शनिवार, 25 नवंबर 2023

योग: कल और आज  

                                                                                                                      - मोहन

योग क्या है? इस सवाल का जवाब एक तरफ एकदम सरल है और दूसरी तरफ इतना जटिल है कि आप जवाब को सुनने व समझने में अपने को असमर्थ पायेंगे। योग क्या है का सीधा, सरल व उपयोगी व्यवहारिक जवाब यह है कि यह एक शारीरिक व्यायाम शास्त्र है।

योग एक शारीरिक व्यायाम शास्त्र के रूप में ही अपना सच्चा अर्थ रखता है न कि किसी दार्शनिक सम्प्रदाय के रूप में। यद्यपि एक दार्शनिक सम्प्रदाय के रूप में इसे मान्यता मिलती रही है। खासकर जब भारत के सबसे प्राचीन दार्शनिक सम्प्रदायों की चर्चा होती रही है।भारत में योग को एक आस्तिक परन्तु निरीश्वरवादी दार्शनिक सम्प्रदाय के रूप में देखा जाता रहा है। यद्यपि आज ऐसा नहीं है। 

आस्तिक और नास्तिक का जो अर्थ हम आज लेते हैं वो अर्थ पुराने समय में नहीं लिया जाता था। आस्तिक से आज हमारा अर्थ ऐसे व्यक्ति से होता है जो ईश्वर में आस्था रखता है और नास्तिक ऐसे व्यक्ति को माना जाता है जो ईश्वर, धर्म आदि पर आस्था नहीं रखता है। वह मानता है कि जगत कि उत्पत्ति किसी ईश्वर ने नहीं की है। यह अपने आप उत्पन्न हुयी है या फिर कि सृजन और विनाश से, जो एक-दूसरे से अभिन्न रूप में जुड़े हैं और वह सदा चलता रहता है।

पुरातन काल में आस्तिक का अर्थ था- वेदों में आस्था रखने वाला तथा नास्तिक का अर्थ था- ऐसा व्यक्ति जिसकी वेदों पर कोई आस्था नहीं थी। इस तरह ऐसे व्यक्ति अथवा दार्शनिक सम्प्रदाय हो सकते थे जो निरीश्वरवादी हो परन्तु वेदों पर अपनी आस्था व्यक्त करते हों। अपने प्रारम्भिक रूप में योग एक ऐसा ही दर्शन था जिसमें ईश्वर, आत्मा का कोई स्थान नहीं था। बहुत बाद में जाकर ही ईश्वर की धारणा को स्वीकारा गया। वह भी जब योग का संबंध सांख्य दार्शनिक सम्प्रदाय से हो गया था और उसने ‘सांख्य-योग’ का नाम पा लिया था।

आज भले ही यह बहुत अजीबोगरीब लगता हो कि कोई आस्तिक हो परन्तु निरीश्वरवादी हो परन्तु प्राचीन भारत में यह एक सामान्य बात थी। तब वेदों की सर्वोपरिता अथवा परम स्वीकार्यता थी परन्तु ईश्वर की धारणा की सर्वोपरिता नहीं थी।

भारत के प्राचीन दार्शनिक सम्प्रदायों को मोटे तौर पर नौ भागों में विभक्त किया जाता है। जिनमें से आठ ऐसे थे जो ईश्वर को नहीं मानते थे। इनमें से छः पुरानी धारणा के अनुसार आस्तिक और तीन नास्तिक थे। एक मात्र वेदान्त ही ईश्वर की धारणा को शुद्ध व खुले रूप में मानता था।

ये नौ दार्शनिक सम्प्रदाय थे:

1) मीमांसा: इसे पूर्व मीमांसा भी कहते थे। इसमें ईश्वर की धारणा नहीं है। वैदिक कर्मकाण्ड, यज्ञविद्या को यह स्वीकारता था। यह कुछ-कुछ आदिम जादू सदृश था। जैमिनी, शबर, कुमारिल इसके प्रवर्तक थे। किंचित यह दार्शनिक सम्प्रदाय भौतिकवादी था। मीमांसा की एक मशहूर उक्ति है, ‘‘उत्पत्ति और विनाश एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है।’’ यह सम्प्रदाय आस्तिक परन्तु निरीश्वरवादी था।

2) वेदान्त: इसे उत्तर मीमांसा भी कहते थे। वेदान्त का शाब्दिक अर्थ हुआ ‘वेदों का अन्तिम भाग’। इसमें वेदों और ईश्वर की सर्वोपरिता है। ‘भारतीय दर्शन’ के रूप में इसे बहुप्रचारित व स्थापित किया जाता है। आदिगुरू शंकराचार्य से लेकर स्वामी विवेकानन्द इसी के प्रवर्तक थे। हालांकि वेदान्त में द्वैत, अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैत आदि अनेकानेक उपशाखाएं रही हैं।

3) सांख्य: यह दर्शन अपने प्रारम्भ में अनिश्वरवादी व नास्तिक था। बाद के समय में इसने वेदों को प्रमाण के रूप में मान लिया था। सांख्य का अर्थ व उत्पत्ति को लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं है। यह एक भौतिकवादी दर्शन था जो कि सत, रज, तम को मूल तत्व मानता था। इनके अनुसार सत प्रकाश, रज गति और तम भार (स्थिति) को व्यक्त करता था। इसके प्रवर्तक किन्हीं कपिल को माना जाता है।

4) योग: योग में भी ईश्वर की धारणा शुरू में नहीं रहती थी। योग का इतिहास हजारों वर्ष पुराना है। सिन्धु घाटी सभ्यता में भी इसके प्रमाण खोजे जाते हैं। कबीलाई शमनवाद या जादू टोनावाद इसके मूल में था। शरीर ही सब कुछ की धारणा पर आधारित इस व्यायाम शास्त्र ने बाद के समय में विविध दार्शनिक सम्प्रदायों व धर्मों (वेदान्त, बौद्ध, जैन) के साथ अपना विशिष्ट रूप पा लिया। यह विश्वास किया जाने लगा कि या तो इसकी क्रियाओं द्वारा अति प्राकृतिक शक्तियां हासिल की जा सकती हैं या फिर आत्म साक्षात्कार से लेकर ईश्वर का साक्षात्कार किया जा सकता है। कोई पतंजलि इसके प्रवर्तक या संग्रहकर्ता माने जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि महावीर व गौतम बुद्ध ने योगाभ्यास के जरिये सिद्धि हासिल की थी।

5) न्याय: यह दर्शन अपने प्रारम्भ में नास्तिक व निरीश्वरवादी था। इस दर्शन ने वेदों को प्रमाण के रूप में इसलिए स्वीकारा ताकि यह अलग-थलग न पड़ जाय। यह इस दर्शन के अनुसार विरोधाभासी था परन्तु इसने इस दर्शन के अस्तित्व को बनाये रखने में मदद की। यही बात वैशेषिक पर भी लागू होती है। ‘न्याय-वैशेषिक’ के युग्म के रूप में अक्सर इन्हें जाना जाता है। तर्कशास्त्र व वाद-विवाद की प्रणालियों को इसने निरूपित किया था। विभिन्न प्रमाणों की सहायता से वस्तु तत्व की परीक्षा को न्याय कहा गया। कोई गौतम इसके प्रवर्तक व ‘न्याय-सूत्र’ इनकी रचना मानी जाती है।

6) वैशेषिक: इस दर्शन को परमाणुवाद, कणादवाद, औलूक्य दर्शन भी कहा गया। यह दर्शन भी न्याय की तरह नास्तिक, निरीश्वरवादी था तथा बहुत बाद में इसने वेदों को अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिए एक आवरण के तौर पर स्वीकार किया। कणाद इसके प्रवर्तक थे जो कि मानते थे कि प्रत्येक प्रत्यक्ष दिखायी देने वाला पदार्थ परमाणु से निर्मित है। पदार्थों में सबसे ज्यादा महत्व ‘द्रव्य’ का था और इनकी संख्या नौ (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा और मन) थी।

7) बौद्ध: यह दर्शन नास्तिक व निरीश्वरवादी था। यह दर्शन कालान्तर में कई सम्प्रदाय मे विभक्त हो गया।

8) जैन: यह दर्शन भी नास्तिक, निरीश्वरवादी था। इसकी उत्पत्ति आदिम जैववाद में मानी जाती है। यह दर्शन बौद्ध दर्शन से भी पुराना है।

9) लोकायत: वेद विरोधी होने के कारण इस दर्शन पर सर्वाधिक हमले सत्तारूढ़ वर्ग द्वारा बोले गये। इनके ग्रन्थ जला दिये गये और हर तरह से इनकी निन्दा की गयी। लोकायत, चार्वाक, बहिस्पाप जैसे नामों से इन्हें जाना गया। ये भौतिकवादी थे। अजित केशकम्बलि व पायासि इसके प्रमुख चिंतकों में थे। लोकायत का शाब्दिक अर्थ होता है लोक में प्रचलित।

इस तरह से योग प्राचीन भारत के प्रमुख दार्शनिक सम्प्रदाय में एक था परन्तु समय के साथ अधिक से अधिक रहस्यमयी और सामान्य जन-जीवन से दूर होता गया। योग की सामाजिक जीवन में वापसी पिछले कुछ दशकों में ही एक बदले रूप में हुयी है। पहले इसे स्वामी दयानन्द, स्वामी विवेकानन्द जैसे राष्ट्रीय धार्मिक पुनरुत्थानवादी हिन्दू संतों- सन्यासियों आदि ने बहुप्रचारित किया और फिर कुछेक राष्ट्रीय नेताओं ने इसे लोकप्रिय बनाया। इसे भारत की अमूल्य धरोहर के रूप में पेश किया। भारत के पहले प्रधानमंत्री पण्डित जवाहर लाल नेहरू की शीर्षासन करते हुए तस्वीर बहुप्रचारित हुयी थी। इसे इसके साथ स्कूली पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया गया। बीसवीं सदी का अंत आते-आते योग के नाम पर एक से बढ़कर एक धन्धेबाज पैदा हो गये। पूंजीवादी समाज जन्य कई किस्म की मानसिक समस्याओं से लेकर शारीरिक रोगों के निदान के रामबाण नुस्खे के रूप में योग को प्रस्तुत किया जाने लगा। ‘योग बनाये निरोग’ का नुस्खा रामदेव, जग्गी सद्गुरू जैसे बड़े-बड़े धन्धेबाजों से लेकर गली-नुक्कड़ चौराहों पर योग विशेषज्ञों का नुस्खा बन गया। खाये-अघाये लोगों को योग का रहस्यवादी रूप खूब पसंद आने लगा। योग इस तरह से उपभोक्तावादी संस्कृति का हिस्सा बनकर उस संस्कृति से उत्पन्न होने वाले विकारों का रामबाण नुस्खा बन गया।

रामदेव जैसे ठगवैद्यों ने इसे हर तरह की शारीरिक बिमारी का इलाज बताना शुरू कर दिया। आधुनिक चिकित्साशास्त्र को नकारते हुए ठगवैद्य एक से बढ़कर एक दावे करने लगे। टेलीविजन चैनल ऐसे ठगवैद्यों के जरिये अपनी टी आर पी (टारगेट रेटिंग पाइंट या टेलीविजन रेटिंग पाइंट) बढ़ाने लगे। योग के जरिये ठगवैद्यों ने अपना कारोबार कई-कई हजार करोड़ रुपये तक पहुंचा दिये।

इन ठगवैद्यों के साथ योग को हिन्दू फासीवादियों ने अपने मंसूबे को आगे बढ़ाने के लिए खुले-छिपे तौर पर इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। इसमें सबसे बड़ी भूमिका नरेन्द्र मोदी ने निभायी। योग हिन्दू फासीवादियों का एक राजनैतिक हथियार बन गया। इसका रूप तो शारीरिक व्यायाम (प्राणायाम, आसन) का था परन्तु अंतर्वस्तु हिन्दू फासीवादी मूल्यों व संस्कृति की थी। भारत को एक हिन्दू फासीवादी राज्य व एक साम्राज्यवादी शक्ति बनाने का मंसूबा पालने वाले हिन्दू फासीवादी योग को अपने मकसद के लिए एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने लगे। यह अकारण नहीं था कि इसका विरोध धार्मिक अल्पसंख्यक स्वाभाविक तौर पर करने लगे। क्योंकि योग अब सिर्फ शारीरिक व्यायाम नहीं था बल्कि ‘सूर्य नमस्कार’ जैसे आसन के जरिये हिन्दू मूल्य-मान्यताओं को थोपा जा रहा है। ‘ओउम्’ आदि के उच्चारण के जरिये नरम तरीकों से हिन्दू मंत्रों को लोकप्रिय बनाने की कोशिश हो रही थी। धार्मिक अल्पसंख्यक जो पहले ही हिन्दू फासीवादियों के निशाने पर थे योग अब उनके उत्पीड़न का एक और साधन बन गया। योग का विरोध करने वालों को भारतीय संस्कृति का विरोधी, देशद्रोही बताया जाने लगा।

योग को हिन्दू फासीवादियों ने ही नहीं विकृत किया बल्कि यह काम अब तेजी से साम्राज्यवादी उपभोक्तावादी संस्कृति ने भी किया है। योग को एक फैशन का हिस्सा बनाकर रातों-रात कई-कई व्यापारी पैदा हो गये। पश्चिमी उपभोक्तावादी संस्कृति ने योग को अपनी पतित स्त्री विरोधी संस्कृति का एक साधन बना लिया। ‘हॉट योग’ ‘इरोटिक योग’ ‘न्यूड योग’ आदि के नाम पर उपभोक्तावादी यौन संस्कृति से इण्टरनेट अटा पड़ा है। कभी योग ‘साफ्ट पोर्नोग्राफी’ का रूप धारण कर रहा है तो कभी यौन शक्ति बढ़ाने वाला नुस्खा और कभी कामुकता के प्रचार का साधन बन रहा है। योग के साथ जुड़े रहस्यवाद और अति प्राकृतिक शक्तियां हासिल करने में सक्षम बनाने वाले प्रचार व दंतकथाओं ने इस सब में अपनी तरह से योगदान दिया है। ऐसा प्रचार व दंतकथायें अंतहीन हैं। कोई कहता था कोई योगी पानी में चल सकता था तो कोई कहता कि योगी सूक्ष्म शरीर धारण कर कहीं भी आ-जा सकता था तो कोई कहता था कि योग के जरिये कोई आदमी भूत-भविष्य सब जान सकता है। अब कहा जाने लगा चिरायु तक यौन आनन्द लिया जा सकता है।

अंत में यह सवाल उठाया जाय कि योग का भविष्य क्या है। योग वर्तमान पूंजीवादी समाज में शासक वर्ग खासकर हिन्दू फासीवादियों व पतित साम्राज्यवादी संस्कृति के ठेकेदारों के हाथ का एक खिलौना भर है। वह वर्तमान व्यवस्था के दायरे में अपनी इस नियति के लिए अभिशप्त है। उसका भविष्य एक शारीरिक व्यायाम शास्त्र के रूप में भी तब ही सुरक्षित हो पायेगा जब वह आधुनिक विज्ञान, आधुनिक चिकित्साशास्त्र का साथ पाये। मजदूर-मेहनतकशों के जीवन में उसको स्थान तभी मिल सकता है जब मजदूर-मेहनतकशों को ऐसा जीवन मिले जहां उन्हें व्यायाम करने की फुर्सत तो हो। शायद यह सब कुछ इस पूंजीवादी समाज में तो नहीं परन्तु समाजवाद में अवश्य संभव होगा।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें