छात्र-नौजवानों की बढ़ती आत्महत्याएं और जातिगत भेदभाव
केंद्रीय विश्वविद्यालयों में छात्रों की आत्महत्या बढ़ती जा रही हैं। देश के चोटी के नामी-गिरामी सरकारी शिक्षण-संस्थानों में छात्र अपना जीवन समाप्त कर ले रहे हैं। पढ़ाई की उम्र में छात्रों की आत्महत्या शिक्षण संस्थानों और समाज के लिए चिंता का कारण है।
केंद्र सरकार ने संसद में मार्च 2023 में एक सवाल के जवाब में कहा कि भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान (एनआईटी) और भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम) में 2018-2023 की शिक्षण अवधि के दौरान 61 छात्रों ने आत्महत्या की। यह आईआईटी में 33, एनआईटी में 24, आईआईएम में 4 छात्रों ने आत्महत्या की है।
देश के चोटी के शिक्षण संस्थानों में आत्महत्या का यह आंकड़ा कोई नया और नई बात नहीं है। दिसंबर 2021 में सरकार ने लोकसभा में बताया था केंद्र सरकार के तहत उच्च शिक्षण संस्थानों में नामांकित 122 छात्रों ने 2014 से 2021 के बीच आत्महत्या की। यह मोदी सरकार के आने के बाद हुई आत्महत्याओं का आंकड़ा है। शिक्षण संस्थानों में जातिगत भेदभाव की भी कमी नहीं है। इन 122 छात्रों में से 24 अनुसूचित जाति, 3 अनुसूचित जनजाति, 41 अन्य पिछड़ा वर्ग और तीन छात्र अल्पसंख्यक समुदाय से थे। इनमें से केंद्रीय विश्वविद्यालयों के 37 छात्र, आईआईटी के 34 छात्र, एनआईटी के 30 छात्र, भारतीय विज्ञान संस्थान बैंगलोर और आईआईएसईआर (इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एजुकेशन एंड रिसर्च) के 9 छात्र, आईआईटी के 5 छात्र, आईआईआईटी (इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ इंर्फाेमेशन टेक्नोलॉजी) के 4 छात्र, एनआईटीआईई (नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ इंडस्ट्रियल इंजीनियरिंग) के 3 छात्र थे। यह देश के चंद शिक्षण संस्थानों का हाल है। बहुसंख्यक संस्थाओं का तो इसमें जिक्र तक नहीं है।
शिक्षा के केंद्रों में इस तरह छात्रों की बढ़ती आत्महत्याओं ने शिक्षण केंद्रों व समाज की सच्चाई को सामने रख दिया है। छात्रों का एक वर्ग इनमें तनाव और घुटन का शिकार है। शिक्षा किसी भी समाज का दर्पण मानी जाती है। शिक्षा समाज को उसके इतिहास, वर्तमान और समाज की चुनौतियों से रूबरू करवाती है। समाज को भेदभाव, ऊंच-नीच, गैरबराबरी, वर्ग आदि से ऊपर उठाकर संकीर्णताओं को खत्म करने का माध्यम होती है। लेकिन हमारे यहां भारतीय समाज में शिक्षा इस तरह के मूल्यों से छात्रों और समाज का निर्माण नहीं करती है। बल्कि समाज में और शिक्षा के द्वारा भी इस तरह की मूल्य-मान्यताएं बरकरार रखी जाती हैं। यह समाज में उत्पीड़न की वजह बनती हैं।
हमारे भारतीय समाज में जाति की समस्या एक सच्चाई है। समाज में ऊपर से लेकर नीचे तक जातिवादी मानसिकता एक कोढ़ की तरह है, यह समाज को जकड़े हुये है। शिक्षा के केंद्र भी इससे अछूते नहीं हैं। समाज में सवर्ण जाति समूह के वर्चस्व का जाल फैला हुआ है। यही जाल शिक्षा के केंद्रों में भी वर्चस्व की तरह मौजूद है। इस वर्चस्व के कारण निम्न जाति के लोगों को यहां तरह-तरह के उत्पीड़न व यातना का शिकार होना पड़ता है। साथ ही आर्थिक गैरबराबरी व इससे पैदा होने वाला भेदभाव भी इनमें मौजूद रहता है।
देश के इन चोटी के शिक्षण-संस्थानों में निम्न जाति के छात्रों के लिए दाखिला पाना बहुत कठिन है। समाज में उत्पीड़ित जन जब उच्च शिक्षा तक पहुंच जाते हैं तो उनके सफल होने पर कईयों की उम्मीदें टिकी होती हैं। लेकिन किसी भी तरह मेहनत-मशक्कत करके छात्र इन संस्थानों में पहुंचते हैं तो यहां उनको सवर्ण छात्रों-शिक्षकों व इस समूह के द्वारा अपमानित और प्रताड़ित किया जाने लगता है। यह इन छात्रों को जातिवादी उत्पीड़न के साथ-साथ उनको तमाम तरह की परेशानियों की ओर धकेलता है।
17 जनवरी 2016 में केंद्रीय विश्वविद्यालय हैदराबाद के पीएचडी के छात्र रोहित वेमुला ने अपनी आत्महत्या के लिए विश्वविद्यालय प्रशासन को जिम्मेदार ठहराया था। साथ ही घोर जातिवादी मानसिकता से लैस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) और मोदी सरकार के मंत्री द्वारा रोहित वेमुला की प्रताड़ना जगजाहिर है। अभी फरवरी माह में आईआईटी मुंबई के बीटेक प्रथम वर्ष के 18 वर्षीय छात्र दर्शन सोलंकी ने हॉस्टल की सातवीं मंजिल से कूदकर अपनी जान दे दी। दर्शन सोलंकी ने भी कॉलेज प्रशासन के जातिवादी भेदभाव के कारण आत्महत्या की। दर्शन सोलंकी की आत्महत्या से मौत पर संस्थान की एक अंतरिम रिपोर्ट ने उनके ‘‘बिगड़ते अकादमिक प्रदर्शन’’ और उनके अंतर्मुखी होने का हवाला देते हुए उनके परिवार द्वारा की गयी जाति आधारित भेदभाव की शिकायत को खारिज कर दिया। इसी तरह टोपीवाला नेशनल मेडिकल कॉलेज की छात्रा पायल तड़वी ने उच्च जाति के छात्रों द्वारा सतत भेदभाव और सताए जाने की शिकायत कॉलेज प्रशासन से की थी। जातिवादी भेदभाव का शिकार होकर आत्महत्या की। इस तरह निम्न जाति से आने वाले कई छात्रों ने आत्महत्या की हैं। यह छात्रों की आत्महत्या नहीं बल्कि जातिवादी मानसिकता के कारण संस्थानिक हत्याएं हैं।
शिक्षा मंत्रालय की तरफ से संसद में पेश किए गए एक आंकड़े के मुताबिक खड़गपुर, इंदौर, दिल्ली, गांधीनगर, तिरुपति, मंडी और भुवनेश्वर के आईआईटी में ज्यादातर छात्र उच्च श्रेणी से आते हैं। इन आईआईटी में पीएचडी के लिए उच्च जाति के छात्रों का आवेदन व एससी जाति के छात्रों का आवेदन, में कितनों का एडमिशन हुआ।
अभी सरकार द्वारा संसद में दिये गए एक आंकड़े के अनुसार 45 केंद्रीय विश्वविद्यालयों, आईआईटी और आईआईएम में एससी/एसटी/ओबीसी के 2018 से 2023 तक इन पाँच वर्षों के दौरान 19,256 छात्रों ने पढ़ाई छोड़ दी। जाहिर है इतनी बड़ी संख्या में निम्न जाति से पढ़ाई छोड़ने वाले छात्र मुख्यतः जातिगत उत्पीड़न का समय-समय पर शिकार होते रहते हैं। इसमें आर्थिक कारण भी मौजूद रहे हैं।
शिक्षण संस्थानों की फैकल्टी में भी यह जातिगत भेदभाव नजर आता है। 2022 में संसद में एक रिपोर्ट में बताया गया- पक्षपातपूर्ण रवैया और भेदभाव के कारण एम्स में एमबीबीएस करने वाले अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के छात्रों को बार-बार परीक्षा में फेल किया जाता है। रिपोर्ट में कहा गया एससी/ एसटी के छात्रों ने थ्योरी परीक्षाओं में अच्छा प्रदर्शन किया था लेकिन प्रैक्टिकल परीक्षाओं में उनको असफल घोषित कर दिया गया।
आईआईटी मुंबई एससी/एसटी छात्र प्रकोष्ठ जिसमें छात्र सदस्य व शिक्षक संयोजन के रूप में हैं। छात्र प्रकोष्ठ द्वारा जून में किए गए एक मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण में पाया कि परिसर में आरक्षित श्रेणी के छात्रों द्वारा सामना की जाने वाली मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं के लिए जातिगत भेदभाव एक ‘‘केंद्रीय कारण’’ है। सर्वेक्षण में यह भी पाया गया कि एससी/एसटी के लगभग एक चौथाई छात्र मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से पीड़ित थे। जबकि उनमें से 7.5 प्रतिशत ने ‘‘गंभीर मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का सामना किया और खुद को नुकसान पहुंचाने की प्रवृत्ति प्रदर्शित की’’। छात्र आरक्षण के ‘‘क्लेश’’ से बचने के लिए अपनी पहचान छुपाना पसंद करते हैं। इसमें छात्रों ने प्रोफेसरों के जातिगत और भेदभाव पूर्ण रवैये को उनके मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों के कारण के रूप में पहचाना।
यह जातिगत भेदभाव नौकरियों में भी पाया जाता है। शिक्षा मंत्रालय की ओर से जारी आंकड़ों के मुताबिक देशभर में केंद्रीय विश्वविद्यालयों, आईआईटी और आईआईएम में प्रोफेसरों के 11,000 से अधिक पद खाली हैं। एससी/एसटी/ ओबीसी के पद ‘मिशन मोड’ में भरने के बाद भी लगभग 30 प्रतिशत पद ही भर पाये। देशभर में 23 आईआईटी और 45 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में 5 सितंबर 2021 से 5 सितंबर 2022 तक 1 साल के भर्ती अभियान के बाद 1439 पदों की पहचान की गई थी। सिर्फ 449 पदों की भर्ती की गई।
छात्रों की आत्महत्या का सिलसिला यहीं नहीं रुकता है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की एक्सीडेंटल डेथ्स एंड सुसाइड इन इंडिया (एडीएसआई) की रिपोर्ट के अनुसार 2020-21 में कोविड-19 महामारी के दौरान छात्रों की आत्महत्या के मामलों में भारी वृद्धि हुई थी। और यह पिछले 5 वर्षों से लगातार बढ़ रही हैं। इस रिपोर्ट के अनुसार 2020 में 12,526 छात्रों की मृत्यु हुई थी। 2021 में यह 4.5 प्रतिशत की वृद्धि के साथ प्रतिदिन औसतन 35 से अधिक छात्रों की मृत्यु और पूरे वर्ष में 13,000 से अधिक मौत हुई थी। जिसमें 10,732 आत्महत्याओं में से 864 का कारण ‘‘परीक्षा में विफलता’’ थी। इसी रिपोर्ट के अनुसार छात्राओं की आत्महत्या का प्रतिशत 43.49 प्रतिशत और छात्रों की आत्महत्या का 56.51 प्रतिशत थी। 2017 में 9905 छात्रों ने आत्महत्या की थी। इन 4 वर्षों में 33 प्रतिशत के आसपास की भारी बढ़ोतरी हुई है। 2021 में महाराष्ट्र में सबसे अधिक 1834 आत्महत्या थी। इसके बाद मध्य प्रदेश और तमिलनाडु का स्थान था।
रोजगार के सीमित अवसरों और गलाकाटू प्रतियोगिता ने छोटी उम्र मंे छात्रों को कोचिंग संस्थानों की ओर धकेला है। इन कोचिंग संस्थानों में छात्र प्रतियोगिता के दबाव में पढ़ाई से ज्यादा तनाव का शिकार हैं। और इस तनाव से अपने जीवन को समाप्त कर ले रहे हैं। कोचिंग हब के नाम से मशहूर कोटा में 2022 में 22 व 2011 से 121 छात्र इस भीषण प्रतियोगिता की भेंट चढ़ चुके हैं। इस पूंजीवाद की तीखी प्रतियोगिता में छात्रों पर अच्छे नंबर, रैंकिंग लाने का दबाव रहता है यह भी उनको तरह-तरह के मानसिक रोग से गुजारता है।
बेरोजगारी की भयावहता समाज में बढ़ती जा रही है। नौजवानों की आत्महत्या का एक प्रमुख कारण यह भी है। 2018 से 2020 तक 9140 नौजवानों ने बेरोजगारी की वजह से आत्महत्या की। 2014-2020 के दौरान इन 6 वर्षों में बेरोजगारी की वजह से आत्महत्या करने वाले नौजवानों में 60 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई थी। 2019 में पिछले 45 सालों में सबसे अधिक बेरोजगारी दर्ज की गई थी। इस समय सबसे अधिक संख्या में आत्महत्या करने वालों में छात्र-नौजवान सबसे ज्यादा हैं। यह आत्महत्यायें मोदी सरकार की पढ़ाई, शिक्षा, रोजगार सबके लिए समुचित बराबरी की व्यवस्था के खोखले दावों की पोल खोल देती हैं। यह आत्महत्याएं नौजवानों को ठंडी मौत सुला रही हैं।
छात्रों की आत्महत्या की घटनाएं हमारे शिक्षण केंद्रों, समग्र समाज सहित समाज की सभी वैधानिक-संवैधानिक संस्थाओं को कठघरे में खड़ा करती हैं। समग्र तौर पर इस पूंजीवादी व्यवस्था को कटघरे में खड़ा करती है।
छात्रों की आत्महत्या के कारणों में, आज मानसिक स्वास्थ्य एक प्रमुख कारणों में है। इसमें वह किसी ना किसी तनाव, अलगाव, अवसाद, चिंता, असफलता, निराशा, अकेलापन, असुरक्षित जीवन आदि का शिकार है। मानसिक स्वास्थ को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाना, काउंसलिंग व मनोचिकित्सकों की व्यवस्था करने सरीखे कुछ नीम-हकीमी सुझाव दिये जाते हैं। समाज के चहुंओर जाति आधारित भेदभाव, ऊंच-नीच, छुआछूत, गैरबराबरी आदि के रहते मानसिक स्वास्थ्य की समस्याएं बरकरार रहेंगी। एक तरफ अम्बानी-अडानी- टाटा-बिड़ला जैसे धनपशु तो दूसरी तरफ करोड़ों-करोड़ वंचित लोग। एक तरफ सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक हर क्षेत्र के स्वयंभू तो दूसरी तरफ पददलित जनता। समाज में व्याप्त इस दोहरेपन को खत्म किये बिना छात्रों-नौजवानों सहित पूरे समाज को जीवन के प्रति आशान्वित नहीं किया जा सकता। इन कारणों को पालने-पोसने वाली यह पूँजीवादी व्यवस्था को खत्म करने का क्रांतिकारी संघर्ष ही एक हिस्से के बतौर शिक्षा व्यवस्था में भी जातिवाद, गैरबराबरी को खत्म करने की राह खोलेगा।
किसी भी अकेले व्यक्ति के लिए इस पूंजीवादी समाज के मकड़जाल को काटने की सीमाऐं हैं। वह ज्यादा से ज्यादा किसी तरह खुद इन धनपशुओं की श्रेणी में पहुंचकर निजी तौर पर तुष्ट हो सकता था। पर आज संकटग्रस्त पूंजीवादी व्यवस्था की गलाकाटू प्रतियोगिता में यह असंभव सा हो गया है। कुछ टूटन के बावजूद जन्म आधारित जाति व्यवस्था में तो यह भी संभव नहीं है। ऐसे में शिक्षा और ज्ञान-विज्ञान, तकनीक के दम पर शिक्षित नौजवानों की सफलता की आशायें रोज ही धूल-धूसरित हो जाती हैं। यह है उच्च शिक्षा में तनाव और आत्महत्या का वास्तविक कारण। इस कारण तक पहुंचते ही हमें समझ आ जाता है कि आत्महत्या की सामाजिक समस्या का समाधान भी सामाजिक है, व्यक्तिगत नहीं।
आत्महत्या की समस्या का सामाजिक समाधान पूरे समाज के पुनर्गठन की मांग करता है। जहां पूरे समाज के साझे प्रयासों से हासिल उपलब्धियों पर मालिकाना भी सामाजिक हो। जहां किसी को निजी तौर पर खुद को साबित कर दिखाने का दबाव न हो। बल्कि वह समाज के सारे ताने-बाने में कुछ भी सकारात्मक भूमिका निभाते हुए सम्मान पाये। वहीं सामाजिक व्यवस्था अपनी बारी में व्यक्तियों के जीवन स्तर को समग्र रूप में ऊपर उठाती हो। जहां जातीय, लैंगिक, क्षेत्रीय, धार्मिक दंभ या कुण्ठा के लिए कोई स्थान न रहे।
आज की सामाजिक समस्याऐं ऐसे ही समाज की मांग करती हैं। जब शहीद भगत सिंह कहते थे कि व्यक्ति द्वारा व्यक्ति और एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र का शोषण नामुमकिन बना दिया जाये। तो वे ऐसे ही समाज की वकालत करते थे। भविष्य के ऐसे समाज का रास्ता समाजवाद से होकर जाता है। भविष्य हमें पुकार रहा है। हमसे मांग कर रहा है कि करोड़ों-करोड़ मेहनतकश जनता के लिए उत्पीड़नकारी इस पूंजीवादी समाज को उखाड़ फेंका जाये। क्रांति के लिए, सुनहरे भविष्य के लिए आइये! क्रांति के लिए उठे करोड़ों हाथ मानवता को मुक्त करने में लगें तो कुछ भी असंभव नहीं। क्रांति हमारी आशा है। क्रांति संभव है। क्रांति ही समाधान है।
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