हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्तान
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ अपने जन्म से ही हिन्दी-हिन्दू- हिन्दुस्तान का नारा लगाता रहा है। इसका मतलब है कि हिन्दुस्तान हिन्दुओं का देश है और हिन्दी इसकी भाषा है! असल में संघ देश को इसी रूप में ढालना चाहता है जिसमें हिन्दुओं और हिन्दी भाषा का बोलबाला हो खासकर इसका निशाना मुसलमान हैं जिनकी भाषा उर्दू बताई जाती है।
लेकिन हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्तान के नारे की तिकडी़ की वास्तविक स्थिति क्या है? क्या ये तीनों वही हैं जैसा संघी सोचते हैं या बताते हैं? इन तीनों का इतिहास क्या है, संघी प्रचार से अलग इनका इतिहास और वर्तमान क्या है?
पहले इस तिकडी़ की पहली कडी़ यानी हिन्दी को लें।
संघियों और संघी मानसिकता के लोगों द्वारा फैलाई गई यह आम धारणा है कि हिन्दी भाषा संस्कृत से पैदा हुई है। यही नहीं, उत्तर भारत की सारी भाषायें यानी पंजाबी, सिन्धी, गुजराती, मराठी, बंगाली, असमी, ओड़िया इत्यादि सभी को संस्कृत से पैदा हुआ बताया जाता है। संघी तो और आगे जाते हैं और दावा करते हैं कि दक्षिण भारत की भाषाएं- तेलगू, तमिल, कन्नड़, मलयालम- भी संस्कृत से ही निकली हैं। आज यह सब बस कहानी है पर अफसोस है कि आज यह कहानी काफी प्रचलित है।
हिन्दी भाषा के वास्तविक इतिहास को समझने के लिये आज की सच्चाई पर गौर करना फायदेमन्द होगा। आज हिन्दी भाषा उत्तरभारत में राजस्थान, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार तथा झारखण्ड कुछ हिस्सों में प्रचलित है। इसके अलावा देश के अन्य हिस्सों में भी इसको बोलने और समझने वाले मिल जायंेगे। उत्तर भारत के हिन्दी भाषी इलाको में हिन्दी के तीन रूप प्रचलित हैं। पहला है विद्यालयों-विश्वविद्यालयों में इस्तेमाल की जाने वाली ज्ञान-विज्ञान की भाषा। यह स्टैन्डर्ड हिन्दी या मानक हिन्दी है। दूसरा है शहरी इलाकों में पढ़े-लिखे लोगों के बीच इस्तेमाल की जाने वाली आम बोलचाल की भाषा। यह बोलचाल की हिन्दी है। तीसरा उत्तर भारत के विभिन्न इलाकों में खासकर गांवों में आम लोगों की बोलचाल की भाषा जैसे कि राजस्थानी, हरियाणवी, ब्रज, अवधी, भोजपुरी, कुमाऊंनी, गढ़वाली आदि इन्हें बोलियां कहते हैं। मजेदार बात यह है कि हिन्दी भाषी इलाकों में ज्यादातर आबादी इन बोलियों का ही इस्तेमाल करती है। मानक हिन्दी का इस्तेमाल तो आम जिन्दगी में न के बराबर ही होता है।
हिन्दी भाषा के इन तीन रूपों में आपस में क्या संबध हैं? मानक हिन्दी बोलचाल की हिन्दी तथा हिन्दी बोलियों में कौन किससे निकली है? संघी यह बताना चाहेंगे कि संस्कृत से मानक हिन्दी पैदा हुई और फिर मानक हिन्दी के भ्रष्ट होने से बोलचाल की हिन्दी और अंत में हिन्दी बोलियां पैदा हुई। पर वास्तव में ऐतिहासिक तौर पर संबंध ठीक उल्टा है।
आज से करीब एक हजार साल से पहले हिन्दी बोलियां पैदा हो गई थीं। तब न बोलचाल की हिन्दी थी और न मानक हिन्दी। बस भांति-भांति की हिन्दी बोलियां ही थीं? ये बोलियां मूलतः आज की बोलियों जैसी थी पर काफी अलग भी थीं। पिछले एक हजार साल में इन बोलियों में काफी बदलाव हुआ है हालांकि मूल स्वरूप वही बना हुआ है तब ऊंचे ज्ञान-विज्ञान की भाषा संस्कृत थी हालांकि कविताओं के लिये अपभ्रंश का भी इस्तेमाल होता था। (अपभ्रंश और प्राकृत भाषा के बारे में बाद में बात की जायेगी) बाद में चौदहवीं-पंद्रहवीं सदी से कविताओं के लिए ब्रज और अवधि का इस्तेमाल होने लगा जो बीसवी सदी की शुरूआत तक बना रहा। उत्तर भारत के सारे हिन्दी बोलियों वाले इलाकों में ब्रज और अवधी ही साहित्य की भाषा थी (तब साहित्य का मतलब कविता ही था)।
बोलचाल की हिन्दी (जिसे तब हिन्दवी और हिन्दुस्तानी भी कहा गया) का विकास तेरहवीं से पन्द्रहवीं सदी के बीच दिल्ली के इलाके में हुआ। संघियों के लिए यह बहुत कड़वी सच्चाई है कि इस हिन्दी के विकास में देश में तब के मुसलमानी शासन का बहुत बड़ा योगदान था। (वास्तव में हिन्दी, हिन्दवी और हिन्दुस्तानी सारे शब्द फारसी भाषा के शब्द हैं जो मुसलमानी शासन के समय चलन में आये हालांकि हिन्दी और हिन्दू शब्द ज्यादा पुराने हैं जिनका मतलब था सिन्धु नदी के पार रहने वाले लोग। फारसी भाषा में स के बदले ह होने के कारण सिन्धु हिन्द हो गया। यूनानी भाषा में यही हिन्द इन्डस हो गया जिससे फिर अंग्रेजी का इंडिया निकला।)
तेरहवीं सदी से भारत में शासन करने वाले मुसलमान शासक अधिकांशतः तुर्क या अफगान मूल के थे। उनकी अपनी भाषा तुर्की या पश्तो थी पर उनके दरबार की भाषा फारसी थी (ईरान के पूरब-उत्तर में ईरानी सभ्यता के प्रभाव के कारण)। उनकी धार्मिक भाषा कुरान की भाषा यानी अरबी थी। भारत में बस जाने के बाद स्वाभाविक था कि यहां की जनता (कम से कम उसके ऊपरी हिस्सों) से संवाद करने के लिए उन्हें यहां की किसी भाषा की जरूरत पड़ती।
तेरहवीं-पन्द्रहवीं सदी में मुसलमानी शासन का केन्द्र दिल्ली था। इसलिए जन संवाद की भाषा का विकास इस इलाके की भाषा से हुआ। हरियाणा के दक्षिणी हिस्सों से लेकर दिल्ली, आगरा, मेरठ, बिजनौर, सहारनपुर तक की मोटा-मोटी एक बोली थी। इसे बाद में खडी़ बोली कहा गया। बोलचाल की हिन्दी का विकास इसी बोली से हुआ। सबसे पहले इसका विकास दिल्ली के मुसलमान शासकों के सैनिक डेरों तथा उनके साथ लगे बाजारों में हुआ जहां निचले स्तर
के सैनिक व अन्य अधिकारी स्थानीय फौजियों या दुकानदारों से मिलते-जुलते थे। अलाउद्दीन खिलजी के समय तक इसका काफी विकास हो गया था जिसे अमीर खुसरो की हिन्दी कविताओं में देखा जा सकता था (अमीर खुसरो फारसी और अरबी में पारंगत थे और उन्हें हिन्दवी में भी पारंगत होने का गर्व था)। बाद में इसे कबीर में भी देखा जा सकता है।
बाद में जब मुसलमान शासक दक्षिण भारत की ओर गये तो उनके साथ यह हिन्दी या हिन्दवी भी गई। इसे वहां उर्दू -ए-मुएल्ला भी कहा गया यानी सैनिक डेरो की भाषा। यहीं से इसका एक नाम उर्दू भी निकला। तब तक इन मुसलमान शासकों का काफी स्थानीयकरण हो गया था और एक तरह से यह उनके अपने घर की भाषा हो गई थी। उत्तर में अकबर के समय तक मुगल शासकों के घरों की आम बोलचाल की भाषा हो गयी थी। (अकबर ने इसमें कुछ कविताएं भी लिखीं और उसके प्रसिद्ध दरबारी अब्दुर्रहीम खानखाना तो रहीम के नाम से हिन्दी कविता में सर्वज्ञात हैं) जबकि दरबार की भाषा भी उर्दू हो गई। अठारहवीं सदी में मुगल दरबार की भाषा भी उर्दू हो गई। दक्षिण भारत में जो हिन्दवी गई थी उसके बाद में दखिनी उर्दू का विकास हुआ जो आज भी दक्षिण भारत में मुसलमान घरों की आम बोलचाल की भाषा है।
उपरोक्त से स्पष्ट है कि उर्दू, हिन्दी या हिन्दवी से ही निकली है और उसी का एक रूप है। वास्तव में पन्द्रहवीं- सोलहवीं सदी तक केवल एक भाषा थी। लेकिन बाद में जब इस भाषा का साहित्य के लिए इस्तेमाल होने लगा तो यह भाषा दो दिशाओं में जाने लगी-साहित्यिक उर्दू
(रेख्ता) और साहित्यिक हिन्दी (मानक हिन्दी की ओर)। उर्दू में शेरो-शायरी का चलन अठारहवीं सदी से शुरू हुआ और इसमें फारसी-अरबी के शब्द मिलाये जाने लगे। इसमें फारसी-अरबी शब्दों के मिश्रण के कारण ही इस साहित्यिक उर्दू को रेख्ता (मिश्रण) कहा गया। (जब महिलाएं कविता करती थीं तो उसे रेख्ती कहते थे)। इसे लिखने के लिए फारसी लिपि का इस्तेमाल किया गया हालांकि उसमें कुछ और अक्षर जोड़ने पड़े। उर्दू में गद्य साहित्य का विकास उन्नीसवीं सदी के शुरूआत से हुआ।
दूसरी ओर साहित्यिक हिन्दी का विकास कविता से नहीं बल्कि गद्य से हुआ और लगभग उसी समय से जब उर्दू गद्य शुरू हुआ। (दोनों को अंग्रेजी शासन ने प्रेरित किया)। हिन्दी में कविता की भाषा ब्रज और अवधी बनी रही। साहित्यिक हिन्दी में कविता बीसवीं सदी की शुरूआत में ही लिखी गई।
हिन्दी, हिन्दवी या हिन्दुस्तानी भाषा के दोनों साहित्यिक रूपों साहित्यिक उर्दू और साहित्यिक हिन्दी का उन्नीसवीं सदी से दो अलग-अलग दिशाओं में विकास होने लगा। पहले में फारसी-अरबी के शब्द ठूसे जाने लगे तो दूसरे में संस्कृत के। समय के साथ यह इतना ज्यादा हो गया कि दोनों ही साहित्यिक भाषाएं बोलचाल की हिन्दी या हिन्दवी से एकदम दूर हो गई। दोनों एकदम भिन्न भाषाएं नजर आने लगीं। ऐसा लगने लगा कि उर्दू भाषा फारसी-अरबी से निकली है। जबकि हिन्दी भाषा संस्कृत से अपने इतिहास से अंजान या इसे झुठलाने वाले संघी इस प्रतीति या ऊपरी रूप को ही सब कुछ मानकर उर्दू को मुसलमानों की तथा हिन्दी को हिन्दुओं की भाषा बताने लगे। एक को वे विदेशी मूल की तो दूसरी को स्वदेशी बताने लगे।
हिन्दी, हिन्दवी या हिन्दुस्तानी का उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में दो दिशाओं में यह विकास समाज तथा ज्ञान-विज्ञान दोनों के लिए स्वास्थ्यवर्धक नहीं था। पर भांति-भांति की राजनीतिक शक्तियों की सक्रियता के कारण यह हो गया। यह आज भी समाज और ज्ञान-विज्ञान के लिए स्वास्थ्यवर्धक नहीं है। इसके बदले बोलचाल की हिन्दुस्तानी का ही ज्ञान-विज्ञान के लिए इस्तेमाल (तकनीकी शब्दावली के लिए अन्य भाषाओं से उधार लेते हुए) ज्यादा बेहतर होता। यह सारे देश में संपर्क भाषा के तौर पर ज्यादा आसानी और बिना जोर- जबर्दस्ती के विकसित हो गई होती।
उपरोक्त से स्पष्ट है हिन्दी भाषा का विकास संस्कृत से नहीं हुआ है। ज्यादा से ज्यादा यही कहा जा सकता है कि आज की ज्ञान-विज्ञान और साहित्य की हिन्दी संस्कृत से लिये गये शब्दों से लदी हुई है। वैसे यह आज देश की सारी साहित्यिक भाषाओं के लिए सच है। (दक्षिण की द्रविड़ मूल की भाषाओं सहित) कि वे संस्कृत के तत्सम (जस का तस )शब्दों से लदी हुई हैं। इसलिए वे आम बोलचाल की भाषाओं या बोलियों से इतनी अलग और कठिन हैं।
तब फिर हिन्दी भाषा का मूल स्रोत क्या है? जैसा कि पहले कहा गया है कि उत्तर भारत की हिन्दी बोलियां लगभग एक हजार साल पहले पैदा हो गई थीं। वे किस भाषा या किन बोलियों से पैदा हुई? संक्षेप में उत्तर यह है कि वे अपभ्रंश से पैदा हुईं। अपभ्रंश स्वयं प्राकृत से पैदा हुई है? फिर प्राकृत का स्रोत क्या है? प्राकृत का स्रोत वह भाषा है जिसे लेकर आर्य भारत आये थे।
जब करीब साढ़े तीन हजार साल पहले आर्य भारत आये तो वे जो भाषा बोलते थे उसे वैदिक भाषा कहा जाता है। इसे मूल प्राकृत भी कह सकते हैं। आर्यों की यह भाषा और भी पीछे जाकर यूरोप की भाषाओं की पूर्वज से मिलती है। इसी से बाद में यूनानी तथा लैटिन निकली हैं। आधुनिक यूरोप की भाषाएं- अंग्रेजी, फ्रेंच, स्पैनिश, जर्मन, रूसी आदि इन्हीं से निकली हैं। इस तरह आर्यों की भाषा एक ज्यादा व्यापक भारतीय-यूरोपीय भाषा समूह का हिस्सा थी।
भारत में आने से ठीक पहले आर्य जो भाषा बोलते थे, वह थोड़ी अलग थी। इनको बोलने वाले दो हिस्सों में बंटे।
एक हिस्सा ईरान की ओर चला गया। दूसरा हिस्सा भारत की ओर आया। इन दोनों को बाद में इंडो-आर्यन कहा गया और इनकी मूल भाषा को इंडो-आर्यन। बाद में इन्हीं आर्यन के नाम पर ईरान का नाम पडा़ (आर्यन से ईरान)। ईरान में बाद में क्रमशः इस भाषा में विकास से अंत में फारसी पैदा हुई। इस तरह फारसी का हिन्दी समेत उत्तर भारत की सभी भाषाओं से दूर का ही सही पर पारिवारिक संबंध है। (उर्दू में अरबी के शब्द भी सीधे अरबी से नहीं बल्कि फारसी के माध्यम से आये हैं। स्वयं अरबी भारोपीय नहीं बल्कि सामी परिवार की भाषा है)।
भारत में आने वाले आर्य जो वैदिक भाषा बोलते थे उसी का एक साहित्यिक रूप वेैदिक संहिताओं (ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद तथा अथर्ववेद) की भाषा है। ध्यान रहे कि वैदिक संहिताओं की भाषा साहित्यिक है जबकि आर्यों की बोलचाल की भाषा अलग थी। यह साहित्यिक भाषा तो लगभग स्थिर रही पर बोलचाल की भाषा बदलती रही। करीब तीन-चार सौ साल बाद हालत यह हो गई कि वैदिक पुरोहितों के लिए भी संहिताओं की भाषा का अर्थ समझना मुश्किल होने लगा। तब इसे समझाने के लिए ज्ञान की एक खास शाखा का उदय हुआ जिसे वेदांग कहा गया। इसमें वैदिक संहिताओं की भाषा का व्याकरण शब्दों का अर्थ इत्यादि शामिल था।
यह कहना गलत होगा कि वैदिक संहिताओं की भाषा संस्कृत है। यह भाषा के रूप और नाम दोनों दृष्टि से गलत है। संस्कृत नाम उस साहित्यिक भाषा के लिए चलन में आया जिसे पांचवी सदी ईसा पूर्व में पाणिनी ने अपने व्याकरण ग्रन्थ ‘अष्टाध्यायी’ में सूत्रित किया। पाणिनी का व्याकरण उस साहित्यिक भाषा को मानक रूप प्रदान करने का चरम बिन्दु था जो पिछले दो सौ साल में विकसित हुई थी (ब्राह्मण ग्रन्थों, उपनिषदों, गृह्यसूत्रों इत्यादि में)। तब भी बोलचाल की भाषा अलग थी और संस्कृत इसका साहित्यिक रूप थी। यह संस्कृत शब्द से ही स्पष्ट है जिसका मतलब है साफ-सूफ किया हुआ। इसके मुकाबले आम बोलचाल की भाषा को प्राकृत कहा गया (यानी जैसा है)। इस तरह आर्यों की आम बोलचाल की भाषा वैदिक (आदि प्राकृत) से होते हुए अब प्राकृत तक आ पंहुची थी जबकि इस बीच इसके दो साहित्यिक रूप विकसित हो गये थे- वैदिक संहिताओं की भाषा तथा पाणिनी द्वारा मानक बनाई गई संस्कृत।
यहां यह याद रखना होगा कि आर्य जब भारत आये तो भारत खाली स्थान नहीं था। यहां लोग बसे हुए थे और आर्यों के भारत आने के रास्ते में यानी उत्तर पश्चिमी भारत में तो एक महान सभ्यता सिन्धु घाटी की सभ्यता पूर्व में थी। यहां बसे लोगों की अपनी भाषाएं थी जिन्हें बाद में द्रविड़ व मुंडा- भाषाओं का नाम दिया गया। आर्यों का इन भाषाओं से लेन-देन हुआ। इससे आर्याें की अपनी भाषा में काफी फेरबदल हुआ- ध्वनियों, व्याकरण और शब्दावली तीनों स्तरों पर।
गौतम बुद्ध के समय यदि ज्ञान-विज्ञान व साहित्य की भाषा संस्कृत थी तो आम बोलचाल की भाषा प्राकृत। चंूकि गौतम बुद्ध और महावीर जैन दोनों ने अपनी शिक्षाओं को आम जनों की ओर निर्देशित किया इसलिए उन्होंने संस्कृत के बदले प्राकृत को चुना। स्वाभाविक था कि भारत जैसे विशाल देश में आम बोलचाल की प्राकृत भी कई बोलियों में होती। बुद्ध ने इसमें से पाली को तथा महावीर ने अर्ध- मगधी को अपनी शिक्षा के लिए चुना। या यह कहना ज्यादा बेहतर होगा कि जब बाद में इनकी शिक्षाओं को लिखा और मानक रूप प्रदान किया गया तो इन भाषाओं का इस्तेमाल किया गया। (अशोक के शिलालेखों की भाषा भी पाली है)। यहां यह ध्यान रखना होगा कि यह पाली या मगधी अपेक्षाकृत शिक्षित लोगों की भाषा थी। अशिक्षित लोगों की भाषा आज की बोलियों की तरह अलग रही होगी। ईसा के बाद की सदियों में प्राकृत का भी एक मानक रूप तैयार किया गया जिसे कुछ नाटकों-कविताओं में इस्तेमाल किया गया। कालिदास के नाटको में स्त्रियों व सेवकों द्वारा बोले गये संवाद इसी प्राकृत में हैं।
बोलचाल की आम प्राकृत भाषा अपने विभिन्न रूपों (बोलियों) में जीवन की गति के साथ प्रवाहमान रही यानी बदलती रही तथा पांचवी-छठी सदी से इसने जो रूप धारण किया उसे अपभ्रंश कहा गया (भ्रष्ट हुई)। बाद में इस अपभ्रंश का भी एक साहित्यिक मानक रूप तैयार किया गया तथा उसमें कुछ साहित्य रचा गया। बारहवीं सदी में हेमचन्द्र में इस अपभ्रंश का एक व्याकरण लिखा जिससे आज इसके बारे में काफी जानकारी मिलती है।
छठी से दसवीं सदी के बीच बोलचाल की अपभं्रश का भी विकास हुआ और उससे अंततः उत्तर भारत की आज की सारी भाषाएं बोलियों के रूप में अस्तित्व में आई। हिन्दी की बोलियां इनमें से कुछ बोलियां थी। हिन्दी की इन बोलियों से आज की हिन्दी का कैसे विकास हुआ उसका शुरू में वर्णन किया जा चुका है। इसी के समान्तर कुछ पहले या कुछ बाद में अन्य भाषाओं का बोलियों से विकास हुआ।
यहां स्वाभाविक सवाल उठेगा कि संस्कृत का क्या हुआ? पाणिनी द्वारा मानक रूप प्रदान किये जाने के बाद संस्कृत सारे देश में धर्म-दर्शन तथा ऊंचे ज्ञान-विज्ञान की भाषा बन गई और अंग्रेजों के आने तक यह बनी रही। लेकिन रोजमर्रा के जीवन में इसका इस्तेमाल न के बराबर था। इसकी स्थिति अंग्रेजी शासन के दौरान अंग्रेजी या मुसलमानी शासन के दौरान फारसी की थी। पाणिनी द्वारा मानक रूप प्रदान किये जाने के बावजूद इसमें कुछ परिवर्तन होता रहा लेकिन यह बहुत नहीं बदली।
आम जीवन से कटेे होने केे कारण देश में भाषाओं के विकास से इसका सीधा संबध नहीं रहा। इसका संबंध समय-समय पर इससे उधार लिए जाने वाले शब्दो में ही रहा। उदाहरण के लिए आज हिन्दी व्याकरण का संस्कृत के व्याकरण से जरा भी मेल नहीं है। आम बोलचाल की हिन्दी की ध्वनियां, व्याकरण तथा शब्द तीनों संस्कृत से भिन्न हैं। यह सीधा सा इस तथ्य के कारण कि हिन्दी का मूल संस्कृत नहीं है बल्कि दोनों का मूल प्राकृत है- एक काफी पहले और एक काफी बाद में।
इस तरह देखा जाये तो हिन्दी के मामले में संघी इतिहास और वर्तमान दोनोें दृष्टि से गलत हैं। वे बस एक मिथक गढ़ कर उसका प्रचार कर रहे हैं। इसमें उनका निश्चित राजनीतिक उद्देश्य छिपा हुआ है।
अगली किश्त में ‘‘हिन्दू’’ की चर्चा की जायेगी।
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