बंग-भंग विरोधी आंदोलन और नौजवानों की भूमिका
20 जुलाई, 1905 को अंग्रेज साम्राज्यवादियों के वायसराय लार्ड कर्जन ने बंगाल का विभाजन करने का आदेश जारी किया। विभाजन का यह आदेश 16 अक्टूबर 1905 से लागू भी कर दिया गया। उस समय बंगाल प्रांत में उडीसा, बिहार और बंगाल (पूर्वी व पश्चिमी दोनों) आते थे। जनसंख्या की दृष्टि से इस प्रांत की आबादी इंग्लैण्ड की आबादी से दुगनी थी। बंगाल का विभाजन करने के अंग्रेजों के अपने तर्क थे। उनका कहना था कि एक लैफ्टिनेंट गर्वनर के द्वारा इतने बड़े प्रांत को प्रशासित करना कठिन है। पूर्वी बंगाल में तो यह प्रशासन पूरी तरह नजरअंदाज ही है। इसलिए इस प्रांत का विभाजन जरूरी है। इस प्रकार अंग्रेज साम्राज्यवादियों ने बंगाल का विभाजन कर इसके दो हिस्से कर दिये। बड़ी चालाकी से उन्होंने बंगाल और पूर्वी बंगाल नामक दो प्रांत बनाये। बंगाल प्रांत में पश्चिमी बंगाल, उडीसा और बिहार को रखा गया। पूर्वी बंगाल में असम सहित डेक्का (ढाका) को रखा गया। अंग्रेजों की इस कुटिल चाल से समझा जा सकता है कि वे बंगाल का विभाजन प्रशासनिक नजरिये से नहीं बल्कि बंगाल में फूट डालने के लिए कर रहे थे। उनके इस षड़यंत्र से बंगाल प्रांत में भी बंगाली भाषा बोलने वाले अल्पसंख्या में आ गये। वहां उडिया और हिन्दी बोलने वालों का बहुमत हो गया। इसके साथ ही पूर्वी बंगाल और बंगाल का विभाजन इस प्रकार किया गया कि पूर्वी बंगाल में मुस्लिमों का बहुमत हो गया। यह भाषा और धर्म दोनों के आधार पर फूट डालने की चाल थी। बंगाल का विभाजन करने से पूर्व और बाद में अंग्रेज साम्राज्यवादी अंदरखाने सांप्रदायिक विभाजन का जहर घोलते रहे। बंगाल के मुस्लिमों को भ्रमित करने के लिए उन्होंने कहा कि विभाजन के बाद हिन्दुओं के बजाय मुस्लिमों को मौके मिलेंगे। वे सरकारी नौकरियों और कारोबार में हिन्दुओं का वर्चस्व तोड़ पायेंगे। मुस्लिमों की बुरी स्थितियों के लिए उन्होंने हिन्दुओं को दोषी बताया।
बंगाल का विभाजन कर फूट डालने का कारण अंग्रेजों का वह डर था जो बंगाल के राजनीतिक तौर पर सक्रिय होने से पैदा हो रहा था। बंगाल उस समय राजनीतिक और स्वतंत्रता आंदोलन का केन्द्र था। अंग्रेजों को इसी बात से समस्या थी। वे नहीं चाहते थे कि बंगाल का यह जागरण शेष भारत में फैले। बंगाल का सांप्रदायिक और भाषाई विभाजन करने में वे इसका समाधान देखते थे। अंग्रेजों की असल मंशा को उस समय के अंग्रेज होम सेक्रेटरी हरवर्ट होप रिश्ले के इन शब्दों से समझा जा सकता है। रिश्ले ने कहा- ‘‘ एकजुट बंगाल एक शक्ति है जबकि विभाजित बंगाल कई अलग-अलग रास्तों का निर्माण करेगा।’’
जैसा कि इतिहास ने बताया बंगाल की जनता पहले दिन से ही अंग्रेजों की इस कुटिल चाल को समझ गयी। विभाजन के मूल में फूट डालने की मंशा पहले दिन से ही बंगाल के जन गण में विद्यमान थी। हालांकि यह भी सच है कि पूर्वी बंगाल के कुछ लोग अंग्रेजों के फैलाये गये जहर का शिकार भी हुए।
बंगाल विभाजन के विरोध करने का पहला चरण अंग्रेजों के सामने अर्जी देने, ज्ञापन देने, आम सभाओं का आयोजन करने और प्रेस में इसके खिलाफ प्रचार करने का रहा। जैसा कि हम सब जानते हैं अंग्रेज साम्राज्यवादी इन सब से नहीं मानने वाले थे और न ही वे माने। इसके खिलाफ आंदोलन का अगला चरण शुरू हुआ जो कई मायनों में ऐतिहासिक था। बंगाल विभाजन विरोधी आंदोलन का अगला चरण भविष्य के स्वतंत्रता आंदोलन के लिए कई ईबारत लिखने जा रहा था। छात्रों- नौजवानों और महिलाओं की स्वतंत्रता आंदोलन में पहली बार व्यापक और महत्वपूर्ण भूमिका बनने जा रही थी।
बंगाल विभाजन विरोधी आंदोलन के अगले चरण की शुरूआत 7 अगस्त 1905 को हुई। 7 अगस्त 1905 को कलकत्ता के सिटी हाल में स्वदेशी आंदोलन और बायकाट आंदोलन का प्रस्ताव पास किया गया। इस सभा में लगभग 5000 छात्रों ने भागीदारी की। स्वदेशी आंदोलन और बायकाट आंदोलन के प्रस्ताव में जनता से अपील की गई कि वे विदेशी (इंग्लैण्ड में बने) सामानों का प्रयोग न कर भारत में बनी वस्तुओं का प्रयोग करें। इसके साथ ही स्वदेशी कारखाने और संस्थान खोलने की अपील की गई। इंग्लैण्ड के मैनचैस्टर और लिवरपूल के बने सामानों के स्थान पर भारत में, भारत के लोगों द्वारा बने सामानों का प्रयोग करने की अपील की गई। विदेशी सामानों का बायकाट करने को कहा गया। स्वदेशी व बायकाट आंदोलन द्वारा की गई अपील को जनता ने हाथों-हाथ लिया। उस समय कपड़े और नमक तक इंग्लैण्ड से भारत आता था। जिसमें अंग्रेज पूंजीपति भारी मुनाफा कमाते थे। वे यहां से सस्ता कच्चा माल इंग्लैण्ड ले जाते और वहां से तैयार माल को मोटे दामों में भारतीयों को बेचते थे। आंदोलन की यह रणनीति अंग्रेजों पर आर्थिक चोट करने की थी। आम जन गण ने बंगाल विभाजन के अंग्रेजों के षडयंत्र का जवाब इसी स्वदेशी और बायकाट से देने की सोची। शीघ्र ही पूरे बंगाल में यह आंदोलन जोर पकड़ गया। वंदे मातरम स्वदेशी आंदोलन का गीत बन गया। बंगाल विभाजन के प्रतिरोध में रविन्द्रनाथ टैगोर ने ‘आमार सोनार बांग्ला’ गीत लिखा जो जन-जन का गीत बन गया। बाद में यह गीत बांग्लादेश का राष्ट्रगान बना।
इस आंदोलन में छात्रों- नौजवानों की अग्रणी भूमिका रही। 1905 में ईडन कालेज (कलकत्ता) के छात्रों ने बंगाल विभाजन के सूत्रधार वायसराय लार्ड कर्जन का पुतला फूंक अपना विरोध दर्ज कराया। छात्र-नौजवान अंग्रेजी सरकार के सरकारी स्कूल/कालेजों को छोड़ राष्ट्रीय संस्थाओं में प्रवेश लेने लगे। हांलाकि उस समय तक देश में राष्ट्रीय शैक्षिक संस्थानों की संख्या गिनी-चुनी थी। इस आंदोलन के बाद कई राष्ट्रीय शैक्षिक संस्थानों को स्थापित करने का मार्ग खुला। बाद में अरविन्दो घोष द्वारा नेशनल कालेज आफ बंगाल (1906) की स्थापना की गई। 1906 में ही उद्योगों हेतु विज्ञान और तकनीकी को बढ़ावा देने के लिए सतीश चन्द्र मुखर्जी द्वारा राष्ट्रीय शिक्षा परिषद (नेशनल एजुकेशन काउंसिल) की स्थापना की गई। इसके बाद ऐसे ही अनेकों संस्थान खुले।
वे छात्र और नौजवान ही थे जो नेतृत्व द्वारा तय की गई चीजों को लागू कराने में सबसे आगे थे। वे स्वदेशी अपनाने व विदेशी सामानों का बहिष्कार करने वालों में सबसे आगे थे। स्वदेशी अपनाने हेतु बनी समितियों में छात्र ही अग्रणी भूमिका में थे। शिक्षक अश्विनी कुमार दत्त द्वारा स्वयंसेवकों का एक संगठन बनाया गया, जिसका नाम ‘स्वदेश बांधव समिति’ था। इस ‘स्वदेश बांधव समिति’ में छात्रों-नौजवानों की भूमिका प्रमुख थी। जोशीले छात्रों-नौजवानों की अग्रणी भूमिका ने बायकाट की योजना को आगे बढ़ाते हुए विदेशी वस्तुओं की होली जलाई। विदेशी कपड़ों की होली जलाने में छात्र-नौजवान सबसे आगे थे। अगर कहीं पर विदेशी वस्तुओं की बिक्री रूकवाने हेतु पिकेटिंग की जरूरत थी तो वहां छात्र- नौजवान थे। अगर कहीं घर-घर जाकर स्वदेशी अपनाने के लिए लोगों को जागरुक करना हो तो छात्र-नौजवान वहां भी थे। कलकत्ता के अलग-अलग कालेजों के छात्र प्रतिनिधियों ने बंगाल विभाजन का विरोध करने के लिए एक ‘केन्द्रीय छात्र संग्राम कमेटी’ का गठन भी किया। सतीश चन्द्र मुखोपाध्याय द्वारा 1902 में गठित ‘द डाॅन सोसायटी’ ने भी इस आंदोलन में छात्रों की भूमिका बनाने का काम किया।
जब यह आंदोलन जोर पकड़ता हुआ आगे ही बढ़ता जा रहा था तो अंग्रेजों ने वह किया जिसके लिए वे जाने जाते हैं। उन्होंने दमन का कोई तरीका शेष नहीं छोड़ा। आंदोलन में भागीदार सभी वर्गों- तबकों पर इस दमन की मार तेज थी। छात्र-नौजवान इस आंदोलन में अग्रणी भूमिका में थे। स्वतंत्रता संग्राम में पहली बार वह समय आया था जब इतनी बड़ी तादाद में छात्र-नौजवान किसी आंदोलन में कूदे थे। अंग्रेजों के लिए यह विशेष दुविधा थी। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि कैसे छात्रों-नौजवानों के इस हुजूम को रोकें? अंततः छात्रों पर भी दमन और घोर दमन करने से वे नहीं चूके। लाठी चार्ज, सभाओं पर रोक, जेल में ठूंसना, वंदे मातरम गाने पर प्रतिबंध लगाना आदि तरीकों से आंदोलन का दमन किया गया। एक आंकड़े के अनुसार दस हजार छात्रों को इस दौरान अलग-अलग तरह की सजाएं दी गई। यह बंगाल विभाजन के खिलाफ छात्रों-नौजवानों के बलिदान को दिखाता है।
स्कूल-कालेज के छात्रों को आंदोलन से दूर रखने के लिए बंगाल के मुख्य सचिव आर.डब्ल्यू. कार्लाइल एक सर्कुलर लेकर आये। इस सर्कुलर के जरिये छात्रों को सभाओं में शामिल होने, प्रदर्शन करने, वंदे मातरम गाने आदि पर प्रतिबंध लगा दिया गया। सर्कुलर में यह भी कहा गया था कि जिन स्कूल-कालेजों के छात्र आंदोलन में भागीदारी करेंगे उनको सरकार से कोई मदद नहीं दी जायेगी। इस सर्कुलर के विरोध में शचीन्द्र प्रसाद बोस के नेतृत्व में एक ‘एंटी सर्कुलर कमेटी’ का गठन किया गया। इस कमेटी ने छात्रों को एकजुट कर आंदोलन में भागीदार बनाया। इसने छात्रों को सुर्कलर के विरोध में प्रोत्साहित किया। इस कमेटी ने उन छात्रों के लिए शिक्षा की वैकल्पिक व्यवस्था की जिनकों अंग्रेज हुकुमत ने स्कूलों से निकाल दिया था। अंग्रेजों ने छात्रों को आंदोलन से दूर करने का जो प्रयास सर्कुलर से किया था ‘एंटी सर्कुलर कमेटी’ ने इसको निष्प्रभावी करने में महती भूमिका निभाई।
इस तरह छात्र-नौजवानों ने बंगाल विभाजन के बाद पैदा हुए आंदोलन में अपनी प्रचारक और प्रसारक की भूमिका निभाई। स्वतंत्रता संग्राम में यह पहला मौका था जब छात्रों-नौजवानों ने इतनी भारी संख्या में और सक्रिय भूमिका निभाई। कांग्रेस के नेतृत्व में चले इस आंदोलन में छात्र अपने हिस्से की भूमिका बखूबी निभा रहे थे। छात्र-नौजवान स्वतंत्रता संग्राम में अपनी हिस्सेदारी निभाने में अपने जीवन की सार्थकता देखने लगे। यही कारण था कि वे लाख दमन के बाद भी पीछे नहीं हटे। अंततः अंग्रेजों को पीछे हटना पड़ा। 1911 में उनको बंगाल विभाजन को रद्द करना पड़ा। इसके बाद के आंदोलनों में भी छात्रों-नौजवानों ने अपने तेज और जोश को बनाये रखा। कुर्बानियां देने और त्याग करने से वे कभी पीछे नहीं हटे। बंगाल विभाजन विरोधी इस आंदोलन के बाद छात्रों-युवाओं में जो जागरण हुआ वह भविष्य में अंग्रेजों को और भी परेशान करने वाला था।
अंग्रेजों के पूरे शासन में एक बात समान थी। वह थी ‘बांटो और राज करो’ की नीति। अंग्रेजों ने अपना शासन जितना लाठी और बंदूक के दम पर चलाया उतना ही ‘बांटों और राज करो’ की नीति पर चलकर चलाया। देश को भीषण हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिक दंगों की आग में झोंक कर, इस आग में कई लोगों को जलाने का अपराध अंग्रेज साम्राज्यवादियों के माथे से कभी नहीं धुल सकता। भारत का सांप्रदायिक विभाजन करा कर दुनिया के सबसे बड़े विस्थापन के दोषी अंग्रेज साम्राज्यवादी ही थे। इस विस्थापन के जख्म न सिर्फ आजादी के बाद भारत और पाकिस्तान के आम लोगों को झेलना पड़ा बल्कि आज भी इसकी काली छाया आम जनता को परेशान करती है।
आजादी के बाद सत्ता पर बैठा शासक वर्ग अंग्रेज साम्राज्यवादियों से विरासत में मिले ‘बांटो और राज करो’ की नीति पर चला। आजादी के बाद कितने ही दंगे जनता ने सहे। हिंदू और मुस्लिम, हिंदू और सिख दंगों में कितने ही मासूमों ने अपनी जान गवाई। एक तरफ जनता का धर्म के आधार पर बंटवारा, उनको एक दूसरे का दुश्मन बना देना और दूसरी तरफ नेताओं, अफसरों, पूजीपतियों की मौज यही आजादी के बाद का सच है।
संघ भाजपा के सत्ता में आने के बाद इस ‘बांटों और राज करो’ की नीति ने और ऊंचाई हासिल की है। इनके कार्यकर्ताओं से लेकर नेताओं ने सांप्रदायिक जहर फैलाने में अंग्रेजों को भी मात दे दी है। बड़ी पंूजी ने इनको खुले मन से चंदा दिया। और इन्होंने सांप्रदायिक जहर फैलने, जनता को धर्म के आधार पर बांटने के लिए पूरी फौज उतार दी। क्या तो अखबार, चैनल क्या तरह-तरह के सोशल मीडिया प्लेटफार्म सब जगह यही फौज दिन-रात काम में लगा दी गई है। एक तरफ जनता का सांप्रदायिक बंटवारा और दूसरी तरफ अदानी का सबसे अमीर बन जाना एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जितना ये जनता को बांटेंगे उतना ही बड़ी पूंजी का लाभ होगा, उसका शासन मजबूत होगा।
आज एक बार फिर से बंगाल विभाजन के बाद और आजादी के आंदोलन के दौरान छात्रों-नौजवानों ने जो भूमिका निभाई थी वही भूमिका निभाने की जरूरत है। छात्र नौजवानों ने ‘बांटों और राज करो’ की नीति का न सिर्फ भंडाफोड़ किया बल्कि वे इसके खिलाफ एकजुट होकर लड़े भी थे। आज का समय छात्रों- नौजवानो से यही मांग कर रहा है।
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