रविवार, 23 अप्रैल 2023

 फासीवाद के खिलाफ छात्रों के मारक संघर्ष का अध्याय

‘‘सभी तरफ से हिटलर के सभी विरोधियों के बीच में एक बात सुनी जाती है- जनसंख्या के ठीक-ठाक हिस्से द्वारा- विलाप करते हुए, निराशा के शब्दों में और निराश करते हुए; अक्सर इस सवाल के साथ बात खत्म होती हैः ‘‘खैर आएगा तो  हिटलर ही...?’’ -‘द  व्हाइट रोज’ के चैथे पर्चे से।

यह पर्चा 1942 में द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान म्यूनिख विश्वविद्यालय, जर्मनी के छात्रों ने लिखा। इसके लिखने और बांटने वाले  हेंस शाॅल, विली ग्राफ, एलेक्जेण्डर शमोरेल, सोफी शाॅल, क्रिस्टोफ प्रोब्स्ट, प्रोफेसर कर्ट हूबर थे। ये नौजवान हिटलर के फासीवादी निजाम से बेखौफ थे। जब हिटलर की काली करतूतें अपने उफान पर थीं, वो दुनियाभर में धिक्कारा जा रहा था। उसी समय जर्मनी के ये बहादुर नौजवान हिटलर के शासन में उसकी नाक के नीचे उसे अपने पर्चे ‘द व्हाइट रोज’ के जरिये ललकार रहे थे।

ये सभी छात्र आम स्कूली मित्र थे। अलेक्जेण्डर शमोरेल और क्रिस्टोफ प्रोब्स्ट की मुलाकात विली ग्राफ और हेन्स शाॅल से 1941 में म्यूनिख विश्वविद्यालय में मेडिकल की पढ़ाई के दौरान हुई। 1942 में सोफी शाॅल (हेंस शाॅल की छोटी बहन) भी म्यूनिख विश्वविद्यालय में पढ़ने पहुंची। इन छात्रों के बीच परस्पर दोस्ती थी। इनकी दोस्ती हिटलरी शासन के प्रति आलोचक होने के इनके विचारों के चलते और मजबूत हो गयी। यहां यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि उस समय हिटलर या हिटलरी शासन की आलोचना करना आपराधिक कृत्य था। इस अपराध के लिए बदनाम गेस्टापो (हिटलरी सैनिक) की सघन पूछताछ से लेकर, कन्सन्ट्रेशन कैम्पों या मौत तक कुछ भी सजा हो सकती थी। नाजी फासीवाद के आतंक के बीच ‘द व्हाइट रोज’ का  विचार  पैदा हुआ और पैदा हुयी किसी भी तरह के नतीजे भुगतने को तैयार मतवाले नौजवानों की सच्ची दोस्ती।

पर्चे का शीर्षक ‘द व्हाइट रोज’ देने के पीछे हेंस ने गेस्टापो को पूछताछ में बयान दिया- ‘‘हमने इस अनुमान से शुरू किया कि शक्तिशाली प्रचार (प्रोपेगेंडा) कुछ जुमले उठाता है; जिसका कोई मतलब होना जरूरी नहीं; जो बस अच्छे लगते हैं लेकिन जो योजना के साथ जुड़े होते हैं। मैंने ब्रेनटानो द्वारा रचित स्पेनी प्रेम कविता ‘रोजा ब्लांका’ (सफेद गुलाब) से प्रभावित होकर यह नाम चुना।’’ हेंस का यह बयान अपने प्रिय दोस्त जोसफ सोंज को बचाने के लिए दिया गया बयान था। जोसफ एक पुस्तक विक्रेता था जो हेंस और उनके मित्रों को जर्मन फासीवादी शासन द्वारा प्रतिबंधित साहित्य उपलब्ध कराने में मदद करता था।

‘द व्हाइट रोज’ का नाम वास्तव में इसी शीर्षक से छपे फासीवादी जर्मनी में एक प्रतिबंधित उपन्यास से प्रेरित था। जिसके लेखक बी.ट्रेवन थे। बी.ट्रेवन; रेट मारुट का छद्म नाम था। रेट मारुट 1919 में बावेरिया सोवियत के कम्युनिस्ट थे। जो बावेरिया सोवियत के असफल होने पर मैक्सिको चले गये थे। जहां उन्होंने अपने निर्वासन काल में कई उपन्यास लिखे। ‘द व्हाइट रोज’ उपन्यास 1929 में जर्मनी में प्रकाशित हुआ था। इस उपन्यास के पात्रों के प्रतिरोध की कहानी ने ‘द व्हाइट रोज’ के नौजवानों के रूप में जर्मन फासीवादियों के खिलाफ प्रतिरोध में मूर्त रूप धारण किया।

ऐसा नहीं था कि ये नौजवान शुरूआत से ही हिटलर के नाजी फासीवाद के खिलाफ थे। अपनी युवावस्था में इनमें से कई हिटलर के यंग गार्ड का हिस्सा थे। जहां इन्हें यहूदियों से नफरत करना सिखाया गया। पूरी दुनिया में केवल और केवल जर्मन नस्ल को सर्वश्रेष्ठ मानने का दंभ भरा गया। क्रमशः इस जहरीले ज्ञान का प्रभाव इन पर कम होता गया।

हेंस 1937 में एक बार प्रतिबंधित ग्रुप डी.जे.1.11 से सम्बन्ध रखने के कारण गेस्टापो की सघन जांच में फंसे। चतुराई से की गयी अपनी पैरवी और हिटलर के यंग गार्ड का हिस्सा होने के कारण जल्द ही हेंस शाॅल छूट गये। यह दिखाता है कि शुरूआत में भले ही हेंस जैसे युवा हिटलर के मिथ्या देशभक्तिपूर्ण प्रचार में फंसे पर शीघ्र ही उनका मोहभंग होने लगा।

साम्राज्यवादी शासकों के लुटेरे हितों के चलते दूसरा विश्वयुद्ध शुरू हुआ। जिसमें वैसे तो साम्राज्यवादियों के बीच धड़ेबंदी थी पर इकलौते मजदूर राज- सोवियत संघ के खात्मे के लिए हिटलर के नाजी फासीवाद के पक्ष में सभी साम्राज्यवादी शक्तियां खड़ी थी। दूसरे विश्वयुद्ध की विभीषिका में मोर्चों से आ रहे जर्मन फासीवादी सैनिकों की दुर्दांतता के किस्से जर्मनी भी पहुंचते रहे। इसने म्यूनिख विश्वविद्यालय के इन नौजवान छात्रों को भी गहरे से प्रभावित किया।

1942 में मोर्चों से आ रही रिपोर्टों से प्रभावित होकर अलेक्जेंडर शमोरेल और हेंस शाॅल ने कदम उठाने का फैसला लिया। जिसके तहत इन्होंने जून 1942 में ‘द व्हाइट रोज’ शीर्षक से चार पर्चे जारी किये। पर्चों में हिटलर की तीखी आलोचना के साथ ही लोगों से पर्चों को और फैलाने की अपीलें भी की जाती। जुलाई में सेमेस्टर ब्रेक होने पर मेडिकल के इन छात्रों को तीन माह के लिए पूर्वी मोर्चे पर सोवियत रूस भेजा गया। अलेक्जेंडर शमोरेल रूसी भाषा बोलना जानते थे। इस कारण मोर्चे पर ये युवा रूसी गांवों में बचे रह गये किसानों से बातचीत करते, गीत गाते और दुनिया पर थोपे गये दूसरे विश्वयुद्ध के कारणों को समझने की कोशिश करते। 

सोवियत रूस के मोर्चे से लौटने पर ये नौजवान और अधिक दृढ़ता के साथ हिटलरी शासन के खिलाफ जनता को संगठित करने के काम में लग गये। तब द व्हाइट रोज का पांचवा पर्चा ‘सभी जर्मनों से अपील’ शीर्षक से जारी हुआ।

जनवरी 1943 में स्टालिनग्राद की लड़ाई जर्मन सैनिकों के लिए त्रासद अंत साबित हुई। स्टालिनग्राद की लड़ाई की हार से जर्मन जनता के सामने अजेय समझी जाने वाली जर्मन फासीवादी सेना की असलियत सामने आ गयी। जर्मन फासीवादियों के अजेय जर्मन सेना के दंभपूर्ण प्रचार की कलई खुल गयी। ‘द व्हाइट रोज’ के नौजवानों के लिए यह अपने छठे पर्चे ‘साथी छात्रो!’ के लिए प्रेरणा बना।

पर्चे और अधिक व्यापक रूप में बांटे गये। हेमबर्ग, सारब्रूकन, उल्म, फ्रीबर्ग, स्टुटगार्ट, बर्लिन में पर्चे बंटे। देशभर में टेलीफोन  को छापें और बांटें।डायरेक्ट्री से किन्हीं भी पतों पर पर्चे भेज दिये जाते। पर्चों में यह सूचना होती की ये पर्चा आप तक टेलीफोन डायरेक्ट्री के पते के जरिये पहुंच रहा है। साथ ही अपील होती की आप भी इस पर्चे

फरवरी पहले पखवाड़े में म्यूनिख विश्वविद्यालय और पूरे म्यूनिख शहर में ‘‘हिटलर का नाश हो!’’ और ‘‘आजादी!’’ के नारे लिखे गये। अलेक्जेंडर शमोरेल, हेंस शाॅल और विली ग्राफ ने ये नारे पूरी रात कोल तार से लिखे।

दचाउ कंसन्ट्रेशन कैम्प के कैदियों ने इन ‘आजादी की आवाजों’ के बारे में सुना। विश्वयुद्ध खत्म होने के बाद इन कैदियों ने बताया कि हमें मुश्किल से इस बात पर भरोसा हुआ कि बहादुरी से आजादी की आवाज उठाने वाले ये युवा जर्मन थे।

18 फरवरी 1943 को छठे पर्चें को म्यूनिख विश्वविद्यालय में डालते हुए हेंस शाॅल (24) और सोफी शाॅल (21) को देख लिया गया। गेस्टापो ने इन्हें गिरफ्तार कर लिया। 19 फरवरी को क्रिस्टोफ प्रोब्स्ट (22) को गिरफ्तार कर लिया गया। 22 फरवरी को फासीवादी जन अदालत में बदनाम जज रोलेण्ड फ्रिस्लर ने चार घंटे की सुनवाई में इन तीनों नौजवानों को मौत की सजा सुनाई। उसी दिन तीनों नौजवान शहीद कर दिये गये।

इस मामले में पूरे जर्मनी में लगभग 80 गिरफ्तारियां हुईं। 19 अप्रैल 1943 को चली दूसरी सुनवाई में अलेक्जेंडर शमोरेल (25), विली ग्राफ (25) और प्रोफेसर कर्ट हूबर (49) को मौत की सजा सुनाई गयी। अन्य 11 लोगों को 10 साल से लेकर 6 माह तक की सजा सुनाई गयी। फार्क हेनरेख को बिना सजा के बरी कर दिया गया।

दूसरे विश्वयुद्ध के खत्म होते-होते हिटलर और नाजी फासीवादी काफी बदनामी हासिल कर चुके थे। हिटलर ने तो खुद ही आत्महत्या कर अपने अंतिम संस्कार का पहले ही इंतजाम कर लिया था। आज हिटलर शब्द एक गाली बन गया है।

‘द व्हाइट रोज’ के नौजवानों; हेंस शाॅल और सोफी शाॅल; के नाम से म्यूनिख विश्वविद्यालय के चैराहे का नाम रखा गया है। सभी जर्मन ‘द व्हाइट रोज’ की कहानी को जानते हैं। इनके सम्मान में देशभर में सड़कों, स्कूलों, चैराहों के नाम रखे गये हैं। बहुत मुश्किल समय में जब बोलना जरूरी हो तो ऐसा करने वालों का मेहनतकश जनता सदैव सम्मान करती है। 

बेशक ‘द व्हाइट रोज’ की कहानी जर्मनी के बहादुर नौजवानों की है। लेकिन ये नौजवान पूरी दुनिया में सम्मान की नजरों से देखे जायेंगे। ये हमें प्रेरणा देते हैं कि जब शासक फासीवाद की ओर बढ़ रहे हों, तब उनके झूठों, जुमलों को बेनकाब कर जनता के सामने रखना जरूरी हो तो बेझिझक ऐसा करना चाहिए। सच और साहस से फासीवादियों के सामने खड़े होने भर की देर है, या तो वे भाग खड़े होंगे या फिर अपना मानवद्रोही चरित्र उजागर करेंगे। दोनों ही स्थिति में फासीवाद को मुकम्मिल चोट पहुंचाई जा सकती है। चाहे वो बीसवीं सदी के हिटलर-मुसोलिनी हों या आज इक्कीसवीं सदी में उनके अनुयायी।

आज जब भारत में भी फासीवाद की आहट सुनाई दे रही है तो हमें ‘द व्हाइट रोज’ के नौजवानों के कारनामों का शोर महसूस करना चाहिए। ‘आजादी!’ ‘मुक्ति!’ ‘बराबरी!’

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