पूंजीवादी प्रचारतंत्र और जन चेतना
आजकल बहुत सारे लोगों के लिए एक चीज रहस्य और परेशानी का कारण बनी हुई है। वह है प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता। देश के आम जन की हालत दिनों-दिन खस्ता होती जा रही है। बेरोजगारी, महंगाई, भुखमरी, गैर बराबरी सब आसमान छू रहे हैं। मोदी द्वारा आठ साल पहले किये गये सारे वायदों को स्वयं मोदी और उनकी पार्टी वाले ही भूल गये हैं चाहे भ्रष्टाचार खत्म करने का मामला हो या किसानों की आय दोगुनी करने का। ‘अच्छे दिन’ बहुत बुरे दिनों में तब्दील हो गये हैं। ऐसे में स्वाभाविक है कि मोदी और उनकी सरकार की लोकप्रियता गिरती। पर पूंजीवादी प्रचार माध्यम बताते हैं कि मोदी की लोकप्रियता बरकरार है और भाजपा उसके बल पर चुनाव जीत रही है।
पर भारत में ऐसा नहीं हो रहा है। यहां हालात दिनों-दिन खराब हो रहे हैं पर सरकार और उसके नेता की लोकप्रियता बनी हुई है। पूंजीवादी प्रचार माध्यम लगातार बता रहे हैं कि मोदी किस कदर लोकप्रिय हैं। वे यह भी बताते हैं कि दूसरे नेता (जिसमें उनकी पार्टी के नेता भी शामिल हैं) उनके मुकाबले कितने कम लोकप्रिय हैं। वे रोज-रोज यह बताते रहते हैं, कभी इस सर्वेक्षण के बहाने से तो कभी उस सर्वेक्षण के। चुनावों में जीत और विदेशों में ‘मोदी-मोदी’ के नारों से भी वे मोदी की लोकप्रियता की घोषणा करते हैं। यह सब बताते हुए वे बस यह नहीं बताते कि मोदी की लोकप्रियता में स्वयं उनका यानी पूंजीवादी प्रचारतंत्र का कितना बड़ा हाथ है।
सच्चाई यही है कि तथाकथित लोकप्रियता में स्वयं पूंजीवादी प्रचारतंत्र का बड़ा हाथ है। (तथाकथित लोकप्रियता इसलिए कि मोदी की पार्टी ने लोकसभा चुनावों में महज 33 और 38 प्रतिशत वोट हासिल करने में ही सफलता पाई थी) आज पूंजीवादी प्रचार तंत्र मोदी की लोकप्रियता बनाये रखने मंे दिन-रात एक कर रहा है जिससे मोदी और भाजपा सत्ता में बने रहें। पूंजीवादी प्रचारतंत्र के मालिक बड़े पूंजीपति आज यही चाहते हैं। इसी में उनके हित हैं।
लेकिन यहां सवाल यह खड़ा हो जाता है कि पूंजीवादी प्रचारतंत्र इसमें सफल कैसे हो जाता है? कैसे उसका झूठा प्रचार आम जन के सच्चे और कटु अनुभव के ऊपर हावी हो जाता है? कैसे लोग यह मानने लगते हैं कि उनके बद से बदतर होते जाते हालात के लिए सरकार और उसका मुखिया जिम्मेदार नहीं है? इसका उत्तर है आज का सामाजिक जीवन और उसमें प्रचारतंत्र की भूमिका।
आज के पूंजीवादी समाज का जीवन बहुत व्यापक और जटिल हो गया है। पूरा विश्व ही आज इसकी परिधि है। आज का इंसान इस या उस रूप मंे सारी दुनिया से जुड़ा हुआ है। इतना ही नहीं आज उसके जीवन का ताना-बाना बहुत सघन हो गया है। उसकी जीविका, पारिवारिक जीवन, मनोरंजन इत्यादि सब अनगिनत चीजों से बंधे हुए हैं। ऊपर से राजनीति, समाज और धर्म इत्यादि सब व्यक्ति को इस या उस ओर खीचते हैं। इन सब गतियों से संचालित जीवन व्यक्ति के लिए अक्सर ही अबूझ पहेली बन जाता है और वह स्वयं को आंधी में इधर-उधर उड़ते तिनके की तरह महसूस करता है।
पुराने सामंती जमाने में इंसान की आज के इंसान से तुलना से चीजें स्पष्ट हो जायेंगी। उस जमाने में एक किसान या दस्तकार का जीवन उसके गांव की दस-बीस कोस (पच्चीस-तीस किमी.) की चैहद्दी में कैद होता था। इस चैहद्दी के बाहर ‘परदेश’ शुरू हो जाता था। इस चैहद्दी से बाहर वह कभी-कभार ही कदम रखता था- तीर्थ यात्रा करने के लिए। इससे बाहर उसका संबंध राजा के कारिन्दों या व्यापारियों के माध्यम से होता था, बस कर-लगान या कुछ एक चीजों की खरीद-बेच के लिए। उसके जीवन की जरूरतें अक्सर गांव या आस-पास से पूरी हो जाती थीं। उसके लोगों से संबंध सरल और स्पष्ट थे चाहे वह अपने परिवार के लोगों से हों, गांव के लोगों से या धार्मिक लोगों से। संबंध कम थे और सरल व स्पष्ट। जीवन स्थिर था और उसके संबंध भी। जीवन में रहस्य थे पर वे प्रकृति से संबंधित थे। उसके अपने जीवन और रिश्तों में कोई रहस्यमय चीज नहीं थी।
उदाहरण के लिए किसान जब कोई फसल बोता था तो कितनी फसल उसके घर आयेगी इसमें कोई अनिश्चितता केवल प्रकृति और राजा से संबंधित थी। यदि सूखा-बाढ़ नहीं आये और राजा ने कर-लगान नहीं बढ़ाया तो चीजें पिछले साल जैसी ही होती थीं। यदि सूखा-बाढ़ आये या राजा ने कर-लगान बढ़ाये तो यह भी एकदम साफ होता था।
आज के किसान के लिए चीजें इस तरह स्पष्ट नहीं हैं। वह जिस बाजार पर खाद-बीज खरीदने के लिए तथा अपनी फसल बेचने के लिए निर्भर है वह अत्यंत रहस्यमय है। वहां कुछ भी स्पष्ट नहीं हैं। वहां बिलकुल स्पष्ट नहीं है हर साल फसल के दाम इतने घट-बढ़ क्यांे जाते हैं।
ऐसे में आम जन के लिए यह जरूरी हो जाता है कि कोई इतनी बड़ी और जटिल दुनिया में होने वाली घटनाओं का मतलब बतलाये। यह तब और होता है जब सब कुछ इतनी तेजी से बदलता रहता हो, इतनी तेजी से कि दो पीढ़ियों के बीच ही फर्क आ जाता हो।
चीजों-घटनाओं और आस-पास की दुनिया की एक दृष्टि परिवार, स्कूल और साथ के लोग प्रदान करते हैं। लेकिन यह नजर किसी हद तक स्थाई होती है। इसमें रोज-रोज की घटनाओं के लिए जगह नहीं होती। बल्कि परिवार, स्कूल या साथ के लोग स्वयं रोजमर्रा की घटनाओं की व्याख्या के लिए किसी और पर निर्भर करते हैं। पूंजीवादी प्रचारतंत्र इसी की पूर्ति करता है।
पूंजीवादी प्रचारतंत्र पूंजीवाद के बिलकुल शुरूआत में ही अस्तित्व में आ गया था और पूंजीवाद के विकास के साथ इसका भी विकास होता गया। पहले अखबार-पत्रिकाएं, फिर रेडियो, टेलीविजन और अब इंटरनेट प्लेटफार्म व सोशल मीडिया। इसका प्रचार, सघनता तथा पहंुच सब बढ़ते गये हैं और गति भी। 1857 के विद्रोह के समय भारत और इंग्लैण्ड के बीच समाचार के आने-जाने में डेढ़ महीने लग जाते थे। आज इसे ‘लाइव’ देखा जा सकता है।
पूंजीवादी प्रचारतंत्र का हमेशा से ही दोहरा चरित्र रहा। एक ओर यह किसी भी अन्य पूंजीवादी उद्यम की तरह मुनाफा कमाने का एक उद्यम था। इस उद्यम में पूंजी निवेश करने वाले मालिक इसे इसी रूप में देखते रहे हैं। दूसरी ओर यह लोगों की सोच को प्रभावित करने वाला माध्यम भी था जिसका भांति-भांति के उद्देश्यों के लिए इस्मेमाल किया जा सकता था। इसका इस्तेमाल कर माल बेचा जा सकता था (विज्ञापन), इसके जरिए किसी व्यक्ति या संस्था की साख बनाई-बिगाड़ी जा सकती थी। अंततः इसका इस्तेमाल पूंजीवादी व्यवस्था की रक्षा में किया जा सकता था। पूंजीवादी प्रचारतंत्र हमेशा से ही इन सभी रूपों में इस्तेमाल होता रहा है।
आज के पूंजीवादी समाज में पंूजीवादी प्रचारतंत्र के प्रसार, सघनता तथा पहुंच के बहुत ऊंचे स्तर का यह परिणाम हुआ है कि इसका सभी रूपों में इस्तेमाल भी बहुत ऊंचे स्तर पर जा पहुंचा है। आम जन दैनंदिन घटनाओं की जानकारी और समझदारी के लिए इस पर निर्भर हैं और इसका फायदा उठाता है।
इस सबका एक परिणाम है बहुत बड़े पैमाने पर लोगों के साथ धोखाधड़ी। उनकी सोच को एक खास दिशा में ढालने का प्रयास। राजनीति की कुछ हालिया घटनाओं से इसे समझा जा सकता है।
भारत को इस साल जी-20 की अध्यक्षता करने का मौका मिला है। यह एक सामान्य बात है क्यांेकि हर साल जी-20 का अध्यक्ष देश बदल जाता है। बारी-बारी से हर सदस्य देश इसका अध्यक्ष बनता है। पर भारत के अध्यक्ष बनते ही मोदी सरकार ने इसे अपनी विशेष उपलब्धि के तौर पर प्रचारित करना शुरू कर दिया। इसके लिए पूरे साल भर तक चलने वाले कार्यक्रमों की योजना बना ली गई। पूंजीवादी प्रचारतंत्र मोदी सरकार के इस प्रचार को चार कदम आगे बढ़ाकर प्रचारित कर रहा है।
अब इस प्रचार के प्रभाव में आने वाला आम जन जी-20 के बारे में सामान्य सी जानकारी से वंचित है, यही मानेगा कि जी-20 का अध्यक्ष बनकर भारत ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कोई विशेष सफलता हासिल की है और इसका सारा श्रेय मोदी के कुशल नेतृत्व को जाता है। इस तरह पूंजीवादी प्रचारतंत्र की कृपा से एक सामान्य सी घटना देश और मोदी के लिए विशेष उपलब्धि बन जाती है। स्वाभाविक तौर पर यह मोदी की लोकप्रियता बढ़ाने में या बनाये रखने में मदद करेगा। पूंजीवादी प्रचारतंत्र के इसी तरह के प्रचार से आम जन में से कई के मन में यह धारणा बन गई है कि मोदी के काल में भारत का सारी दुनिया में दबदबा हो गया है। यह सरासर झूठ है पर इस धारणा को दरकाया नहीं जा सकता।
दूसरे उदाहरण के तौर पर अमेरिका को लें। क्यांेकि कोई सोच सकता है कि भारत जैसे पिछड़े समाजों में ही ऐसा हो सकता है जहां निरक्षरता इतनी ज्यादा है। जब अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने इराक पर हमला करने का मन बनाया तो उन्होंने अपने यहां इसके पक्ष में माहौल बनाने के लिए खूब प्रचार किया। इस सबका यह परिणाम निकला कि 2003 में इराक पर अमेरिकी हमले के समय सत्तर प्रतिशत अमेरिकी लोग यह मानने लगे थे कि ट्विन टावर पर हमले में अलकायदा के साथ सद्दाम हुसैन और इराक का हाथ था, कि इराक के पास महाविनाशक हथियार थे जिससे अमेरिका को खतरा था। यह सब सरासर झूठ था पर सत्तर प्रतिशत अमेरिकी इस पर विश्वास करते थे। यह पूंजीवादी प्रचारतंत्र का कमाल था जिसने अमेरिकी सरकार के झूठ को जन-जन तक न केवल पहुंचाया बल्कि सैकड़ों तरीकों से इसे बार-बार लोगों के दिमाग में ठोंक-ठोंक कर उसे सच बना दिया।
पहले पूंजीवादी प्रचारतंत्र का यह प्रसार थोड़ा महीन किस्म का होता था। उस पर निष्पक्षता का एक आवरण चढ़ा होता था। ज्यादातर पत्रकार-संपादक यह दिखाने का प्रयास करते थे कि वे निष्पक्ष हैं और बस जन-जन तक समाचार पहुंचा रहे हैं। वे सत्ता या सत्ताधारियों से दूरी का दिखावा करते थे। कई बार सत्ताधारियों से पत्रकारों-संपादकों का टकराव इसे बल भी प्रदान करता था।
लेकिन आज इस तरह की निष्पक्षता का दिखावा जरा मुश्किल हो गया है। आज भारत ही नहीं अमेरिका तक में पूंजीवादी प्रचारतंत्र नंगे रूप में पक्षधर हो गया है। इराक पर हमले के मामले में अमेरिकी पूंजीवादी प्रचारतंत्र की पक्षधरता देशभक्ति के परदे में ढंकी हुई थी। तब अमेरिकी जन मानस के लिए यह समझना आसान नहीं था कि अमेरिकी पूंजीवादी प्रचारतंत्र सच के साथ नहीं बल्कि अमेरिकी साम्राज्यवादियों के झूठ के साथ खड़ा है। हालांकि तब यूरोपीय जन और पिछड़े देशों के जन इसे आसानी से देख ले रहे थे। तभी तो लंदन में बीस लाख और रोम में पैंतीस लाख लोगों ने सड़क पर उतर कर इस हमले का विरोध किया। लेकिन उसी अमेरिका में डोनाल्ड टंªप के सत्तानशीन होने के साथ पूंजीवादी प्रचारतंत्र का निष्पक्षता का ढांेग हवा हो गया। वहां उदारवादी धड़ा खुलेआम टंªप विरोध पर उतर आया जबकि धुर-दक्षिणपंथी धड़ा टंªप के पक्ष में। कोई भी निष्पक्ष नहीं रह गया। आज अमेरिकी पूंजीवादी प्रचारतंत्र इसी तरह पक्षधर और विभाजित है हालांकि स्वयं पूंजीवादी व्यवस्था की रक्षा में दोनो एक हैं।
भारत की बात करें तो 2010 के बाद भारत का पूंजीवादी प्रचारतंत्र नंगे रूप में प्रचारक की भूमिका में उतर आया है- पहले कांग्रेस पार्टी के विरोध में और 2014 के बाद मोदी और भाजपा के पक्ष में। कभी 2010 में देश के बड़े पूंजीपति वर्ग ने, जो प्रमुख प्रचार माध्यमों का मालिक है, तय किया कि कांग्रेस पार्टी उसके हितों को उस तरह नहीं साध रही जैसा वह चाहता है। उसके मुकाबले मोदी जैसा नेता उसके लिए ज्यादा फायदेमंद रहेगा जिसने गुजरात में मुख्यमंत्री के रूप् में पूंजीपतियों पर खूब सार्वजनिक धन- सम्पदा लुटायी था। उसी समय इसी पूंजीपति वर्ग के पैसे और शह से कुछ जमूरों और मदारियों ने, जिन्हें सत्ता की ललक थी, भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन शुरू किया। पूंजीवादी प्रचारतंत्र ने इसे अपना आंदोलन बना लिया और दिन-रात इसके पक्ष में प्रचार शुरू कर दिया। इसके दो परिणाम निकले। एक तो कांग्रेस पार्टी बुरी तरह बदनाम हो गई जिससे वह आज तक नहीं उबर पाई है। इस बदनामी से भाजपा इसके विकल्प के तौर पर स्वाभाविक तौर पर उभरी और मोदी व भाजपा सत्तानशीन हो गये। दूसरे, पूंजीवादी प्रचारतंत्र के प्रचार अभियान से जमूरों और मदारियों ने भी फायदा उठाया और वे भारत की पूंजीवादी राजनीति में नये खिलाड़ी के रूप में स्थापित हो गये। आज वे अखिल भारतीय पार्टी बन गये हैं तथा दिल्ली व पंजाब में सत्तानशीन हैं।
2014 में मोदी और भाजपा के सत्तानशीन होने के बाद बड़ा पूंजीपति वर्ग खूब मालामाल हुआ है। मोदी सरकार ने पूरी नंगई से उसके ऊपर दौलत लुटाई है। इसके लिए उसने मजदूरों (नई श्रम संहिताएं), किसानों (नये कृषि कानूनों), छोटे-मोटे व्यवसाईयों (जीएसटी) इत्यादि पर उसी नंगई से हमला बोला है। मालामाल होता बड़ा पंूजीपति वर्ग उसी नंगई से मोदी और उनकी सरकार के पक्ष में खड़ा है। वह उन्हें खूब पैसा दे रहा है और अपने प्रचार माध्यम से लगातार उनका गुणगान कर रहा है। यही नहीं, वह सारी मर्यादाआंे को ताक पर रखकर मोदी-भाजपा के हिन्दू सांप्रदायिक एजेण्डे को भी उसी नंगई से आगे बढ़ा रहा है। यह सब कर के वह बताता है कि देखो मोदी कितने लोकप्रिय हैं।
अब सवाल उठता है कि यदि आधुनिक जीवन में उसकी प्रकृति के कारण आम जन की पूंजीवादी प्रचारतंत्र पर इस कदर निर्भरता है तो वे इसकी गिरफ्त से कैसे निकल सकते हैं? कैसे वे शोषक-उत्पीड़क व्यवस्था के खिलाफ खड़े हो सकते हैं?
इसका जवाब यह है कि स्वयं जीवन की गति उन्हें इसकी ओर ले जायेगी। जब जीवन बद से बदतर होता जाता है तो यह एहसास बढ़ता जाता है कि सामाजिक व्यवस्था जिस रूप में चल रही है वह ठीक नहीं है। समाज की गति समझ में नहीं आती, पर यह एहसास होता है और बढ़ता चला जाता है। क्रांतिकारी विस्फोट के समय यह एहसास चरम पर पहुंच जाता है। जब लोग जन विद्रोह में सड़क पर उतर आते हैं तो इसी एहसास के कारण कि व्यवस्था अन्यायी और अत्याचारी है तथा उसे खत्म होना चाहिए।
यानी जिन्दगी की कटु सच्चाई शासक वर्ग के सारे प्रचार पर अंततः हावी हो जाती है। आज भी पूंजीवादी प्रचारतंत्र के सारे प्रयास के बावजूद मोदी और भाजपा देश के चालीस प्रतिशत लोगों का भी समर्थन हासिल नहीं कर पा रहे हैं।
लेकिन इसी के साथ दूसरी चीज भी है जिसका काफी महत्व है। मोदी और भाजपा के खिलाफ समाज में दूसरी राजनीतिक शक्तियां सक्रिय हैं। इनमें पूंजीवादी और पूंजीवाद विरोधी दोनों हैं। समाज में इनकी सक्रियता लोगों की चेतना को प्रभावित करती हैै व पूंजीवादी प्रचारतंत्र के मोदी-भाजपा समर्थक प्रचार को किसी हद तक निष्प्रभावी बना देती है। लोगों को अपनी जिंदगी के कटु अनुभव के साथ मिलकर यह वह परिणाम पैदा करती है जिसकी वजह से साठ प्रतिशत से ज्यादा लोग मोदी-भाजपा के खिलाफ मतदान करते हैं।
क्रांतिकारियों के लिए इसका भारी महत्व है। इसका मतलब यह निकलता है कि पूंजीवादी प्रचारतंत्र के सारे प्रचार का मुकाबला किया जा सकता है यदि आम जन की जिन्दगी से जोड़ते हुए प्रचार का ताना-बाना खड़ा किया जाये। स्वभावतः ही बड़े पूंजीपति वर्ग की पूंजी की ताकत क्रांतिकारियों के पास नहीं होगी। पर उनके पास संगठन की ताकत होगी। यदि संगठन की ताकत को रचनात्मक तरीके से इस्तेमाल किया जाये तो आम जन तक क्रांतिकारी चेतना के प्रसार का ताना-बाना खड़ा किया जा सकता है और पूंजीवादी प्रचार का मुकाबला किया जा सकता है। यह लोगों की अपनी जिन्दगी के एहसास को समझदारी में विकसित करेगा और उस क्रांतिकारी चेतना का निर्माण करेगा जो लोगों को पूंजीवाद विरोधी इंकलाब की ओर ले जायेगा।
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