शनिवार, 25 नवंबर 2023

 आगामी लोक सभा चुनाव और छात्र-नौजवान

पांच राज्यों में विधान सभा चुनावों की घोषणा हो चुकी है। इन चुनावों को आगामी लोक सभा चुनावों के लिए सेमी फाइनल माना जा रहा है। इन विधान सभा चुनावों के नतीजे लोक सभा चुनावों को प्रभावित करेंगें, ऐसा समझा जा रहा है।

ये विधान सभा चुनाव और आगामी लोक सभा चुनाव ऐसे दौर में होने जा रहे हैं, जब हिन्दू बहुसंख्यकवाद पर आधारित फासीवादी ताकतें न सिर्फ मजदूर-मेहनतकश आबादी पर चौतरफा हमला जारी रखे हुए हैं, बल्कि इस हमले का दायरा शासक वर्ग की अन्य पार्टियो के नेताओं, मध्यम वर्ग के सचेत लोगों, पत्रकारों, मोदी सरकार के दमनकारी कदमों का विरोध करते वाले जनवादी अधिकारों की आवाज उठाने वाले कार्यकर्ताओं और दलितों, महिलाओं, जन-जातियों और अल्पसंख्यकों विशेष तौर पर मुसलमानों तक बढ़ा दिया गया है।

एक तरफ हर जनतांत्रिक आवाज का गला घोंटने की कोशिशें हो रही हैं, दूसरी तरफ देश की मजदूर-मेहनतकश आबादी को कंगाल-बदहाल करने की कीमत पर बड़े पूंजीपतियों और उनमें भी चंद घरानों को देश के संसाधनों और अवरचना के क्षेत्र को सौंप कर लूट की खुली छूट दी जा रही है। बैंकों में जमा लोगों के पैसों को पूंजीपतियों को सौंपकर उन्हें देश से बाहर भगाने में मदद की गयी है और की जा रही है। इन सब के चलते अरबपति मालामाल हो रहे हैं। लेकिन मजदूर-मेहनतकश आबादी की क्रय शक्ति लगातार घटती जा रही है। लोगों की थाली की दाल पतली ही नहीं बल्कि गायब होती जा रही है। महंगाई सुरसा की तरह बढ़कर आसमान छू रही है। बेरोजगारी पिछले 45 वर्षों में सबसे ऊँचे स्तर पर है। भ्रष्टाचार को छिपाने की लाख कोशिशों के बावजूद बड़े पैमाने पर खुल कर सामने आ रहा है। यह हाल ही में संसद के सामने आयी कैग की रिपोर्ट से सामने आ चुका है।

मोदी की हिन्दूवादी फासिस्ट सरकार ने देशी-विदेशी पूंजीपतियों के हित में अपने एजेण्डे को परवान चढ़ाने के साथ-साथ तरह-तरह के अल्पसंख्यक विरोधी अभियान चलाये। कभी गोहत्या के नाम पर, कभी लव जिहाद के नाम पर, कभी हिजाब के नाम पर और नाना प्रकार से मुस्लिमों को हमले का निशाना बनाया। अस्सी प्रतिशत बनाम बीस प्रतिशत, शमशान बनाम कब्रिस्तान, लोगों को कपड़ों से पहचाना जा सकता है, इत्यादि इनकी हिन्दू आबादी को हिन्दू-मुसलमान में विभाजित करने की योजनायें लगातार चलती रहती हैं। इससे इस सरकार ने एक तरफ लोगों की अपनी बुनियादी समस्याओं से उनका ध्यान हटाने का काम किया है और दूसरी तरफ इनका फासिस्ट एजेण्डा, हिन्दू बहुसंख्यकवाद का एजेण्डा लागू करने में मददगार रहा है।

मोदी सरकार ने अपने फासिस्ट एजेण्डे को आगे बढ़ाने के लिए पहले प्रचार तंत्र (अखबार और मीडिया) को अपने साथ खड़ा किया। इसके लिए प्रलोभन और डराने-धमकाने दोनों का सहारा लिया। तकरीबन पूरा पूंजीवादी प्रचार तंत्र (अखबार और टीवी चैनल) हिन्दू-मुस्लिम विभाजनकारी एजेण्डा लेकर पिछले नौ वर्षों से ज्यादा समय से मशगूल है। ये झूठी खबरों से लेकर अफवाहें फैलाने तक के काम में लगे रहे हैं। इसके अतिरिक्त इनका आई.टी. सेल और भी ज्यादा व्यस्त रहा है।

मोदी सरकार के फासिस्ट एजेण्डा को आगे बढ़ाने में एक हद तक अन्य संवैधानिक संस्थायें बाधा बन सकती थी। उसने सिलसिलेवार तरीके से इन संवैधानिक संस्थाओं को पालतू बनाया। इनमें अपने विश्वस्त लोगों को बैठाया। किन्तु-परन्तु करने वाले नौकरशाहों को किनारे लगाया। ई.डी.,सी.बी.आई., चुनाव आयोग, सी.वी.सी, डी.आर.आई., इनकम टैक्स आदि सभी संस्थाओं पर नियंत्रण स्थापित कर लिया। न्यायपालिका को भी काफी हद तक अपने नियंत्रण में ले लिया। मोदी सरकार की पूरी कोशिश है कि इसे भी पूर्णरूपेण अपने नियंत्रण में ले आये।

इतना काम करने के अतिरिक्त शिक्षण संस्थायें और शिक्षा व्यवस्था ऐसा क्षेत्र था, जिस पर प्रशासनिक और बौद्धिक नियंत्रण करना जरूरी था। इस क्षेत्र में तरह-तरह के वाद-विवाद और बहसें होती रही हैं। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ द्वारा संचालित शिक्षण संस्थायें फासिस्ट दृष्टि को समूचे शिक्षा जगत पर स्थापित कराने में नाकाफी थी। मोदी सरकार ने शिक्षण संस्थाओं में प्रशासनिक पदों पर आर.एस.एस. के लोगों की नियुक्तियां कर दी। इनमें भी ऐसे लोगों को भरा गया जिनके अंदर शैक्षणिक योग्यता उपयुक्त नहीं थी और दकियानूसी मानसिकता से ग्रस्त थे। विश्वविद्यालयों और शैक्षणिक संस्थाओं के भीतर उग्र राष्ट्रवाद और अंधराष्ट्रवाद की आंधी चलायी गयी। वहां के जनवादी माहौल और तर्कपरक वाद-विवाद को समाप्त किया गया। गोडसे और सावरकर को स्थापित किया जाने लगा। शिक्षकों, कर्मचारियों और छात्रों के लिए जनतांत्रिक स्पेस को खत्म किये जाने की कोशिशें की जाने लगी। इसके अतिरिक्त पाठ्यक्रमों में ऐसे परिवर्तन किये जो छात्रों के अंदर तर्कशीलता और वैज्ञानिकता विरोधी हैं। शिक्षा का निजीकरण और व्यवसायीकरण बड़े पैमाने पर किया गया। उच्च शिक्षा अब अधिकाधिक गरीब व निम्न मध्य वर्ग से आने वाले छात्रों की पहुँच से बाहर हो गयी है।

इस प्रकार पिछले नौ वर्षों से ज्यादा समय से हिन्दूवादी फासिस्ट एजेण्डा को पूरी तौर पर लागू करने में मोदी सरकार तेज रफ्तार से आगे बढ़ती गयी है। एक नेता को लगभग भगवान का दर्जा दे दिया गया है। अंधभक्तों की पूरी फौज है। जो दिन-रात मोदी-मोदी करती रहती है। बजरंग दल जैसी गुण्डावाहिनियां हैं, जो विरोधियों विशेष तौर पर अल्पसंख्यकों पर हमले करती हैं। ये तर्कपरक लोगों की हत्या करते रहे हैं। हिन्दी-हिन्दू-हिन्दूस्तान की प्रचार मण्डली है जो हर विविधता को एक रंग से रंग देने पर आमादा है। एक सर्वोच्च नेता की तानाशाही, उग्र सैन्यवाद और अंधराष्ट्रवाद के हथियार इनका अभियान हैं।

बीते 10 वर्षों में यह फासीवादी सरकार छात्रों के साथ ही समाज के बाकी मेहनतकश तबकों पर भी हमलावर रही है। मजदूर विरोधी श्रम संहितायें, किसान विरोधी कृषि कानून, अल्पसंख्यक- दलित-आदिवासी विरोधी नागरिकता बिल, कश्मीर से धारा-370 व 35ए का खात्मा कर उसे जेल में तब्दील करना दिखलाता है कि यह सरकार हर मेहनतकश तबके-उत्पीड़ित राष्ट्रीयता पर हमलावर है।

ऐसा नहीं है कि इन हमलों को जनता-छात्रों-युवाओं ने यूं ही सहन कर लिया है। उन्होंने कदम-कदम पर सरकार को मुंहतोड़ जवाब दिया। तमाम केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में संघर्षरत छात्र, बेरोजगारी के खिलाफ लड़ते युवा, सीएए-एनआरसी विरोधी देशव्यापी संघर्ष और सबसे बढ़कर सफल किसान आंदोलन मोदी सरकार को न केवल चुनौती देते रहे बल्कि उसके अत्याचारी मंसूबों की राह में अवरोध भी खड़े करते रहे। फिर भी कहना गलत नहीं होगा कि ये संघर्ष समाज की रग-रग में जहर घोलते हिन्दू फासीवादी ताकतों को समूल उखाड़ फेंकने, उन्हें इतिहास के अजायबघर में पहुंचाने से काफी दूर हैं।

मोदी सरकार फासीवादी एजेण्डे को लेकर करीब पिछले नौ वर्षों से आगे बढ़ती गयी है। वह इसी एजेण्डे को लेकर आगे बढ़ रही है। लेकिन जहां तक कांग्रेस सहित दूसरी तमाम विपक्षी पार्टियों का सम्बन्ध है वे भी उन्हीं आर्थिक नीतियों पर चलने की बात कर रही हैं जो मोदी सरकार की आर्थिक नीतियां हैं। ये भी पूंजीपति वर्ग की उसी तरह सेवा करेंगे जिस तरह मोदी सरकार कर रही है। हां, कुछ इक्का-दुक्का विशिष्ट बातों में अंतर हो सकता है।

इसलिए यदि ये विरोधी पार्टियां जीत भी जायें तो मजदूर-मेहनतकश लोगों और उनकी छात्र-नौजवान संतानें इनकी निगाह में भिखारियों या भिखारी वर्ग की ही संतानें होंगी।

इसलिए आगामी चुनाव में यदि फासिस्ट एजेण्डा लेकर चलने वाली पार्टी भाजपा चुनाव में हार जाती है, तो मजदूर-मेहनतकश की जिन्दगी की स्थिति में कोई बुनियादी फर्क नही पड़ेगा। लेकिन क्या इससे कोई भी फर्क नहीं पड़ेगा? पिछले दस वर्षों में समाज में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का जितना गहरा विषाक्त माहौल बना दिया गया है, उसकी जड़ें जितनी गहरी जमा दी गयी हैं, उसे महज चुनाव की हार-जीत से खत्म नहीं किया जा सकता। फिर भी भाजपा की हार उसका मनोबल कुछ कमजोर जरूर करेगी।

इसलिए छात्रों-नौजवानों के सचेत हिस्से को जहां फासिस्ट ताकतों के विरुद्ध संघर्ष करने और पराजित करने में मजदूर-मेहनतकश लोगों के साथ मिलकर अपनी भूमिका निभानी है, वहीं उन्हें मौजूदा लुटेरी पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ क्रांतिकारी संघर्ष को भी तेज करना है।

इस चुनाव के मौके पर छात्र-युवाओं को फासीवादी दुष्प्रचार के झांसे में आने से रोकना होगा। साथ ही उन्हें यह भी समझना होगा कि महज चुनाव में हार से फासीवादी विषबेल का खात्मा सम्भव नहीं है। फासीवादी विषबेल का सफाया छात्रों-युवाओं-मेहनतकश तबकों की क्रांतिकारी लामबंदी ही कर सकती है जो विचारधारा-राजनीति से लेकर सड़कों तक पर फासीवादी ताकतों का मुकाबला करेगी। जो फासीवादी विषबेल के सफाये के साथ-साथ पूंजीवादी निजाम से भी हिसाब चुकता कर नये समाज; समाजवादी समाज; की स्थापना करेगी। इसीलिए छात्रों-युवाओं को फासीवाद से संघर्ष के नाम पर विपक्षी इंडिया गठबंधन के पाले में जाने के बजाय इंकलाब की राह पर आगे बढ़ना होगा।

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