काकोरी शहीद राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी
-महेन्द्र
‘‘मृत्यु क्या है? यह जीवन का ही दूसरा पहलू है। जीवन क्या है? यह भी मृत्यु के दूसरे पहलू के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। फिर व्यक्ति को मृत्यु से भयभीत क्यों होना चाहिए? मृत्यु उतनी ही अवश्यंभावी है, जितना सूर्योदय। यदि यह सत्य है कि इतिहास की पुनरावृत्ति होती है, तो मेरा विश्वास है कि हमारी मृत्यु व्यर्थ नहीं जायेगी। सभी को मेरा अंतिम नमस्कार।’’
ये शब्द राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी के फांसी पर चढ़ाये जाने से तीन दिन पूर्व अपने एक मित्र को लिखे पत्र से हैं। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक अमिट अध्याय काकोरी ट्रेन डकैती में मौत की सजा पाये चार लोगों में एक नाम राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी का भी है। अशफाक उल्लां खां, रामप्रसाद बिस्मिल, रोशन सिंह और राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी को काकोरी काण्ड की सजा देते हुए लुटेरे अंग्रेजों ने फांसी पर चढ़ा दिया था। अपने काम के अंजाम की पहले क्षण से ही खबर होने के बावजूद भी क्रांतिकारियों ने इस ट्रेन डकैती को अंजाम दिया। टेªन की डकैती इसलिए कि आजादी के संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए, हथियार खरीदने के लिए पैसे की जरूरत थी।
भगत ंिसंह, सुखदेव और राजगुरू की तरह अंग्रेजों ने राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी को तय समय से पहले ही फांसी पर चढ़ा दिया। असल में चारों को फांसी पर चढ़ाने का दिन 19 दिसंबर 1927 तय था। लेकिन अंग्रेजों को भय सता रहा था कि राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी के साथी उन्हें जेल से छुड़ा ले जायेंगे। इसी भय से भयभीत अंग्रेजांे ने उन्हें दो दिन पहले अर्थात 17 दिसंबर, 1927 को ही फांसी पर चढ़ा दिया।
राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी का जन्म 23 जून, 1901 को ग्राम मोहनपुर, जिला पबना, बंगाल (अब बांग्लादेश) में हुआ था। इनके पिता का नाम क्षितिमोहन और माता का नाम बसंत कुमारी था। पिता जमींदार थे लेकिन अंग्रेजों द्वारा प्रतिबंधित अनुशीलन समिति में सक्रिय थे। अनुशीलन समिति बंगाल के क्रांतिकारियों का एक दल था जो हिंसा के जरिये अंग्रेजों से आजादी का संघर्ष चला रहा था। उन्हांेने बंग-भंग आंदोलन में भाग लिया और जेल की सजा काटी। दोनों बड़े भाई भी आजादी के संघर्ष में क्रांतिकारी गतिविधियों से जुड़े थे। परिवार का ऐसा वातावरण पाकर राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी ने यही राह चुनी।
नौ वर्ष की आयु में राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी अपने बड़े भाई के साथ बनारस आ गये। अब बनारस उनकी आगे की क्रांतिकारी कर्मभूमि बनने वाली थी। बनारस में ही उनकी आगे की शिक्षा-दीक्षा हुई। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से उन्होंने इतिहास और अर्थशास्त्र से स्नातक किया। उन्होंने एमए इतिहास में प्रवेश लिया। यहीं पर उनकी मुलाकात एक अन्य प्रमुख भारतीय क्रांतिकारी शचीन्द्रनाथ सान्याल से हुई। राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी शचीन्द्रनाथ सान्याल के दल में शामिल होकर क्रांतिकारी कर्म करने लगे।
उस समय बंगाल के कई नौजवान बनारस में पढ़ने के लिए आते थे। बंगाल और उत्तर प्रदेश क्रांतिकारियों का केन्द्र की तरह था। अपने स्वभाव से राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी एक उत्साही नौजवान थे। वे अध्ययन और साहित्य में रूचि रखने वाले थे। अपने इन्हीं गुणों के कारण उनको ‘बंग साहित्य परिषद’ का सचिव चुना गया। लेखन के जरिये भारतीय जनमानस को जगाने में भी राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी सक्रिय रहे। उनके लेख ‘बंगवाणी’ और ‘शंख’ पत्रिकाओं में छपते रहे। वे हस्तलिखित मासिक पत्रिका ‘अग्रदूत’ का संपादन भी कर रहे थे। इस तरह वे अपने दल के लिए एक विचारक की भूमिका भी निभा रहे थे।
ठीक इसी समय बंगाल की अनुशीलन समिति अपनी एक शाखा सक्रिय राजनीति का केन्द्र उत्तर प्रदेश में खोलने को प्रयासरत थी। क्योंकि बनारस क्रांतिकारियों का गढ़ था और यहां पर बंगालियों की संख्या ठीक-ठाक थी तो इस काम को करने के लिए कुछ लोगों को भेजा गया। लेकिन वे सफल नहीं हो पाये। इसके बाद अनुशीलन समिति के जोगेशचंद्र चटर्जी को भेजा गया और उन्होंने शाखा स्थापित कर दी। इसके बाद शचीन्द्रनाथ सान्याल के क्रांतिकारी दल और अनुशीलन समिति की बनारस शाखा के मध्य एकीकरण हो गया। और परिणामस्वरूप क्रांतिकारी आंदोलन के इतिहास में प्रसिद्ध दल हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसियेशन (एचआरए) अस्तित्व में आया। एक प्रमुख जिम्मेदारी फिर राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी के कंधांे पर आयी। राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी को बनारस जिले का संगठनकर्ता बनाया गया। दल द्वारा दी गई जिम्मेदारियों को राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी गंभीरता से निभाते थे।
ट्रेन डकैती के लिए रामप्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में गठित दल में राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी भी शामिल रहे। 7 अगस्त, 1925 को शाहजहांपुर में इसकी बैठक हुई। 9 अगस्त 1925 की शाम को शाहजहांपुर से लखनऊ जाने वाली पैसेंजर टेªन जैसे ही काकोरी से कुछ आगे बढ़ी, टेªन के दूसरे दर्जे में शचीन्द्र नाथ बख्शी और अशफाकउल्ला खां के साथ बैठे राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी ने चैन खींच टेªन को रोक दिया। शीघ्र ही टेªन में बैठे सभी 10 क्रांतिकारियों ने सरकारी खजाने पर धावा बोल दिया। और खजाना लूटकर अंधेरे में गायब हो गये।
इस टेªन डकैती को अंग्रेज साम्राज्यवदियों ने अपने साम्राज्य के खिलाफ युद्ध माना। उनका यह मानना ठीक भी था। स्वतंत्रता आंदोलन में क्रांतिकारियों की अंग्रेजी साम्राज्यवाद को यह खुली चुनौती थी। यह सिंह गर्जना बहादुर और कुर्बानी के जज्बे भरे हुए क्रांतिकारियों की थी। यह युद्ध का उदघोष हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसियेशन का था। अपने इस काम के अंजाम को जानते हुए कि पकड़े जाने पर मृत्यु के अतिरिक्त कुछ और नहीं मिलेगा, ये क्रांतिकारी जरा भी नहीं हिचके।
दमन चक्र चलाते हुए अंग्रेजों ने जिन पर भी शक था सभी की एक साथ गिरफ्तारियां की। ताबड़तोड की गई इन गिरफ्तारियों में लगभग सभी लोग तुरंत पकड़े गये। चन्द्रशेखर आजाद तो आजाद ही थे, वे कभी नहीं पकड़े गये।
टेªन डकैती के बाद राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी कलकत्ता चले गये। वहां वे शचीन्द्रनाथ सान्याल के कहने पर गये। शचीन्द्रनाथ सान्याल ने उन्हें बम बनाना सीखने के लिए कलकत्ता भेज दिया। कलकत्ता के दक्षिणेश्वर में बम बनाना सीख लेने के बाद उत्तर प्रदेश में बम के कई कारखाने खोलने की क्रांतिकारियो की योजना थी। ताकि अंग्रेज साम्राज्यवादियों को भारत से खदेड़ा जा सके।
दक्षिणेश्वर में बम बनाने के दौरान 10 नवंबर, 1925 को अचानक विस्फोट हो गया। विस्फोट के बाद पुलिस वहां आयी और अन्य के साथ राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी को भी पकड़कर ले गई। इस मुकदमे में राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी को दस साल की सजा सुनाई गई। जब अंग्रेजों को यह पता चला कि राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी काकोरी टेªन डकैती के भी आरोपी हैं तो उन पर पूरक मुकदमा चलाया गया। और कलकत्ता से उन्हें लखनऊ लाया गया। इस प्रकार एक बार फिर पुराने साथी साथ आये और मुकदमे का सामना किया।
एक दिन मुकदमे की तारीख से लौट रहे क्रांतिकारी जब रामप्रसाद बिस्मिल का पसंदीदा गीत ‘सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है’ गाने लगे तो डयूटी पर मौजूद सूबेदार ने चीखकर कहा- ‘‘बंद करो ये गाना-बजाना। मेरे रहते हुए यह कुछ नहीं चलेगा।’’
राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी सबसे आगे गाते हुए चल रहे थे। सूबेदार ने उनका गला पकड़ लिया। राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी ने सूबेदार के गाल पर ऐसा थप्पड़ जड़ा कि सूबेदार सन्न रह गया। सभी साथी मुक्के तानकर तैयार हो गये। शोर सुनकर जज ने मामला शांत कराया। इस घटना पर भी मुकदमा चला लेकिन बाद में इसे वापस ले लिया गया।
मुकदमे के दौरान जेल में राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी कसरत करना और अध्ययन करना नियमबद्ध तरीके से करते रहे। फांसी की सजा सुनाये जाने के बाद भी उनके इस नियम में कोई तब्दीली नहीं आयी।
6 अप्रैल, 1927 को सजा सुनायी गयी। कई को उम्र कैद तो अशफाकउल्ला खां, रामप्रसाद बिस्मिल, रोशनसिंह सहित राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी को सजा-ए-मौत दी गई। मौत की सजा पाकर भी राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी के मन-मस्तिष्क में कोई अंतर नहीं आया। बल्कि उम्र कैद की सजा पाये अपने साथियों के प्रति चिंता प्रकट करते हुए उन्होंने कहा कि- ‘‘मेरी तो थोडे़ दिनों की तकलीफ है, महीने-दो-महीने में खत्म हो जायेगी पर मुझे उन लोगों की चिंता हो रही है, जिन्हें चौदह-चौदह और बीस-बीस साल जेल में सड़ना है।’’
17 दिसंबर, 1927 की सुबह गोंडा जेल में इस महान क्रांतिकारी ने अपनी अंतिम सांस ली। अपने तीन साथियों से दो दिन पहले ही यह नौजवान क्रांतिकारी सभी को अलविदा कह गया। और इतिहास में न सिर्फ अमर हो गया अपितु देश और समाज के लिए बलिदानी जीवन जीने की प्रेरणा भी दे गया।
काकोरी केस के इन चारों शहीदों में राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी सबसे कम उम्र के थे। फांसी के समय उनकी उम्र 25 वर्ष थी। लेकिन इनके बावजूद भी वे काफी परिपक्व थे। आजादी के संघर्ष को सफल बनाने के लिए वे काफी गहनता से अध्ययन और चिंतन करते थे। उस समय की युगांतरकारी सोवियत क्रांति का वह गहनता से अध्ययन कर रहे थे। उसी तरह की क्रांति भारत में कैसे संभव हो सकती है? ऐसा सोचने वालों में राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी भी एक प्रमुख नाम थे। अगर वक्त मिला होता तो शायद वे भी उसी नतीजे पर पहंुचते जिस नतीजे पर भगत ंिसह पहुंचे थे। राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी नये विचारों के हामी थे।
हालांकि एचआरए इस नतीजे पर पहंुच चुका था कि आजादी के आंदोलन में धर्म और राजनीति को नहीं मिलाना चाहिए। वे मात्र अंग्रेजों से आजादी दिलाने के बजाय ‘मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण’ के अंत को अपना लक्ष्य घोषित कर चुके थे। लेकिन राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी आगे बढ़ते हुए समाजवाद के आर्थिक पहलुओं के साथ-साथ दार्शनिक पहलुओं पर भी जोर देते थे। वे समाजवाद से भावनात्मक जुड़ाव से आगे बढ़ते हुए भौतिकवादी नजरिये की ओर गतिशील थे। वे अपने एचआरए के साथियों से ऐसी चर्चाओं के केन्द्र में रहते थे।
धर्म और राजनीतिक काम में उन्होंने राजनीतिक काम को ऊपर रखा। उनके साथी और एचआरए के सह संस्थापकों में एक जोगेशचन्द्र चटर्जी ने अपनी किताब ‘इन सर्च आफ फ्रीडम’ में कहा है कि ‘‘वह (राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी) एक पूर्ण क्रांतिकारी थे और उन्होंने पूर्वाग्रहों के खिलाफ विद्रोह किया था। और एक ब्राह्मण होते हुए भी उन्होंने पवित्र धागा (जनेऊ) फेंक दिया था। ...उन्होंने दिल से महसूस किया कि सामाजिक पूर्वाग्रह प्रगति के मार्ग में बड़़ी बाधाएं हैं और उन्हंे निर्दयता से तोड़ना होगा। यही एक सच्चे क्रांतिकारी की असली भावना है।’’
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