रविवार, 23 अप्रैल 2023

 भारत में खुलेंगे विदेशी विश्वविद्यालय!

पिछले दिनों विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने भारत में विदेशी विश्वविद्यालयों को खोलने के लिए नियमों का एक मसौदा जारी किया है। इस मसौदे को सार्वजनिक कर 18 जनवरी 2023 तक सुझाव मांगे गए हैं। इसके बाद यूजीसी इन नियमों को अपनी तरफ से अंतिम रूप देकर जारी करेगी।

‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020’ (नेप) में सरकार ने विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में खोले जाने का संकेत किया था, उसी दिशा में अब यूजीसी ने ये मसौदा जारी किया है। इसे जारी करते हुए यूजीसी अध्यक्ष एम.जगदीश कुमार ने बयान देकर कहा कि ‘‘नेप के तहत विश्व स्तरीय और गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा उपलब्ध कराने हेतु यह कदम उठाया जा रहा है।’’ उन्होंने यह भी कहा कि जारी शैक्षिक सत्र में तकरीबन साढ़े चार लाख छात्र उच्च शिक्षा लेने हेतु दुनिया भर के देशों में गए। इनकी पढ़ाई पर अनुमानित 28 से 30 अरब डाॅलर (लगभग 2100 अरब रुपये) खर्च हो जाता है।

जेएनयू के उपकुलपति रहते हुए, उस संस्थान को संस्थागत तौर पर बर्बाद करने के कुख्यात प्रयासों का श्रेय एम. जगदीश कुमार को ही दिया जाता है। संस्थानों को बर्बाद करने का उनका हुनर सिर्फ एक जेएनयू तक ही सीमित न हो जाए, वे अपनी प्रतिभा के बल पर देश के बाकी विश्वविद्यालयों को भी बर्बाद कर सकें इस उद्देश्य के साथ सरकार ने उन्हें यूजीसी का चेयरमैन बनाया। इसलिए, हाल ही में जारी किए गए इस मसौदे को उनकी प्रतिभा की रोशनी में देखा और समझा जाना बहुत आवश्यक है।

यह मसौदा विश्व रैंकिंग के हिसाब से शीर्ष 500 विश्वविद्यालयों को भारत में अपना कैंपस खोलने की अनुमति देता है। साथ ही उन्हें यह छूट देता है कि वे अपनी प्रवेश प्रक्रिया स्वयं तय करें, छात्रों से वसूली जाने वाली फीस भी स्वयं तय करें, भारत के छात्रों से मुनाफा कमाएं और सीधे उसे अपने देश भेज दें। भारत की सरकार उन पर किसी तरह की बंदिश या रोक-टोक नहीं लगाएगी।

गौरतलब है कि संघ-भाजपा मंडली दशकों से विदेशी विश्वविद्यालयों पर आरोप लगाती रही है कि वे ‘भारत विरोधी प्रोपेगैंडा’ में शामिल रहे हैं। लेकिन यूजीसी द्वारा जारी ड्राफ्ट में विदेशी विश्वविद्यालयों को अपना पाठ्यक्रम भी स्वयं तय करने की छूट दी गयी है। लेकिन इसके साथ यह भी जोड़ा गया है कि पाठ्यक्रम ‘राष्ट्र हित’ में होना चाहिए। संघ-भाजपा का राष्ट्र हित बहुत स्पष्ट है। यदि विश्वविद्यालय/स्कूल में यह पढ़ाया जाए कि ‘‘सावरकर अंडमान की जेल में रहते हुए, ‘बुलबुल’ की पीठ पर बैठकर भारत दर्शन करने जाते थे।“ तो यह पाठ्यक्रम संघ-भाजपा के लिहाज से राष्ट्र हित है। लेकिन भारत में सदियों से प्रचलित जातिवादी शोषण के खिलाफ किसी विद्वान प्रोफेसर का लेख पढ़ाया जाए तो वो राष्ट्र हित के खिलाफ है।

यूजीसी के मसौदे में इन विश्वविद्यालयों में आरक्षण के प्रावधानों को लागू करने/कराने की कोई चर्चा नहीं है। हालांकि यह बिल्कुल स्पष्ट किया गया है कि वहां से पढ़ने वाले किसी छात्र को सरकार द्वारा दी जाने वाले कोई छात्रवृत्ति नहीं दी जाएगी।

विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में खोलने के लिए सरकार इतनी उतावली क्यों है?

भारत के शिक्षा बाजार पर बहुत लंबे समय से देशी-विदेशी पूंजीपतियों की नज़र है। इसलिए समय-समय पर पूंजीपति सरकार से शिक्षा संबंधी नियमों में छूट देने की मांग करते आए हैं। विश्व के स्तर पर भी डब्लूटीओ जैसी संस्थाएं सरकारों पर इसी तरह के दबाव बनाती आयी हैं। 2014 से पहले कांग्रेस की सरकार भी इसी तरह से शिक्षा में पूंजीपतियों को छूट देने के लिए संसद में कई बिल लेकर आयी थी, तब की विपक्षी पार्टी भाजपा ने इसका विरोध किया था। लेकिन, आज भाजपा खुद कांग्रेस से दो कदम आगे चलकर तेजी के साथ शिक्षा में निजीकरण को बढ़ावा दे रही है।

विदेशी विश्वविद्यालय भारत में किसी परोपकार के मकसद से नहीं आएंगे। वो यहां आक्सफोर्ड, कैम्ब्रिज, येन के नाम से अपनी दुकान खोलेंगे। छात्रों को लूट-लूटकर अकूत मुनाफा कमाएंगे। भारत के मध्यवर्गीय, निम्न मध्यवर्गीय परिवार आक्सफोर्ड, कैम्ब्रिज आदि के साथ अपने बच्चे के नाम को जुड़ा हुआ देखने के लिए पेट काटकर, जमीनें बेचकर भारी-भरकम फीस भरेंगे।

सरकार की विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में खोले जाने की यह योजना उदारीकरण की नीतियों को और ऊंचे स्तर पर पहुंचाने का परिणाम है। उदारीकरण के पिछले 30 वर्षों का इतिहास यही दिखाता है कि सरकारों ने शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार जैसी मूलभूत चीजों से क्रमशः अपने हाथ पीछे खींचे हैं। इन क्षेत्रों में काम करने वाले और इनसे लाभान्वित होने वाले लोगों, दोनों पर इनका बुरा असर पड़ा है। यहां पूंजी की मार मजदूर- मेहनतकशों पर बेतहाशा पड़ने लगी। इसका कुल परिणाम गरीबी, असमानता, बेरोजगारी और महंगाई बढ़ने के रूप में सामने आया। इस दौरान ‘सरकार कोई धर्मशाला नहीं है’ विभिन्न सरकारों का आप्त वाक्य बन गया। अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में उदारीकरण की नीतियों को सरपट लागू किया जाने लगा।

शिक्षा के क्षेत्र में भी यही सब हुआ। सरकार ने शिक्षा पर खर्च में कटौती की। जिसका एक परिणाम सरकारी शिक्षण संस्थानों का खस्ताहाल होना तथा दूसरा निजी स्कूलों का कुकुरमुत्तों की तरह उग आना हुआ। यहां पूंजी के आकार के अनुसार प्राइमरी से लेकर उच्च शिक्षा तक शिक्षा की दुकानें सज गईं। अपने बच्चों को पढ़ाने की जद्दोजहद में मजदूर-मेहनतकश आवाम लुटने पर मजबूर कर दी गई। 

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