जीवन के प्रवाह में संरक्षण और परिवर्तन
-संजय
धरती पर जीवन को देखें तो उसमें समानता और भिन्नता दोनों एक साथ नजर आती है। एक कोण से देखने पर समानता दिखती है तो दूसरे कोण से देखने पर भिन्नता। सारे पेड़-पौधे दूर से हरे नजर आते हैं। पर नजदीक से देखने पर पाते हैं कि उनमें से कुछ पेड़ हैं और बाकी झाड़ियां या घास। और भी ज्यादा नजदीक से देखने पर पता चलता है कि इनकी जड़ों, तने, फूल और पत्तियों में भी भिन्नता है। यही बात जन्तुओं पर भी लागू होती है।
जीव-जन्तुओं में यही समानता और भिन्नता उनके वर्गीकरण का आधार बनती है। समानता उनको किसी एक श्रेणी में रखती है तो भिन्नता किसी और श्रेणी में। ये समानताएं और भिन्नताएं बहुत भांति-भांति के स्तर की हैं इसलिए जीवों के वर्गीकरण में कई सारी श्रेणियां हैं। सबसे निचली श्रेणी है; प्रजाति (स्पेसीज) जबकि सबसे ऊपरी श्रेणी है; संघ।
जीव-जन्तुओं में इस समानता और भिन्नता को देख पाना कोई मुश्किल काम नहीं था। आदिम समाज में भी लोगों ने इसी हिसाब से अपने आस-पास नजर आने वाले जीव-जन्तुओं को श्रेणियों में बांटकर नाम दे रखे थे। घोड़ा, कुत्ता, गाय, भैंस, गेहूँ, धान इत्यादि से लेकर पक्षी, मछली इत्यादि असल में श्रेणी विभाजन ही थे। बाद में जब ज्ञान-विज्ञान का विकास हुआ तो इस श्रेणी विभाजन यानी वर्गीकरण को ज्यादा सुसंगत रूप मिला। प्राचीन यूनान में अरस्तू ने इसे वैज्ञानिक रूप दिया था जो पूरे मध्यकाल में प्रचलित रहा।
आधुनिक काल में आधुनिक विज्ञान के विकास के साथ वर्गीकरण को ज्यादा वैज्ञानिक रूप मिला। इसकी शुरूआत लीनस ने की। तब से यह ज्यादा परिष्कृत होता गया है।
जीव-जन्तुओं के इस वर्गीकरण से इनके बीच स्वाभाविक तौर पर एक श्रेणीक्रम स्थापित हो जाता था। इससे स्वतः ही कुछ जीव नीचे और कुछ ऊपर हो जाते थे। पर इसके बावजूद वैज्ञानिक इस सहज नतीजे पर नहीं पहुंच पाये कि नीचे वाले जीव पहले और ऊपर वाले जीव बाद के हो सकते हैं। यानी वे धरती पर पहले और बाद में आये हों। यानी धरती पर जीवन का कोई विकासक्रम रहा हो सकता है।
बहुत बाद में जाकर ही अठारहवीं सदी के अंत से वैज्ञानिकों के बीच यह बात उठने लगी कि धरती पर जीवन हमेशा से एक जैसा नहीं रहा है बल्कि इसमें विकास हुआ है, इसका एक विकास क्रम रहा है। ऐसा कैसे हुआ है इसके लिए सिद्धान्त प्रस्तावित किये जाने लगे। इसमें लैमार्क और डार्विन के सिद्धान्त प्रमुख रहे। अंत में डार्विन के ‘प्राकृतिक वरण’ के सिद्धांत को मान्यता मिली जिसका बीसवीं सदी में विज्ञान के मेल से और विकास हुआ।
जैव विकास के सिद्धांत के वैज्ञानिक जगत में स्थापित हो जाने के बाद यह स्पष्ट हो गया कि कैसे धरती पर समूचे जीवन का निचले स्तर से उच्चतर स्तर पर विकास हुआ है। इस विकास में करीब चार सौ करोड़ साल लगे हैं। धरती की कुल आयु चार सौ साठ करोड़ साल आंकी गयी है। सबसे नीचे हैं एक कोशिकीय जीव और सबसे ऊपर है इंसान। धरती के समूचे जीवन को देखते हुए इंसान अभी हाल में ही धरती पर आया है (तीन लाख साल पहले)।
जैव विकास में यह निहित है, कि धरती पर जीवन में क्रमशः परिवर्तन हुआ है। इस परिवर्तन से एक के बाद दूसरे नये जीव पैदा हुए हैं। जैव विकास का सिद्धान्त इस परिवर्तन की प्रक्रिया को स्पष्ट करता है। लेकिन इसी के साथ यह भी स्पष्ट है कि परिवर्तन के साथ निरंतरता भी रही है। जीवन में यदि केवल परिवर्तन ही होता तो इस समय धरती पर केवल एक ही प्रजाति होती। बल्कि शायद वह भी न होती और जीवन पैदा होते ही खत्म हो गया होता। निरंतरता ही सुनिश्चित करती है कि जीवन बना रहे। यानी जीवन के प्रवाह में परिवर्तन और निरंतरता दोनों जरूरी हैं। वे जीवन के दो ऐसे विपरीत पहलू हैं जिन्हें न तो एक-दूसरे से अलग किया जा सकता है और न ही जिनके बिना जीवन संभव है।
परिवर्तन और निरंतरता का यह सम्बन्ध जीवों के वर्गीकरण में ही सामने आ जाता है। निरंतरता जीवों को एक श्रेणी में रखती है तो परिवर्तन एक श्रेणी से दूसरी श्रेणी में विभाजन रेखा खींचता है। ये दोनों कई बार इतना घुल-मिल जाते हैं कि वर्गीकरण मुश्किल हो जाता है। वर्गीकरण करने वाले वैज्ञानिकों को अक्सर इस मुश्किल समस्या का सामना करना पड़ता है कि किसी जीव को एक श्रेणी में रखें या दूसरी में। आर्किआप्टेरिक्स या डकबिल प्लेटीपस जैसे जीव तो मानो होते ही हैं बीच-बीच के।
बीसवीं सदी में जीव विज्ञान में विकास के साथ निरंतरता और परिवर्तन का सम्बन्ध और भी ज्यादा स्पष्ट रूप में सामने आया। आणविक जीव विज्ञान तथा भ्रूण विज्ञान और इन दोनों के बीच सम्बन्ध ने इस दिशा में काफी रोशनी डाली। इसने दिखाया कि अणुओं से लेकर जीव के स्तर तक कैसे संरक्षण और परिवर्तन की प्रक्रिया चली है। आइये इसे देखें।
आज आणविक जीव विज्ञान यह दिखाता है अणुओं के स्तर पर धरती पर समूचे जीवन में मूलभूत एकता है। सभी जीवों में सारे प्रमुख अणु वही हैं तथा उनके बनने-बिगड़ने की प्रक्रिया भी वही है। यही नहीं, इन अणुओं से कोशिका के भीतर जो संरचनाएं बनती हैं वे भी वही हैं। इसीलिए आज के वर्गीकरण में शुरूआत प्रोकैर्याटिक और यूकैर्याटिक कोशिका से होती है। ये दो तरह की कोशिकाएं आगे जीवन का आधार बनती हैं। अमीबा से लेकर इंसान तक सारे यूकैर्याटिक कोशिका से बने हैं (वनस्पतियां भी) जबकि ज्यादातर बैक्टीरिया प्रोकैर्याटिक हैं।
आणविक विज्ञान में जीन विज्ञान आजकल प्रमुख चीज है। इस स्तर पर भी जीवन में बड़े स्तर का संरक्षण दिखता है। जैसे सारे जीवों में प्रोटीन सबसे प्रमुख अणु हैं तथा सारे प्रोटीन बीस तरह के अमीनो एसिड से बनते हैं। उसी तरह इन बीसों अमीनों एसिड के जीन कोड भी सारे जीवों में वही हैं। यानी बैक्टीरिया से लेकर इंसान तक सभी में मिथियोनीन नामक अमीनो एसिड का जीन कोड ।न्ळ ही होता है।
अणुओं से ऊपर समूचे जीन समुच्चय के स्तर की बात करें तो आज यह पता चला है कि जीव की संरचना को निर्धारित करने वाले जीनों यानी नियामक जीनों में भी काफी संरक्षण है। नीचे से लेकर ऊपर तक के जीवों में वे ही नियामक जीन पाये जाते हैं। कुछ में वे उसी भूमिका में होते हैं तो कुछ में वे दूसरी भूमिका में।
बहुत पहले अठारहवीं सदी के अंत में प्रसिद्ध जर्मन कवि गेटे ने यह प्रस्तावित किया था कि पौधों मे पत्तियां और फूलों के विभिन्न हिस्से मूलतः एक ही चीज के परिष्कृत रूप हैं। जड़ से वे जितना ऊपर होते हैं उतना ही परिष्कृत होते हैं। एक कवि की इन बातों को तब लोगों ने कल्पना की उड़ान माना था। पर अब जीन विज्ञान से पता चलता है कि पत्तियों और फूलों के विभिन्न हिस्सों के नियामक जीन एक ही होते हैं। उनके विभिन्न तरह के कार्य विभिन्न परिणाम उत्पन्न करते हैं।
अणुओं, जीन तथा कोशिका के स्तर पर यह संरक्षण जीवन की विशेषता है। लम्बे काल खंड में एक बार एक बेहतर चीज हासिल हो जाने के बाद वह संरक्षित हो गई और फिर बाकी जीवन उस पर खड़ा हुआ। यह तो शायद नहीं कहा जा सकता कि इस स्तर पर मौजूदा चीजें ही सर्वश्रेष्ठ हैं पर यह जरूर कहा जा सकता है अपने कार्यभार के लिए वे पर्याप्त हैं। यह भी जीवन की विशेषता है कि सर्वश्रेष्ठ के बदले पर्याप्त से काम चलाया गया है। इंसान का दो पांवों पर चलना दिक्कततलब है (आज भी भारी संख्या में लोग इसी वजह से कमर दर्द के शिकार होते हैं) पर बाकी जरूरतों को देखते हुए यह जरूरी और पर्याप्त था।
अणु, अंतः कोशिकीय संरचना तथा कोशिका के स्तर पर संरक्षण से जीवन में एक निरंतरता पैदा हुई जो उसके बाद परिवर्तन का आधार बनी। यानी इन स्तरों पर भी निरंतरता के साथ परिवर्तन भी है। सारे जीव प्रोटीन से बने हैं (कार्बोहाईड्रेट, लिपिड तथा न्यूक्लिक एसिड अन्य प्रमुख अणु हैं) पर सभी जीवों में प्रोटीनों की किस्म और संख्या अलग-अलग होती है। मसलन इंसान में करीब एक लाख तरह के प्रोटीन हैं जिनमें सैकड़ों से लेकर लाखों तक अमीनो एसिड होते हैं। इसी तरह इंसान का समूचा शरीर अरबों कोशिकाओं से बना है पर ये कोशिकाएं दो सौ से ज्यादा किस्म की हैं। इंसान के शरीर की सारी कोशिकाएं यूकैर्याटिक हैं पर अलग-अलग तरह की।
इंसान जैसे बहुकोशिकीय जीव कोशिकाओं के समुच्चय हैं। लेकिन ये कोशिकाएं एक जगह बस इकट्ठा भर नहीं कर दी गयी हैं- भूसे के ढेर की तरह। बल्कि भांति-भांति की कोशिकाएं मिलकर खास तरह की संरचना बनाती हैं। कोशिकाओं से ऊतक, ऊतक से अंग, अंग से अंग समूह तथा अंत में पूरा शरीर। बहुकोशिकीय जीवों में एक कोशिकीय युग्मनज से पूरे शरीर का विकास एक निश्चित प्रक्रिया के तहत होता है। भ्रूण विज्ञान इसी प्रकिया का विज्ञान है।
भ्रूण विज्ञान बताता है कि भ्रूण के विकास के चरणों में भी संरक्षण और परिवर्तन की वही व्यवस्था है। अलग-अलग जीवों में भ्रूण के विकास के अलग-अलग चरण संरक्षित हैं। इनसे विचलन पर भ्रूणपात हो जायेगा यानी भ्रूण का जीव में विकास नहीं हो पायेगा। यह देखते हुए कि भ्रूण के विकास से ही अंततः जीव सामने आता है, भ्रूण विकास में संरक्षण और परिवर्तन जीव में निरंतरता और परिवर्तन को तय करती है। यह देखते हुए कि भ्रूण विकास की समूची जटिल प्रक्रिया निश्चित और सधी हुई है, यह भी स्पष्ट हो जाता है कि क्यों सहसा एक जीव से बहुत भिन्न किस्म का जीव भी पैदा नहीं हो सकता। कैसे मछली से सीधे स्तनधारियों का विकास नहीं हो सकता हालांकि दोनों रीढ़ धारी जन्तु हैं और शुरू में इंसानी भ्रूण भी मछली के भ्रूण जैसा ही दिखता है। इसी से यह भी पता चलता है क्यों बाद में विकसित हुए जीवों के भ्रूण शुरू में पहले विकसित हुए जीवों के भ्रूण से मिलते जुलते हैं। स्वयं भ्रूण विकास की प्रक्रिया भी जीवों के विकास के साथ विकसित हुई है जिसमें संरक्षण भी है और परिवर्तन भी, निरंतरता भी है और परिवर्तन भी। जीव विज्ञान में इसका अध्ययन करने वाली शाखा को विकास का उद्विकास (‘इवो-डिवो’ यानी इवोल्यूशन आव डिवलपमेन्ट) नाम दिया गया है।
प्रकृति और समाज में सभी जगह संरक्षण और परिवर्तन में आम तौर पर परिवर्तन ही प्रधान होता है। धरती पर जीवन के प्रवाह में भी यही होता है। परिवर्तन तब भी होता है जब संरक्षण होता है। किसी प्रजाति के वही बने रहते हुए भी उसके व्यक्तिगत जीवों में कुछ न कुछ परिवर्तन होता रहता है। इसलिए किसी भी प्रजाति के कोई दो सदस्य कभी बिल्कुल समान नहीं होते। किसी प्रजाति का कोई नया जीव अपने जनकों से कुछ न कुछ भिन्नता लिए हुए ही पैदा होता है।
लेकिन इसी के साथ यह भी सच है कि सतत परिवर्तन के बावजूद अलग-अलग बिन्दुओं पर संरक्षण भी प्रधान हो जाता है। ये संरक्षण फिर आगे परिवर्तन का आधार बनते हैं। प्रोटीन के घटक बीस अमीनो एसिड और उनके इकसठ डीएनए कोड जीवन की शुरुआत से संरक्षित हैं। उन्हीं को आधार बनाकर आगे जीवन विकसित हुआ। इनके संरक्षण के समय संरक्षण और परिवर्तन में संरक्षण प्रधान हो गया था।
इस तरह देखा जाए तो संरक्षण और परिवर्तन दोनों एक-दूसरे में प्रवेश कर जाते हैं। परिवर्तन संरक्षण की ओर ले जाता है और संरक्षण आगे परिवर्तन का आधार बन जाता है। किसी प्रजाति के व्यक्तिगत जीवों में परिवर्तन नयी प्रजाति के अस्तित्व में आने की ओर ले जाती है जबकि यह नयी प्रजाति फिर आगे परिवर्तन का आधार बन जाती है।
यहां सवाल उठ खड़ा होता है कि इस संरक्षण और परिवर्तन में अथवा निरंतरता और परिवर्तन में मात्रा और गुण कहाँ है? क्या परिवर्तन केवल मात्रात्मक है? क्या जीवन में गुणात्मक परिवर्तन नहीं होता? क्या जीवन में कोई छलांग नहीं लगती?
ऐसा नहीं है। परिवर्तन चाहे जितना धीमा हो, उसके चरण चाहे जितने छोटे हों, वे अंततः गुणात्मक परिवर्तन को जन्म देते हैं। मात्रात्मक परिवर्तन गुणात्मक परिवर्तन में तब्दील हो जाता है। एक प्रजाति से दूसरी प्रजाति का पैदा होना एक गुणात्मक परिवर्तन है जब उसी प्रजाति के दो समूहों के बीच क्रमिक परिवर्तनों के लम्बे दौर के बाद प्रजनन संभव नहीं रह जाता। वर्गीकरण की श्रेणियां असल में गुणात्मक परिवर्तन का द्योतक हैं। वे इस बात की भी द्योतक हैं कि कैसे मात्रात्मक परिवर्तन गुणात्मक परिवर्तन में तब्दील हो जाता है। रीढ़ विहीन और रीढ़ धारी जन्तुओं की दो गुणात्मक स्तर पर भिन्न श्रेणियां है। स्वयं रीढ़ धारी के भीतर रीढ़ धारियों के बीच मछलियां, उभयचरियों, रेंगने वाले, पक्षियों तथा स्तनधारियों के बीच गुणात्मक भिन्नता है। स्वयं स्तनधारियों के भीतर भी गुणात्मक भिन्नता है जिसकी एक अभिव्यक्ति है इंसान।
इस तरह थोड़ा बारीकी से देखें तो गुणात्मक परिवर्तनों की भी श्रेणियां हैं यानी यहां भी निरंतरता और परिवर्तन का श्रेणी क्रम है। एक कोण से देखने पर वह गुणात्मक परिवर्तन नजर आयेगा तो दूसरे कोण से महज मात्रात्मक। रीढ़ विहीनों और रीढ़ धारियों के बीच रीढ़ धारियों के भीतर परिवर्तन महज मात्रात्मक परिवर्तन है जबकि केवल रीढ़ धारियों को देखने पर वे गुणात्मक परिवर्तन नजर आयेगें।
धरती पर जीवन के प्रवाह में संरक्षण और परिवर्तन, निरंतरता और परिवर्तन इसी रूप में विद्यमान है। मात्रात्मक और गुणात्मक परिवर्तन इसका अभिन्न हिस्सा है। जिसमें मात्रा गुण में तथा गुण मात्रा में बदलते रहते हैं और जीवन चलता रहता है।
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