गुरुवार, 27 अप्रैल 2023

 इतिहास का पाठ्यक्रम बदलने से न अतीत बदल सकता हैे और न भविष्य के तुफान से शासक बच सकते हैं

पिछले दिनों एनसीईआरटी (राष्ट्रीय शिक्षा अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद) द्वारा कक्षा 6 से 12 तक के पाठ्यक्रमों में बदलाव का शिक्षा जगत से खासा विरोध हुआ। सरकार, शिक्षा विभाग और एनसीईआरटी की तरफ से इसे कोरोना काल में पाठ्यक्रम कम करने के फैसले का हिस्सा बताया। हालांकि भारतीय इतिहास के ‘मुगल काल’, लोकतांत्रिक व्यवस्था पर राजनीतिक हमले के ‘आपातकाल’, साम्प्रदायिक हिंसा के भारत विभाजन और गांधी हत्या को लेकर आरएसएस पर लगे ‘प्रतिबंध’, गुजरात दंगों में राज्य के फासीवादी रुख के ‘फासीवादी साम्प्रदायिक व्यवहार’, आदि-आदि को इतिहास, राजनीति, नागरिक शास्त्र में से हटाया गया है। साथ ही सूर्यकांत त्रिपाठी की कविता ‘गीत गाने दो मुझे’ और फिराक गोरखपुरी की ‘रुबाईयां’ हटाई गयी हैं। पाठ्यक्रम में किये गये बदलावों को उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, मध्यप्रदेश सहित सभी भाजपा शासित राज्यों में तुरंत अपना लिया गया।

किसी भी समाज में शिक्षा व्यवस्था उस समाज के शासक गवर्ग के हितों को पूरा करती है। शासक वर्ग के हितों के अनुरूप ही पाठ्यक्रम का निर्माण होता है। यही कारण था कि भारत में शिक्षा देते हुए ब्रिटिश साम्राज्यवादियों का साफ मकसद था कि ‘‘ब्रिटिश शासन के पक्षधर भारतीय तैयार करना’’। यह बात उनसे पूर्व के सामंती शासकों के लिए भी सच थी जब शिक्षा केवल शासक दायरों तक ही सीमित थी। आज मोदी सरकार के हिन्दू फासीवादी शासन में शिक्षा में हो रहे बदलाव ‘‘हिन्दू फासीवादी मानसिकता के छात्र-नौजवान’’ तैयार करने का मकसद रखते है। 

ऐसे में शिक्षा में हो रहे फासीवादी बदलावों का विरोध होना भी उतना ही स्वाभाविक है। किसी की यह शिकायत हो सकती है कि यह विरोध इतना तीखा नहीं है कि शिक्षा में इन फासीवादी बदलावों को वापस करवाने में सफल हो। यदि यह विरोध इतना तीखा भी हो भी जाता है तो केवल मोहलत भर मिलती और आगे अधिक मजबूत संघर्ष के लिए तैयार रहना पड़ता। ऐसा इसलिए कि आज भारतीय पूंजीवादी व्यवस्था अपने इतिहास के सबसे क्रूर दानव हिन्दू फासीवाद के साथ मैदान में है। जिसका मुकाबला केवल समाजवादी क्रांति के विचारों पर खड़े होकर ही किया जा सकता है। यही कारण है कि जहां शासक वर्ग सावरकर को स्थापित करने की कोशिश कर रहा है वहीं बार-बार इसके मुकाबले में शहीद भगत सिंह की क्रांतिकारी विरासत भी समाज में याद की जा रही है।

यहां इतिहास, विज्ञान और साहित्य की सामाजिक बदलावों में भूमिका को समझ लेना जरूरी है। आज पूंजीवादी व्यवस्था का संकट चौतरफा है। भारत में वह हिन्दू फासीवाद के जरिये अपने जीवन काल को बढ़ाने में पुरजोर कोशिश कर रही है। विज्ञान समाज में मौजूद कुपमंडूकता, रूढ़ियों, आध्यात्म से लगातार संघर्ष करते हुए आगे बढ़ता रहा है अपनी बारी में यह समाज में कूपमंडूकता रूढिवाद की जड़ खोद तार्किकता को स्थापित करता रहा है। इतिहास का अध्ययन यह बतलाता है कि समाज लगातार बदलता रहा है और आगे की ओर विकास करता रहा है। कि शासक कितने ही ताकतवर, अत्याचारी क्यों न हों एक न एक दिन उनका अंत अवश्य होता है। साहित्य किसी समाज में मौजूद अंतरविरोधों की तस्वीर जनता के सामने प्रस्तुत कर बदलाव के लिए भावनात्मक रुप से प्रेरित करने का काम करता है। आज मोदी सरकार पाठ्यक्रम से वैज्ञानिकता-तार्किकता, इतिहास से मुस्लिम शासकों के साथ अपने कुकर्मो, दंगों के इतिहास, साहित्य से प्रगतिशीलता को हटाना चाह रही है। इस सबके जरिये वह इतिहास की अग्रगति को रोकने की कोशिश कर रही है। उसकी यह कोशिश उसी तरह असफल होने को अभिशप्त है जैसे हिटलर की विश्व विजय की कोशिश थी।

शासक वर्ग जीवन की भौतिक समस्याओं से ध्यान हटाकर मेहनतकश जनता को भ्रमित करता है। वह मजदूरों को मालिकों से हक-हकूक की लड़ाई लड़ने से रोकता है। आज कानून, पुलिस, सरकार इसमें एड़ी-चोटी का जोर लगाए हुए है। वह किसानों को कॉरपोरेट पूंजी के हमलों के खिलाफ लड़ने से रोकता है। वह महिलाओं को सामंती जकड़बंदी और उपभोक्तावादी संस्कृति की पोषक व्यवस्था से लड़ने के बजाए घर का रास्ता दिखलाता है। वह छात्र-नौजवानों को सभी मेहनतकशों के पक्ष में खड़े होने के खिलाफ तैयार करता है। वह दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों को इतना असहाय कर देता है कि वे सम्मानजनक जीवन के लिए मोहताज बना दिये जाएं। इस भ्रम को फैलाते हुए शासक वर्ग नकली शत्रु पैदा करता है। वह समाज में मेहनतकशों को ही आपस में एक-दूसरे के शत्रु की तरह पेश करता है। भ्रम में फंसे हुए मेहनतकश अपने ही वर्ग मित्रों को ‘‘दुश्मन’’ मान बैठते हैं। लेकिन भ्रम कोई स्थायी चीज नहीं है, वह दूर होगा। भ्रम को दूर करने की जिम्मेदारी क्रांति के लिए लामबंद छात्रों-नौजवानों सहित मेहनतकश जनता की है।

यह सत्य है कि पाठ्यक्रमों से इतिहास नहीं बनाये जाते। इतिहास बनते हैं तो पाठ्यक्रम तैयार किये जाते हैं। भारत के फासीवादी शासक इतिहास निर्माता नहीं हैं। ये हिटलर- मुसोलिनी की तरह इतिहास के कलंकित पहलू भर हैं। एनसीईआरटी के जरिये पाठ्यक्रम में हालिया फासीवादी बदलाव के खिलाफ पुरजोर आवाज उठाना जरूरी है। फासीवादियों को चुनौती देते हुए ही इनके काले इरादों के खिलाफ लड़ने के लिए छात्रों-नौजवानों, मेहनतकशों को लामबंद किया जा सकता है। मेहनतकश जनता ने समाजवादी क्रांति कर इतिहास में अपनी भूमिका को दर्ज किया है। समाजवाद का ‘‘भूत’’ शासक वर्ग को इसीलिए सताता है। शासक खुद को इतिहास के निर्माता के रूप में महिमामंडित करते हैं जबकि इतिहास की वास्तविक निर्माता मेहतनकश जनता ही रही है। वह सोवियत संघ समेत दुनिया की मेहनतकश जनता ही थी जिसने हिटलर को धूल चटाई। व भारत की मेहनतकश जनता ही थी जिसने अंग्रेज शासकों को देश से बाहर भगाया। आज भी खुद को महिमामंडित करने वाले मोदी-शाह और उनके हिन्दू फासीवाद को धूल चटाने और समाजवादी क्रांति के जरिये इतिहास को आगे बढ़ाने का काम भारत की मेहनतकश जनता ही करेगी। 

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