पूँजीवादी विकास की भेंट चढ़ते पहाड़
उत्तराखंड के चमोली जिले के तहत आने वाला जोशीमठ शहर आपदा का शिकार हो चुका है। पूरा जोशीमठ शहर घरों की दीवारों में दरारें पड़ने, जमीन/सड़क धंसने से तबाही के कगार पर खड़ा है। लोग डर के साये में जीने को मजबूर हैं। अपने घरों, खेतों, दुकानों को अपने सामने नष्ट होते देखने का दर्द काफी गहरा है। अपने शहर के साथ भावनात्मक लगाव होने के कारण वहां के स्थानीय लोगों का दर्द और भी बढ़ जाता है। कब जोशीमठ शहर जमींदोज हो जाये कहा नहीं जा सकता।
जोशीमठ जैसे हालात पूरे उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों के हैं। ऐसा नहीं है कि ऐसी आपदाओं के मुहाने पर सिर्फ जोशीमठ खड़ा है। पहाड़ी जिलों के कई गांवों में ऐसे ही मंजर आम हैं। उत्तरकाशी जिले के भीतर वाडिया गांव के ऊपर यमुनोत्री नेशलन हाइवे है। 2013 आपदा में पानी से कटाव होने के कारण घरों मंे दरारें आ गयी थी। इस नेशनल हाइवे में धंसने की शिकायतंे मिल रही हैं। चमोली जिले के अंदर कर्णप्रयाग में बद्रीनाथ हाइवे के पास बसे दर्जनों मकानों में दरारें आ गई हैं। दहशत में लोग अपने घरों को छोड़कर अन्य स्थानों पर जाने पर मजबूर हुए हैं। शासन-प्रशासन द्वारा इसकी शिकायतों के बाद भी सुरक्षा उपायों हेतु कदम नहीं उठाये गये। लोगों को अपने हाल पर छोड़ दिया गया।
पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए ऋषिकेश से लेकर कर्णप्रयाग तक रेलवे निर्माण का कार्य चल रहा है। जहां-जहां से ये रेलवे लाइन गुजर रही है वहां-वहां जमीन धंसने की खबरें आ रही हैं। रेलवे मार्ग के निर्माण में भूगर्भीय सर्वेक्षणों और हिमालय की संवेदनशीलता का ध्यान नहीं रखा गया। रूद्रप्रयाग जिले के मरोड़ा गांव में ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेलवे मार्ग का निर्माण चल रहा है। यहां भी घरों और जमीन मंे मोटी दरारें आयी हैं। कुछ घर पूरी तरह नष्ट हो गये हैं तो कई नष्ट होने के कगार पर हैं। कई शिकायतों के बाद भी सरकार ने इस समस्या का कोई स्थाई समाधान करने के स्थान पर मामूली मुआवजा ही दिया। यह मुआवजा भी सभी प्रभावितों को नहीं मिला। जिनको मुआवजा नहीं मिला वे आज भी उसी स्थान पर अपनी जान को जोखिम में डाल रहने को मजबूर हैं। गुप्तकाशी के पास सेमी भैसाडी गांव भी पूरी तरह से भू धंसाव का शिकार हो रहा है।
टिहरी के नरेन्द्र नगर विधान सभा की पटटी दोगी के अटाली गांव में दर्जनों घरों और खेतों में दरारें आयी हैं। यहां भी ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेलवे लाइन का निर्माण कार्य चल रहा है। सुरंग निर्माण हेतु विस्फोट निरंतर जारी हैं। कम या ज्यादा रूप से गूलर, ब्यासी, कौडियाला, मलेथा आदि गांव भी प्रभावित हैं। उत्तरकाशी के भरवाडी का मस्ताडी गांव 1991 के भूकंप के बाद से ही भू धंसाव का शिकार हो रहा है। यहां घरों में दरारें, खेत व रास्तों में धंसाव हो रहा है। 1997 में प्रशासन द्वारा भूगर्भीय सर्वेक्षण कराया गया। जिसमें तत्काल सुरक्षात्मक उपाय किये जाने का सुझाव दिया गया। लेकिन स्थानीय आबादी का विस्थापन नहीं किया गया। यह भरवाडी वह क्षेत्र है जिसके नीचे तो भागीरथी नदी बहती है और ऊपर गंगोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग है। यहां 2010 में गंगोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग का एक हिस्सा नदी में समा गया था तथा 49 परिवारों को अस्थाई रूप से अन्य जगह भेजा गया था। यहां कुल 26 गांव अतिसंवेदनशील रूप में स्वयं प्रशासन ने ही चिन्हित किये हुए हैं।
ऐसी ही खबरों से पर्यटन का एक केन्द्र नैनीताल भी समय-समय पर चर्चा में रहता है। नैनीताल का बलिया नाले का क्षेत्र काफी लंबे समय से भूस्खलन का शिकार हो रहा है। पहले 1867, फिर 1889 और फिर 1898 में यहां भूस्खलन हुआ । 1924 में यहां से लगभग 150 परिवारों को शिफ्ट किया गया। पौड़ी जिले के श्रीनगर के हेदल मोहल्ला, आशीष विहार, नर्सरी रोड़ सहित अन्य इलाकों में भी घरों में दरारें दिखने लगी हैं। यहां भी रेलवे मार्ग के निर्माण को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। बागेश्वर के खरबगड़ गांव में पहाड़ी पर गडढे बन गये हैं। यहां जगह-जगह पानी का रिसाव हो रहा है। इस गांव के ऊपर भी जल विद्युत परियोजना की सुरंग का निर्माण हो रहा है।
यही नहीं 2010 में टिहरी झील के जलस्तर में भारी वृद्धि हो गयी थी। जिससे भागीरथी और भिलंगना नदी के किनारे बसे कई गांवों में भूस्खलन सक्रिय हो गया। कई गांवों में दरारें पड़ गयी। तब 44 गांवों के भूगर्भीय सर्वेक्षण में 17 गांवों को संवेदनशील घोषित किया गया था और उनको तत्काल हटाने की सिफारिश की गई थी। जनता के लंबे आंदोलन के बाद ही वर्ष 2021 में विस्थापन की प्रक्रिया शुरू हुई।
वर्ष 2019 में ऋषिकेश-गंगोत्री हाइवे पर चंबा बाजार के ठीक नीचे बाईपास बनाने के लिए 440 मीटर लंबी भूमिगत सुरंग का निर्माण शुरू हुआ। सुरंग की खुदाई शुरू होते ही सुरंग से ठीक ऊपर मठियाण गांव के खेतों में दरार पड़ गई। कुछ समय बाद घरों में दरारें पड़ गई। ग्रामीणों के धरना-प्रदर्शन के बाद सरकार ने आश्वासन दिया। लेकिन किया कुछ नहीं।
उपरोक्त बातों को सामने रखने पर स्पष्ट है कि जोशीमठ की यह आपदा कोई प्राकृतिक आपदा नहीं है। यह एक तथ्य है कि जोशीमठ पूर्व में हुए भूस्खलन के मलवे पर बसा शहर है। लेकिन उसके बाद भी अगर भूगर्भीय सर्वेक्षणों और पूर्व में दी गई वैज्ञानिक हिदायतों को ध्यान में रखा जाता तो शायद जोशीमठ को बचाया जा सकता था। जिस तरह से अनियोजित और अवैज्ञानिक तरीक से निर्माण कार्य किया गया उसने जोशीमठ को तेजी उस कगार पर पहंुचाया जहां वह आज है। स्थानीय निवासी यूं ही एनटीपीसी को इस आपदा की प्रक्रिया को तेज करने का दोषी नहीं ठहरा रहे हैं। इस आपदा की सबसे बड़ी जिम्मेदार सरकार है। जिसने वह सब हो जाने दिया जिसको नहीं किया जाना था।
2013 की आपदा के बाद दिसंबर 2014 में भारत सरकार के वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर पहली बार यह स्वीकारा था कि 2013 की आपदा की भयावहता को बढ़ाने में हिमालय क्षेत्र में अपनाया जा रहा मौजूदा ‘विकास माडल’ जिम्मेदार है। यही नहीं आपदा के बाद मंत्रालय द्वारा गठित 13 विशेषज्ञों की रवि चोपड़ा कमेटी ने भी बांध परियोजना, अवैज्ञानिक तरीके से बनाई जा रही चैड़ी सड़कों, अनियंत्रित पर्यटन आदि को आपदा की भयावहता को बढ़ाने का जिम्मेदार माना था। लेकिन राज्य और केन्द्र की सरकारों ने ऐसी किसी भी बात पर ध्यान नहीं दिया। पर्यावरण मंत्रालय तो जैसे पर्यावरण, हिमालय व जन विरोधी योजनाओं को क्लीयरेंस देने वाला मंत्रालय बन गया है। वह किसी भी वैज्ञानिक तथ्य को देखने-समझने में पूरी तरह अंधा हो गया।
इसी संवेदनशील हिमालय में टिहरी जैसा बड़ा बांधा बनाया गया है। कई छोटे-बड़े बांध बनाये गये हैं। जैसे कि यह ही काफी नहीं था कि पंचेश्वर जैसा दुनिया का सबसे बड़ा व एशिया का सबसे बड़ा बांध भी भारत-नेपाल सीमा पर बनाया जा रहा है। इस बांध के निर्माण के बाद काफी बड़ा क्षेत्र डूब जायेगा। लोगों की आजिविका, खेत सभी नष्ट हो जायेंगे। इसके डूब क्षेत्र में लाखों पेड़ डूब जायेंगे। यहां यह भी ज्ञात हो कि यह बाध भूकंपीय क्षेत्र मानचित्र के जोन 4 में आता है। जहां कभी भी छोटा-बड़ा भूकंप आ सकता है। समझा जा सकता है ऐसी अनहोनी होने पर कितनी जन क्षति होगी।
उत्तराखंड के सारे पहाड़ आज ऐसी ही हालत में पहुंचा दिये गये हैं। ये पहाड़ आज पूंजीवादी विकास और मुनाफे की भेंट चढ़ाये जा रहे हैं। उपरोक्त बातों पर अगर गौर करें तो उत्तराखंड का कोई भी पहाड़ी क्षेत्र कभी भी जोशीमठ बन सकता है। ये पहाड़ कभी भी पूंजीवाद के विकास, पर्यटन उद्योग के नाम पर जोशीमठ और 2013 की आपदा की तरह भूस्खलन की भेंट चढ़ सकते हैं। सभी जानते हैं कि हिमालय के ये पहाड़ बेहद संवेदशील हैं। यहां भूगर्भीय हलचले आम हैं। कभी भी कोई छोटा सा भूकंप बड़ी आपदाओं को जन्म दे सकता है। भारी जनहानि को जन्म दे सकता है। इस बात को सरकार सबसे बेहतर तरीके से जानती है। लेकिन यह सरकार और पूंजीवादी व्यवस्था ही है जो इस बात की खुलेआम अवहेलना करती है। मुनाफे की हवस में पूंजीवादी सरकारें-कम्पनियां सब अंधे हैं। यह मात्र अवहेलना नहीं बल्कि खुलेआम आपदाओं को निमंत्रित करना है। आम जन की मौत का सौदा है।
आज पहाड़ों की जनता एक ओर पूंजीवादी घरानों का बेतहाशा लूट के लिए किये जा रहे बेलगाम निर्माण का शिकार है वहीं दूसरी ओर वो ऐसे पर्यावरणवादियों-जंगल संरक्षकों के हल्ले का भी शिकार हो रही है जो पर्यावरण संरक्षण, जंगल व जानवर संरक्षण के नाम पर पहाड़ों-जंगलों से आम जन के सम्बन्ध को ही खत्म कर देना चाहते हैं। जो वन संरक्षण के नाम पर मेहनतकश इंसानों को ही जंगल से खदेड़ देना चाहते हैं। और सरकारें एक ओर आम जन को खदेड़ रही है वही जंगल-पहाड़ सब पूंजी के मालिकों को लूट की खातिर मुहैय्या करा रही हैं।
ऐसी आपदाओं से जनता के संघर्ष ही जनता को बचा सकते हैं। ऐसे संघर्ष जो सरकार और पूंजीवादी व्यवस्था को ऐसे अनियंत्रित और अवैज्ञानिक विकास करने से रोक सकें। ऐसे संघर्ष जो पूंजीपतियों के मुनाफे की हवस को निशाने पर लें। ऐसे संघर्ष जो प्रकृति के अनियंत्रित अवैज्ञानिक पूंजीवादी दोहन को रोक सकें। ऐसे संघर्ष जो प्रकृति और मानव के बीच सामंजस्य कायम करने को लक्षित हों। जाहिर है कि ऐसे संघर्ष पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ लक्षित होंगे। ऐसे संघर्ष जो समाजवादी व्यवस्था की स्थापना करने की चेतना से लक्षित हो, ऐसी आपदाओं से जनता और प्रकृति को मुक्त कर सकते हैं। सिर्फ और सिर्फ समाजवाद में प्रकृति को मुनाफे के लिए दोहित नहीं किया जायेगा। और प्रकृति और मानव के मध्य साम्य कायम किया जा सकेगा।
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