मंगलवार, 25 अप्रैल 2023

 पश्चिम एशिया में चीन का बढ़ता प्रभाव और दुनिया के लिये इसके मायने

अभी हाल ही में चीन की मध्यस्थता में साउदी अरब और ईरान के बीच एक समझौता हुआ है। इस समझौते के तहत दोनों देश दो महीने के भीतर एक-दूसरे के यहां अपना-अपना दूतावास खोलेंगे। इसके अतिरिक्त वे इस बात पर भी सहमत हुए कि वे एक-दूसरे की प्रभुसत्ता और क्षेत्रीय अखण्डता का सम्मान करेंगे और एक-दूसरे के अन्दरूनी मामलों में दखल नहीं देंगे। ये दोनों देश लम्बे समय से एक-दूसरे के प्रति दुश्मनाना रुख रखते रहे हैं जो 2016 में दूतावासों की बन्दी तक जा पहुंचा। जहां सउदी अरब अमरीकी साम्राज्यवादियों के प्रभाव में पिछले दो दशकों से लगातार रहा है, वहीं ईरान 1979 में हुई शाह विरोधी क्रांति के बाद से अमरीकी साम्राज्यवादियों की आंख की किरकिरी रहा है। वह ईरान मंे तख्तापलट कराने की कोशिशों में उसके विरुद्ध व्यापक प्रतिबंध लगाकर आर्थिक तबाही पैदा करता रहा है। वह जनअसंतोष को भड़काने की कोशिश और साजिश करता रहा है। 

अमरीकी साम्राज्यवादियों और पश्चिमी एशिया में उसके मजबूत समर्थक इजरायल को इस समझौते से सबसे ज्यादा चिंता इस बात की हो रही है कि यह समझौता चीन की मध्यस्थता में हुआ है। अमरीका यह घोषणा लगातार करता रहा है कि चीन उसका सबसे बड़ा प्रतिद्वंद्वी है। चीन दक्षिण चीन सागर, ताइवान और एशिया प्रशांत क्षेत्र में अपना प्रभाव बढ़ा रहा है और अमरीकी साम्राज्यवादी उसे एशिया प्रशांत क्षेत्र में घेरने की नीति अपना रहे हैं और तरह-तरह के सैनिक और राजनीतिक गठबंधन बना रहे हैं। अमरीकी साम्राज्यवादी यूरोप में यूक्रेन के जरिये रूस के विरुद्ध गोलबंदी करके वहां अपनी और नाटो की ताकत लगाये हुए हैं। लेकिन पश्चिमी एशिया में जहां वे पिछले कई दशकों से अपनी मजबूत सैनिक, राजनीतिक और आर्थिक पकड़ कायम किये हुए थे वहां पर चीन ने ऐसी इलाकाई शक्तिशाली ताकतों के बीच समझौता करा दिया जिसे अमरीकी साम्राज्यवादी नहीं करा सकते थे। यह इस क्षेत्र में अमरीकी साम्राज्यवाद के कमजोर होते जा रहे प्रभाव को और चीन के बढ़ते प्रभाव के बतौर देखा जा रहा है। कुछ लोग इसे चीन द्वारा किया गया ‘तख्तापलट’ भी कह रहे हैं। 

आखिर चीन यह समझौता कराने में कैसे सफल हुआ? इसे समझने के लिये चीन की; इस क्षेत्र में और आमतौर पर समूचे विश्व में; अमरीकी साम्राज्यवाद के साथ प्रभाव क्षेत्र को लेकर प्रतिद्वंदिता पर निगाह डालने की जरूरत है। 

पश्चिम एशिया के साथ चीन का व्यापार इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक के साथ ही बढ़ता जा रहा है। यह व्यापार 2019 में जहां 180 अरब डालर का था, वहीं 2021 में बढ़कर 259 अरब डालर तक पहुंच गया था। इसी दौरान अमरीका का पश्चिमी एशिया के साथ व्यापार जहां 2019 में 120 अरब डालकर का था, वह 2021 में घटकर 82 अरब डालर का रह गया था। इसके बाद भी चीन का इस समूचे क्षेत्र में व्यापार तेजी से बढ़ता जा रहा है। यह इस क्षेत्र की बड़ी ताकतों जैसे मिश्र, ईरान, जार्डन, कुवैत, सउदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात, का सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार होने की स्थिति को मजबूत करता जा रहा है। 

इसे इस तालिका से देखा जा सकता है।

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इसके साथ ही, चीन लगातार इस क्षेत्र के देशों के आपसी संघर्षों में उलझने से बचता रहा है। अमरीकी सैन्य दबदबे से बगैर टकराये हुए वह अभी तक चुपचाप अपने आर्थिक प्रभाव का विस्तार लगातार करता रहा है। लेकिन अब स्थिति में परिवर्तन हो रहा है। अब चीन इस क्षेत्र में कूटनीतिक व राजनीतिक तौर पर दखल देने की स्थिति मंे आ गया है। इसी का यह परिणाम है कि वह सउदी अरब और ईरान के बीच समझौता कराने की मध्यस्थता करने में सफल हो सका।

इस समझौते के होने के बाद इस समूचे क्षेत्र में एक बदलाव की लहर आना शुरु हो गयी है। सबसे पहले सीरिया के साथ सउदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और ओमान के संबंधों में सुधार आने की प्रक्रिया तेज हो गयी है। अभी तक ये तीनों देश सीरिया में बशर अल असद की हुकूमत को उखाड़ फेंकने के लिये अमरीकी साम्राज्यवादियों के साथ खड़े होकर विरोधी गुटों की मदद कर रहे थे। अब ये सीरिया के साथ कूटनीतिक संबंध बना रहे हैं। सीरिया और तुर्की इस इलाके को लेकर रूस की मध्यस्थता से बातचीत कर रहे हैं। सीरिया के साथ ईरान लगातार खड़ा रहा है। तुर्की, ईरान और सीरिया के साथ रूसी साम्राज्यवादी दोस्ताना समझौता के अंतर्गत इस मामले को हल करने में लगे हुए हैं। रूस के सैन्य अड्डे सीरिया में स्थापित हैं। इस अर्थ में, सीरिया में अमरीकी साम्राज्यवादियों और इजरायल की ताकत को पीछे धकेलने में रूसी साम्राज्यवादियों की भूमिका रही है। इस भूमिका ने भी इस क्षेत्र में अमरीकी साम्राज्यवादियों को कमजोर किया है।

रूस-यूक्रेन युद्ध ने पश्चिम एशिया में भी शक्ति संतुलन में असर डाला है। अमरीकी साम्राज्यवादियों, यूरोपीय संघ और नाटो ने रूस के विरुद्ध अब तक के इतिहास के सबसे व्यापक आर्थिक प्रतिबंध लगाये। अमरीकी साम्राज्यवादी चाहते थे कि पश्चिमी एशिया के तेल उत्पादक देश संकट को हल करने में मदद करें। लेकिन सउदी अरब और अन्य तेल उत्पादक देशों ने न तो रूस के विरुद्ध आर्थिक प्रतिबंध लगाने में अमरीकी साम्राज्यवादियों का साथ दिया और न ही वे चीन के साथ व्यापार घटाने को राजी हुए। 

इसी दौरान, लम्बे कब्जे के  बाद अमरीकी साम्राज्यवादियों को अफगानिस्तान से बेआबरू होकर भागना पड़ा। इससे इस क्षेत्र के शासकों को यह स्पष्ट हो गया कि अब अमरीकी साम्राज्यवादी कमजोर हो रहे हैं। लेकिन वे इस क्षेत्र में अमरीकी साम्राज्यवादियों की सैन्य ताकत स्थापित करने में खुद साझीदार रह चुके थे।

उनके सामने अपनी आर्थिक ताकत के विस्तार के लिये अमरीका के अलावा अन्य विकल्प विस्तृत करने की चुनौती और सम्भावना भी थी। ऐसी सम्भावना को पूरा करने के लिये चीनी शासक मौजूद थे। चीनी शासकों की महत्वाकांक्षी वैश्विक परियोजना बेल्ट और रोड इनीशिएटिव 2013 से पेश हो चुकी थी। इस परियोजना के जरिए और अपनी वित्तीय व औद्योगिक ताकत के जरिए चीनी शासक अमरीकी साम्राज्यवादियों के साथ वैश्विक प्रतिस्पर्धा में एक नयी साम्राज्यवादी ताकत के बतौर सामने आ चुके थे। 

चीन की बेल्ट और रोड परियोजना (ठमसज ंदक त्वंक प्दपजपंजपअम.ठत्प्) की विशालता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इसे ‘‘शताब्दी की परियोजना’’ करार दिया गया। अभी तक इस परियोजना में 150 से अधिक देश शामिल हो चुके हैं। 2019 तक 3100 से ज्यादा परियोजनायें दुनिया भर में चीन की कम्पनियों ने चालू की हैं। इनमें अरबों-खबरों डॉलर का निवेश किया गया है। इस परियोजना के बारे में एक पूंजीवादी पत्रिका ने यह कहा कि ‘‘तमाम सड़कें’’ बीजिंग की ओर जाती हैं। 

चीन पश्चिमी एशिया के देशों में भी अपनी बेल्ट एवं रोड परियोजना का तेजी से विस्तार करना चाहता है। इसलिए भी चीनी शासक अपनी इस परियोजना को आगे बढ़ाने में इस क्षेत्र में शांति व स्थिरता का माहौल चाहते थे। सउदी अरब और ईरान के बीच इस समझौते को सफल करने में चीनी शासकों की भूमिका का एक महत्वपूर्ण कारण यह भी रहा है। 

इस क्षेत्र में टकराव के एक बिन्दु की- सीरिया की- चर्चा ऊपर की जा चुकी है। यमन में सउदी अरब और ईरान एक-दूसरे के विरुद्ध खड़े हैं। ईरान हूथी विद्रोहियों के साथ मजबूती से खड़ा है। हूथी विद्रोहियों का उत्तरी यमन पर कब्जा है। सउदी अरब अमरीकी साम्राज्यवादियों की शह पर हूथी विद्रोहियों के कब्जे को समाप्त कर अपनी पिछलग्गू सत्ता कायम करना चाहता है। यहां यमन की समस्या को सुलझाने में इन तीन क्षेत्रों के लड़ाकुओं के साथ-साथ इनके सरपरस्तों सउदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और ईरान के बीच समझौता होना जरूरी हो जाता है। जब तक यमन में शांति नहीं स्थापित होती, तब तक चीन की बेल्ट और रोड परियोजना की लाल सागर के बंदरगाह से होरमुज की खाड़ी और अरब सागर की योजना आगे नहीं बढ़ पायेगी। चीन का स्वार्थ इस टकराव को सुलझाने मंे जुड़ा हुआ है। अमरीकी साम्राज्यवादियों का स्वार्थ इस टकराव को बढ़ाने में था। यह चीनी शासकों के लिए एक बड़ी चुनौती है।

इस प्रकार, लेबनान के मसले पर भी ईरान और सउदी अरब के बीच टकराव मौजूद है। लेबनान में ईरान हिजबुल्ला लड़ाकुओं के साथ मजबूती से खड़ा है और सउदी अरब एक विरोधी गुट के साथ है। इस मसले में भी दोनों क्षेत्रीय ताकतों के स्वार्थ एक-दूसरे से टकराते हैं।

सबसे बड़ा मुद्दा इस क्षेत्र में फिलीस्तीन को लेकर है। हालांकि फिलीस्तीन की आजादी को लेकर इन दोनों बड़ी क्षेत्रीय ताकतों के बीच सिद्धांततः कोई टकराव नहीं दिखाई पड़ता। लेकिन सउदी अरब के शासकों ने अमरीकी साम्राज्यवादियों और इजरायल के शासकों के साथ मिलकर एब्राहम (यहूदी, मुस्लिम व इसाई सब एक ही पूर्वज की संतानें हैं। अतः हमें मिलकर रहना चाहिए।) करार पर हामी भरी थी। अमरीकी साम्राज्यवादी और इजरायली शासक चाहते हैं कि अरब शासकों के साथ इजरायल के संबंध गहरे और बेहतर हो जायें। इसमें फिलस्तीन का मसला कहीं बीच में न आये। ईरान-सउदी अरब के समझौते से स्थिति में अब बदलाव आना संभव है। 

     जिस प्रकार विभिन्न साम्राज्यवादी शक्तियां अपने-अपने स्वार्थों के विस्तार के लिये अपनी नीतियों को लागू करती हैं, उसी प्रकार पश्चिमी एशिया की ताकतें भी अपने स्वार्थ विस्तार के लिये पूरी ताकत लगा रही हैं। अमरीकी साम्राज्यवादियों का स्वार्थ इस बात में है कि पश्चिमी एशिया की ताकतें आपस में संघर्षरत रहें। चीनी साम्राज्यवादियों की अपने आर्थिक विस्तार के जरिए अपने प्रभाव में इन क्षेत्रीय ताकतों को लाने की नीति रही है। वे अपनी आर्थिक ताकत के बल पर इन शासकों के साथ गठबंधन बनाते हैं। इन दोनों साम्राज्यवादियों ने अपने प्रभाव को बनाये रखने और बढ़ाने का अलग-अलग रास्ता तय किया है। यह रास्ता ऐतिहासिक रूप से इस बात से जुड़ा है कि अमरीकी साम्राज्यवादी हिंसा व बल के आधार पर अपना प्रभुत्व बनाते रहे हैं। चीन के शासकों के साथ ऐतिहासिक तौर पर ऐसी स्थिति नहीं रही है। चीन खुद साम्राज्यवादी उत्पीड़न व दमन का शिकार रहा है। उसका साम्राज्यवादी अतीत नहीं रहा है। दूसरा, चीन अभी एक नयी साम्राज्यवादी शक्ति है। उसे अपनी जगह बनानी हैै। इसके लिये उसने आर्थिक रास्ते को मुख्यतः अभी तक चुना है। लेकिन प्रतिद्वन्द्वी साम्राज्यवादियों से टकराने के लिये वह तेजी से सैन्य और राजनीतिक शक्ति बनने के लिए इस दिशा में भी बढ़ रहा है। 

जहां तक सउदी अरब और ईरानी शासकों का सवाल है, वे अपने स्वार्थों का विस्तार करने के लिए साम्राज्यवादियों के बीच की आपसी टकराहटों का फायदा उठाने का प्रयास करते हैं। इस बदली हुई दुनिया में वे यह समझ गये हैं कि कोई भी साम्राज्यवादी देश अब किसी देश को प्रत्यक्ष या परोक्ष नियंत्रण में नहीं रख सकता। ऐसी स्थिति में उनकी सौदेबाजी की परिस्थितियां तैयार हो रही हैं। इसलिए वे अमरीका व उसके सहयोगी साम्राज्यवादी देशों के साथ अपने सम्बन्धों को बनाये रखते हुए अपने विकल्पों को खुला रखना चाहते हैं। इसी खुले विकल्प के रास्ते में चलते हुए उन्होंने चीनी और रूसी साम्राज्यवादियों के साथ अपने रिश्तों को आगे बढ़ाया है। वे क्षेत्रीय ताकत के तौर पर अपने को मजबूत करने के लिए अपनी क्षेत्रीय टकराहटों को सीमित करने की ओर आगे बढ़ रहे हैं। 

लेकिन एक बात सदा ध्यान में रखनी चाहिए की ये क्षेत्रीय ताकतें भी अपने-अपने देश में मजदूर-मेहनतकश आबादी के दुश्मन हैं। जहां ये साम्राज्यवादी शक्तियों से अपने को मुक्त रखना चाहती हैं, वहीं ये साम्राज्यवादी शक्तियों की तरह ही मजदूर-मेहनतकश आबादी की दुश्मन हैं। जब तक उनके इस असली मजदूर-मेहनतकश विरोधी चरित्र को समझा नहीं जाता तब तक इस भ्रम का शिकार होने की गुंजाइश रहती है कि ये देश मजदूर-मेहनतकश आबादी के पक्षधर हो सकते हैं। इनके बुनियादी वर्ग चरित्र को समझे बगैर इनके बारे में भ्रम हो सकता है। लेकिन साम्राज्यवादियों के बीच के टकरावों का फायदा उठा लेने की इनकी कोशिशों को यदि नहीं समझा जाये तो शासकों के बीच के अंतरविरोधों को न समझने की गलती होगी। दुनिया की मजदूर-मेहनतकश आबादी को यह समझना होगा। 

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