छात्रों के जुझारू संघर्षों की दरकार है
इलाहाबाद विश्वविद्यालय और बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के छात्र फीस वृद्धि के खिलाफ आन्दोलनरत हैं। इससे पहले हैदराबाद विश्वविद्यालय, आईआईटी बाम्बे और आईआईटी दिल्ली के छात्र भी नए सत्र में फीस वृद्धि का विरोध कर रहे थे। आईआईटी में जहां आंशिक फीस वृद्धि वापस हुयी वहीं इलाहाबाद और बनारस विश्वविद्यालय के छात्रों का संघर्ष जारी है।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 लागू करते हुए सरकार ने शिक्षण संस्थानों को अपने लिए स्वयं कोष जुटाने पर जोर दिया है। शिक्षण संस्थानों को उच्च शिक्षा के लिए अनुदान के स्थान पर ऋण लेने के लिए मजबूर किया जा रहा है। इसी प्रकार पूर्व छात्रों से कोष जुटाने, पूंजीपतियों से धन जुटाने, संस्थान की भूमि या अन्य संसाधनों के जरिये कोष जुटाने सहित तमाम रास्ते सुझाये गये हैं। इन सब सुझावों का एक ही उद्देश्य है कि सरकार शिक्षा की जिम्मेदारी नहीं लेगी, इसके लिए आवश्यक बजट नहीं जारी करेगी, विश्वविद्यालय अपना खर्च खुद ही जुटायें। खर्च का बोझ विश्वविद्यालयों पर डाल देने को राष्ट्रीय शिक्षा नीति में संस्थानों को ‘‘स्वायत्त’’ बनाने जैसी संज्ञा दी गयी है। इस ‘‘स्वायत्तता’’ का अर्थ यही है कि उच्च शिक्षा के मामले में सरकार नीतिगत तौर पर नियंत्रण रखेगी पर आर्थिक जिम्मेदारी नहीं निभायेगी। बल्कि आर्थिक मामलों में विश्वविद्यालयों को ‘‘आत्मनिर्भर’’ बनना होगा।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 के इन प्रावधानों का असर विभिन्न केन्द्रीय व राजकीय विश्वविद्यालयों में सामने आ रहा है। जहां इलाहाबाद विश्वविद्यालय में 400 फीसदी तक फीसवृद्धि की गयी है तो वहीं बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में 500 फीसदी तक फीस वृद्धि की गयी है। इसी प्रकार हैदराबाद विश्वविद्यालय में प्रवेश परीक्षा से लेकर स्नातकोत्तर (पीजी) तक की फीस में बढ़ोत्तरी की गयी है। हैदराबाद विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा में जहां पहले 600 रुपये फीस थी उसे बनमज में 1000 कर दिया गया है वहीं इंटीग्रेटेड एमए, एमएससी सहित पांच कोर्सों में पूर्व की 600 रुपये फीस को बढ़ाकर 3000 रुपये कर दिया गया है। छात्र इस बात से सशंकित हैं कि यदि विरोध नहीं हुआ और विश्वविद्यालय ने फीसवृद्धि वापस नहीं ली तो अन्य कोर्सों में भी इस तरह भारी फीस वृद्धि की जा सकती है। यह फीस वृद्धि मेहनतकश छात्रों के लिए उच्च शिक्षा को असंभव बना देगी तो मध्यमवर्गीय छात्रों के लिए मुश्किलें पैदा कर देगी।
छात्रों का अन्य कोर्सों में भी फीस वृद्धि को लेकर संदेह जायज है। अधिकांश विश्वविद्यालयों ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 को लागू करने की बातों को स्वीकारा है। यदि विश्वविद्यालय नहीं भी स्वीकारते हैं तो केन्द्र सरकार ने तो राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 के अनुरूप ही व्यवहार करना शुरू कर दिया है।
शिक्षा सबके लिए निःशुल्क उपलब्ध होनी चाहिए। इसके लिए शिक्षाविद लम्बे समय से शिक्षा बजट को जीडीपी का 10 फीसदी किये जाने का सुझाव सरकार को देते रहे हैं। पर सरकार तो शिक्षा में बची-खुची सुविधाओं को भी छीनने पर उतारू है।
सितम्बर शुरूआत से ही इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रों का संघर्ष जारी है। छात्र धरना, प्रदर्शन, मशाल जुलूस, अनशन आदि आंदोलनात्मक गतिविधियों से विश्वविद्यालय प्रशासन को फीस वृद्धि वापस लेने के लिए कहते रहे हैं। प्रदर्शन कर रहे छात्रों से वार्ता करने, सरकार पर दबाव बनाने के स्थान पर विश्वविद्यालय प्रशासन पुलिस की शरण ले रहा है। छात्रों पर मुकदमे लगाने, परिजनों पर दबाव डालकर छात्रों को धमकाने, एफआईआर दर्ज करने, लाठीचार्ज सहित तमाम तरीके अपना विश्वविद्यालय प्रशासन छात्रों का दमन कर रहा है। बीएचयू में भी छात्रों के आंदोलन को विश्वविद्यालय प्रशासन अभिभावकों को नोटिस भेज, छात्रों पर मुकदमे दर्ज कर मामले से निपटने की राह देख रहा है।
इलाहाबाद, हैदराबाद, आईआईटी, बीएचयू के छात्रों के हालिया फीस वृद्धि विरोधी आंदोलन ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 के छात्र विरोधी चरित्र को जगजाहिर कर दिया है। साफ है कि सरकार अब उच्च शिक्षा का बोझ छात्रों के ही सिर पर डालना चाह रही है, जिसके खिलाफ छात्र हर स्तर पर मोर्चा ले रहे हैं।
केन्द्र की मोदी सरकार पहले कि सरकारों से अधिक जी-जान से एकाधिकारी पूंजीपतियों की सेवा में तत्पर है। वैश्विक आर्थिक संकट के पिछले डेढ़ दशक में सरकारें अधिकाधिक प्रतिक्रियावाद की ओर गयी हैं। ऐसे में जनता से नाममात्र की सुविधाओं को भी लगातार छीना जा रहा है। इसमें तुलनात्मक रूप से सस्ती सरकारी शिक्षा भी आज छात्रों से दूर होती जा रही है। कई जगह तो सरकारी संस्थानों की फीसें निजी संस्थानों की फीसों से ज्यादा होेने की प्रतियोगिता में हैं। इस आर्थिक बोझ के अलावा राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 के जरिये छात्रों पर अन्य घातक हमला हिन्दू फासीवादी विचारों का किया जा रहा है। जिसके तहत पिछले दिनों कर्नाटक में कक्षा 8 में ‘सावरकर को बुलबुल की पीठ में देश भ्रमण कराने’ जैसी कपोल कथा गढ़कर छात्रों को दिग्भ्रमित किया जा रहा है।
ऐसे में कोरपोरेटपरस्त, छात्र विरोधी, राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 के खिलाफ छात्रों के जुझारू संघर्षों की दरकार है। इन संघर्षों में सबके लिए निःशुल्क, तार्किक, वैज्ञानिक, इतिहासबोध से लैस शिक्षा की मांग करने की जरूरत है। जीवन श्रम से जुड़ी तर्कपरक शिक्षा ही मेहनतकशों के अनुकूल है। पूंजीपतियों, फासीवादियों के कुत्सित इरादे मेहनतकशों को शिक्षा से महरूम करने के हैं। छात्रों-नौजवानों के न्यायपूर्ण संघर्ष ही शासकों के कुत्सित इरादों को चकनाचूर कर सकते हैं।
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