शनिवार, 22 अप्रैल 2023

 अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर

भारत में नारी मुक्ति आन्दोलन 

सुब्रह्मण्यम भारती की कविता भारत में महिलाओं के बीच आ रही जागृति का एक प्रतिबिम्बन है। ‘स्त्रियों का पुस्तक छूना पाप है’ के विचार को भारती की कविता के लिखे जाने से लगभग सौ वर्ष पूर्व से चुनौती मिलनी शुरू हो गई थी। ‘स्त्री शिक्षा’ उन्नीसवीं सदी में नारी मुक्ति आन्दोलन का एक प्रमुख विषय बन कर उभरा था। और जब भारती ने कविता लिखी तब तक वाकयी एक बड़ा परिवर्तन आ गया था कि अब हर वह व्यक्ति जो कि सामाजिक-राजनैतिक जीवन में सक्रिय था वह ‘स्त्री शिक्षा’ का पक्षधर बन गया था। यह दीगर बात थी कि ‘स्त्री शिक्षा’ कैसी हो इसके बारे में धार्मिक पुनरुत्थानवादियों, धार्मिक कट्टरपंथियों का एक दृष्टिकोण था तो राष्ट्रीय आजादी की लड़ाई में सक्रिय प्रगतिशील नेताओं का एक दृष्टिकोण था। और दोनों ही दृष्टिकोणों के अलावा स्त्री-पुरुष समानता के पक्षधर लोगों, क्रांतिकारियों का एक अलग दृष्टिकोण था।

उन्नीसवीं सदी में भारत में ‘नारी शिक्षा’ के इतर जो सबसे प्रमुख मुद्दा समाज में उभरा वह सती प्रथा की क्रूर अमानवीय प्रथा को खत्म करने का था। सती प्रथा का बोलबाला समाज के खाते-पीते सम्पत्तिशाली वर्ग तथा सवर्ण जातियों में था। किसी स्त्री के पति की मृत्यु होने पर उसे उसके पति की चिता के साथ जिन्दा जला दिया जाता था। सती प्रथा भारत में सामन्ती काल की ऐसी प्रथा थी जो लम्बे समय तक कायम रही। यहां तक कि बीसवीं सदी में भारत के आजाद होने के कई सालों बाद तक ऐसी घटनाएं घटती रहीं। 1987 में रूपकंवर को जबरदस्ती सती करने देने की लोमहर्षक घटना बताती है कि भारत इक्कीसवीं सदी की दहलीज पर भी कैसा जीवन जी रहा था। बीसवीं सदी में सती प्रथा का समर्थन करने वालों की मानसिकता व सोच वही थी जो अठारहवीं-उन्नीसवीं सदी में थी। भाजपा-संघ सहित तमाम प्रतिक्रियावादी सनातन धर्म की पवित्रता के नाम पर सती प्रथा का महिमामण्डन आज तक करते हैं।

उन्नीसवीं सदी में सती प्रथा का मुखर विरोध करने वालों में सबसे प्रमुख राजा राम मोहन राय थे। वे धार्मिक- सामाजिक सुधारक थे। उनके प्रयासों से 1829 में जाकर इस प्रथा पर रोक लगाने को ब्रिटिश उपनिवेशवादी तैयार हुए थे। परन्तु जैसा कि भारत में औपनिवेशिक काल से लेकर आज तक जारी है कि ऐसे जो भी कानून जो कि समाज में शोषित- उत्पीड़ित-दलित-महिलाओं-आदिवासियों आदि के हितों से संबंधित होते हैं, व्यवहार में, वस्तुतः लागू नहीं होते हैं। कानून एक बात कहते हैं और समाज में धार्मिक कट्टरपंथी, धनी-मानी लोग, दबंग अपना ही कानून चलाते हैं। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ जैसे हिन्दू फासीवादी तो ‘सनातन धर्म’ ‘हिन्दू धर्म’ की कुप्रथाओं का अक्सर ही महिमामण्डन करते हैं। ऐसा ही हाल मुस्लिम धर्म के कठ्मुल्लों का है। इन सबका वश चले तो सुब्रह्मण्यम भारती के शब्दों में तो ये ‘घरों में पशुओं की भांति स्त्रियों को रखें।’

राजा राम मोहन राय सरीखे अनेक समाज व धर्म सुधारकों ने सती प्रथा के इतर विधवा पुनर्विवाह पर भी काफी काम किया। इसी तरह से बाल विवाह का विरोध भी सामाजिक सुधारकों द्वारा किया गया। हिन्दू धर्म के ठेकेदार, सनातन धर्म का महिमामण्डन करने वाले विधवा पुनर्विवाह का विरोध व बाल विवाह का समर्थन वैसे ही कर रहे थे जैसे वे स्त्री शिक्षा का विरोध व सती प्रथा का समर्थन कर रहे थे।

नारी मुद्दों को लेकर समाज में आवाज उठाने वाले पहले-पहल कुछ भले पुरुष ही थे। नारी आन्दोलन में स्त्रियों की आवाज बनकर आगे आने वाली स्त्रियां उन्नीसवीं सदी के मध्य के बाद ही आई। जब वे आईं तो उन्होंने भारतीय समाज में अच्छी हलचल मचाई। भारत का रूढ़िवादी समाज इन महिलाओं के विरोध में किसी भी हद तक जाने को तैयार था।

ऐसी विद्रोही स्त्रियों में पण्डिता रमाबाई, स्वर्ण कुमारी देवी, सावित्री बाई फुले, सरला देवी, फातिमा बी, रूकैया सखावत हुसैन, ताराबाई शिन्दे आदि प्रमुख थीं।

इनमें पण्डिता रमाबाई ऐसी ब्राह्मण स्त्री थी जो कि हिन्दू धर्म ग्रन्थों में पारंगत थी। एक समय हिन्दू धर्म के धार्मिक नेताओं ने उन्हें इसी कारण से ‘पण्डिता’ की उपाधि दी थी। परन्तु रमाबाई ने जब हिन्दू धर्म के स्त्री विरोधी, मानव विरोधी चरित्र को उजागर किया तो उनकी प्रशंसा करने वाले घोर विरोधी होकर उनके पीछे पड़ गये। बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर जिन्होंने हिन्दू धर्म के पाखण्ड-प्रपंच, छुआछूत आदि की आलोचना करते हुए ‘जाति व्यवस्था का उन्मूलन’ नाम की किताब लिखी थी और बाद में हिन्दू  धर्म से आजिज आकर बौद्ध धर्म अपना लिया था। ठीक उन्हीं के तरह उनसे लगभग एक शताब्दी पूर्व रमाबाई ने ईसाई धर्म अपना लिया था। हिन्दू धर्म के भीतर सुधार की गुंजाइश न देखकर ही पहले रमाबाई ने बाद में अम्बेडकर ने अपना धर्म बदल दिया था। हालांकि इससे समाज व्यवस्था में कोई फर्क नहीं आना था। धर्म परिवर्तन एक क्षोभ का प्रतीक था।

ताराबाई शिन्दे ने ‘स्त्री-पुरुष’ तुलना नाम से एक किताब लिखी थी। यह किताब अपने समय में प्रसिद्ध हुयी और इसने भारतीय समाज के बौद्धिक हिस्से में हलचल पैदा की थी। ताराबाई ने साबित किया था कि स्त्रियां किसी भी मामले में पुरुषों से कम नहीं हैं। और कई मामलों में वे उनसे श्रेष्ठ हैं।

ताराबाई शिन्दे की तरह ही रूकैया सखावत हुसैन थी। उनका उग्र लेखन अपने समय में ही नहीं आज भी पठनीय है। ‘सुल्ताना का सपना’ नामक उनकी रचना पुरुष प्रधान समाज को अच्छा आईना दिखाती है। ‘सुल्ताना का सपना’ एक ऐसी दुनिया की कल्पना करती है जहां पूरे समाज में स्त्रियों ने पुरुषों का और पुरुषों ने स्त्रियों का स्थान ले लिया है।

भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (1857-1859) की एक नायिका रानी लक्ष्मीबाई की लोकप्रिय छवि ने भारत की आजादी की लड़ाई ही नहीं बल्कि स्त्रियों को भी अपने ही ढंग से प्रभावित और प्रेरित किया।

उन्नीसवीं सदी के अंत और बीसवीं सदी के प्रारम्भ में भारत में एक ऐसा राष्ट्रवादी क्रान्तिकारी आन्दोलन शुरू हुआ जो ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के खिलाफ आतंकी तौर-तरीकों की वकालत करता था। ये क्रान्तिकारी भारत की गुलामी और उसके खिलाफ चल रही लड़ाई के तौर-तरीकों से क्षुब्ध थे। अपनी जान हथेली पर लेकर चलने वाले ये क्रान्तिकारी आतंक पैदा कर अंग्रेजों को भारत से भगाना चाहते थे। इन्हीं क्रान्तिकारियों के बीच ऐसे ही अनेकानेक महिला क्रान्तिकारी भी थी जिन्होंने प्रफुल्ल चाकी, करतार सिंह सराभा, चन्द्रशेखर आजाद आदि की तरह भारत की आजादी के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी। इनमें प्रीतिलता वाड़ेदार, बीनादास, शान्ति घोष, सुनीति चैधरी आदि प्रमुख थी।

बीसवीं सदी में राष्ट्रीय आन्दोलन में एक के बाद एक घटी बड़ी राजनैतिक घटनाओं और सर्वोपरि रूस की 1917 की ‘महान अक्टूबर समाजवादी क्रान्ति’ ने पूरी दुनिया सहित भारत के ऊपर व्यापक प्रभाव छोड़ा। सदियों से सोये शोषित-उत्पीड़न जन जागने लगे। क्रान्तियों के बिगुल फूंकने लगे। भारत भी इसके प्रभाव से अछूता नहीं रहा।

1905 में बंगाल का विभाजन (बंग विभाजन) कर ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने भारतीय जनता को सामूहिक संघर्ष करने को मजबूर कर दिया। व्यापक जनसंघर्ष के दबाव में ब्रिटिश उपनिवेशवादियों को बंगाल विभाजन की अपनी कुटिल योजना खत्म करनी पड़ी। 1912 में बंगाल फिर से एक हो गया। बंगाल की जागृति ने ब्रिटिश उपनिवेशवादियों को हैरान-परेशान कर दिया था। भारत जैसे विशाल देश को काबू में रखने और बंगाल की जागृति ने उन्हें अपनी राजधानी कलकत्ता से दिल्ली 1912 में स्थानान्तरित करनी पड़ी। बंग विभाजन के खिलाफ पैदा हुये आन्दोलन में पहली दफा महिलाओं की जन भागीदारी हुयी।

बंग विभाजन के खिलाफ पैदा हुए लोकप्रिय आन्दोलन के बाद भारत में ‘गदर लहर’ फैल गयी। गदर लहर का अंग्रेजों ने बलपूर्वक दमन किया। और फिर पहले विश्वयुद्ध के छिड़ जाने और युद्ध के लिए भारत की जनता के क्रूरतम शोषण-उत्पीड़न ने भारत की जनता को सड़कों पर आने को मजबूर कर दिया। रूस की क्रान्ति सबको रास्ता दिखा रही थी। ठीक इसी समय भारत की आजादी की लड़ाई में महात्मा गांधी का प्रभाव बढ़ता गया। महात्मा गांधी ने कांग्रेस को अपने पूर्ववर्तियों के मुकाबले आम जनों खासकर किसानों और महिलाओं से जोड़ा। नंगे बदन गांधी भारत के किसानों के रहनुमा बन गये। गांधी ने महिलाओं को अपने विशिष्ट धार्मिक-नैतिक-पुरातनपंथी बातों के साथ जोड़कर ऐसी छवि बनायी, कि वह ऐसे भारतीय समाज के साथ गुथ्थम-गुत्था हो गयी जो कि स्वतंत्रता भी चाहता था परन्तु अपने पुराने-धुराने विचारों, मूल्यों व संस्कृति का महिमामण्डन कर उसे छोड़ना भी नहीं चाहता था। 

खैर! जो भी हो बीसवीं सदी के दूसरे दशक के बाद भारत की आजादी की लड़ाई में महिलाओं की भूमिका बढ़ती गयी। उन्होंने असहयोग आन्दोलन, सविनय अवज्ञा आन्दोलन और ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ में बढ़-चढ़ कर भागीदारी की। दमन व अत्याचार को सहा। वे राष्ट्रीय आजादी में अपनी मुक्ति देखने लगी थीं। स्त्री शिक्षा का अब पहले से अधिक प्रसार हो चुका था। स्त्री शिक्षा, विधवा पुनर्विवाह, बाल विवाह का विरोध जैसे मुद्दों के साथ आकर अब नये-नये मुद्दे जुड़ गये थे। स्त्री स्वास्थ्य एक मुद्दा बनने लगा था। लेकिन सबसे ऊपर जो मांग उनकी राजनैतिक भागीदारी के साथ लगातार बढ़ती गयी वह थी मत देने का अधिकार। सार्विक मताधिकार की इस मांग का और दूसरे विश्वयुद्ध के बाद बदली दुनिया का असर था कि भारत में आजादी के साथ ही सार्विक मताधिकार लागू हो गया। और इस मामले में भारत ने यूरोप के कई-कई देशों को भी पीछे छोड़ दिया था। औपनिवेशिक व सामंती बंधनों से मुक्त होने की चाहत महिलाओं में बढ़ती गयी थी।

भारत में महिलाओं के अपने संगठन, समिति बनाने का भी एक लम्बा इतिहास है। महिलाओं के संगठन उन्नीसवीं सदी के आठवें दशक के बाद अस्तित्व में आने लगे। इन संगठनों के बनने का सिलसिला आज तक जारी है। महिलाओं के शुरूआती संगठन बनाने में महिला समाज सुधारकों से लेकर ब्रह्म समाज, आर्य समाज जैसे धार्मिक पुनरुत्थानवादियों की भूमिका प्रमुख थी। पण्डिता रमाबाई ने 1882 में ‘आर्य महिला समाज’ नाम से संगठन बनाया था। ऐसे ही गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर की पुत्री व चर्चित विद्रोही लेखिका स्वर्ण कुमारी देवी ने 1882 में पहले ‘लेडीज थियोसोफिकल सोसायटी’ (महिला ब्रह्मवाद समिति) फिर 1886 में ‘सखी समिति’ बनायी थी। इस तरह से 1880 के दशक से आजादी के समय तक अनेकोनेक महिला संगठन अस्तित्व में आये। और इन संगठनों को बनाने वालों में क्रान्तिकारी, समाज सुधारक, धार्मिक पुनरुत्थानवादी से लेकर संघ जैसे हिन्दू फासीवादी भी थे। इन संगठनों में प्रमुख थे: ‘तमिल माथर संगम’ (1883), ‘इण्डियन वूमेन’स कान्फ्रेंस’ (1905), ‘लेडीज सोशल कान्फ्रेन्स’ (1906), ‘सरला लेडीज यूनियन’ (1912), ‘मुस्लिम वूमेन्स एसोसिएशन’ (1928), ‘राष्ट्रीय स्त्री सभा’ (1921), ‘मद्रास सेवा सदन’ (1921), ‘आन्ध्रा महिला समाज’ (1937), ‘राष्ट्रीय सेविका समिति’ (1936) (यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की महिला शाखा थी)।

देश में बढ़ते कम्युनिस्ट आन्दोलन ने भी महिलाओं को संगठित करने के प्रयास किये। चालीस के दशक में बने ‘महिला आत्मरक्षा समिति’ (जिसका कई प्रांतों में अस्तित्व था), ‘पंजाब लोक स्त्री सभा’, नारी मंगल समिति, मणिपुर महिला समिति आदि के विलय से 1954 में ‘नेशनल फेडरेशन आफ इण्डियन वूमेन’ अस्तित्व में आया। महिला आत्म रक्षा समिति ने बंगाल अकाल (1941-42) के अलावा तेभागा व तेलंगाना क्रान्तिकारी आन्दोलन में बढ़-चढ़ कर भागीदारी की थी।

कांग्रेस पार्टी में आजादी की लड़ाई के दिनों में कई चर्चित महिला नेता थीं। एनी बेसेंट, सरोजिनी नायडू, कमला देवी चट्टोपाध्याय, राजकुमारी अमृता कौर, फिरोजबाई फिरोजशाह मेहता, अरुणा आसफ अली आदि प्रमुख थे। इनमें से अधिकांश अभिजात पढ़े-लिखे परिवारों से आयीं थी। और ये जहां एक ओर कई मामलों में विद्रोही या समाज सुधारक रुख रखती थीं परन्तु अधिकांश अपने खाते-पीते वर्ग की सीमाओं और विचारों से बंधी थीं। परन्तु इनकी आजादी की लड़ाई में निभायी गयी भूमिका आम महिलाओं को प्रेरित करती थी और वे आजादी की लड़ाई की तरफ उन्मुख होती थी। इन नेताओं में कई कांग्रेस पार्टी के दायरे में नहीं बंधी रही। कुछ बाद में सोशलिस्ट तो कुछ कम्युनिस्ट हो गयीं।

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