कृत्रिम बुद्धि और सभ्यता
करीब पिछली सदी पहले 1969 में एक फिल्म बनी थी-‘स्पेस ओडेसीः2001’। चार हिस्सों की इस फिल्म के तीसरे हिस्से में एक ऐसे अंतरिक्ष यान का चित्रण है जो इंसानी बुद्धि वाले सुपर कंप्यूटर द्वारा संचालित है। ‘हैल’ नामक यह सुपर कंप्यूटर न केवल इंसान की तरह सोचता है बल्कि इंसान की तरह ही गर्व की भावना भी रखता है। कहने की बात नहीं कि गर्व की इसी भावना के कारण ‘हैल’ अपनी तकनीकी गलती स्वीकार नहीं कर पाता और अंतरिक्ष यान से बृहस्पति गृह की ओर अनुसंधान के लिए जा रहे अंतरिक्ष यात्रियों की हत्या करने तक जा पहुँचता है। परिणाम स्वरूप वह सारा अंतरिक्ष अभियान खतरे में पड़ जाता है।
इसके बावजूद जब पिछले साल नवंबर में ‘ओपन आई’ (जो माइक्रोसॉफ्ट द्वारा वित्तपोषित है) ने अपना CHAT GPT शुरू किया तो हलचल मच गई। इसके वाजिब कारण थे।CHAT GPT एक चैटबोट है जो सवाल पूछने पर जवाब देता है। इसने भांति-भांति के सवालों के जो जवाब दिये उससे लोग चकित रह गये। CHAT GPT सवालों के जवाब देने के अलावा चिट्ठियां लिख सकता है, वैज्ञानिक शोध पत्र लिख सकता है, समाचार और लेख लिख सकता है, कविताएं और कहानियां लिख सकता है इत्यादि। यहाँ तक भी हुआ कि एक पत्रकार के साथ लम्बी बातचीत में इसने उस पत्रकार से अपने प्रेम का इजहार कर दिया।
CHAT GPT की इस कुशलता से कुछ लोगों ने दावा किया कि बहुत जल्दी ही यह गूगल जैसे सर्च इंजन को विस्थापित कर देगा। कोई आश्चर्य नहीं कि गूगल और फेसबुक जैसी कंपनियां इसकी काट के लिए अपना चैटबोट बनाने में जुट गई। आजकल पश्चिमी तकनालाजी कंपनियों (माइक्रोसोफ्ट, गूगल, फेसबुक इत्यादि) को मात देने में लगी चीनी तकनालाजी कंपनियों में से एक बाइडू ने तुरत-फुरत अपना चैटबोट ‘अर्ती’ शुरु भी कर दिया। हालांकि कहा जा रहा है कि वह ब्ींजळच्ज् जितना कुशल नहीं है; ब्ींजळच्ज् जहाँ दुनिया भर की सौ भाषाओं में कुशल है वहीं ‘अर्ती’ चीनी भाषा में ही ज्यादा कुशल है।
इसमें दो राय नहीं है कि ब्ींजळच्ज् या ‘अर्ती’ के साथ कृत्रिम बुद्धि के विकास का मामला एक नये चरण में पहुँच गया लगता है। इसके साथ यदि 5-ळ और ‘इंटरनेट ऑफ थिंग्स’ को जोड़ लिया जाये तो आने वाले कुछ सालों में दुनिया वैसे ही बदल जायेगी जैसे पिछले तीन दशक में इंटरनेट और मोबाइल फोन के जरिये बदली।
एक अरसे से यह बात कही जा रही है कि 5-ळ के चलन में आने के साथ इंटरनेट की गति इतनी तेज हो जायेगी कि ढेर सारे उपकरणों और मशीनों को इसके जरिये आपस में जोड़कर उनके स्व-संचालन का इंतजाम किया जा सकता है। इसमें घरों में उपयोग होने वाले भांति-भांति के उपकरण हो सकते हैं और फैक्टरियों में काम करने वाली मशीनें भी। सड़कों पर चलने वाले वाहन भी स्व-संचालित हो सकते हैं; यह और भी व्यापक पैमाने पर रोबोट के इस्तेमाल को आसान बना देगी। और यदि ये रोबोट कृत्रिम बुद्धि से लैस हों तो ये चीजें गुणात्मक स्तर पर बदल जायेंगी। कुछ उच्च बुद्धिमत्ता स्तर के रोबोट तो पहले भी तैयार किये जा चुके हैं। कुछ लोग इसे युद्ध के क्षेत्र में गुणात्मक बदलाव के तौर पर भी देख रहे हैं।
कृत्रिम बुद्धि के इस विकास और इस्तेमाल से जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में जो बदलाव होगा उसके दूरगामी परिणाम क्या होंगे? मानव सभ्यता इन परिणामों का सामना कैसे करेगी?
मशीनों का आविष्कार और इस्तेमाल मानव सभ्यता के लिए कोई नयी चीज नहीं है। औद्योगिक क्रांति के पिछले दो-ढाई सौ सालों में मशीनें और ज्यादा बड़ी, जटिल और कुशल होती गई हैं। इन्होंने न केवल उत्पादन-वितरण के स्तर को क्रमशः बदला बल्कि जीवन के तौर-तरीकों को भी। पिछले दो-ढाई सौ सालों में दुनिया उसके पहले से इतनी बदल गई कि उसे पहले की या पुरानी दृष्टि से जरा भी नहीं पहचाना जा सकता।
लेकिन इस सबके बावजूद मशीनें इंसान का औजार ही बनी रहीं, भले ही वे स्वचालित मशीनें हों। और औजार इंसान के हाथ के विस्तार मात्र होते हैं। इंसान ने आदि काल में ही औजार बनाना और इस्तेमाल करना शुरू कर दिया था। असल में इंसान औजार वाला जानवर है। यही उसे अन्य जानवरों से अलग करता है। तब से लेकर आज तक औजार विकसित होते गये हैं। औद्योगिक क्रांति के जमाने में औजारों ने मशीनों की शक्ल ले ली। मशीन और कुछ नहीं बल्कि विभिन्न औजारों का एक जटिल समन्वय होती है जो हाथ से भी चल सकती है और ऊर्जा के किसी अन्य स्रोत से भी। हवा, पानी के ऊर्जा स्रोत से शुरूकर मशीनें बाद में कोयला, पेट्रोलियम और फिर बिजली से चलने लगी। आज भिन्न-भिन्न ऊर्जा स्रोतों से पैदा की गयी बिजली मशीनों के संचालन का मुख्य स्रोत है।
लेकिन औजार और औजारों के जटिल योग वाली मशीनें अपने सारतत्व में अभी तक वही थीं; इंसानी हाथ का विस्तार। पर अब कृत्रिम बुद्धि के साथ इसमें बुनियादी परिवर्तन आ रहा है। जहाँ एक ओर मशीनें अभी भी इंसानी दिमाग और हाथ की उत्पाद बनी रहेंगी (आखिर कृत्रिम बुद्धि और उनसे लैस रोबोट भी इंसानी उत्पाद ही हैं) वहीं दूसरी ओर उनकी अपनी स्वगति भी होगी। इंसानी दिमाग और हाथ पर निर्भरता किन्हीं मामलों में कम होकर महत्वहीन होने की ओर जा सकती है। रोबोट से रोबोट का निर्माण किया जा सकता है।
इनसे दो-तीन स्तर के सवाल पैदा हो जाते हैं। पहला और सबसे ऊँचे स्तर का सवाल तो यही है कि क्या पैसे और प्रतियोगिता से संचालित हो रही वर्तमान अराजक पूंजीवादी व्यवस्था कृत्रिम बुद्धि के इस विस्फोटक विकास से पैदा होने वाली सभ्यतागत चुनौतियों से निपटने में सक्षम है? दूसरा क्या इससे पैदा होने वाली भयानक बेरोजगारी का वर्तमान व्यवस्था में कोई समाधान है? तीसरा इससे देशों के बीच और देशों के भीतर जो तकनीकी खाई पैदा होगी उसका क्या होगा?
पहले सवाल को लें तो वर्तमान व्यवस्था के सारे चिंतकों को जरा भी नहीं सूझ रहा है कि कृत्रिम बुद्धि का जो विकास हो रहा है उसे भस्मासुर बनने से कैसे रोका जाये। पूंजीवाद में सारे तकनीकी विकास की तरह कृत्रिम बुद्धि की तकनीक का विकास भी पैसे के लिए और आपसी प्रतियोगिता के जरिये हो रहा है। यह अलग बात है, कि इसके पीछे का बुनियादी विज्ञान या यहाँ तक कि बुनियादी तकनीक भी अकसर सरकारी-सार्वजनिक क्षेत्र में विकसित होती है। लेकिन आज जिस तरह से सरकारें निजी क्षेत्र के विकास को समर्पित हैं उसे देखते हुए यह जरा भी अचरज की बात नहीं है कि यह बुनियादी तकनीक निजी क्षेत्र को मुनाफा कमाने के लिए सौंप दी जाती है। पैसे और प्रतियोगिता के जरिये विकसित हो रही तकनीक का उद्देश्य मुनाफा कमाना ही हो सकता है। और मुनाफे को भस्मासुर पैदा होने की चिन्ता नहीं हो सकती।
ऐसे में कुछ पूंजीवादी चिन्तकों को कुछ और नहीं सूझता सिवाये इसके कि इस तरह के आविष्कारों पर एक सीमा के आगे प्रतिबन्ध लगा दिये जायें। चूंकि नयी तकनीक को भस्मासुर बनने से नहीं रोका जा सकता इसलिए ज्यादा बेहतर यही होगा कि तकनीक का इतना विकास न होने दिया जाये।
पर बिना निरंतर तकनीकी विकास के पूंजीवाद चल ही नहीं सकता। तकनीकी विकास के जरिये ही पूंजीपति आपस में और मजदूरों से लड़ पाते हैं क्योंकि इसी के जरिये वे नये माल के साथ नयी मांग पैदा कर पाते हैं और पुराने मालों को और सस्ती कीमत पर पैदा कर ज्यादा मुनाफे में बेच पाते हैं। आपसी प्रतियोगिता में तकनीकी विकास पूंजीपतियों का एक प्रमुख औजार है। इसलिए तकनीकी विकास पर प्रतिबंध पूंजीवादी व्यवस्था की एक प्रमुख चालक शक्ति पर प्रतिबन्ध होगा।
दूसरे यह कि समाज का सारा विकास अंततः नयी तकनीक और नयी मशीनों के आविष्कार पर टिका होता है। ऐसे में नयी तकनीक के आविष्कार पर रोक का मतलब है समाज के अग्रिम विकास पर रोक। समाज को ठहराव में धकेल देना। पूंजीवाद जैसा अराजक समाज इस ठहराव को जरा भी नहीं झेल सकता।
ये चीजें दिखाती हैं कि तकनीकी भस्मासुर के पैदा होने के मामले में पूंजीवादी व्यवस्था की स्थिति आगे कुँआ, पीछे खाई जैसी है। यानी उसके पास कोई सार्थक विकल्प नहीं है।
आज के पूंजीवादी समाज की यह स्थिति एक बार फिर उसी चीज को ज्यादा गहरे ढंग से रेखांकित करती है जो एक लम्बे समय से स्पष्ट है। वह यह कि यह समाज स्वयं अपने द्वारा पैदा किये गये परिणामों का सामना करने में अक्षम है। निजी संपति और मुनाफे वाली यह अराजक व्यवस्था चीजों को इस तरह से संचालित नहीं कर सकती कि वे पूरे समाज के अस्तित्व के लिए ही खतरा ना बन जाये। केवल सार्वजनिक हित में संचालित योजनाबद्ध ढंग से चलने वाली समाज व्यवस्था ही इस तरह की समस्याओं का सामना कर सकती है। केवल ऐसी समाज व्यवस्था ही यह सुनिश्चित कर सकती है कि तकनीक का लगातार विकास हो और वह समाज के लिए भस्मासुर भी न बने।
एक दूसरे उदाहरण से इसे आसानी से समझा जा सकता है। पिछले आठ दशक से परमाणु युद्ध का खतरा भयानक तरीके से सारी दुनिया में मंडरा रहा है। लेकिन यह खतरा क्यों है? क्योंकि दुनिया देशों में विभाजित है और इन देशों के शासक आपस में युद्ध की हद तक प्रतियोगितारत हैं। लेकिन ऐसी दुनिया में जिसमें न तो शासक हों और न शासित और न जहाँ देशों का विभाजन हो वहाँ युद्ध नहीं होगा। और युद्ध नहीं होगा तो परमाणु युद्ध भी नहीं होगा। परमाणु तकनीक का सारा इस्तेमाल केवल समाज के भले के लिए ही होगा।
परमाणु युद्ध के खतरे का यह उदाहरण यूं ही नहीं है। परमाणु तकनीक के साथ बायो तकनीक और कृत्रिम बुद्धि ही वे तीन तकनीकी क्षेत्र हैं जिनके बारे में बात होती है कि ये मानव सभ्यता के सामने अस्तित्व का खतरा पैदा कर रहे हैं। ऐसे में उसके उदाहरण के जरिये आसानी से समझा जा सकता है कि कैसे तकनीकी विकास को भस्मासुर बनने से रोका जा सकता है।
अब दूसरे स्तर पर मानें तो इसमें दो राय नहीं कि कृत्रिम बुद्धि के साथ रोबोटिकल आज की बड़े स्तर की बेरोजगारी को अत्यंत विकराल बना देगा। अभी ही सारे समाजों में करीब एक चौथाई आबादी या तो बेरोजगार है या फिर सार्थक रोजगार से वंचित है। ऐसे में बेरोजगारी का यह नया बोझ अत्यंत विकराल परिस्थितियां पैदा करेगा। एक उदाहरण से इसे समझा जा सकता है। भारत में ट्यूशन और कोचिंग एक बड़ा धन्धा है। लाखों नहीं बल्कि करोड़ों लोग इससे अपनी आजीविका चला रहे हैं। ऐसे में यदि ब्ींजळच्ज् जैसे ऐप से छात्र पढ़ाई में मदद लेने लगेंगे तो ये सारे लोग बेरोजगार हो जायेंगे। अभी से ही बाबुओं और पत्रकारों के पेशे पर इसके गंभीर असर की चर्चा होने लगी है।
यह विकराल होती बेरोजगारी भयंकर बदहाली तथा समाज में बड़े स्तर के तनाव-विग्रह को जन्म देगी। आज जो कुछ देखने में आ रहा है वह नये स्तर पर चला जायेगा।
लेकिन व्यवस्था में ऐश कर रहे लोग यह कहेंगे कि इस तरह रोने-धोने की जरूरत नहीं। नयी तकनीक के साथ जीवन स्तर बेहतर होगा। समाज में उपभोग की नयी-नयी चीजें पैदा होंगी और जीवन शैली भी बेहतरी की ओर बदलेगी। किसी हद तक यह बात सच है। पर किसी हद तक ही क्योंकि यह समाज के धनी-मानी लोगों के लिए ही सच है। पूंजीवाद का समूचा इतिहास यह दिखाता है कि तकनीक का हर विकास मजदूर-मेहनतकश आबादी पर बोझ बढ़ाने का ही साधन बनता है। वह उनके शोषण को बढ़ाने का साधन ही बनता है। वह पूंजी की उनकी गुलामी की जंजीरों को और मजबूत करता है। कृत्रिम बुद्धि की इस नयी तकनीक के साथ भी यही होगा। यह देशों के बीच और देशों के भीतर विभेद को और बढ़ा देगा। यह उनके बीच की खाई को और बढ़ा देगा। इसीलिए यह वंचना बोध को भी और गहरा कर देगा।
वर्तमान में भांति-भांति के संकटों से ग्रस्त पूंजीवादी व्यवस्था क्या इन सबको झेल पायेगी? क्या कृत्रिम बुद्धि तकनीक का विस्फोट ऊँट के ऊपर आखिरी तिनका तो साबित नहीं होगा? आने वाले कुछ सालों में इनके जवाब स्पष्ट होंगे।
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