भारत में नारी मुक्ति आन्दोलन
भारत की आजादी की लड़ाई ने समाज के सभी शोषित-उत्पीड़ित जनों में नयी चेतना का संचार कर दिया था। भारत की नारियों ने आजादी की लड़ाई में बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी की थी। ठीक उन्हीं की वजह से भारत की आजादी का आन्दोलन एक जनांदोलन में तब्दील हो सका था। यदि महिलाएं आजादी की लड़ाई में शामिल नहीं होती तो आजादी का स्वप्न लम्बे समय तक स्वप्न ही बना रहता वह हकीकत में नहीं बदलता। खासकर मजदूर, किसान, निम्न मध्य वर्ग से आने वाली नारियों की सक्रियता ने भारत की आजादी की लड़ाई को सुनहरी आभा प्रदान की थी। आजादी की लड़ाई में भारत की नारियों के बीच जो चेतना का संचार हुआ था उसने यह सुनिश्चित करने में खास भूमिका निभाई थी कि औरतों को अब अन्धेरे में कैद नहीं रखा जा सकता है। वे न केवल देश की गुलामी के खिलाफ बल्कि अपनी गुलामी के खिलाफ भी जंग लड़ सकती हैं। आजादी के बाद ऐसा हुआ भी।
भारत की आजादी खून से सनी आजादी थी। भारत और पाकिस्तान के बंटवारे ने लाखों-लाख परिवारों को बरबाद कर दिया था। भारत के विभाजन की कीमत भारत के मजदूर-मेहनतकशों ने सबसे ज्यादा चुकायी थी। विभाजन के जख्म सबसे ज्यादा भारत के आम औरतों के शरीर और आत्मा में थे। विभाजन के दौरान न केवल दंगाईयों ने उनके साथ बलात्कार और हत्या जैसे जघन्य अपराध किये थे बल्कि अपने ही परिवार के मुखिया ने उन्हें इसलिए जहर देकर या अन्य तरीके से मार दिया कि वह कहीं दंगों में विधर्मियों के हाथ न लग जायें। इस दौरान कई औरतें, युवा लड़कियां, बच्चियां अपने परिवार से बिछुड़ गयी।
भारत और पाकिस्तान के विभाजन के बाद दोनों ही ओर हजारों-हजार परिवारों को अपने पैरों पर पुनः खड़ा करने में आम औरतों ने रात-दिन एक कर दिये। विभाजन के बाद जो लोग इधर से उधर गये थे उनके सामने जीवनयापन, आवास, सुरक्षा हर तरह से संकट था। जिस बड़े पैमाने पर विस्थापन हुआ था उसके मुकाबले राहत कार्य ऊंट के मुंह में जीरा था। स्वयं ही आम लोगों ने, औरतों-मर्दों ने अपने आपको किसी तरह संभाला।
आजादी की लड़ाई में औरतों की जुझारू भागीदारी का नतीजा यह भी निकला था कि भारत उन चंद देशों में था जहां पहले दिन से सभी औरतों को मत देने का अधिकार था। भारत में सार्विक मताधिकार भारत की आजादी की लड़ाई के साथ-साथ उस जमाने का भी असर था। सोवियत संघ में समाजवाद कायम था। भारत के पड़ोसी देश चीन में माओ के नेतृत्व में क्रांति आगे बढ़ रही थी। यूरोप व अमेरिका में मानवाधिकार आंदोलन आकार ग्रहण कर रहा था। और एक के बाद एक देश साम्राज्यवाद के गुलामी के बंधन से मुक्त हो रहे थे। ऐसे में जहां फ्रांस जैसे देश में मताधिकार पाने में फ्रांस की 1789 की महान क्रांति के बाद भी डेढ़ सौ साल लग गये वहां भारत में यह आजादी के साथ मिल गया।
भारत में महिलाओं को मताधिकार भले ही आजादी के साथ मिल गया था परन्तु संसद-विधानसभाओं से लेकर सत्ता के विभिन्न हिस्सों में उनका प्रतिनिधित्व बेहद कम बना हुआ है। यही हाल राजनैतिक दलों से लेकर विभिन्न सामाजिक संगठनों में है। इसका मूल कारण तो वह सामाजिक व्यवस्था है जो अंग्रेजों के जाने के बाद कायम होती गयी। गोरे अंग्रेजों का स्थान काले अंग्रेजों ने ले लिया था। औपनिवेशिक गुलामी से मुक्त हुआ भारत; पूंजीपति वर्ग और भूस्वामी वर्ग की गुलामी में जकड़ गया। जहां आम लोगों, मेहनतकश स्त्री-पुरुषों की भूमिका राजनैतिक संदर्भ में सिर्फ चुनाव में मत डालने तक सीमित कर दी गयी। जीवन में जनवाद का अभाव चहुंओर था। सामन्ती पितृसत्तात्मक गुलामी के जुएं के नीचे आम मेहनतकश नारियां घर से लेकर समाज तक में कराह रही थी। इस तरह एक तरफ भारतीय समाज दिनोंदिन पूंजीवादी होता जा रहा था तथा दूसरी तरफ सामन्ती, धार्मिक, मध्ययुगीन मूल्य- मान्यताएं, परम्पराएं उसके जीवन में हर ओर चिपकी पड़ी थी। औरतों को हर चीज के लिए घर से लेकर समाज तक में कदम-कदम पर संघर्ष करना पड़ रहा था। फिर वह चाहे मामला शिक्षा पाने का हो या फिर अपने पांव पर खड़े होने का हो या फिर मनचाहे व्यक्ति से प्रेम अथवा विवाह का हो। आम मजदूर-मेहनतकश महिलाओं से लेकर मध्यम वर्ग की महिलाओं को जीवन के हर क्षेत्र में संघर्ष में उतरने को मजबूर होना पड़ा।
भारत की आजादी की लड़ाई के इतर भारत की मेहनतकश महिलाओं ने उस वक्त के क्रांतिकारी आन्दोलन खासकर तेभागा और तेलंगाना के आन्दोलन में अग्रणी भूमिका निभायी थी। ठीक इसी तरह से उन्होंने नक्सलबाड़ी और उसके बाद विभिन्न रूपों में जारी क्रांतिकारी आन्दोलन में अपनी भूमिका निभाना जारी रखा। भगत सिंह के वंशज भारत में क्रांति की मशाल को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के हाथ देते रहे। ‘महिला मुक्ति समाजवाद में ही संभव है’ कि क्रांतिकारी दिशा के साथ यह आन्दोलन किसी न किसी रूप में आज तक जारी है। क्रांतिकारी आन्दोलन आगे बढ़ सके इसके लिए अति आवश्यक है कि भारी संख्या में मजदूर-मेहनतकश स्त्रियों से लेकर छात्राएं एवं युवतियां क्रांतिकारी आन्दोलन से जुड़ें।
आजाद भारत में जनवाद (डेमोक्रेसी) की मांग को लेकर किस्म-किस्म के आन्दोलन समय-समय पर फूटते रहे हैं। इसमें अलग राज्य की मांग, अपनी मातृभाषा में शिक्षा का अधिकार, समान काम का समान वेतन, भारतीय राज्य द्वारा समय-समय पर बनाये गये किस्म-किस्म के जनवाद विरोधी कानूनों (मीसा, टाडा, पोटा, यूएपीए, आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट इत्यादि) के खिलाफ संघर्ष इत्यादि प्रमुख थे। इसी तरह 1975 में इंदिरा गांधी द्वारा थोपे गये आपातकाल के खिलाफ भी एक लोकप्रिय जनांदोलन फूट पड़ा था। इस तरह के हर आन्दोलनों में महिलाओं ने सक्रिय व जुझारू भूमिका निभायी थी। आजादी के समय से लेकर अब तक कई नये राज्य अस्तित्व में आ गये हैं। इनमें उत्तराखण्ड राज्य निर्माण में महिलाओं की भूमिका खासी चर्चित रही।
उत्तराखण्ड राज्य निर्माण के दौरान पुलिस व अन्य सशस्त्र बलों के दमन का न केवल निडरतापूर्वक सामना किया बल्कि इस लड़ाई को एकदम नयी ऊंचाई में पहुंचा दिया। ठीक इसी तरह झारखण्ड, छत्तीसगढ़, तेलंगाना आन्दोलन में भी महिलाएं अगली कतारों में थी।
भारत के कश्मीर से लेकर उत्तर-पूर्व के अनेक भागों में अलग राष्ट्र की मांग को लेकर जनवादी आन्दोलन आजादी के बाद के समय से चलता रहा है। इस आन्दोलन का भारतीय राज्य ने सेना, सशस्त्र बलों और पुलिस के दम पर निर्ममतापूर्वक दमन किया है। आये दिन महिलाओं के साथ बलात्कार किये गये। कई जुझारू महिलाओं को निर्ममतापूर्वक कत्ल कर दिया गया। इस दमन के खिलाफ भी आम महिलाएं समय-समय पर सड़कों पर उतरती रही हैं। उन्हें एक तरफ भारतीय राज्य के दमन तथा दूसरी ओर अलगाववादी और आतंकवादी ताकतों के उत्पीड़न का भी सामना करना पड़ता रहा है। कश्मीर, पंजाब, असम, मणिपुर, मिजोरम आदि जगहों पर महिलाओं को अपने निर्दोष गायब पतियों व बेटों के लिए आन्दोलन चलाना पड़ा है। भारतीय राज्य ने इन आन्दोलनों के दौरान शहर व देहात क्षेत्रों से सैकड़ों युवाओं को गायब कर दिया था। कश्मीर में तो कई-कई स्थानों पर सामूहिक कब्रों का पता चलता रहा है।
स्त्री शिक्षा, स्त्री स्वास्थ्य, सार्विक मताधिकार भारत की आजादी की लड़ाई के समय नारी मुक्ति आन्दोलन के प्रमुख मुद्दे थे। इन मुद्दों में स्त्री शिक्षा व स्वास्थ्य का मुद्दा बदस्तूर जारी है। और आज भी भारत में स्त्रियों में निरक्षरता बहुत अधिक है। और अनुमानों के अनुसार भारत में पूर्ण साक्षरता हासिल करने में खासकर औरतों में अभी कई दशक लगने हैं। निरक्षरता के खिलाफ मुहिम, स्त्री शिक्षा व स्वास्थ्य जैसे मुद्दों को लेकर या तो देशी-विदेशी सरकारों की संस्थाएं या फिर गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) सक्रिय रहे हैं। इनके प्रयास कितने लचर हैं यह बतलाने को यही तथ्य पर्याप्त है कि भारत में स्त्री साक्षरता को पूर्ण रूप से हासिल करने में अभी कई दशक लगने हैं।
गैर सरकारी संगठनों से लेकर विभिन्न राजनैतिक दलों से जुड़े महिला संगठन समय-समय पर घरेलू हिंसा, लैंगिक हिंसा, पुलिस या सैनिक बलों के द्वारा की जाने वाली हिंसा, दहेज हत्या, पुरुष नशाखोरी आदि जैसे मुद्दों को लेकर भारत की आजादी के बाद से लेकर नब्बे के दशक तक सक्रिय रहे हैं। खासकर सत्तर-अस्सी के दशक में कई तरह के संगठन, संस्थाएं व मोर्चे अस्तित्व में आये। इनमें ‘दहेज विरोधी चेतना मंच’ (1970), ‘फोरम अगेंस्ट रेप’ (1979), ‘फोरम अगेंस्ट ऑपरेशन’ (1979), ‘नारी रक्षा समिति’ (1979), ‘महिला दक्षता समिति’ (1979) आदि प्रमुख थे।
अप्रैल 1972 में स्वयं सेवी महिला संगठन के रूप में ‘सेवा’ (सेल्फ इम्प्लायड वूमेन’स एसोसिएशन) अस्तित्व में आया। इस तरह के स्वयं सेवी संगठनों को भारत के शासक वर्ग का भी भरपूर सहयोग मिला। गैर सरकारी संगठन नारी मुक्ति के सवालों को पूंजीवादी सुधारवादी- कानूनवादी दलदल में धकेलते रहे हैं। और यह प्रक्रिया आज तक जारी है।
इसी तरह इस दौरान ऐसे संगठन भी अस्तित्व में आये जो अपने उद्देश्यों में प्रगतिशील थे। वे अक्सर क्रांति ये प्रेरणा पाते थे। ऐसे संगठनों में एक ‘प्रोग्रेसिव आर्गनाइजेशन आफ वूमेन’ (1974) भी था। नब्बे के दशक में ‘क्रांतिकारी आदिवासी महिला संगठन’ भी अस्तित्व में आया था। इस संगठन की सदस्य संख्या एक समय नब्बे हजार तक पहुंच गयी थी। नये-नये महिला संगठन बनने की प्रक्रिया आज तक जारी है।
भारत में नारीवाद का प्रादुर्भाव सत्तर के दशक के बाद ही मूलतः हुआ। और अस्सी-नब्बे के दशक में ये कुछ सामाजिक हैसियत व प्रभाव भी रखते रहे। नब्बे के दशक में भारत में नारीवादियों द्वारा ‘यौन अधिकर’ का मुद्दे विशेष तौर पर उठाये गये। ऐसे मुद्दों में गर्भपात का अधिकार से लेकर समलैंगिक सम्बन्धों आदि तक थे। भारत के नारीवाद पर पश्चिम में पनपे नारीवाद का अच्छा-खासा असर था। वे अक्सर ही नारी समस्याओं का समाधान समाज व नारियों के मुक्ति के क्रांतिकारी विचारों से उलट या अलग देते थे। ये पुरुषों को अपने खुले-छिपे दुश्मन के रूप में चित्रित कर नारी मुक्ति आन्दोलन को भटकाते थे। यद्यपि भारत में इसका प्रभाव बहुत ज्यादा कभी नहीं रहा। परन्तु फिर भी इक्कीसवीं सदी के प्रारम्भिक दशकों में इनसे प्रभावित होकर ‘प्राइड परेड’, ‘बेशर्म आन्दोलन’ (स्लट मूवमेंट), ‘मीटू आन्दोलन’ जैसे रूप बारम्बार प्रकट होते रहे हैं।
अस्सी-नब्बे के दशक में भारत में संघ व भाजपा की हिन्दू फासीवादी राजनीति का विकास व प्रभाव बढ़ता गया। इन्होंने हिन्दुओं को संगठित करने के नाम पर उग्र फासीवादी तौर-तरीके अपनाये। लम्पट तत्वों को अपने एक औजार के तौर पर इस्तेमाल के लिए इन्होंने बजरंग दल नाम से एक संगठन बनाया। यह संगठन हिन्दू शुचिता के नाम पर गैर हिन्दुओं से विवाह करने वाली स्त्रियों को निशाना बनाता था। इसी तरह ‘लव जिहाद’ के नाम पर मुस्लिम पुरुषों पर हमले करता था। ‘लव जिहाद’, ‘गौवंश सुरक्षा’ के नाम पर इस संगठन की आतंकी कार्यवाहियां भाजपा के सत्तारूढ़ होने पर और बढ़ गयी। ‘बजरंग दल’ की तर्ज पर महिलाओं को 1991 में ‘दुर्गावाहिनी’ के बैनर के नीचे इकट्ठा करने की कोशिश संघ-भाजपा के हिन्दू फासीवादियों ने की है।
आज हिन्दू फासीवादी न केवल धार्मिक अल्पसंख्यकों व मजदूर- मेहनतकशों के लिए बल्कि भारत की सभी नारियों और नारी मुक्ति आन्दोलन के सामने एक प्रमुख चुनौती बन कर उभरे हैं। असल में भारत के सबसे बड़े एकाधिकारी घरानों की सेवा करने वाले हिन्दू फासीवादी पूरे भारत के लिए खतरा हैं।
भारत में महिलाओं के ऊपर हिंसा के खिलाफ सामाजिक आन्दोलन का अब लम्बा इतिहास है। 1979 में मथुरा नाम की महज चौदह साल की आदिवासी लड़की के साथ पुलिस वालों ने बलात्कार किया और फिर अदालत में यह साबित करने की कोशिश की गयी कि वह बदचलन थी। सेक्स की आदी थी। मथुरा को न्याय दिलाने के लिए एक लम्बे आन्दोलन के बाद मथुरा के अपराधियों को सला मिल सकी। इसी तरह 2012 में ‘‘निर्भया’’ के अपराधियों को सजा दिलाने के लिए देशव्यापी आन्दोलन हुआ। मथुरा से लेकर निर्भया तक ऐसे कई अन्य मामले हुए जिनमें समाज में महिला और अन्य न्यायपसंद लोगों ने देश के कई-कई हिस्सों में जनांदोलन को जन्म दिया। एक ऐसी मुहिम आजकल बिलकिस बानो को न्याय दिलाने के लिए चल रही है।
भारत की महिलाओं के द्वारा अनेक चर्चित आन्दोलन आजादी के बाद लड़े गये। इन आन्दोलनों में क्रांतिकारी, वामपंथी, सर्वोदयी से लेकर सामान्य जन तक रहे हैं। इन आन्दोलनों में 1973 का ‘मूल्य वृद्धि विरोधी आन्दोलन’ (एण्टी-प्राइस राइज मूवमेंट-।च्त्ड); मार्च 1973 का उत्तराखण्ड की पहाड़ियों में ‘चिपको आन्दोलन’; जुलाई 2004 में मणिपुर में सेना मुख्यालय पर महिलाओं द्वारा किया उग्र नग्न प्रदर्शन (भारतीय सेना आओ हमारे साथ बलात्कार करो), 2012 में दिल्ली निर्भया काण्ड के बाद उपजा जनाक्रोश आदि प्रमुख हैं। इन आन्दोलनों में से कई अपने लक्ष्य में सफल रहे। मणिपुर की महिलाओं के प्रदर्शन के बाद शर्मसार भारत के शासक वर्ग को मणिपुर की इम्फाल घाटी से आफस्पा ;।थ्ैच्।द्ध हटाना पड़ा था।
आजादी के बाद भारत के विभिन्न विश्वविद्यालयों व शिक्षण संस्थानों में पढ़ने वाली छात्राओं ने कई आन्दोलन स्वतंत्र रूप से लड़े और कई आन्दोलनों में वे बढ़-चढ़कर छात्रों के साथ लड़ी। हाल के दशकों में महिला छात्रों की मुखरता बढ़ी है।
आजादी के बाद भारत के महिला मजदूरों ने भी अनेकानेक संघर्षों में भागीदारी ही नहीं की बल्कि अपनी स्वतंत्र पहलकदमी से कई बार शासक वर्ग को अपने क्रूर नीति से पीछे हटने को बाध्य किया तो कई बार नये अधिकार हासिल किये। भारत के महिला मजदूरों के ऐसे संघर्ष में 2015 के बंगलौर के गारमेण्ट महिला मजदूरों का विशाल प्रदर्शन सबसे उल्लेखनीय है। इसी तरह तेंदू पत्ता मजदूरों, चाय बागान मजदूरों, बीड़ी मजदूरों व दुकान महिला कर्मियों के बैठने के अधिकार आदि से सम्बन्धित आन्दोलन समय-समय पर लड़े हैं।
भारत का नारी मुक्ति आन्दोलन एक लम्बा सफर तय करने के बाद एक ऐसे मुकाम पर आकर खड़ा है, जहां उसे क्रांतिकारी दिशा व पहलकदमी लेने की आवश्यकता है। नारी मुक्ति आन्दोलनों को भारत की जनता के तीन बड़े दुश्मनों; भारतीय पूंजीवाद, हिन्दू फासीवाद और साम्राज्यवाद; को अपने निशाने पर लेने की जरूरत है। पितृसत्तात्मक मूल्यों को ये ही प्रश्रय देते हैं अतः उपरोक्त दुश्मनों को निशाने पर लेने का स्वाभाविक अर्थ होगा कि पितृसत्ता इनके साथ समाप्त हो जाये।
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