विश्व शक्तियों के बीच टकराव का एक अन्य क्षेत्र- आर्कटिक क्षेत्र
दुनिया के साधन स्रोतों और प्रभाव क्षेत्रों पर नियंत्रण के लिए दुनिया की बड़ी शक्तियों के बीच संघर्ष और टकराहटें तेज होती जा रही हैं। दुनिया के अलग-अलग क्षत्रे टकराहट के क्षेत्र बने हुए हैं। इनमें रूस-यूक्रेन युद्ध अभी सबसे तीखा है। यूक्रेन के पीछे संयुक्त राज्य अमेरिका के नेतृत्व में नाटो/यूरोपीय संघ और उसके समर्थक देश हैं, जबकि रूस के साथ उत्तरी कोरिया, ईरान, सीरिया, वेनेजुएला और क्यूबा जैसे देशों के अलावा चीन जैसे देश हैं। भारत, मिश्र, दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील सरीखे देश किसी भी पाले में न होने की बातें कर रहे हैं। इस तीखी टकराहट का मुख्य बिन्दु यह है कि अभी तक चली आ रही दादागिरी को चुनौती देने वाले और अपने राजनीतिक, आर्थिक, सामरिक प्रभाव का विस्तार करने वाले देश रूस और चीन हैं। वे मुख्यतया अमेरिका की ताकत को, उसके वर्चस्व को चुनौती दे रहे हैं। बदले में वे अपने वर्चस्व के क्षेत्र को बनाना चाहते हैं और उसका विस्तार करना चाहते हैं। यूक्रेन की सत्ता तो मोहरा है। इस मोहरे को अमेरिकी शासक इस्तेमाल करके रूस को इस कदर उलझा करके कमजोर करना चाहते हैं कि वह अमेरिकी वर्चस्व के नीचे आ जाये। इसी प्रकार, दक्षिणी चीन सागर में आवागमन के खुले रास्ते के अधिकार के नाम पर अमेरिकी शासक एशिया प्रशांत क्षेत्र में चीन को घेरने की कोशिश कर रहे हैं। अमेरिकी नेतृत्व में यूरोपीय संघ और नाटो के देशों की संयुक्त ताकत के विरुद्ध रूस और चीन के शासक अपनी रणनीतिक साझेदारी कायम कर चुके हैं। अब यह साझेदारी विश्वव्यापी बन रही है। इस विश्वव्यापी साझेदारी में ब्रिक्स, शंघाई सहकार संगठन, यूरेशियाई आर्थिक संघ में अन्य साझीदार शामिल हो रहे हैं। इस तरह इन दोनों प्रतिद्वन्दी गठबंधनों के बीच टकराहट अलग-अलग रूपों और स्तरों पर दुनिया के पैमाने पर चल रही है। यह लातिन अमेरिका, अफ्रीका, पश्चिम एशिया और एशिया प्रशांत क्षेत्र व पूर्वी एशिया तक में चल रही है।
अब इस टकराहट के क्षेत्र के बतौर आर्कटिक महासागर का क्षेत्र जुड़ गया है। जलवायु परिवर्तन से आर्कटिक की बर्फ पिघलने ने इसे एक वैश्विक जल परिवहन के रास्ते के बतौर तैयार कर दिया है। चूंकि रूस के भूक्षेत्र से आर्कटिक का सबसे अधिक क्षेत्र जुड़ता है इसलिए रूस ने जल-परिवहन के रास्ते के बतौर इस क्षेत्र का विकास किया है।
उत्तर-पश्चिमी जल परिवहन का रास्ता उत्तरी अमेरिका को प्रशांत महासागर से जोड़ता है जबकि उत्तरी पूर्वी जल परिवहन का रास्ता रूस के तट से गुजरते हुए एशिया-प्रशांत क्षेत्र को जोड़ता है। रूस इस उत्तर पूर्वी जल परिवहन के रास्ते को अपना राष्ट्रीय जल परिवहन का रास्ता मानता है।
रूस ने अगस्त, 2007 में उत्तरी ध्रुव के गहरे नीचे जाकर अपनी छोटी पनडुब्बी भेजी थी और वहां पर अपना राष्ट्रीय झंडा गाड़ दिया था। यह रूस का आर्कटिक क्षेत्र में वहां के ऊर्जा स्रोतों पर अपना हक जताने का प्रतीकात्मक कदम था। बाद के वर्षों में संयुक्त राज्य अमेरिका और कनाडा ने भी अनुसंधान संगठित करके यह सिद्ध करने की कोशिश की कि आर्कटिक की रिज (ऊंची चोटी) उत्तरी अमेरिकी महाद्वीपीय प्लेट का हिस्सा है।
इसके बाद आर्कटिक मसलों का निपटारा करने के मकसद से आर्कटिक महासागर से वे देश जिनके भू-भाग सीधे जुड़ते हैं, को मिलाकर आर्कटिक परिषद का गठन किया गया। 1996 में आर्कटिक क्षेत्र के आठ देशों- कनाडा, डेनमार्क, फिनलैण्ड, आइसलैण्ड, नार्वे, रूस, स्वीडन और संयुक्त राज्य अमेरिका- ने मिलकर आर्कटिक परिषद का गठन किया था।
2021 में आर्कटिक परिषद की अध्यक्षता की जिम्मेदारी रूस पर आ गयी थी। यह जिम्मेदारी बारी-बारी से 2 साल के लिए परिषद के सदस्य देशों की होती है। फरवरी, 2022 में यूक्रेन पर रूसी हमले के बाद आर्कटिक देशों ने मार्च, 2022 से रूस की अध्यक्षता का आर्कटिक परिषद से बहिष्कार करना शुरू कर दिया। आर्कटिक परिषद के 5 सदस्य देश नाटो में हैं और फिनलैण्ड व स्वीडन नाटो की सदस्यता लेने के लिए अर्जी दिये हुए हैं। इस प्रकार, आर्कटिक परिषद व्यवहारतः नाटो सदस्य देशों की हो गयी है।
इस दौरान, चीन ने भी अपने को ‘‘नजदीक का आर्कटिक देश’’ के बतौर पेश करना शुरू कर दिया। चीन ने आर्कटिक पर अपना श्वेत पत्र 2018 में जारी किया। जिसमें इस बात पर जोर दिया गया कि यद्यपि चीन आर्कटिक क्षेत्र में क्षेत्रीय सम्प्रभुता का दावा नहीं करता और किसी भी गैर-आर्कटिक राज्य का यह दावा नहीं बनता, तथापि उनको (गैर आर्कटिक देशों को) आर्कटिक क्षेत्र के समुद्र की ऊंची लहरों में और अन्य तत्सम्बन्धी समुद्र क्षेत्र में वैज्ञानिक अनुसंधान करने, समुद्र में परिवहन करने, उसके ऊपर से हवाई उड़ान भरने, मछली मारने, समुद्र के नीचे केबिल और पाइप लाइन बिछाने के सम्बन्ध में अधिकार है। इस श्वेत पत्र से पहले 2013 में आर्कटिक परिषद में पर्यवेक्षक के बतौर चीन, इटली, भारत, जापान, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया और स्विट्जरलैण्ड जैसे गैर आर्कटिक देशों को शामिल कर लिया गया। इससे इन देशों को भी आर्कटिक क्षेत्र के मसलों पर हिस्सेदारी करने का मंच मिल गया।
आर्कटिक क्षेत्र 2 करोड़ 10 लाख वर्ग किमी. में फैला हुआ है। इस क्षेत्र में तेल और गैस के प्रचुर भण्डार के अलावा खनिजों, धातुओं का विशाल भण्डार है। दुर्लभ मृदा खनिज के खनन का आकर्षण विभिन्न बड़ी ताकतों को यहां पर प्रभाव क्षेत्रों के लिए टकराने हेतु फौजी बेड़े तैनात करने के लिए प्रेरित कर रहा है। एक अनुमान के अनुसार इस क्षेत्र में कम से कम 10 खरब डालर कीमत के दुर्लभ मृदा खनिज मौजूद हैं।
आर्कटिक परिषद के प्रत्येक सदस्य देश ने आर्कटिक क्षेत्र में फौजी अड्डे तैनात कर रखे हैं। दशकों से आर्कटिक क्षेत्र के ग्रीनलैण्ड (डेनमार्क) में संयुक्त राज्य अमेरिका ने खुले हवाई अड्डे का विकास किया है। संयुक्त राज्य अमेरिका के रक्षा मंत्रालय ने 2019 में आर्कटिक राजनीति और संयुक्त राज्य अमेरिका की वायु सेना ने 2020 में आर्कटिक रणनीति को उजागर किया है जिसका घोषित लक्ष्य इस क्षेत्र को प्रतिस्पर्धा के लिए गलियारे के तौर पर इस्तेमाल करने में रूस और चीन की बढ़त को रोकने के खातिर उनकी क्षमता को कमजोर करना है।
आर्कटिक का अधिकांश क्षेत्र रूसी भू-भाग से सटा हुआ है। तब इस क्षेत्र में अमेरिका और कनाडा की तथा गैर आर्कटिक देश चीन की इतनी अधिक दिलचस्पी की वजह क्या है? आर्कटिक क्षेत्र में दुनिया का अभी तक गैर खोजे गये तेल का 13 प्रतिशत और दुनिया की कुल गैर खोजी गयी गैस का लगभग 30 प्रतिशत भण्डार मौजूद है। इस पर लालची निगाहें सभी ताकतवर देशों की हैं। रूस की अर्थव्यवस्था हाइड्रो कार्बन के निष्कर्षण पर अत्यधिक निर्भर है। रूस के लिए आर्कटिक क्षेत्र का महत्व रणनीतिक संसाधन के आधार के बतौर है। रूस आर्कटिक क्षेत्र का विकास नौपरिवहन के रास्ते के बतौर करना चाहता है। साथ ही रूस की सीमाओं की सुरक्षा और रक्षा करने के लिए इस क्षेत्र में रूसी सेना की पूरी क्षमता के साथ तैनाती की वह गारण्टी करना चाहता है। इसलिए रूस ने आर्कटिक क्षेत्र के विकास की जिम्मेदारी वहां की राज्य द्वारा संचालित आणविक कम्पनी रोसाटोम को दे रखी है।
रूस आर्थिक तौर पर कमजोर है और अमेरिका/यूरोपीय संघ और नाटो द्वारा थोपे गये प्रतिबंधों के चलते इस समय वह आर्कटिक क्षेत्र के विकास के लिए संसाधन जुटाने में असमर्थ है। उसने इस क्षेत्र के विकास के लिए कई देशों से साझेदारी करने की बात की। और कोई नहीं आया लेकिन चीन उत्साह के साथ इसमें शामिल हो गया। चीन ने यामाल एल.एन.जी. परियोजना में निवेश करने की दिलचस्पी दिखायी। उसने अकेले 2016 में अपने बैंकों द्वारा परियोजना के लिए 16 अरब डालर उधार दिये। चीन की राष्ट्रीय पेट्रोलियम कम्पनी को निवेश के बदले में परियोजना की 20 प्रतिशत हिस्सेदारी मिल गयी। इसी प्रकार चीन के सिल्क रोड फण्ड ने 1 अरब डालर का निवेश किया। इसके अतिरिक्त चीन ने आर्कटिक क्षेत्र में अवरचना, परिवहन और ऊर्जा के क्षेत्र में भागीदारी की। चीन आर्कटिक परिवहन रास्ते से अपनी जहाजरानी परिवहन को सुगम करने के लिए अपने बर्फ तोड़क बना रहा है।
चीन; रूस के अतिरिक्त अन्य आर्कटिक राज्यों के साथ मिलकर अपने अनुसंधान एजेण्डा को आगे बढ़ा रहा है। उसने आइसलैण्ड और नार्वे में अपने अनुसंधान स्टेशन कायम कर रखे हैं। ये स्टेशन इन दोनों देशों में तेल की खोज कर रहे हैं। चीन आर्कटिक में सम्भावित वाणिज्यिक अवसरों की तलाश में विभिन्न तरह के कार्यक्रम अपना रहा है। वह रूस के अतिरिक्त अन्य आर्कटिक देशों में भी परिवहन, प्राकृतिक संसाधनों और दूरसंचार के क्षेत्र में काफी सक्रिय है। दूरसंचार के क्षेत्र में चीन की हुवेई कम्पनी आर्कटिक में समुद्र के नीचे केबिल का ताना-बाना बिछा रही है। जिससे कि इस क्षेत्र के दूर दराज इलाकों को आधुनिक संचार साधनों से जोड़ा जा सके। वह एशिया और यूरोप को डाटा कनेक्शन से जोड़ने के लिए 10,500 किमी. की फाइबर आप्टिकल केबिल लिंक को ध्रुवीय समुद्र तट तक ले जाने का इरादा रखती है।
चीन आर्कटिक समुद्री रास्ते से विश्वव्यापी व्यापार के लिए एक सुरक्षित रास्ते को अपने लिए आरक्षित करना चाहता है। क्योंकि मलक्का जलडमरूमध्य से स्वेज नहर होकर जाने वाले रास्ते को अमेरिकी और उसके सहयोगी कभी भी रोकने में, अड़चनें डालने में समर्थ हो सकते हैं। इसके अतिरिक्त, यह उत्तरी रास्ता दूरी को बहुत कम कर देता है। इससे परिवहन लागत और समय की बचत होती है।
रूस की ड्यूमा के एक सदस्य ने काफी पहले ही घोषित कर रखा था कि आर्कटिक रूस का है। यह सही है कि रूस एक आर्कटिक ताकत है। आर्कटिक क्षेत्र में उसकी सैन्य मौजूदगी से अमेरिका और नाटो चिंतित हैं। वे बदले में अपनी सेनाओं की तैनाती इस इलाके में कर रहे हैं। अप्रैल, 2021 में अमेरिका और नार्वे ने एक पूरक प्रतिरक्षा सहयोग संधि में हस्ताक्षर किये। जिसमें संयुक्त राज्य अमेरिका को दक्षिणी नार्वे के रिग्गे और सोला हवाई अड्डों में अतिरिक्त अवरचना को विकसित करने की इजाजत दी गयी है। इसके साथ ही अमेरिका को आर्कटिक घेरे के ऊपर इवेनेस हवाई अड्डे और रैमसंड नौसेना स्टेशन को विस्तारित करने की इजाजत दी गयी है। इसके जरिए वे रूसी पनडुब्बी गतिविधि पर निगरानी रख सकते हैं।
संयुक्त राज्य अमेरिका के विदेश मंत्रालय के अनुसार आर्कटिक क्षेत्र में अकेले रूस ही अपनी फौज को तैनात कर रहा है और वह आर्कटिक क्षेत्र के देशों की, नाटो के सदस्य देशों की सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा बना हुआ है। जबकि हकीकत यह है कि आर्कटिक क्षेत्र में न सिर्फ रूस और चीन अपनी गतिविधियां तेज कर रहे हैं बल्कि अमेरिका और नाटो के देश लगातार अपनी फौजों, जंगी जहाजों के बेड़ों और नौसेना की कार्रवाइयों के जरिए वहां तनाव बढ़ाने के लिए जिम्मेदार हैं।
आर्कटिक क्षेत्र अभी तक शांत क्षेत्र है। इस क्षेत्र का आधे से ज्यादा हिस्सा रूसी तट से लगता है। रूसी साम्राज्यवादी इसका फायदा उठा अपनी सुरक्षा के लिए वहां अपनी सेना की तैनाती और चैकसी बढ़ा रहे हैं। आर्कटिक के दोहन का स्वार्थ साम्राज्यवादियों को सारी दुनिया की तरह आर्कटिक के भी चक्कर लगाने के लिए धकेल रहा है। यहां रूस और चीन के स्वार्थ लगभग मिल जाते हैं।
लेकिन जहां तक अमेरिका और नाटो देशों का सम्बन्ध है, उन्हें भी आर्कटिक महासागर के तेल और गैस का लालच वहां पर अपनी सैन्य उपस्थिति को बढ़ाने की ओर धकेल रहा है। आर्कटिक महासागर के नीचे न सिर्फ तेल और गैस का विपुल भण्डार है बल्कि बहुत सारी खनिज सम्पदा भी मौजूद है। इसके दोहन के लिए सभी बड़ी शक्तियां सक्रिय हैं। इनकी सक्रियता टकराहट का एक और क्षेत्र बनता जा रहा है। ये दोनों गठबंधन कभी भी टकराहट की ओर जा सकते हैं। रूस-यूक्रेन युद्ध और एशिया प्रशांत क्षेत्र, विशेष तौर पर ताइवान और दक्षिण चीन सागर, अभी टकराहट के केन्द्र में हैं। लेकिन इन क्षेत्रों से बाहर साधन स्रोतों के कब्जे और अपने प्रभुत्व को बढ़ाने में इस आर्कटिक क्षेत्र में टकराहट के तेज होने की सम्भावना बढ़ती जा रही है।
इन टकराहटों से दुनिया और बड़े खतरे की ओर, तीसरे विश्वयुद्ध के खतरे की ओर बढ़ रही है। हालांकि यह अभी आसन्न नहीं है। दुनिया की बंदरबाट में लगी ये लुटेरी ताकतें युद्ध की ओर दुनिया की अवाम को धकेलती हैं। युद्धों और टकरावों का सारा बोझ मजदूर-मेहनतकश अवाम पर डालती हैं। उन्हें रोजगार, सम्पत्ति, घर-निवास स्थान से वंचित करती हैं और उन्हीं के नौजवान बेटे-बेटियां इस युद्ध में मारे जाते हैं और भारी तादाद में घायल होकर अपाहिज हो जाते हैं। जो बचते भी हैं वे युद्ध की विभीषिका के दुःस्वप्न के शिकार होकर मनोरोगी हो जाते हैं। एक देश का सिपाही जब किसी दूसरे देश के सिपाही को दुश्मन की तरह मार रहा होता है तो वह अपने ही भाई को मार रहा होता है। और यह किसलिए? वह इसीलिए मारता है ताकि उसका खून पीने वाली ताकतें अपनी लूट को और बढ़ा सकें। दोनों तरफ के मजदूरों-मेहनतकशों के जवान बेटे-बेटियां अपने शोषकों के हित में अपने ही भाई-बहनों का कत्ल करते रहते हैं। यही आज यूक्रेन में हो रहा है। यही दुनिया के अन्य स्थानों में हो रहा है। और यह तब तक होता रहेगा जब तक मजदूर- मेहनतकश लोग अपने वर्ग हितों को नहीं पहचानेंगे। अपनी बिरादराना वैश्विक एकता कायम करने की ओर नहीं बढ़ेंगे और मिलकर अपने-अपने देश में शोषकों की सत्ता को नहीं उखाड़ फेकेंगे।
आर्कटिक क्षेत्र सहित समूची दुनिया में दुश्मनीपूर्ण संघर्षों को रोकने का यही एकमात्र सही रास्ता है।
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