CUCET; शिक्षा में असमानता की खाई चौड़ी करने वाला प्रयोग
भाजपा की नरेंद्र मोदी सरकार 2014 से लगातार शिक्षा में बड़े बदलाव कर रही है। ये बदलाव दो दिशाओं में हो रहे हैं जिसमें पहली दिशा के बदलाव शिक्षा को पूंजीपतियों के हवाले कर, उनके लिए ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने और छात्रों को सस्ते मजदूरों में तब्दील करने का रास्ता खोलते हैं, वहीं दूसरी दिशा के बदलाव शिक्षा को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की इच्छा के अनुरूप ढालकर, संघ के संकीर्ण और फासीवादी एजेंडे को बढ़ावा दे रहे हैं। वर्ष 2020 से पहले नरेंद्र मोदी सरकार ये सारी कोशिशें छिटपुट रूप से करती रही थी, लेकिन राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 ;छम्च्.2020द्ध के आने बाद से शिक्षा पर यही हमले नीतिगत रूप से और बहुत तेजी से होने शुरू हो गए हैं।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति तमाम ऐसे नियमों को लागू करने पर जोर देती है, जिनसे शिक्षा में लगातार बढ़ती गैरबराबरी और भी ज्यादा तेजी से बढ़ेगी। शिक्षा पूंजीपतियों के हाथों संचालित होगी और गरीब मजदूर पृष्ठभूमि के छात्रों के लिए शिक्षा पाना एक सपने जैसा हो जाएगा।
छम्च् के तहत हो रहे बदलावों के क्रम में दिल्ली विश्वविद्यालय और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय ने ब्न्ब्म्ज् ;ब्मदजतंस न्दपअमतेपजल ब्वउउवद म्दजतंदबम ज्मेज) को अपना लिया है, यह ब्न्ब्म्ज् भी छम्च् की ही देन है। शिक्षा मंत्रालय द्वारा जारी राष्ट्रीय शिक्षा नीति बिंदु 4.42 में कहती हैः-
‘‘विश्वविद्यालय प्रवेश परीक्षा के लिए सिद्धांत समान होंगे; छज्।(नेशनल टेस्टिंग एजेंसी) उच्चतर गुणवत्ता वाली सामान्य योग्यता परीक्षा, साथ ही विज्ञान, मानविकी, भाषा, कला और व्यावसायिक विषयों में हर साल कम से कम दो बार विशिष्ट सामान्य विषय की परीक्षा लेने का काम करेगी... और इन परीक्षाओं के लिए कोचिंग लेने की आवश्यकता को समाप्त करने पर जोर रहेगा। विद्यार्थी उन विषयों का चुनाव कर पाएंगे जिनमें वे परीक्षा देने में रूचि रखते हैं।’’
इस प्रकार भारत सरकार छम्च् के जरिए ब्न्ब्म्ज् के बारे में घोषित करने का प्रयास करती है कि इसके जरिए कोचिंग की मारामारी पर रोक लगाई जा सकेगी, छात्र अपनी पसंद के अनुसार कोर्स का चुनाव कर पाएंगे। दिल्ली विश्वविद्यालय में ब्न्ब्म्ज् को अपनाते समय इसके समर्थन में तर्क दिया जा रहा है कि यह केंद्रीकृत प्रवेश परीक्षा दिल्ली विश्वविद्यालय में कट ऑफ सिस्टम, ब्ठैम् और अंग्रेजी भाषी छात्रों का वर्चस्व सहित सभी भेदभावों को खत्म कर देगी। लेकिन इन लोकलुभावन बातों के पीछे सच ये है कि ब्न्ब्म्ज् एक षड्यंत्र है जो भारी पैमाने पर कोचिंग माफिया को जन्म देगा और पिछड़े राज्यों के छात्रों की केंद्रीय विश्वविद्यालय में पढ़ने की संभावनाओं को शून्य बना देगा।
सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों में दाखिला लेने के लिए देशभर के छात्रों को ब्न्ब्म्ज् की परीक्षा देनी होगी, उसके बाद छात्र की रैंक बनेगी और रैंक के हिसाब से विश्वविद्यालय में सीट मिलेगी। ऐसा नहीं है कि देश में पहली बार सरकार इस तरह की कोई केंद्रीकृत प्रवेश परीक्षा कराने जा रही है, इसके पहले भी छम्म्ज् के नाम से मेडिकल छात्रों के लिए ऐसी ही केंद्रीय प्रवेश परीक्षा होती है और छम्म्ज् के आंकड़े बताते है कि कैसे इस परीक्षा ने शिक्षण संस्थानों में अंग्रेजी का वर्चस्व कायम किया, क्षेत्रीय भाषाओं के विद्यार्थियों को बाहर धकेल दिया और सबसे महत्वपूर्ण देशभर में सिर्फ छम्म्ज् की तैयारी कराने वाली हज़ारों करोड़ की कोचिंग इंडस्ट्री को खड़ा कर दिया, छम्म्ज् पास करने के लिए कोचिंग लेना एक किस्म की अघोषित मजबूरी बन गया।
छम्म्ज् लागू होने के बाद तमिलनाडु की सरकार को ऐसा लगा कि तमिल भाषी छात्रों का मेडिकल संस्थानों में जाना लगातार कम हो रहा है, इसकी जांच के लिए तमिलनाडु सरकार ने उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश ए.के. राजन की अध्यक्षता में जांच कमीशन बनाया, जिसने सितंबर 2021 में अपनी जांच रिपोर्ट सौंपी जिसे ‘ए.के.राजन कमेटी रिपोर्ट’ के नाम से जाना जाता है।
ये रिपोर्ट बताती है कि 2017 में छम्म्ज् शुरू होने के बाद अकेले तमिलनाडु में 5,750 करोड़ का कोचिंग माफिया खड़ा हो गया, कम सीटों के लिए भारी मारामारी के कारण अभिभावकों ने छात्रों को 8वीं से ही कोचिंग भेजना शुरू कर दिया। तमिलनाडु में एक छात्र के कोचिंग की औसत वार्षिक फीस 95,033 रुपये है, इसमें सिर्फ कोचिंग की फीस शामिल है। ए.के राजन कमेटी की इस रिपोर्ट के अनुसार 2019-20 में छम्म्ज् पास करने वाले कुल छात्रों में से 99 प्रतिशत वो छात्र थे जिन्होंने कोचिंग का सहारा लिया था और इनमें से अधिकतर छात्र ऐसे थे जो कोचिंग करते हुए ही इससे पहले एक या एक से अधिक बार छम्म्ज् की परीक्षा में असफल हुए थे। आम बोलचाल की भाषा में कहें तो ‘रिपीटर’ थे।
ये आंकड़े साबित करते है कि केंद्रीकृत परीक्षा पास करने के लिए, छात्र अप्रत्यक्ष रूप से कोचिंग लेने के लिए बाध्य हो जाएगा। दिल्ली विश्वविद्यालय में ब्न्ब्म्ज् लागू होते ही कोचिंग संस्थानों ने बड़े पैमाने पर ब्न्ब्म्ज् की तैयारी कराने का अपना प्रचार शुरू कर दिया, कुछ कोचिंग संस्थानों ने अभी से इसके लिए छात्रों के स्पेशल बैच शुरू कर मोटी-मोटी फीस वसूलना शुरू कर दिया है। तो छम्च् जो ब्न्ब्म्ज् के जरिए ‘कोचिंग की आवश्यकता खत्म’ करने जैसी तर्कहीन बात करती है, वो तो पहले इसके लागू होने के चंद दिनों में ही गलत साबित हो चुकी है। क्न् जैसा संस्थान जहां मात्र 70 हजार सीटें हैं और 2 लाख 87 हजार से ज्यादा छात्र एडमिशन फॉर्म भरते हैं, वहां तो कोचिंग माफिया और भी मजबूत ही होगा।
कोचिंग संस्थान हमारी समग्र शिक्षा व्यवस्था के लिए वैसे भी बहुत खतरनाक है, दाखिले की मारामारी के कारण 8वीं से ही अभिभावक छात्रों को कोचिंग में भेज देते हैं। जहां बच्चा स्कूल तक नहीं जाता, कोचिंग संस्थान का किसी निजी स्कूल से अनुबंध होता है बच्चा मात्र वार्षिक परीक्षा देने स्कूल जाता है, बाकी पढ़ाई सिर्फ कोचिंग में ही होती है। ऐसे छात्र घर, परिवार, देश, समाज से पूरी तरह कटे होते हैं, जब परीक्षा का परिणाम अच्छा नहीं आता तो उन्हें डिप्रेशन जैसी तमाम समस्याएं घेर लेती हैं, यही कारण है कि कोचिंग हबों में लगातार छात्रों की आत्महत्या बढ़ती जा रही है।
दूसरी बात जो ब्न्ब्म्ज् के समर्थन में कही जा रही है कि इसके जरिए ब्ठैम् और अंग्रेजी के वर्चस्व को विश्वविद्यालयों में से खत्म किया जा सकेगा, क्षेत्रीय भाषाओं और राज्य बोर्ड के विद्यार्थियों को अधिक अवसर मिलेगा, लेकिन छम्म्ज् का उदाहरण बताता है कि केंद्रीकृत परीक्षा चूंकि अखिल भारतीय स्तर पर होगी और देश में पहले से ही ब्ठैम् और अंग्रेजी का वर्चस्व है तो क्षेत्रीय बोर्ड के विद्यार्थी और पिछड़ जाएंगे। वर्ष 2016-17 में छम्म्ज् लागू होने से पहले डठठै में दाखिला पाने वाले तमिलनाडु के 14.88 प्रतिशत छात्र तमिल माध्यम से होते थे और 85.12 प्रतिशत अंग्रेजी माध्यम से, लेकिन 2017-18 में छम्म्ज् लागू होते ही अंग्रेजी माध्यम के छात्र 98.41 प्रतिशत हो गए और तमिल माध्यम के छात्र 14.88 प्रतिशत से घटकर मात्र 1.6 प्रतिशत ही रह गए। 2020-21 के सत्र में भी यही स्थिति है छम्म्ज् पास करने वाले तमिल माध्यम के छात्र मात्र 1.99 प्रतिशत हैं बाकी 98.01 प्रतिशत अंग्रेजी माध्यम के छात्र हैं।
तमिलनाडु का यह उदाहरण दिखाता है कि कैसे साल दर साल केंद्रीकृत प्रवेश परीक्षा छम्म्ज् ने तमिल माध्यम के छात्रों को बाहर धकेल दिया। इसका बड़ा कारण ये है कि इस तरह की अखिल भारतीय परीक्षा के लिए जिस स्तर की पढ़ाई और संसाधनों की आवश्यकता है, वो अधिकतर देश में महानगरों के स्कूलों में उपलब्ध है, इनमें ज्यादातर स्कूल ब्ठैम् के हैं और अंग्रेजी में पढ़ाते हैं। यही कारण है कि विश्वविद्यालयों तक पहुंचने वाले वर्ग में बड़ी संख्या में ब्ठैम् और अंग्रेजी के छात्र होते है। जब तक शिक्षा व्यवस्था और संसाधनों का विकेंद्रीकरण नहीं किया जाएगा, क्षेत्रीय भाषाओं में ग्रामीण स्तर पर अच्छी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा उपलब्ध नहीं कराई जाएगी, तब तक ये कहना ख्याली पुलाव साबित होगा कि ब्न्ब्म्ज् अंग्रेजी के वर्चस्व को खत्म कर देगा।
ब्न्ब्म्ज् का एक और बड़ा नुकसान है कि ये छात्रों के लिए विषय का विकल्प सीमित कर देता है। पहले 12वीं के बाद स्ट्रीम बदलना आसान था, लेकिन अब आप एक परीक्षा पास करके ही स्ट्रीम बदल पाएंगे। उदाहरण के तौर पर एक छात्र 12वीं विज्ञान स्ट्रीम से करता है और न्ळ में वो इतिहास पढ़ना चाहता है, तो अब उस छात्र को इतिहास में दाखिला लेने के लिए पहले इतिहास की एक प्रवेश परीक्षा देनी होगी, चूंकि उसने 12वीं में विज्ञान पढ़ा है, तब वो ये प्रवेश परीक्षा कैसे देगा? अब इस स्थिति में उसे अलग से इतिहास की तैयारी करनी पड़ेगी और तभी वो स्ट्रीम बदल पाएगा। इस तरह से छात्रों के लिए विकल्प खत्म हो जाएगा।
एक और प्रश्न प्रवेश परीक्षाओं में भ्रष्टाचार और धांधली का भी खड़ा होता है।
हम देखते आए हैं कि छज्। द्वारा आयोजित करवाई जा रही कई परीक्षाओं में पेपर लीक होने की खबरें आती रही हैं, अभी हाल ही में छम्ज् की परीक्षा में हिंदी का पेपर लीक हो गया, जांच में पता चला कि 3 लाख रुपये देकर ये पेपर लीक कराया गया था, इससे पहले छम्म्ज् का पेपर भी लीक हो चुका है। ब्न्ब्म्ज् के माध्यम से ये गड़बड़ियां भी बढ़ेंगी, क्योंकि सीटें सीमित हैं और आवेदक बहुत ज्यादा हैं जिनके पास पैसा है वो चाहेंगे कि उसका दुरुपयोग कर भ्रष्टाचार के माध्यम से सीट मिल जाए। ये एक बहुत बड़ा प्रश्न है जिससे मुंह नहीं चुराया जा सकता।
ग्रामीण इलाकों में जहां स्कूलों की स्थिति बद से बदतर है, वहां के छात्र इस तरह की प्रवेश परीक्षा में कहां पर होंगे? ये भी सवाल है। नियम कहता है कि च्ज्त् (च्नचपस ज्मंबीमत त्ंजपव) 1ः30 होना चाहिए, लेकिन झारखंड के कुछ हिस्सों में ये 1ः62 तक है। यानी जहां 30 छात्रों पर एक शिक्षक होना चाहिए वहां 62 छात्रों पर एक शिक्षक है, ऐसे में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की गुंजाइश कहाँ बचती है?
शहरों में जहां बड़े पैमाने पर छात्र निजी स्कूलों में पढ़ते हैं, मोटी-मोटी फीस की एवज में उन्हें जो सुविधाएं मिलती हैं, उनके लिए और ग्रामीण इलाकों के छात्रों के लिए भी एक ही परीक्षा होगी तो फायदा किस आर्थिक तबके को होगा ये समझना कोई मुश्किल नहीं है। तो ब्न्ब्म्ज् ऐसे खाए-अघाए आर्थिक पृष्ठभूमि के लोगों के लिए ही उच्च शिक्षा का विकल्प मात्र बनकर रह जाएगा, बाकी धीरे-धीरे इससे बाहर हो जाएंगे।
इससे पहले दाखिले के लिए जो कट-ऑफ प्रक्रिया थी, ऐसा नहीं है कि उसमें दिक्कतें या खामियां नहीं थी, लेकिन उन दिक्कतों पर काम होना चाहिए था, जैसे बिहार या झारखंड बोर्ड में बाकी राज्यों के मुकाबले काफी भिन्नता है, वहां का मार्किंग सिस्टम अलग है, वहां स्कूलों में संसाधनों की भारी कमी है। इन खामियों को दूर करने की बजाय सरकार ने सबको एक परीक्षा के आधार पर आंकने की व्यवस्था लागू कर दी।
ब्न्ब्म्ज् से पीछे वाले और पीछे चले जायेंगे, आगे वालों के लिए रास्ता आसान हो जाएगा। सरकार ने पढ़ाने की अपनी जवाबदेही से बचने के लिए ये रास्ता खोजा है कि जिम्मेदारी छात्रों के कंधे पर डाल दो कि तुम प्रवेश परीक्षा पास नहीं कर पाए इसलिए तुम्हें दाखिला नहीं मिला। इस तरह सरकार बोर्ड में सुधार करने या स्कूलों में संसाधन देने की जिम्मेदारी से बची रहेगी।
एक अंतिम प्रश्न जो उठता है कि किसी भी तरह की प्रवेश परीक्षा क्यों हो?
यदि एक छात्र मौजूदा शिक्षा व्यवस्था से 12वीं की परीक्षा पास करता है तो आगे की पढ़ाई के लिए वो प्रवेश परीक्षा क्यों दे? यदि छात्र ने 12वीं की परीक्षा पास की है तो आगे दाखिला पाना उसका अधिकार है।
लेकिन सरकार छात्र के इस अधिकार को लागू नहीं करती क्योंकि सरकार शिक्षा के ढांचे के अभाव में छात्रों की छंटनी करती है। क्न् का उदाहरण देखिए सीटें मात्र 70 हजार और आवेदन 2 लाख 87 हजार। यानी कि 2 लाख से अधिक छात्रों की छटनी कर दी गयी और ये हाल सिर्फ क्न् का नहीं सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों का है। ये छात्र महंगे निजी विश्वविद्यालयों में लाखों की फीस भरकर पढ़ने को मजबूर होते हैं।
सरकार ब्न्ब्म्ज् का नाम लेकर अपने को सीटें बढ़ाने, नए विश्वविद्यालय खोलने की जरूरत से बचा रही है, हम छात्रों को इस सुनियोजित छंटनी के खिलाफ खड़े होकर नए विश्वविद्यालय खोलने की मांग को उठाना चाहिए, सबको शिक्षा और निःशुल्क शिक्षा की मांग करनी चाहिए। यह प्रश्न उठाना चाहिए कि देशभर के छात्रों को पढ़ने के लिए दिल्ली क्यों आना पड़ता है? क्यों उन्हें अपने राज्य में अच्छी शिक्षा नहीं मुहैया कराई जाती?
छात्रों के साथ शहीद- ए-आजम भगतसिंह की वो विरासत है जिसमें भगतसिंह ने अपने लेख ‘विद्यार्थी और राजनीति’ में कहा था कि छात्रों का मकसद पढ़कर सिर्फ क्लर्की हासिल करना नहीं होना चाहिए बल्कि उन्हें समाज में घटित हो रही घटनाओं के बारे में सोचने की योग्यता पैदा कर, गलत के खिलाफ बोलना भी चाहिए।
आज 21वीं सदी में ये छात्रों-युवाओं की जिम्मेदारी है कि वे छात्र भगतसिंह की विरासत को आगे बढ़ाएं, अपनी शिक्षा के अधिकार के लिए लड़ें और समाज में पैदा हो रही गैरबराबरी के खिलाफ, निजीकरण के खिलाफ, किसानों-मजदूरों के आंदोलनों के साथ खड़े हों और भगतसिंह के सपने के अनुसार आदमी पर आदमी के शोषण को जहां खत्म किया जाए, उस समाजवादी समाज की स्थापना के लिए संघर्ष को तेज करें।
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