बच्चों का अकाल पूंजीवादी निजाम में प्राइमरी शिक्षा
- मदन पाण्डे
शिक्षा का ‘जवाहर नवोदय विद्यालय’ मॉडल अपनी जगह रुका नहीं रहा। उसी तर्ज पर कुछ राज्यों ने अपने यहाँ ‘राजीव नवोदय विद्यालय’ शुरू किये। इसके लिए भी टेस्ट सिस्टम बनाया गया; यानी क्रीम बच्चों को अपनाना। लेकिन राज्य सरकारों के पास इतना पैसा कहाँ है? अतः बच्चों को पढ़ाई-लिखाई के टाईम टेबल पर पर्याप्त ध्यान दिए जाने के बावजूद इनके पास खर्च का टोटा रहता ही है। इधर इसी नकल पर देश के अनेक राज्यों ने आदर्श विद्यालय शुरू कर दिये हैं। यानी दस बच्चों से कम वाले प्राइमरी विद्यालय बंद कर दिए गए और आस-पास के अनेक विद्यालयों को मिलाकर एक केन्द्रीय आदर्श विद्यालय चलाया जाने लगा। इसमें आस-पास के विद्यालयों के बच्चों से भर्ती होने की अपेक्षा की गई। इस प्रकार आदर्श विद्यालयों में तो बच्चों की संख्या बढ़नी ही थी। लेकिन कम बच्चों वाले अनेक विद्यालय बंद हो गए। केन्द्रीय विद्यालयों में अध्यापकों का चुनाव सावधानी से किया गया है। संसाधन-भवन और शिक्षक भी यहाँ मानक के अनुसार हैं। समय सारणी पर भी मेहनत की गई है। लेकिन इससे बच्चों की प्रारंभिक शिक्षा उनके घर-परिवेश में रहते हुए देने का मामला खटाई में पड़ गया। जो स्कूल बंद हुए उनके भवनों के निर्माण और मरम्मत आदि पर आया अब तक का खर्च बेकार ही गया। उनके सभी शिक्षक तो आदर्श विद्यालय में लिए नहीं जा सकते थे उन्हें अन्य विद्यालयों में समायोजित कर दिया गया। खाली स्कूल भवनों का क्या होगा इसका कुछ पता नहीं।
सन् 2022 में देशभर में 22,000 प्राइमरी स्कूल बंद कर दिए गये थे। इसका कारण बच्चों की कमी या अकाल बताया गया। भारत; चीन के बाद दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाला देश है। सवाल है क्या भारत में बच्चों की जन्म लेने में दिलचस्पी कम हो गई है? जवाब है ना। यूनिसेफ के एक आंकड़े के अनुसार भारत में प्रतिदिन 67,000 से कुछ कम या ज्यादा बच्चे जन्म लेते हैं। एक आंकड़ा प्रतिदिन 44,481 बच्चों के जन्म लेने का है। अगर यह छोटी संख्या ही लेकर हिसाब लगाया जाये तो देश में हर साल 1 करोड़ 62 लाख के आस-पास बच्चे पैदा होते हैं। देशभर में पाँच साल के बच्चों का सन् 2022 का डेटा 11 करोड़ 78 लाख 52 हजार 398 का है; यानी स्कूलों में भर्ती को तैयार बच्चे। विद्यालयी शिक्षा विभाग के आंकड़ों के अनुसार पहले 2018-19 की तुलना में 2020-21 तक 51,629 स्कूल बंद किये गये। कारण बताया गया कि बच्चों का अभाव या अकाल।
अब हम इस अभाव के कारणों पर आते हैं। क्यों है यह अभाव? इसका जवाब शिक्षा में, और दिये गये आंकड़ों मंे ढूंढंेगें तो नहीं मिलेगा; हम शिक्षा की तकनीकी शब्दावली में उलझ कर रह जायेगें। खुली आँखांे से देखेंगे तो शायद इस सवाल का जवाब देती सच्चाइयों तक पहुँच जायें। उनके आस-पास तो जरुर ही। हमें इस प्रचार को कोई अधिक महत्व नहीं देना चाहिए कि शिक्षकों द्वारा अपने काम को ठीक से न करने के कारण बच्चे स्कूल छोड़ रहे हैं। बहुत कम प्रतिशत में यह कारण हो सकता है पर इससे अधिक महत्वपूर्ण कारण मौजूद हैं।
पहला नजारा जो हमें अपने चारों ओर दिखता है, वह है मौजूदा पूंजीवादी व्यवस्था के तहत देश के विभिन्न भागों का असमान विकास: मौजूदा दुर्गम इलाके कम तो सुगम ज्यादा विकसित; गाँव कम तो शहर ज्यादा विकसित; वनवासी इलाके कम तो अच्छे खेतिहर इलाके ज्यादा साधन संपन्न; गैर औद्योगिक इलाके कम तो औद्योगिक इलाके ज्यादा विकसित; पहाड़ कम तो मैदान ज्यादा विकसित। यह बिल्कुल स्वाभाविक है कि साधारण जनता रोजी-रोटी की तलाश में अविकसित या कम विकसित इलाकों से विकसित इलाकों की ओर पलायन करे। इसी जनता के बच्चे सरकारी प्राइमरी स्कूलों में पढ़ते हैं, तो वह अपने बच्चों को साथ ले जाती है। फलतः दुर्गम इलाकों के स्कूलों में बच्चे कम हो जाते हैं। सरकार इन दुर्गम इलाकों के बच्चों को पढ़ाने की रुचि ही नहीं रखती है। हालात ऐसे हैं कि- घूमंतु आबादी के ये बच्चे चार-पाँच महीने किसी एक स्कूल में पढ़ते हैं तो अगले पाँच छः महीने किसी और स्कूल में; कई बार ऐसी आबादी के बच्चे परीक्षा ही नहीं दे पाते और कक्षा 5 पास भी नहीं कर पाते। शिक्षक, बच्चों की स्कूल में संख्या बढ़ाएँ भी कैसे? नतीजतन सरकार स्कूलों को बंद कर शिक्षा देने के अपने लक्ष्य की ‘‘इतिश्री’’ करती है।
स्कूलों में बच्चों के अकाल का दूसरा बड़ा कारण है आर.टी.ई. (राइट टू एजुकेशन) के तहत बनाई गई एक सुरंग। इसके अनुसार यदि सरकारी प्राइमरी स्कूल में नामांकित बच्चों का 25 फीसदी तक निजी स्कूलों में पढ़ना चाहे तो जा सकता है। उनके मिड-डे मील का खर्चा सरकार वहन करेगी। इसके तहत छोटे स्कूल 25 प्रतिशत बच्चों को प्रवेश देकर सरकार से पैसा वसूलते हैं। सरकार का निजी स्कूलों को यह रकम लुटाना निजीकरण की अपनी आम नीति का हिस्सा हो जाता है। हालांकि प्रतिष्ठित निजी स्कूलों में अभी भी आर.टी.ई. के तहत गरीब-गुरबा के बच्चों का प्रवेश लगभग असंभव ही है।
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