शनिवार, 22 अप्रैल 2023

 भगत सिंह: परिवार और जीवन

भगत सिंह का जन्म 28 सितम्बर 1907 को चक नं-105 बी (बंगा) जिला लायलपुर पंजाब (अब फैसलाबाद, पाकिस्तान) में हुआ था। उनके पिता का नाम किशन सिंह और माता का नाम विद्यावती कौर था। भगत सिंह 9 भाई-बहनों में दूसरे नम्बर के थे। उनका पुश्तैनी गांव खटकड़कलां था जो जिला नवांशहर में था। भगत सिंह के दादा अर्जुन सिंह वहां से आ गये थे।। इनके पिता और चाचा अजीत सिंह और स्वर्ण सिंह का जन्म इसी गांव में हुआ था। इनके गांव से मजबूत सम्बन्ध थे। 

भगत सिंह के परिवार में शुरू से ही देशभक्ति और जनपक्षीय भावनाएं बहुत मजबूत थी। उनके परदादाओं में से एक सरदार फतेह सिंह ने महाराजा रणजीत सिंह के अधीन पश्चिम में अशांत पठानों और पूर्व में खतरनाक अंग्रेजों के खिलाफ सिख साम्राज्य के प्रसार में मदद की। 1857 में मुस्लिम काश्तकारों को जमीन का अधिकार दिलाने में मदद की थी। बाद में अन्य जमींदारों के विपरीत अंग्रेजों के साथ समझौता करके जमीन पाने के प्रस्ताव को ठुकरा दिया था। फतेह सिंह को ब्रिटिश सरकार ने उनके एंग्लो-सिख युद्ध में सक्रिय भागीदारी के कारण सजा दी। उनकी जायदाद का आधा हिस्सा जब्त कर लिया था।

भगत सिंह के दादा सरदार अर्जुन सिंह एक सक्रिय समाज सुधारक थे। सामंती दमन के विरुद्ध गरीबों के सच्चे रक्षक थे। अर्जुन सिंह आर्य समाजी थे। भगत सिंह की दादी जय कौर हिन्दू परिवार की औरत थी। अर्जुन सिंह ने जरूरतमंदों को मुफ्त चिकित्सा प्रदान की। अपनी पत्नी जय कौर को भी ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित किया। अपनी बहुओं को लड़कियों को शिक्षित करने, जरूरतमंदों की मदद करने को प्रेरित किया। रचनात्मक काम करने के लिए उन्हें आगे बढ़ाया। परिवार के साथ 22 अनाथ बच्चों के पालन-पोषण में सहयोग किया। लड़कियों को शिक्षित करने का बेड़ा सामन्ती जमाने के ऐसे काल में लिया जब लड़कियों को शिक्षा देने पर काफी सवाल उठाये जाते थे। इनमें से बाद में कईयों ने स्वतंत्रता आंदोलन में योगदान किया।

दादा अर्जुन सिंह ने गुरुद्वारे बनाने में सहयोग किया। गुरुद्वारे जाने पर वह गुरु ग्रन्थ साहिब के आगे माथा नहीं टेकते थे। वह कहते थे कि ‘गुरु साहिबान की शिक्षा पर चलना ही सही है। वे कहते थे ‘मूर्ति पूजा’ की भांति ही यह ‘पुस्तक पूजा’ है।’ वे गांव के बड़े किसान थे। गांव के विकास के लिए उन्होंने कुएं और धर्मशाला बनाई। हर वर्ष अपने गांव में आर्यसमाज के प्रचारकों को बुलाकर हवन, उपदेशों का प्रवचन करवाते थे। जिससे गांव में छुआछूत, अंधविश्वास, नशे आदि के कलंक सदा के लिए मिट जाए।

अर्जुन सिंह ने सिख धर्मगुरुओं की शिक्षाओं को वेदों के अनुकूल सिद्ध करते हुए एक उर्दू की किताब ‘हमारे गुरु साहबान वेदों के पैरोकार थे’ लिखी थी।

अंग्रेजी हुकूमत ने 1909 में पटियाला रियासत में आर्य समाज पर राजद्रोह का अभियोग चलाया। यह कदम सिख व आर्य समाज के बीच आपसी वैमनस्य पैदा करने के लिए चलाया। साथ ही आर्य समाज द्वारा उस दौरान आजादी के लिए पैदा की जा रही जन जागृति के अभियान को मिटाना था। संकट की इस घड़ी में स्वामी श्रद्धानन्द के साथ अर्जुन सिंह भी केस की पैरवी के लिए कोर्ट में पेश हुए। गुरुग्रन्थ साहिब के 700 ऐसे श्लोक प्रस्तुत करे जो वेदों की शिक्षा से मेल खाते थे। यह सिख धर्म और आर्य समाज के आपसी मधुर सम्बन्ध बनाने में मील के पत्थर साबित हुए।

भगत सिंह के पिता किशन सिंह, चाचा अजीत सिंह और स्वर्ण सिंह प्रतिबद्ध स्वतंत्रता सेनानी बने। भगत सिंह के पिता किशन सिंह एक समाजसेवी थे। वह कांग्रेस पार्टी से जुड़कर स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल रहे। और उन्होंने गदर पार्टी के प्रयासों में मेहनत की। किशन सिंह व चाचा अजीत सिंह को 1906 में लाये गये औपनिवेशिक विधेयक के खिलाफ विरोध करते हुए जेल में डाला गया। भगत सिंह के जन्म के दिन उनको जेल से रिहाई मिली। इसके अलावा उनके पिता कई और मामलों में जेल गये। किशन सिंह का एक पैर घर में तो दूसरा पैर जेल में रहता था। उन्होंने भूकम्प, बाढ़, सूखा आदि राहत कार्यों में मदद की। वह जेल की स्थिति में सुधार के कार्यों के प्रयासों में सक्रिय रहे। उनके काम में भगत सिंह की माताजी विद्यावती कौर ने भी अपना योगदान दिया। भगत सिंह के चाचा स्वर्ण सिंह को देशभक्तिपूर्ण पुस्तिकाएं प्रकाशित करने के लिए 1910 में जेल में यंत्रणाएं दी गयी, जिसके कारण उनकी 25 वर्ष की उम्र में ही मौत हो गयी।

ऐसे पारिवारिक परिवेश में भगत सिंह का जन्म हुआ था। वह अपने पिता की देख-रेख में पले-बढ़े और उन्होंने उनसे सामाजिक बराबरी, तर्कसंगत होना, दमन का विरोध करना सीखा। परिवार में सभी धर्मों के लिए सम्मान देने और हर मनुष्य को प्यार देने की परंपरा थी। भगत सिंह ने गांव चक बंग से प्राथमिक शिक्षा हासिल की। लाहौर में डीएवी हाईस्कूल में दाखिला लिया। 

स्वतंत्रता आंदोलन में भगत सिंह सक्रिय रहे। उन्होंने अपनी स्कूल की पढ़ाई भी छोड़ दी। बाद में नेशनल काॅलेज, लाहौर में दाखिला लिया, जो ऐसे छात्र सत्याग्रहियों के लिये ही बनाया गया था। गदर आंदोलन के नेता करतार सिंह सराभा को अंग्रेज सरकार ने फांसी की सजा दी। सराभा ने भगत सिंह पर बहुत अधिक प्रभाव छोड़ा। नेशनल काॅलेज ने उनके स्वतंत्रता संग्राम के बारे में दृष्टिकोण को और अधिक व्यापक बनाया। घर से बाहर निकलकर वह कई क्रान्तिकारियों के सम्पर्क में आए। हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के सम्पर्क में आए। लाहौर पहुंचकर नौजवान भारत सभा की स्थापना के लिए पहल की। ताकि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में नौजवानों की ताकत को संगठित किया जा सके। इसके बाद भगत सिंह आजीवन इस मार्ग में निरंतर आगे बढ़ते रहे।

हिन्दुस्तान समाजवादी रिपब्लिकन एसोसिएशन बनाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। 23 मार्च 1931 को ब्रिटिश साम्राज्यवादियों द्वारा भगत सिंह को फांसी दे दी गई। उससे पूर्व वह भारतीय क्रांतिकारी धारा के प्रमुख व अग्रणी विचारक बन चुके थे। उन्होंने अपने कई लेखों, विचारों से क्रांतिकारी धारा की समझ को समाज के सामने रखा।

भगत सिंह की माता विद्यावती कौर एक साहसी महिला थी। इनका जीवन अनेक विडम्बनाओं और झंझावातों के बीच बीता। शादी के बाद ससुराल का वातावरण समाज सेवा वाला व देशभक्तिपूर्ण था। पति, देवर, बेटे जेलों की सजा काट रहे थे। घर में देवरानी हरनाम कौर अजीत सिंह की पत्नी; ने सारा जीवन विदेशों में भटक रहे पति की प्रतीक्षा में व्यतीत किया। बड़े पुत्र जगत सिंह की 11 वर्ष की आयु में बिमारी से मृत्यु हो गयी।

घर के लोगों की जेल यात्राओं और मुकदमे बाजी से खेती चैपट हो गई। घर की चैखटें तक बिक चुकी थी। ऐसे हालातों में घर में डाका पड़ गया। उनके बैल चोरी हो गये। बाढ़ के पानी से मकान बह गया। पति किशन सिंह को 1939-40 में लकवा मार गया। इन कठिन परिस्थितियों में उन्होंने अपने घर को संभाला। इस सबके बावजूद भी वह समाज के लिए अपना योगदान देने को प्रयासरत थी। अपनी संतानों में देश सेवा, समाज सेवा के भाव पैदा करती रही।

विद्यावती कौर क्रांतिकारी आंदोलन के साथियों और भगत सिंह के साथियों के लिए काफी चिंतित रहती थी। 1965 में वह भगत सिंह की पुस्तक के विमोचन के लिए उज्जैन गई थीं। इस दौरान एक पुस्तक के नीलाम करने से 3331 रुपये प्राप्त हुए। प्राप्त पैसों में से दिल्ली में इलाज करवा रहे भगत सिंह के साथी बटुकेश्वर दत्त को 1100 रुपये भिजवा दिये। आजादी के बाद गांधीवादी स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को अनेक सरकारी सुविधाएं मिली। क्रांतिकारी प्रायः उपेक्षित ही रहे। उनमें से कई लोग तो गुमनामी में अपना जीवन बिता रहे थे। विद्यावती कौर उनको अपने पुत्र समान ही प्रेम करती थी, उनको अपना पुत्र ही समझती थी। उनकी खोज खबर करके उनसे मिलने जाती थी। सरकार की ओर से खुद को मिलने वाली पेंशन की राशि में से चुपचाप वहां तकिये के नीचे रख देती थी। भगत सिंह की माता विद्यावती कौर की लोकप्रियता को भुनाने के लिए पंजाब सरकार ने उनको ‘पंजाब मां’ के नाम से भी नवाजा था। इस तरह भगत सिंह की माता जी ने एक क्रांतिकारी की माता के रूप में ही अपना जीवन जिया। 

भगत सिंह के भाई कुलतार सिंह और कुलबीर सिंह भी देश सेवा के काम में लगे रहे। साण्डर्स की हत्या के बाद भगत सिंह के साथ कुलतार ने पोस्टर लगाये। कुलतार साइकिल पर चढ़कर काफी ऊंचाई में पोस्टर लगाते थे। उनसे इतनी ऊंचाई पर पोस्टर लगाने की वजह पूछी तो उन्होंने बताया ‘‘बच्चे पोस्टर फाड़ न दें। इसलिए वह इतनी ऊंचाई में पोस्टर लगाते हैं।’’ कुलतार नौजवान भारत सभा के संस्थापक सदस्यों में रहे। कुलतार कई बार भगत सिंह से मिलने जेल भी गये थे। 1929 में वह लाहौर कांग्रेस अधिवेशन में कांग्रेस सेवा दल के सदस्य भी रहे। 1935 में उन्हें जाॅर्ज पंचम के सिल्वर जुबली कार्यक्रम में बाधा डालने का काम सौंपा गया। जिसमें कार्यक्रम के दौरान वह बिजली सप्लाई में बाधा उत्पन्न करने में वह कामयाब रहे। 1936 में वह पंजाब किसान सभा में सक्रिय रहे। 1939 से 1945 तक उनको जेलों में रहना पड़ा। इस दौरान एक बार 63 और फिर 32 दिन की लंबी भूख हड़ताल भी उन्होंने की। 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद 4 वर्ष तक वह शरणार्थियों की सेवा और पुनर्वास के काम में लगे रहे। बाद में कुलतार उत्तर प्रदेश सरकार में विधायक व मंत्री भी बने। इस दौरान उन्होंने कई स्वतंत्रता सेनानियों के काम, काकोरी स्मारक, चन्द्रशेखर के अस्थि कलश खोजकर लखनऊ संग्रहालय में उनको स्थापित किया। उन्होंने क्रांतिकारी शिव वर्मा, दुर्गा भाभी, जयदेव कपूर और शचीन्द्रनाथ बख्शी के साथ मिलकर शहीदों के सपनों को पूरा करने का अभियान जारी रखा।

भगत सिंह के छोटे भाई कुलबीर सिंह की पढ़ाई पर 1929 में लाहौर के डीएवी से मिडिल के बाद विराम लग गया। वह भी परिवार के रास्ते पर सामाजिक धारा के सहयोगी बन गये। वह भगत सिंह को अपना आदर्श मानते थे ओर इसी रास्ते में आगे चल दिये। भूमिगत क्रांतिकारी आंदोलन में सहयोगी रूप से अपना योगदान देने लगे। बाद में वह नौजवान भारत सभा से जुड़ गये। 1935 में वह जाॅर्ज पंचम के सिल्वर जुबली कार्यक्रम में बिजली काटने वाले मामले में उनको गिरफ्तार किया गया। परन्तु गवाह नहीं मिलने पर मुकदमा नहीं चल सका। वह पंजाब किसान सभा के जनरल सेक्रेटरी भी रहे। कांग्रेस सोशलिस्ट की प्रांतीय समिति के सदस्य बने। उन्होंने कई सफल आंदोलनों का नेतृत्व किया। 1939 में भारत रक्षा नियमों के तहत उनको 6 माह की जेल की सजा मिली। 26 जून 1940 को भाई कुलतार के साथ फिर गिरफ्तार किये गये। जेल में सुविधाओं की मांग के लिए 63 और 32 दिन की लंबी भूख हड़ताल भी की। 1944 में फिर से गिरफ्तार किये गये। 1946 में भाई कुलतार, बहन अमर कौर को लाहौर उच्च न्यायालय में याचिका दायर करने के बाद जेल से रिहा किया गया।

भगत सिंह के त्याग, समर्पण, एक्शन हेतु पहलकदमी का प्रभाव उस दौर में नौजवानों, क्रांतिकारियों पर ही नहीं उनकी बहन बीबी अमर कौर पर भी काफी पड़ा था। वह भगत सिंह से 3 वर्ष छोटी थी। परन्तु उनका बचपन एक साथ खेलते-कूदते बीता था। दोनों भाई-बहनों में काफी स्नेह था। भगत सिंह प्यार से उन्हें ‘अमरो’ कहते थे। 1919 में ब्रिटिश हुकूमत द्वारा जलियावाला बाग में भीषण नरसंहार करने के बाद, भगत सिंह खून से लथपथ मिट्टी, एक शीशी में भरकर रात में घर लौटे थे। अमर कौर ने भगत सिंह से कहा ‘वीरा आज इतनी देर कर दी, मैंने आपके हिस्से के फल रखे हैं चखो, खा लो!’ भगत सिंह ने उदासी में खाने से इंकार करते हुए, खून से रंगी वह शीशी दिखाते हुए कहा था ‘अंग्रेजों ने हमारे बहुत आदमी मार दिए हैं।’ फिर वह फूल तोड़कर लाए दोनों भाई-बहन कई दिनों तक शीशी के चारों ओर फूल चढ़ाते रहे। लाहौर षडयंत्र केस में भगत सिंह और उनके साथी जेल में बंद थे। अमर कौर अक्सर उनसे मिलने जाती थी। भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु को 23 मार्च  1931 में फांसी देने के बाद वह हुसैनीवाला में उस ओर दौड़ पड़ी। जहां अंग्रेज सरकार तीनों के शवों को मिट्टी के तेल में जलाने की कुचेष्ठा कर रही थी। वह तीनों के शवों के चंद टुकड़े स्मृति के बतौर लायी थी। और उनकी राह पर आजीवन चलने की कसम खायी थी।

ब्रिटिश सरकार अमर कौर का दमन करने से भी पीछे नहीं रही। 9 अक्टूबर 1942 को उन्होंने लाहौर जेल गेट पर तिरंगे झण्डे का ध्वजारोहण किया था। तब उन्हें गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। 1945 में ब्रिटिश सरकार के विरोध में भाषण देने, आंदोलन करने के अपराध में उन्हें 1 वर्ष 6 माह की कैद की सजा दी गई थी। उस समय उनके पुत्र जगमोहन सिंह केवल 1 माह के थे। उनको भी उनकी मां के साथ अम्बाला जेल में रखा गया। अमर कौर देश में आजादी और बंटवारे के बाद शरणार्थियों और विस्थापित स्त्रियों के पुनर्वास के कार्यों में लगी रही।

भगत सिंह की शहादत की 50 वीं वर्षगांठ 1981 में मनाई जा रही थी। तब बीबी अमर कौर ने भगत सिंह, बटुकेश्वर दत्त की तरह लोकसभा में ‘इंकलाब जिंदाबाद’ के नारे लगाते हुए उसी दर्शक दीर्घा से सरकारी जन विरोधी नीतियों के विरोध में पर्चे फेंके थे।

शहीद-ए-आजम भगत सिंह के चाचा सरदार अजीत सिंह भी आजीवन ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के विरुद्ध संघर्ष करते रहे। अजीत सिंह ने 1906 में ब्रिटिश साम्राज्यवादियों द्वारा लाए गए किसान विरोधी तीन काले कानूनों के खिलाफ उन्होंने 1907 में किसानों के आंदोलन की अगुवाई की। 22 मार्च 1907 को लायलपुर में किसानों की बड़ी सभा में लाला बांकेदयाल ने ‘पगड़ी सभाल जट्टा’ गीत गाया था। यह आंदोलन 9 महीने तक चला और किसानों की एकता और संघर्ष के दबाव में अंग्रेज सरकार को झुकना पड़ा। नवम्बर 1907 को तीनों काले कानूनों को वापस लेना पड़ा था।

अजीत सिंह को ब्रिटिश सरकार ने गिरफ्तार कर वर्मा जेल भेज दिया था। जेल से रिहा होने के बाद अजीत सिंह ने ‘भारत माता सोसायटी’ का गठन किया और ‘भारत माता बुक एजेंसी’ स्थापित की। जिसका कार्य ब्रिटिश सरकार विरोधी साहित्य सामग्री को प्रकाशित करना था। ब्रिटिश सरकार ने इसके द्वारा प्रकाशित साहित्य को जब्त कर लिया। लेकिन अजीत सिंह उनके चंगुल से बचते हुए ईरान चले गये। इस दौरान वह यूरोप के अलग-अलग देशों में यात्रा करते रहे। वहां बसे हुए भारतीय क्रांतिकारियों से मिलकर देश को आजाद कराने को प्रयत्न करते रहे। पेरिस में उन्होंने ‘भारतीय क्रांतिकारी संघ’ की स्थापना की। इसी दौरान वह लेनिन व ट्राटस्की से भी मिले।

अजीत सिंह 1914 में ब्राजील गये और यहां उन्होंने ‘हिन्दुस्तानी गदर पार्टी’ से सम्पर्क स्थापित किया। लगभग 40 साल उन्होंने देश से बाहर रहकर ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के खिलाफ संघर्ष स्थापित किया। और 1947 में वह भारत आए। देश की जनता ने गर्मजोशी से उनका स्वागत किया। वह देश के विभाजन और साम्प्रदायिक दंगों से बहुत आहत थे। इसी दुःखी समय में 15 अगस्त 1947 को जब देश आजादी का जश्न मना रहा था उस दिन उन्होंने अपनी अंतिम सांस ली।

अजीत सिंह बरेली काॅलेज में छात्र जीवन से ही ब्रिटिश साम्राज्यवादियों से देश को आजाद कराने के लिए क्रांतिकारी विचारों और क्रांतिकारी राजनीति की ओर मुड़ गये थे। अजीत सिंह का सम्पूर्ण जीवन अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध संघर्ष और क्रांतिकारी राजनीति का जीवन रहा है।

स्पष्ट है कि भगत सिंह के शहीदे आजम बनने में उस समय के गुलाम भारत के परिवेश, 1917 की सफल महान अक्टूबर समाजवादी क्रांति के साथ उनके देशभक्त परिजनों, साथी क्रांतिकारियों की महत्वपूर्ण भूमिका थी। वहीं शहीदे आजम भगत सिंह के क्रांतिकारी विचारों ने पूरे देश में क्रांतिकारियों की नई पीढ़ियों को पैदा किया। खुद भगत सिंह के भाई-बहन-मां भी इस दिशा में सक्रिय रहे। शहीदे आजम के सपनों का भारत पूर्ण बराबरी वाला समाजवादी भारत था। जब तक ऐसे भारत का निर्माण नहीं हो जाता, शहीदे आजम भगत सिंह की दिखायी राह से क्रांतिकारी छात्रों-युवाओं की नई पीढ़ी पैदा होती रहेगी। इंकलाब जिंदाबाद! पूंजीवाद मुर्दाबाद!! साम्राज्यवाद मुर्दाबाद!!! के भगत सिंह के नारे देश के हर कोने-अंतरे से निकल कर आकाश को गुंजायमान करते रहेंगे।

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