बुधवार, 23 नवंबर 2022

 ईरानी महिलाओं का बहादुराना संघर्ष जारी है

ईरान में बीते 16 सितंबर के बाद से जनता सड़कों पर उतरी हुई है। जनता की मांगों को सुनने के बजाए ईरानी कट्टरपंथी शासकों ने भारी दमन का रास्ता चुना है। सरकार द्वारा जारी दमन में अब तक 244 आंदोलनकारियों के मारे जाने की खबर है जिसमें 32 नाबालिग भी शामिल हैं। लगभग 12,570 लोगों को अब तक गिरफ्तार किया गया है। इस भारी दमन के बावजूद ईरानी जनता चैन से नहीं बैठी है और ना ही उसने शासकों को चैन से सांस लेने दी है।

ईरान में ताजा संघर्ष 22 वर्षीय कुर्दिश युवती माहसा अमीनी की मौत के बाद से शुरू हो गए। दरअसल 13 सितंबर को माहसा अपने परिवार से मिलने अपनी कार में तेहरान जा रही थी। रास्ते में उन्हें ईरान की नैतिक पुलिस द्वारा सही से सिर ना ढके होने के कारण गिरफ्तार कर लिया गया। पुलिस कस्टडी में 3 दिन बाद 16 सितंबर को माहसा की मौत हो गई।

ईरान में 1979 के बाद से ही महिलाओं को सार्वजनिक जगहों पर बिना सिर ढके निकलने के खिलाफ कानून बना हुआ है। इस कानून को लागू करने के लिए ईरानी कठमुल्ला शासकों ने अलग से नैतिक पुलिस का भी गठन किया हुआ है। जिसका काम सड़कों पर महिलाओं पर नजर रखना है। उनके पहनावे में किसी भी तरह की कमी होने पर पुलिस के पास उक्त महिला को गिरफ्तार करने और कस्टडी में रखने का अधिकार भी है। नैतिक पुलिस महिलाओं को गिरफ्तार करती है और उन्हें शिक्षित करने के नाम पर कस्टडी में भी रखती है। गिरफ्तारी और कस्टडी के दौरान महिलाओं को अमानवीय यातनाएं दी जाती हैं। पहले भी इन यातनाओं के दौरान कई महिलाओं की मौत हो चुकी है। इसलिए निरंतर इस तरह की मौतें देख रहे ईरानी समाज को माहसा की मौत ने झकझोर कर रख दिया।

16 सितंबर को माहसा की मौत की खबर आग की तरह पूरे ईरान में फैल गई। तेहरान में माहसा के अस्पताल के बाहर लोग इकट्ठा होकर जबरन बुर्का थोपने के कानून और नैतिक पुलिस के खिलाफ प्रदर्शन करने लगे। पुलिस ने इस विरोध का क्रूर दमन किया। लेकिन लोग अब पीछे हटने को तैयार नहीं थे। अगले दिन 17 सितंबर को माहसा के गृह-स्थान कुर्दिस्तान के साकेज शहर में उसके अंतिम संस्कार में भी सैकड़ों लोग शामिल हुए। विरोध स्वरूप यहां मौजूद महिलाओं ने अपने स्कार्फ खोलकर उन्हें हवा में लहराते हुए ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्लाह सैय्यद अली खामेनेई को संबोधित करते हुए  ‘तानाशाह की मौत हो’ आदि नारे लगाए। इस प्रकार जबरन बुर्का थोपने के खिलाफ अपने स्कार्फ को खोलकर सार्वजनिक तौर पर प्रदर्शन करना कठमुल्ला शासकों के खिलाफ ईरानी महिलाओं के विरोध का प्रतीक बन गया। ईरान के कोने-कोने से महिलाएं अपने स्कार्फ को उतारते हुए, अपने बाल काटते हुए, स्कार्फ की होली जलाते हुए वीडियो सोशल मीडिया पर अपलोड करने लगीं। अगले दिन ही ये आग कालेज-कैम्पसों तक भी पहुंच गयी। ये होना भी था क्योंकि इस जबरन कानून का सबसे ज्यादा हमला नौजवान युवतियों को ही बनाया जाता था। इसलिए कालेज-कैम्पसों में और सड़कों पर नौजवान युवतियां इस आंदोलन में सबसे आगे खड़ी रहीं।

18 सितंबर को तेहरान यूनिवर्सिटी में सैकड़ो छात्र-छात्राओं ने विरोध प्रदर्शन आयोजित करते हुए ‘स्त्री, जिंदगी और आजादी’ के नारे लगाए। देखते ही देखते हर कैम्पस से इसी तरह के नारों की आवाज आने लगी। छात्र-छात्राओं ने इससे भी आगे बढ़ते हुए 7 अक्टूबर को तेहरान की अलजहरा यूनिवर्सिटी में राष्ट्रपति इब्राहीम रईसी के दौरे का विरोध करते हुए ‘दफा हो जाओ’ (गेट लोस्ट) आदि नारे लगाए। अब तक लगभग 82 यूनिवर्सिटी में माहसा की मौत के बाद छात्र-छात्राओं ने विरोध प्रदर्शन आयोजित किए हैं।

नौजवानों का गुस्सा सिर्फ हिजाब के कानून के खिलाफ नहीं है बल्कि वर्षो से ईरानी शासकों द्वारा महिलाओं को घर की चारदीवारी में कैद रखने के लिए बनाए गए सभी कानून उनके निशाने पर हैं। महिलाओं के लिए ईरानी समाज कितना बंद समाज रहा है इसका अंदाजा वहां महिलाओं के लिए बने कानूनों और उनकी स्थिति को देखकर लगाया जा सकता है। कोर्ट में महिलाओं की गवाही पुरुषों के मुकाबले आधी मानी जाती है। पुरुष अभिभावक की सहमति के बाद ही महिलाएं शादी कर सकती हैं अन्यथा उन्हें देश छोड़ना पड़ेगा। अन्य देशों में हो रहे खेलों में हिस्सा लेने पर भी महिलाओं को हिजाब पहनना अनिवार्य है। इसी तरह के कई महिला विरोधी नियम-कानून कठमुल्ला ईरानी शासकों द्वारा महिलाओं पर थोपे गए हैं। जिसके खिलाफ जनवाद की मांग करते हुए महिलाएं/युवतियां इस लड़ाई में शामिल हो रही हैं।

ऐसा नहीं है कि सारी लड़ाई महिलाओं द्वारा ही लड़ी जा रही है। न्यायपसंद ईरानी पुरुष और नौजवान भी उनके साथ कंधे से कंधा मिलाते हुए हर मोर्चे पर उनके साथ खड़े रहे हैं। क्योंकि ईरानी समाज केवल महिलाओं के लिए ही उत्पीड़नकारी नहीं रहा है बल्कि वो हर तरह की आजादी का गला घोंटने वाला समाज रहा है। इसलिए भी महिला और पुरुष मिलकर इस संघर्ष को लड़ रहे हैं। इसके साथ ही हालिया वर्षों में महंगाई, भ्रष्टाचार ने भी आम जनता की जिंदगी को नीचे गिराया है। जिसके कारण ईरानी आम मेहनतकश जनता शासकों से असंतुष्ट रही है। हालिया विरोध प्रदर्शन में ‘तानाशाह की मौत हो’ के नारों के पीछे एक बड़ा सच ये भी है।

1953 में ईरानी जनता ने ब्रिटिश-अमेरिकी साम्राज्यवाद समर्थित पहलवी राजवंश को समाप्त कर राष्ट्रीय जनतंत्र स्थापित किया था। इसके बाद हुए चुनावों में मोहम्मद मुसद्देग के नेतृत्व में सरकार बनी। सरकार बनने के बाद मुसद्देग ने तेल कंपनियों का राष्ट्रीयकरण करना शुरू किया। मुसद्देग का ये कदम ब्रिटिश-अमेरिकी साम्राज्यवादियों के हितों पर हमला था क्योंकि अधिकांश तेल कम्पनियां इन्हीं के ही हाथों में थी। अपने हितों पर हमला होता देख साम्राज्यवादी ताकतों ने फौजी तख्तापलट के जरिए फिर से पहलवी राजवंश को शासन सौंप दिया। इस राजवंश की लूट के खिलाफ 1979 में जनता एकबार फिर संगठित हुई और जनआंदोलनों के दम पर शाह रजा पहलवी की सत्ता को उखाड़ते हुए इस्लामी हुकूमत ईरान में कायम हुई। 1979 में जनआंदोलनों के नेता अयातुल्लाह रुहोल्लाह खुमैनी ईरान के सर्वोच्च नेता स्थापित हुए। 1989 में अपने दादा की मौत के बाद से अयातुल्लाह अली खामेनेई ईरान के सर्वोच्च नेता बने जो अब तक कायम हैं। 

1979 में इस्लामी शासन लागू होने के बाद से ईरानी शासकों ने देश को इस्लामिक तौर-तरीकों से आगे बढ़ाया। हर तरीके के पिछड़े विचारों को समाज में प्रश्रय दिया गया। धार्मिक मूल्य-मान्यताओं को शिक्षा में शामिल कर नौजवानों के दिमागों को धार्मिक रंग में रंगने का काम किया गया। राज्य नियंत्रित अखबारों, रेडियो-टीवी चैनलों के जरिए इस्लामिक प्रोपेगेंडा का जमकर प्रचार किया गया। जहां एक तरफ इन तौर-तरीकों से आम जनता के सामान्य जनवादी अधिकारों को खत्म किया गया वहीं दूसरी ओर ईरानी मेहनतकशों की मेहनत की भारी लूट के जरिए शासकों ने भारी सम्पदा इकट्ठा कर ली। केवल देश में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी मुल्ला-मौलवियों ने सम्पदा के महल खड़े कर लिए। इन सबके बीच शासकों द्वारा जारी भ्रष्टाचार नित नए कीर्तिमान स्थापित कर रहा था। इन सब कारणों ने बीते 4 दशकों के दौरान इस्लामिक शासन में अमीर-गरीब के बीच की खाई को और चौड़ा कर दिया। जनता मौजूदा शासन से त्रस्त होने लगी वो बदलाव चाहती थी। जिसकी परिणति पिछले वर्ष राष्ट्रपति चुनाव में भी देखने को मिली। 49 प्रतिशत वोटिंग के साथ पिछला चुनाव ईरानी इतिहास में सबसे कम वोटिंग वाला चुनाव था। यही नहीं इस चुनाव में विरोध स्वरूप रिकार्ड 13 प्रतिशत रिक्त, अवैध वोट पड़े। जो वर्तमान शासन के प्रति जनता के गुस्से को दिखाता है।

नया राष्ट्रपति चुनने के बाद भी ईरानी जनता की जिंदगी में कोई बेहतर बदलाव नहीं आया। बल्कि बीते सालों में बढ़ती महंगाई ने आम जनता की जिंदगी को और अधिक कठिन बना दिया। पिछले एक साल में ही मुद्रास्फीति की दर 50 प्रतिशत से भी ज्यादा हो गई है। जिसने खाने-पीने की चीजों का दाम सातवें आसमान पर पहुंचा दिया है। ईरान के सिकुड़ते तेल निर्यात ने भी देश की अर्थव्यवस्था को पीछे धकेलने का काम किया। पहले ही कोरोना महामारी और अमेरिकी प्रतिबंधांे की वजह से मंहगाई की मार सहती जनता को इन ताजा हालातों ने सड़कों पर उतरने पर मजबूर कर दिया। 

1979 में अपने पिट्ठू की सत्ता जाने के बाद से ही अमेरिकी शासक हर तरीके से ईरानी शासन को उखाड़ने की नाकाम कोशिश करते रहे हैं। 1987 में साम्राज्यवादियों द्वारा लगाए गए व्यापक प्रतिबंधों से ईरान को कमजोर करने की कोशिश की गई। लेकिन तब सोवियत साम्राज्यवादियों और बाद में रूसी साम्राज्यवादियों से मिले समर्थन के कारण ईरानी शासक अपनी सत्ता बचाए रहने में सफल रहे। लेकिन ईरान और अमेरिका के बीच चूहे-बिल्ली का खेल तब से लगातार जारी रहा और साथ ही अमेरिका द्वारा ईरान पर लगाए गए प्रतिबंध भी जारी रहे।

ओबामा के शासन काल के दौरान अमेरिका ने ईरान के नागरिक नाभिकीय कार्यक्रम को अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों की निगरानी के लिए खोलने की शर्त पर प्रतिबंधों में छूट देने की पेशकश कर ईरानी पूंजीपति वर्ग के अमेरिका समर्थित हिस्से को अपनी तरफ करने की कोशिश की लेकिन तब ईरानी शासकों ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। ट्रम्प के शासन के दौरान 2018 में ईरान पर और कड़े प्रतिबंध थोप दिए गए। यहां तक कि ट्रम्प ने ईरान की मदद करने वाले देशों को भी अंजाम भुगतने की धमकी दी। इसी दौरान ईरानी रिवोल्यूशनरी गार्ड के कमाण्डर जनरल कासिम की हत्या भी करवाई गई थी। वर्तमान राष्ट्रपति बाइडन ने एक कदम और आगे बढ़ते हुए ईरान को सैनिक हमले की धमकी भी दे दी। इससे पहले वो ईरान को घेरने के लिए खाड़ी देशों और इजरायल के साथ मिलकर गठबंधन भी बना चुके हैं। इन सारे कदमों के जरिए अमेरिकी साम्राज्यवादी किसी भी तरीके से ईरानी शासन को ध्वस्त कर वहां अपने मुताबिक शासन की स्थापना करना चाहते रहे हैं।

ईरान में मौजूदा आंदोलन उनके लिए एक नया अवसर लेकर आया और तुरंत ही उन्हांेने खेल खेलना शुरू कर दिया। इसके लिए उन्होंने अपने एजेंटों के जरिए वर्तमान आंदोलन को ईरानी शासकों के खिलाफ हवा बनाने में इस्तेमाल करने के साथ-साथ सीधे ईरानी शासकों पर हमला भी बोल दिया। जो बाइडन ने तुरंत ही मौके को भांपते हुए बयान दिया ”अपने मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष कर रहे ईरान के बहादुर नागरिकों और बहादुर महिलाओं के साथ हम मजबूती से खड़े हैं।“ सेक्रेट्री ऑफ स्टेट एंटोनी ब्लींकेन ने तेहरान पर हमला करते हुए कहा कि ”शांतिपूर्ण आंदोलनकारियों का क्रूर दमन करना बंद करो“। इसके साथ ही उन्होंने अमेरिकी सॉफ्टवेयर कम्पनियों द्वारा ईरानी जनता को इंटरनेट की सुविधा मुहैय्या कराने का भी आश्वासन दिया जिससे वो अपने ऊपर हो रहे दमन को दुनिया के सामने ला सकें। इसके साथ ही ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी आदि देशों के साम्राज्यवादी शासक भी अपने-अपने हितों के मुताबिक बयान देने लगे। यूरोपीय-अमेरिकी मीडिया ने ईरानी शासकों के खिलाफ जहर उगलना शुरू कर दिया। ये दिखाया जाने लगा कि दुनिया में अगर नरक कहीं है तो वो सिर्फ ईरान में है। लेकिन कुछ सच्चाईयों को बताने/दिखाने के दौरान ये साम्राज्यवादी मीडिया संस्थान कई बातों को छुपा रहे थे। 

वो छुपा रहे थे कि 1979 से अमेरिका व अन्य देशों द्वारा थोपे गए प्रतिबंधों ने किस तरह ईरानी जनता की जिंदगी को और कठिन बनाया। वो छुपा रहे थे कि कोरोना के दौरान अमेरिका द्वारा थोपे गए प्रतिबंधांे के चलते हजारों ईरानी नागरिक बेहतर इलाज व वैक्सीन से महरूम रहने के चलते असमय ही काल के गाल में समा गए। वो छुपा रहे हैं कि लोकतंत्र का ढिंढोरा पीटने वाले इन साम्राज्यवादियों ने लोकतंत्र लागू करने के नाम पर इराक, अफगानिस्तान, सीरिया, लीबिया आदि देशों में लाखों मासूमों का खून बहाया है। साम्राज्यवादियों की इन कारगुजारियों के आगे तो खुद ईरानी शासक भी शर्मा जाएं। स्पष्ट है कि लोकतंत्र के इन तथाकथित झण्डाबरदारों को ईरानी जनता से कोई लेना-देना नहीं है बल्कि वो तो आंदोलन की आड़ में वर्षों से अपनी अधूरी इच्छा को पूरा करना चाहते हैं।   

वर्तमान ईरानी आंदोलन भले ही जबरन बुर्का थोपने के कानून और माहसा की मौत के बाद उपजा हो, पर इस विद्रोह के अंकुर सालों से पनप रहे थे। शासकों की वर्षों से जारी तानाशाही, लूट, दमन, भ्रष्टाचार के खिलाफ एक बेहतर ईरान का ख्व़ाब ही वो चालक शक्ति हैं जो ईरानी जनता को सड़कों पर उतारे हुए है। फिलहाल ईरानी शासकों का दमन और साम्राज्यवादियों की कुुत्सित चालें जनता की राह रोके हुए हैं। बेहतर भविष्य के लिए लड़ रही ताकतों को इन दोनों से ही पार पाते हुए आगे बढ़ना होगा। इसके अलावा ईरानी मजदूर वर्ग कुछ मौकों को छोड़कर अब तक इस संघर्ष से दूरी बनाए हुए है। परिवर्तन की कोशिशों में लगी ताकतें अगर मजदूर वर्ग को अपने साथ लाने में सफल रहती हैं तब ही इस आंदोलन को इसके निर्णायक मुकाम तक पहुंचाया जा सकता है। अन्यथा कुछ अधिकारों को पाने के अलावा इस आंदोलन का बहुत आगे तक जा पाना बहुत मुश्किल होगा। अगर इस आंदोलन को हार भी मिली तब भी संघर्ष के चलते; आने वाला समय बिल्कुल वैसा नहीं होगा जैसा वो माहसा की मौत से पहले था। कुछ भी हो लेकिन अंतिम जीत जनता की ही होगी। 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें