शनिवार, 22 अप्रैल 2023

 बस्ती बचाने को हजारों लोग सड़कों पर                                                       

20 दिसम्बर को उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय ने हल्द्वानी की बनभूलपुरा बस्ती को एक सप्ताह के भीतर उजाड़े जाने का फैसला दिया। यह फैसला न्याय, मानवीय गरीमा, कानून सभी पहलुओं से जनता के खिलाफ था। इस फैसले से बस्ती वासी और जनपक्षधर लोग परेशान थे। 28 दिसम्बर को हजारों महिला, पुरुष, बच्चे, बूढ़े हाड़ कंपाती ठण्ड में सड़कों पर निकल आये। शांतिपूर्वक राज्य सरकार को ज्ञापन भेजा। 29 दिसम्बर को पुनः हजारों की संख्या में फिर कैंडल मार्च निकाला। इससे यह मामला देश-दुनिया के सामने आ गया।

अक्सर ही न्यायालय के फैसले का सम्मान, इसकी आलोचना करना अपराध घोषित कर अन्याय और आतंक कायम किया जाता है। बनभूलपुरा बस्ती के मामले में भी ऐसा किये जाने की संभावना थी। पर लोगों के सड़कों पर निकल आने से न्याय की, मानवाधिकारों की, मेहनतकश जनता की परवाह करने वाले लोगों ने भी देश-दुनिया से आवाज उठाना शुरू कर दिया। दूसरी तरफ, कई मीडिया घरानों ने मुस्लिम अल्पसंख्यक बहुल बस्ती होने के कारण ‘जमीन जेहाद’, ‘आतंकवाद’ आदि- आदि बातें कर मामले को हिन्दू फासीवादी एजेण्डे की तरह चलाया।

बनभूलपुरा बस्ती में हल्द्वानी शहर के मजदूर- मेहनतकश रहते हैं। ये शहर भर में मैकेनिक, मिस्त्री, पेंटर, इलैक्ट्रिशियन, बढ़ई आदि का काम करते हैं। यहां अधिकांश मुस्लिम अल्पसंख्यकों के साथ हिन्दू, नेपाली मजदूर आबादी भी रहती है। ये शहर को सजाने वाले मेहनतकश लोग हैं जिनकी बस्ती बदसूरत है। क्योंकि जैसा होता है देश का सारा विकास मजदूर-मेहनतकशों तक पहुंचते-पहुंचते खत्म सा हो चुका होता है। फिर ऐसी बस्तियों को ढकाने-छिपाने की कोशिश की जाती है या बहुधा बस्तियां ही हटा दी जाती हैं।

5 जनवरी 2023 को सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में सुनवाई करते हुए उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय के उक्त फैसले पर रोक लगा दी है। उत्तराखण्ड सरकार और रेलवे को अगली तारीख 7 फरवरी में अपना पक्ष रखने का नोटिस जारी किया गया है।

उत्तराखण्ड सरकार ने 2016 में इस मामले में पैरवी करते हुए इस जमीन के नजूल भूमि होने और जमीन पर राज्य सरकार का दावा होने की बात कही थी। लेकिन बाद में राज्य की भाजपा सरकार ने इस मामले में पैरवी नहीं की। इसी तरह राज्य सरकार ने 582 मलिन बस्तियों में बनभूलपुरा की पांच बस्तियों को भी चिन्हित किया था, जिन्हें बाद में सूची से हटा दिया गया। मलिन बस्ती अधिनियम के तहत बस्तियों को चिन्हित करने से राज्य सरकार या तो इन बस्तियों को नियमित करती या इनके पुनर्वास की व्यवस्था करती। अब सरकार को सर्वोच्च न्यायालय में अपना पक्ष स्पष्ट करना होगा। देखना होगा कि यह पक्ष जनहित में होगा या जनअहित में।

रेलवे को यह भूमि कभी अधिग्रहण/अर्जन कर नहीं दी गई। रेलवे भूमि प्लान, नक्शों के आधार पर जमीन पर मालिकाना स्थापित करना चाहता है। रेलवे अपना मालिकाना साबित करने के लिए कोई प्रपंच करता है या साफ-साफ स्थिति रखता है यह भी देखना होगा।

बस्तीवासियों को अपने घरों को बचाने के लिए सक्रियता बनाये रखनी होगी। उनकी पहलकदमी समाज में हलचल पैदा करती है। इंसाफपसंद संगठनों, लोगों के साथ अन्य संगठनों, पार्टियों को सक्रिय होने को प्रेरित या मजबूर करती है। जनता की सक्रियता, न्याय के लिए उठने वाली आवाज और संघर्ष ही समाज को सही दिशा में गतिमान करता है। न्यायालय, सरकार सभी को मेहनतकशों के संघर्षों के दम पर ही न्याय करने के लिए मजबूर किया जा सकता हैं, अन्यथा तो हालात खुद ही तस्वीर रोज बयां करते हैं। 

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