कहानी दो कम्पनियों की
एक ही देश, एक ही सरकार, एक ही प्रधानमंत्री और एक ही समय में दो कम्पनियों से दो व्यवहार। संकटग्रस्त दो कम्पनियों में एक को बचाने के लिए सरकार अपने खजाने का मुंह खोल देती है और दूसरी कम्पनी को अपनी मौत मरने के लिए छोड़ देती है। मजे की बात यह है कि जिस कम्पनी को बचाने के लिए सरकार अपने खजाने का मुंह खोलती है वह देशी-विदेशी मालिकाने वाली निजी कम्पनी है और जिसको अपनी मौत मरने के लिए छोड़ दिया जाता है वह एक सरकारी कम्पनी है। पहली कम्पनी का नाम ‘वोडाफोन आइडिया’ (VI) है तो दूसरी कम्पनी का नाम ‘भारत संचार निगम लिमिटेड’ (BSNL) है।
पहली कम्पनी के पास इस वक्त करीब 25 करोड़ उपभोक्ता हैं और दूसरी कम्पनी के भी ऐसे कम उपभोक्ता नहीं हैं। करीब 13 करोड़ उपभोक्ता उसकी गिरती हुई हालत के बावजूद भी हैं। पहली कम्पनी ने पिछले एक साल में करीब दस फीसदी उपभोक्ता खोये हैं और दूसरी कम्पनी ने कितने उपभोक्ता खोये हैं इसकी ठीक-ठीक गणना तो फिलवक्त नहीं है परन्तु हर कोई जानता है कि बी.एस.एन.एल. के उपभोक्ता रोज उसका साथ छोड़ रहे हैं।
कोई ऐसा भी समय था कि बी.एस.एन.एल. का डंका बजता था और उससे पहले वह कोई सरकारी लिमिटेड कम्पनी नहीं थी बल्कि वह भारत सरकार का एक विभाग होती थी। एक दशक पहले तक भी भारत में बी.एस.एन.एल. का दर्जा काफी ऊंचा था। एक दशक पहले तक भी भारत में इस क्षेत्र में 15 कम्पनियां थीं। और फिर कुछ ऐसा हुआ कि आज भारत में इस क्षेत्र में सिर्फ चार कम्पनियां रह गयी हैं। रिलायंस जिओ, एयरटेल, वोडाफोन-आइडिया का इस क्षेत्र के बाजार के 90 फीसदी पर कब्जा है। बीएसएनएल के पास बाजार का सिर्फ 10 फीसदी है और कई-कई किस्म की सस्ती योजनाओं के बावजूद यह सिकुड़ता जा रहा है। बीएसएनएल के कर्मचारी बहुत हाथ-पांव मार रहे हैं। पर उनकी सारी कोशिशें उसका पतन नहीं रोक पा रही हैं।
बीएसएनएल यदि एक सरकारी कम्पनी है तो इस वक्त वोडाफोन-आइडिया भी एक ऐसी ही कम्पनी बन गयी है। जिसमें सबसे बड़ा हिस्सा सरकार के पास है। वोडाफोन आइडिया में 38.8 प्रतिशत हिस्सा भारत सरकार के पास तो 28.5 प्रतिशत वोडाफोन तो 17.8 प्रतिशत बिड़ला के पास है। इन तीनों के पास इस कम्पनी के 85.1 फीसदी शेयर हैं। और मजे की बात यह है कि इस कम्पनी में भारत सरकार की सबसे ज्यादा हिस्सेदारी होने के बावजूद वह इस कम्पनी का संचालन नहीं करेगी। इसका संचालन वोडाफोन (जो कि एक विदेशी कम्पनी है) और आइडिया (जो कि कुमार मंगलम बिड़ला की कम्पनी है) मिलकर करेंगे। इसे कहते हैं दरियादिली कि सबसे ज्यादा हिस्सेदारी भारत सरकार के पास होने के बावजूद वह इस कम्पनी को नहीं चलायेगी। इस कम्पनी को वही चलायेंगे जिन्होंने इस कम्पनी को डूबने के कगार पर पहुंचा दिया था। सरकार के (नहीं! नहीं! जनता के) पैसे से एक निजी कम्पनी चलेगी।
वोडाफोन-आइडिया कम्पनी पर 1,94,000 करोड़ रुपये का कर्ज था। इस कर्ज की भरपायी कैसे हो इसका तरीका मोदी सरकार ने इस तरह से निकाला कि उसने इस कम्पनी के कर्जों की भरपाई अपने खजाने से कर दी और कहने को इसके बदले में उसे कम्पनी के 38.8 फीसदी शेयर मिल गये। और इस तरह वोडाफोन-आइडिया नामक कम्पनी डूबने से बच गयी। इसे कहा जाता है- घाटा सार्वजनिक, मुनाफा निजी। यानी जब तक ये कम्पनियां मुनाफा कमाती रही तब तक वह वोडाफोन और आइडिया के मालिकों की जेब में जाता रहा परन्तु जब घाटा होने लगा तो मोदी सरकार ने अपने खजाने के मुंह खोलकर उसका सारा घाटा उठा लिया। ये कम्पनियां जब वित्तीय संकट में फंसती हैं तो सरकार इनके लिए एक खास योजना लेकर आती है जिसे सरकारी भाषा में कहा जाता है ‘समायोजित सकल राजस्व’ (ए जी आर)। इसके तहत मोदी सरकार ने वोडाफोन-आइडिया के कर्जों के ब्याज और स्पेक्ट्रम सम्बन्धी बकायों के बदले इस डूबती कम्पनी के हिस्से खरीद लिये। यह योजना मोदी सरकार के ‘लॉकडाउन’ के दौरान घोषित राहत पैकेज का हिस्सा रही है।
और आगे क्या होगा। अभी तो इस कम्पनी में सबसे ज्यादा हिस्सेदारी होने के बावजूद मोदी सरकार ने इसके संचालन से इंकार कर दिया फिर आगे चलकर वह अपनी हिस्सेदारी को विनिवेशीकरण के नाम पर वापस इन देशी-विदेशी कम्पनियों को बेच देगी। जब तक इन्हें घाटा रहेगा तब तक मोदी सरकार जनता के खजाने को लूटकर इन देशी-विदेशी कम्पनियों की सम्पत्ति और मुनाफे की रक्षा करेगी और जब इन्हें फायदा होने लगेगा तो अपने शेयरों को औने-पौने दामों में बेच देगी। यानी विनिवेशीकरण के नाम पर इन देशी-विदेशी कम्पनियों को ही चांदी काटने को मिलेगी। अच्छे वक्त में अपने आप मुनाफा पीटो और बुरे वक्त में मोदी सरकार भरपायी करेगी।
एयर इण्डिया का उदाहरण पूरे देश के सामने है कि कैसे मोदी सरकार ने अरबों-खरबों की सम्पत्ति वाली एयर इण्डिया को चंद करोड़ रुपये में टाटा को बेच दिया। और ये टाटा वही हैं जिन्होंने 2019 के चुनाव में मोदी के चुनाव प्रचार के लिये एक चैनल ही खोल दिया था। यह चैनल रात-दिन मोदी के भाषणों का प्रचार करता था। चुनाव खत्म होते ही चैनल का प्रसारण बंद हो गया। किसी को नहीं पता किन नियमों के तहत चैनल खुला और किन नियमों के तहत चैनल बंद हो गया। मोदी के रात-दिन प्रचार के लिये चैनल खोलने वाले रतन टाटा को इसका सीधा लाभ लगभग मुफ्त में मिले ‘एयर इण्डिया’ के रूप में मिला।
यही बात रिलायंस जिओ के मालिक मुकेश अम्बानी के बारे में भी कही जा सकती है। अपनी कम्पनी का प्रचार करने के लिये इस आदमी ने बड़े अधिकार के साथ प्रधानमंत्री की फोटो ही लगा दी। मानो वह देश के प्रधानमंत्री न होकर मुकेश अम्बानी द्वारा अपने माल के प्रचार के लिये खरीदे गये कोई लोकप्रिय अभिनेता हों। इधर रिलायंस जियो का सितारा ऊपर चढ़ता गया उधर बीएसएनएल सहित कई कम्पनियों का सितारा डूबता गया।
भारत का टेलीकम्युनिकेशन बाजार दुनिया में चीन के बाजार के बाद का दूसरा सबसे बड़ा बाजार है। विकीपीडिया के अनुसार भारत में करीब 118 करोड़ कनेक्शन (मोबाइल और लैण्डलाइन) 31 जनवरी 2021 तक थे। और इसी तरह करीब 75 करोड़ इण्टरनेट उपभोक्ता हैं।
इण्टरनेट और मोबाइल कम्युनिकेशन के क्षेत्र में आज देश की सबसे बड़ी कम्पनी जियो बन चुकी है। एयरटेल और वोडाफोन-आइडिया क्रमशः दूसरे व तीसरे स्थान पर है। बीएसएनएल का दबदबा लैण्डलाइन के मामले में अभी तक रहा है पर यह एक ऐसा क्षेत्र है जिसका आकार लगातार सिकुड़ता गया है। निजी क्षेत्र की कम्पनियां सरकारी प्रोत्साहन के जरिये ही फूलती-फलती रही है। और बीएसएनएल की हालत सरकारी उपेक्षा व धनाभाव के कारण ही हुयी है।
भारत के टेलीकाम बाजार की कहानी हर उस क्षेत्र की तरह ही है जहां निजी और सरकारी-सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियां काम करती रही हैं। निजी क्षेत्र का सारा विकास सरकारी-सार्वजनिक क्षेत्र का बंटाधार करके किया गया है। यह बात बैंकिंग से लेकर रक्षा क्षेत्र सभी जगह लागू होती है। इस तरह निजी क्षेत्र के पूंजीपतियों की दौलत में, वह भी खासकर बड़े-बड़े एकाधिकारी पूंजीपतियों की दौलत में तीव्र से तीव्र प्रगति होती है। और यह प्रगति ऐसे काल में भी होती रही है जब अर्थव्यवस्था गम्भीर संकट का शिकार रही है। ‘लाकडाउन पीरियड’ में भी अम्बानी, अडाणी, टाटा, मित्तल, बिड़ला, आदि बड़े-बड़े पूंजीपतियों की दौलत में तेजी से वृद्धि हुयी है।
विश्व आर्थिक मंच (ॅम्थ्) की जनवरी 2022 की बैठक में गैर सरकारी संस्था ऑक्सफाम इण्टरनेशनल की रिपोर्ट भारत के सन्दर्भ में कहती है कि भारत में वर्ष 2020 में अरबपतियों की संख्या 102 थी जो कि 2021 में बढ़कर 142 हो गई। और देश के उच्च दस प्रतिशत आबादी के पास देश की सम्पत्ति का लगभग आधा हिस्सा (45 प्रतिशत) है। इस बात को समझाते हुए यह रिपोर्ट कहती है कि देश के 98 व्यक्तियों के पास देश की 55.2 करोड़ आबादी की कुल सम्पत्ति के बराबर सम्पत्ति है। साम्राज्यवादी देशों के पैसों से पलने वाली मानवतावादी चोले को ओढ़े हुए ऑक्सफाम की रिपोर्ट यहां तक कहती है कि देश के सबसे अमीर दस आदमियों के पास जो कुल सम्पत्ति है उससे भारत के प्राइमरी, माध्यमिक और उच्च शिक्षा में जो कुल खर्च होता है, उसे 25 वर्षों तक आसानी से पूरा किया जा सकता है।
देश के पहले दस अमीर आदमियों में रिलायंस जियो के मालिक मुकेश अम्बानी पहले नम्बर पर हैं तो आइडिया कम्पनी के मालिक कुमार मंगलम बिड़ला 9 वें नम्बर पर हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार कुमार मंगलम बिड़ला के परिवार के पास 1,22,200 करोड़ रुपये की सम्पत्ति है वह भला क्यों नहीं बैंकों के कर्जों को चुकाता है।
असल में मुकेश अम्बानी से लेकर बिड़ला तक अमीर बनते ही हैं शोषण-लूट-ठगी करके। मोदी हो या किसी और की सरकार हो वह इन्हें तरह-तरह से उद्योगों के प्रोत्साहन के नाम पर करों में छूट देने से लेकर बेहद आसान शर्तों पर कर्ज देती है। कर्ज लेकर ये उसे हजम कर जाते हैं। ‘ऋण लो और घी पीओ’ की कहावत तो इन अमीर ठगों पर ही सबसे ज्यादा लागू होती है। ये अमीर ठग सरकार को टैक्स देने में बदमाशी करते हैं वह इसलिए कि मोदी जैसे राजनेता सरकार चलाते ही इनके लिए हैं। ये अमीर ठग बैंकों का कर्ज नहीं लौटाते हैं क्योंकि सरकारी बैंक तो इनकी चाकर सरकार के ही हैं। ये अमीर ठग उपभोक्ताओं को रात-दिन चूना लगाते हैं पर बेचारे उपभोक्ता क्योंकि संगठित नहीं हैं अतः वे कुछ नहीं कर सकते हैं। वे लुटते जाते हैं और ये अमीर और अमीर होते जाते हैं।
जिस तरह से मोदी सरकार ने वोडाफोन-आइडिया कम्पनी का अधिग्रहण करके उसे बचाया है उसी तरह से दुनियाभर में सरकारों ने अलग-अलग बड़ी-बड़ी कम्पनियों को संकट के समय बचाया है। इनकी सूची बड़ी लम्बी है परन्तु कुछेक की तो चर्चा की ही जा सकती है जिससे यह समझा जा सके कि कैसे सरकारें निर्लज्ज ढंग से पूंजीपतियों की सेवा करती हैं। वह पहले इन कम्पनियों का अधिग्रहण करती हैं और फिर उन्हीं या दूसरे पूंजीपतियों को औने-पौने दामों में बेच देती हैं। सरकारों के पास शिक्षा, स्वास्थ्य पर पैसा खर्च करने को नहीं होता है पर पूंजीपतियों के लिये ये आकाश-पाताल एक कर देते हैं।
2007-08 से शुरू हुयी आर्थिक मंदी में संयुक्त राज्य अमेरिका की एक बड़ी आटो कम्पनी जनरल मोटर्स दिवालिया होने के कगार पर पहुंच गयी थी। इस कम्पनी को बचाने के लिए पहले अमेरिकी सरकार ने 20 अरब डालर दिये पर कम्पनी की हालत संभली नहीं तो फिर सरकार ने 30 अरब डालर देकर इस कम्पनी के 60 फीसदी शेयर खरीद लिये। कम्पनी सरकारी हो चुकी पर सरकार ने इसके कामकाज में कोई दखल नहीं दिया। जब कम्पनी की ‘हालत’ ठीक हो गयी तो सरकार ने वर्ष 2013 तक अपने शेयर धूर्त निवेशकों को बेच दिये। इस तरह एक बार फिर ‘घाटा सार्वजनिक मुनाफा निजी’ की कहावत चरितार्थ हुयी।
कुछ इसी तरह से ब्रिटिश सरकार ने ‘रायल बैंक आफ स्काटलैण्ड’ (अब नैटवेस्ट समूह) और ‘नार्दन राक’ नामक बैंकों के साथ हालिया विश्व आर्थिक संकट के समय में किया। डूबते हुये बैंकों का ब्रिटिश सरकार ने अधिग्रहण किया और अब इनके विनिवेशीकरण की प्रक्रिया चल रही है। रात-दिन पानी पी-पी कर ‘समाजवाद’ को कोसने वालों ने एक बार भी सरकार के द्वारा किये जाने वाले अधिग्रहण पर समाजवाद का ठप्पा लगाकर हल्ला नहीं काटा।
जो काम अमेरिका या ब्रिटेन की सरकार ने किया ठीक उसी काम को मोदी सरकार वोडाफोन-आइडिया कम्पनी के साथ कर रही है।
किसी कम्पनी के डूबने पर सरकार की चिंता पूंजीपतियों की सम्पत्ति और उनके मुनाफों की होती है वहां काम करने वाले मजदूरों, छोटे-बड़े कर्मचारियों, इन्जीनियर, मैनेजरों की चिंता सरकार को एक रत्ती भी नहीं होती है। उन्हें तो कम्पनियां बड़ी बेरहमी से ऐसे मौकों पर तुरंत हटा देती हैं। सरकारी अधिग्रहण के वक्त भी ऐसा ही होता है। और जिन सार्वजनिक उपक्रमों-कम्पनियों पर सरकार का कब्जा होता है उनके साथ भी ऐसा होता है। आज बीएसएनएल के साथ कुछ ऐसा ही हो रहा है। उसके कर्मचारियों को येन-केन-प्रकारेण हटाया जा रहा है। नई नियुक्तियां बंद हैं। संविदा कर्मचारियों को महीनों-महीनों वेतन नहीं दिया जाता है। स्थायी कर्मचारियों की संख्या भी लगातार घट रही है। जो हैं भी उन्हें किसी माह वेतन मिलता है और किसी माह वेतन नहीं मिलता है। बीएसएनएल को वहां पहुंचा दिया गया है जहां उसके लिये अपने कर्मचारियों को समय पर वेतन देना तक मुश्किल है। सामान्य कार्य-संचालन मुश्किल है। मोदी सरकार वोडाफोन-आइडिया कम्पनी को डूबने से बचाने के लिए हजारों करोड़ रुपये का इंतजाम कर सकती है परन्तु बीएसएनएल के कर्मचारियों-संविदा मजदूरों को प्रतिमाह नियमित रूप से वेतन देने का बंदोबस्त नहीं कर सकती है। वोडाफोन-आइडिया से एक व्यवहार तो बीएसएनएल से दूसरा व्यवहार।
इनका दोहरा व्यवहार इनके राष्ट्रवाद की भी पोल खोलता है। मोदी-भाजपा-संघ अपने को अक्सर राष्ट्रवादी कहते हैं। इनका राष्ट्रवाद भारत के मजदूरों, किसानों, कर्मचारियों, बेरोजगारों, औरतों आदि की सेवा और रक्षा के लिए नहीं है। इनका राष्ट्रवाद वोडाफोन, आइडिया, रिलायंस, राफेल जैसी देशी-विदेशी कम्पनियों की सेवा के लिए है। वोडाफोन-आइडिया कम्पनी में वोडाफोन की स्थिति यह है कि यह एक ब्रिटिश कम्पनी है जिसका दुनिया के 20 से अधिक देशों में कारोबार है। यह कम्पनी यूरोप से लेकर एशिया-अफ्रीका महाद्वीप में दोनों हाथों से मुनाफा पीट रही हैं। और यह किसी देश में इसलिए कारोबार नहीं करती है कि इससे वहां के लोगों को रोजगार देना है बल्कि इसलिए करती है कि इन्हें वहां से बेहिसाब मुनाफा कमाना होता है। और भारत के मोदी जैसे राष्ट्रवादी इस बात की गारण्टी करते हैं कि इन्हें बेहिसाब मुनाफा हो सके और यदि उसमें कहीं कमी आती है या ये डूबती है तो मोदी जैसे तुरन्त सरकारी खजाने का मुंह खोल देते हैं। राष्ट्रीय परिसम्पत्तियों को बेच देते हैं। और इस तरह से मोदी जैसी सरकारें निजी कम्पनियों के मुनाफे के चक्कर में देश को कर्जजाल में फंसा देती हैं।
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