्र सीबीसीएस के तहत जेएनयू में एडमिशन ले सकता है? इन सबका स्वभाविक सा जवाब है, नहीं। तो फिर क्या मतलब रह जाता है, समानता व विकल्प का।  
  यूजीसी द्वारा प्रस्तावित च्वाइस बेस क्रेडिट सिस्टम(सीबीसीएस) छात्रों के लिए विकल्प की बात करता है। यह कहता है कि ये सिस्टम एक कैफेटेरिया की तरह काम करेगा। जैसे आप कैफेटेरिया में अपनी इच्छानुसार कुछ भी खा सकते हैं। उसी प्रकार सीबीसीएस सिस्टम में आपके पास विषय और कालेज चुनने का विकल्प होगा। यूजीसी द्वारा दिये जा रहे, इस तर्क के पीछे छिपी मक्कारी और झूठ को मेहनतकश परिवारों के छात्र अच्छी तरह से जानते हैं। क्योंकि कैफेटेरिया में भी उसका विकल्प इससे तय होता है कि उसकी जेब में कितने पैसे हैं। उसकी इच्छा कुछ भी खाने की हो पर वह पूरी तभी होगी जब उसके जेब में पैसे होंगे। और बिल्कुल इसी तरह की इच्छा नए सीबीसीएस से स्थापित की जायेगी। आपके जेब में पैसे आपके कालेज, वि.वि. तय करेंगे। आपके जेब में पैसे हैं तो आप आक्सफोर्ड की भारतीय ब्रांच में पढ़िए, कुछ कम पैसे हैं तो बिहार की यूनिवर्सिटी में पढ़िए और नहीं हैं तो घर पर बैठिए। ये आपका विकल्प है।
  कुल मिलाकर सीबीसीएस निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण के दौर में पूंजीपतियों के हितों के मुताबिक उच्च शिक्षा को ढालने की कोशिश है जिसका पुरजोर विरोध होना चाहिए। इसके खिलाफ मुफ्त और वैज्ञानिक शिक्षा की मांग को, नए कालेज खोलने की मांग को बुलंद करने की जरूरत है। इसके लिए छात्रों-नौजवानों को संगठित कर नए जुझारू संघर्षों को खड़ा करने की जरूरत है।

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