मंगलवार, 8 नवंबर 2022

 विवाह की उम्र में वृद्धि


लड़कियों की रूढ़िवादी कैद को और पुख्ता करता मोदी सरकार का फैसला


15 अगस्त 2020 को लालकिले की प्राचीर से देश के लिए किए गए संबोधन में प्रधानमंत्री ने यह घोषणा की थी कि वह लड़कियों की शादी की उम्र 18 साल से बढ़ाकर 21 साल करेंगे। इस संबंध में 21 दिसंबर को लोकसभा में बाल विवाह निषेध अधिनियम 1949, जिसके अनुसार लड़कियों की विवाह के लिए न्यूनतम आयु 18 निर्धारित की गई थी, में संशोधन करके उसे 21 करने के लिए बिल भी पेश किया गया। हालांकि अभी इसे पारित नहीं किया जा सका है और इसे संसद की स्थाई समिति के पास भेज दिया गया है। बिल के मुताबिक बढ़ी हुई विवाह की उम्र सभी पर्सनल लॉ पर लागू होगी और सभी लड़कियों की उम्र बढ़ाई जाएगी चाहे वह किसी भी धर्म या जाति की हों।

लड़कियों की शादी की उम्र 18 से 21 साल करने के पीछे मोदी सरकार तथा उनके समर्थकों द्वारा निम्न तर्क दिए जा रहे हैः

- मोदी सरकार का कहना कि है कि 18 वर्ष की उम्र में शादी की वजह से लड़कियों को अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ती है। यदि शादी की उम्र 18 से बढ़ाकर 21 साल कर दी जाए तो उच्च शिक्षा में लड़कियों का प्रतिशत बढ़ जाएगा।

- उनका यह भी कहना है कि किशोर उम्र में गर्भवती होने की वजह से लड़कियों में एनीमिया, उच्च रक्तचाप जैसी बिमारियां हो जाती हैं जिसकी वजह से जच्चा और बच्चा दोनों को नुकसान होता है। शादी की उम्र बढ़ने से गर्भावस्था की उम्र भी बढ़ जाएगी और लड़कियों का शरीर ज्यादा परिपक्व होगा जिससे कि स्वस्थ बच्चे पैदा होंगे। इससे मातृत्व मृत्यु दर में भी कमी आएगी।

आइए अब हम इन तर्कों की रोशनी में अपने समाज की वास्तविक हकीकत को देखते हैं।

भारत में 1978 में शादी की न्यूनतम उम्र 18 वर्ष की गई थी उसके बावजूद मौजूदा समय तक देश में 23 प्रतिशत शादियां 18 वर्ष से कम उम्र में की जाती रही हैं। तो जब पिछले 44 वर्षों में एक कानून निर्धारित आयु से कम पर शादियों को नहीं रोक पाया तो हम यह कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि यह नया कानून रोक पाएगा? यदि मात्र कानून बना देने से समाज में होने वाली बुराइयों को रोका जा सकता तो आज हमारा देश दहेज हत्या, बलात्कार, कन्या भ्रूण हत्या, यौन उत्पीड़न जैसे तमाम महिला विरोधी अपराधों से मुक्त होता। 

मोदी सरकार द्वारा दिये जा रहे दूसरे तर्क की असलियत राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण का आंकड़ा दिखा देता है। जिसके अनुसार भारत की 53.1 प्रतिशत गैर-गर्भवती महिलाएं तथा 50.3 प्रतिशत गर्भवती महिलाएं अनीमिया यानी की खून की कमी की शिकार हैं। भारत के सामंती मूल्यों से लैस पूंजीवादी सामाजिक संरचना में महिलाओं के स्वास्थ्य को प्राथमिकता न दिया जाना अंतर्निहित है। निश्चित ही मात्र शादी की उम्र बढ़ा दिये जाने से महिला स्वास्थ्य की समस्या को हल मान लिया जाना एक छलावा मात्र है। भारत की सामाजिक संरचना में महिलाओं के पोषण पर सबसे कम ध्यान दिया जाता है। यहां तक कि सरकार द्वारा चलाई जा रही पोषण योजनाओं का लाभ तक ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाओं तक नहीं पंहुच पाता ऐसे में सिर्फ शादी की उम्र बढ़ा दिए जाने से लड़कियों को समुचित पोषण मिलने लग जाएगा और 21 की उम्र में शरीर स्वस्थ हो जाएगा यह सोचना भी निरी बेवकूफी होगी।

मोदी सरकार का यह भी कहना है कि शादी की उम्र बढ़ा देने से लड़कियों को उच्च शिक्षा मिलने के अवसर बढ़ जाएंगे। ऐसा कहते वक्त लगता है कि मोदी सरकार ने अपने देश की शिक्षा की हालत की तरफ आंखे मूंद ली हों। सरकार के तर्क से यह लगता है कि लड़कियों की शादी हो जाने की वजह से वह उच्च शिक्षा नहीं प्राप्त कर पाती हैं। उच्च शिक्षा में हुए अखिल भारतीय सर्वेक्षण (2019-20) के अनुसार 2015-20 के पांच सालों में उच्च शिक्षा में आवेदन करने वालों में 11.4 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुयी है। इन पांच सालों में महिलाओं के उच्च शिक्षा में आवेदन का प्रतिशत 18.2 रहा। उच्च शिक्षा में समस्त आवेदन में 2014-15 के 24.3 प्रतिशत के मुकाबले 2019-20 में 27.1 प्रतिशत रहे।

जब सरकार यह कहती है कि 18 साल की उम्र में शादी हो जाने की वजह से लड़कियां उच्च शिक्षा की तरफ नहीं जा पातीं तो वह बहुत ही आसानी से भारतीय शिक्षा व्यवस्था की खस्ता हालत और आम मजदूर मेहतनकश जनता की उच्च शिक्षा तक कम पहुंच की समस्या की तरफ से अपना पल्ला झाड़ लेती है। वास्तव में मौजूदा दौर में उच्च शिक्षा तक पहुंच पाना इस देश की गरीब मजूदर मेहनतकश आबादी के लड़कों के लिए ही संभव नहीं रह गया है तो लड़कियों के लिए तो दूर की बात है।

हकीकत तो यह है कि ज्यादातर मामलों में चूंकि लड़कियों के पास उच्च शिक्षा में जाने के अवसर नहीं होते हैं इसलिए भी उनकी 18 वर्ष का होते ही शादी कर दी जाती है।

भारत में ज्यादातर बाल विवाह मजदूरों, गरीब किसान, आदिवासी समुदायों में होते हैं। इन समुदायों में लड़कियों को पढ़ाने और उन्हें आत्मनिर्भर बनाने के साधन नहीं होते हैं। उनके लिए अपने जीवन को चला पाना ही मुश्किल होता है। ऐसे में लड़कियों की जल्दी शादी कर अपने दायित्व से मुक्त हो सकने के अलावा कोई रास्ता नहीं होता। शहरी गरीब आबादियों में जहां माता-पिता दोनों को परिवार को चलाने के लिए मजदूरी के लिए जाना होता है, जवान लड़कियों को पीछे घर में छोड़ कर जाना असुरक्षित होता है। ऐसे में वह जल्द से जल्द लड़कियों की शादी कर देने के लिए मजबूर होते हैं। उचित शिक्षा और पोषण की किल्लत से जूझ रही इस गरीब आबादी के सामने लड़कियों की शादी की उम्र 21 कर उससे पहले होने वाली शादियों को अपराधिक कृत्य करार देना उनकी गरीबी और मजबूरी का मजाक उड़ाने जैसा है।

जहां एक तरफ सरकार इस देश की मजदूर मेहनतकश आबादी को शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार नहीं दे रही है बल्कि दिन-ब-दिन कॉर्पोरेट मुनाफे के लिए इसे निजी हाथों में सौंप उनके पास रहे-सहे मौके भी छीनती जा रही है वहीं दूसरी तरफ शादी की उम्र 18 से 21 कर वह लड़कियों का भला चाहने का आडंबर कर रही है। वास्तव में लड़कियों की शादी की उम्र और बढ़ा कर लड़कियों से उनके जीवन पर उनका हक छीना जा रहा है। वह कब और किससे शादी करेंगी इस बात पर पूरी तरह से नियंत्रण स्थापित करने की कोशिश की जा रही है।

मौजूदा दौर में जब भी कोई लड़की अंतर्जातीय या अंतरधार्मिक विवाह करना चाहती है तो परिवार के लोग 18 साल का होने के बावजूद लड़की को नाबालिग घोषित कर न सिर्फ लड़की को रूढ़िवादी ढांचे में जकड़े रखते हैं बल्कि जिस लड़के से वह शादी करना चाहती है उस पर अपहरण जैसे झूठे आरोप लगाकर उसे अपराधी करार देते हैं। जहां पहले लड़कियां अपने रूढ़िवादी परिवार के बंधनों से मुक्त होने के लिए 18 साल का होने का इंतजार करती हैं वहीं इस प्रस्तावित संशोधन के बाद इस कैद में 3 साल की और वृद्धि हो जाएगी। 

मोदी सरकार द्वारा उठाया गया यह कदम अगर किसी को फायदा पहुंचाएगा तो वह है इस देश का पूंजीपति वर्ग। पूंजीवादी निजी संस्थान तथा उद्यम विवाहित महिलाओं की अपेक्षा अविवाहित महिलाओं को तरजीह देते हैं क्योंकि अविवाहित महिलाओं पर घरेलू जिम्मेदारियों का बोझ कम होता है जिससे वह विवाहित महिलाओं की अपेक्षा लंबे समय तक काम कर ज्यादा मुनाफा पैदा कर सकती हैं। वहीं दूसरी तरफ विवाहित महिलाओं के लिए मातृत्व अवकाश सहित अन्य आकस्मिक अवकाश देने पड़ते हैं। अतः शादी की उम्र में वृद्धि हो जाने की वजह से पूंजीपतियों को हर अविवाहित लड़की के रूप में तीन वर्ष का अतिरिक्त सस्ता श्रम मिलेगा। 

बिना इस देश की आम महिला आबादी से इस प्रस्तावित संशोधन के बारे में राय लिए इसे प्रस्तावित कर मोदी सरकार ने यही साबित किया है कि मौजूदा व्यवस्था में महिलाओं का अपने जीवन पर किसी तरह का कोई अधिकार नहीं है। मोदी सरकार द्वारा लिया गया यह गैर जनवादी फैसला लड़कियों के जीवन को 21 वर्ष तक घर की चाहरदीवारी में बांधकर पुरातनपंथी और रूढीवादी खाई में धकेलेगा।

दरअसल इस संशोधन के जरिये मोदी सरकार का उद्देश्य कहीं से भी स्त्री शिक्षा या स्वास्थ्य की दशा सुधारना नहीं है। न ही उसका उद्देश्य बाल विवाह रोकना है। चूंकि अधिकतर बाल विवाह परिवार वालों द्वारा दोनों पक्षों की सहमति से होते हैं इसलिए इनकी कोई शिकायत थाने-अदालत तक पहुंचती ही नहीं है और ये बाल विवाह शादी की उम्र 18 वर्ष करने के बाद भी जारी रहे। इसीलिए वे लड़कियों की विवाह की उम्र 21 करने के बाद भी जारी रहेंगे। सामंती सोच से लैस संघी शासन से इन पर लगाम कसने की उम्मीद भी करना बेमानी है। फिर सरकार इस बदलाव से क्या हासिल करना चाहती है?

दरअसल सरकार लड़कियों के विवाह की उम्र 18 से बढ़ा 21 वर्ष कर उन लड़कियों के जनवादी अधिकार पर हमला कर रही है। जो अपना विवाह अपनी इच्छा से करना चाहती हैं। सरकार अब इन लड़कियों को 3 वर्ष और पारिवारिक जकड़बंदी में जीने को मजबूर कर रही है। इस तरह सरकार लड़कियों के अपनी इच्छा से विवाह या प्रेम विवाह पर लगाम लगाना चाहती है। वरना सरकार पर इस बात का भला क्या कोई जवाब है कि जो लड़की 18 वर्ष की उम्र में बालिग हो सरकार चुन सकती है, अपनी संपत्ति, बैंक खाते की देखरेख कर सकती है, वो अपना जीवन साथी क्यों नहीं चुन सकती।

इस तरह मौजूदा बदलाव से सरकार एक ओर लड़कियों के प्रेम विवाह के अधिकार को कुचलना चाहती है दूसरी ओर वो उन सभी समुदायों दलितों-अल्पसंख्यकों-आदिवासियों- मेहनतकशों को लांछित करना चाहती है जहां कम उम्र में विवाह होते हैं।

शादी की उम्र में प्रस्तावित संशोधन द्वारा मोदी सरकार जिस लैंगिक बराबरी की स्थापना करने की बात कर रही है वह इस पूंजीवादी समाज में जहां महिलाओं को सिर्फ सस्ते श्रम के स्रोत के रूप में देखता है, संभव ही नहीं है। महिलाओं की असल मुक्ति और उनका उनके जीवन पर सही अधिकार सिर्फ मजदूर मेहनतकशों के राज्य समाजवाद में ही संभव है।

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