मंगलवार, 8 नवंबर 2022

 हम पढ़ेगें और अपना जनवादी अधिकार ले के रहेंगे

कर्नाटक के मंडया और उडुपी शहरों में मुस्लिम छात्राओं का हिजाब पहनकर स्कूल-कॉलेज जाने पर रोक लगाने के बाद हिजाब के समर्थन और विरोध में देश के कोने-कोने में विवाद फैल गया। वहीं दूसरी तरफ हिजाब के विरोध में दक्षिणपंथी व फासीवादी हिन्दू संगठनों से जुड़े छात्र भगवा शॉल पहन कर प्रदर्शन करने लगे। हिन्दू छात्रों का कहना था अगर मुस्लिम छात्राएं हिजाब पहनंेगी तो हम भी भगवा पहनेंगे। हिजाब को समानता से जोड़ा जाने लगा है। फिलहाल इस मुद्दे पर हाईकोर्ट में सुनवाई चल रही है।

देश में हिजाब के समर्थन व विरोध में बहस, प्रदर्शन हो रहे हैं। हिजाब को गलत साबित करने के लिए कई तर्क दिए जा रहें है। जैसे-

- स्कूलों को संवैधानिक तरीके से चलने देना चाहिए। इसलिए स्कूल-कॉलेजों में ड्रेस कोड लागू किया जाना चाहिए ना कि हिजाब।

- समानता के अधिकार के तहत स्कूल-कॉलेजों में हिजाब नहीं डेªस लागू होनी चाहिए।

- हिजाब पिछड़ी सोच का परिचायक है। इसलिए छात्राओं को हिजाब त्याग देना चाहिए।

हम इन सभी तर्कों की छानबीन कर के अपने समाज की असलियत जानने का प्रयास करेंगे कि मामला ड्रेस कोड का है या कुछ और।

हमारा संविधान हर व्यक्ति को शिक्षा प्राप्त करने का मौलिक अधिकार देता है। वह शिक्षा किस भेष-भाषा में करता है वह दूसरी बात है। अगर संविधान की बात करें तो मुस्लिम लड़कियांे का हिजाब पहनना औैर सिख समुदाय के लोगों का पगड़ी पहनना संविधान के अनुच्छेद 25 के अनुसार आता है। बशर्ते वह यूनिफॉर्म से मैचिंग का होना चाहिए।

समानता के अधिकार के तहत सब समान लगें इसलिए डेªस कोड के अनुसार हिजाब नहीं होना चाहिए। इस तर्क के अनुसार मुस्लिम छात्रा हिजाब तो हिन्दू छात्रा शादी के बाद कॉलेजों में सिन्दूर, मंगलसूत्र पहन कर पढ़ने आना चाहती हैं तो क्या उन्हें पढ़ने से मना कर दिए जाए? क्यांेकि वह दोनों समानता के अधिकार का पालन नहीं कर रहीं। क्या यह शिक्षा के अधिकार का व समानता के अधिकार का हनन नहीं होगा। छात्राओं का मुख्य अधिकार शिक्षा लेना है। अपने-अपने धर्म में किसे क्या जरूरी लगता है ये व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला है। किसी भी धर्म की लड़की को उसकी भेष-भाषा की वजह से शिक्षा से वंचित कर देना भी मौलिक अधिकारों का हनन है। 

भारत में महिला शिक्षा का स्तर पुरुषों की तुलना में बहुत कम है उसमें भी मुस्लिम छात्राओं का स्तर और भी कम है। हमारा भारतीय समाज पितृसत्तात्मक पिछड़ी मूल्य-मान्यताओं से भरा हुआ है। जहां छात्राओं पर तरह-तरह की पाबंदियां लगायी जाती हैं। वह क्या खाएंगी, कहां जाएंगी, क्या पहनंेगी, क्या ओढ़ेंगी, किसको अपनी सहेलियां बनाएंगी, किससे प्रेम करंेगी, किससे शादी करेगी, यह सब उनका परिवार और समाज तय करता है। लड़कियों की इच्छा का कोई मोल नहीं होता है। छात्राएं अपने-अपने परिवारों से बहुत संघर्ष कर अपनी पढ़ाई करने निकल पाती हैं। इसमें भी मुस्लिम छात्राओं के लिए यह और ज्यादा कठिन हो जाता है। इस तरह के कदमों से होगा यह कि छात्राओं का स्तर शिक्षा में और कम हो जाएगा। हिजाब पर पाबंदी ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ नारे के फर्जी होने की पाले खोल देता है। जहां सरकार एक तरफ बेटियों को पढ़ाने की बात करती है। वहीं बेटियों को घरांे में कैद करने के लिए फासीवादी व दक्षिणपंथी संगठन नये-नये कानूनों व साम्प्रदायिक एजेन्डों को बेटियों के ऊपर थोप रहे है। 

निश्चय ही हिजाब, बुर्का, घूंघट से लेकर मंगलसूत्र-करवाचौथ तक सभी पिछड़ी पितृसत्तात्मक सोच के परिचायक हैं। ये सभी महिलाओं को गुलामी में, पुरुषों से कमतर रखने के साधन हैं। लेकिन इनसे मुक्ति का रास्ता क्या होगा? इनसे मुक्ति की आवाज शिक्षित हो, जागरुक हो हर समुदाय की महिलाओं को खुद उठानी होगी। लेकिन अगर कोई सत्ता जबरन महिलाओं के इन वेश-भूषाओं पर रोक लगाती है तो यह महिलाओं के पहनावे के जनवादी अधिकार को कुचलने वाला फासीवादी कदम होगा। महिलाओं पर जबरन लादे जाने वाले इस कदम का विरोध उसी तरह जरूरी है जिस तरह उन रूढ़िवादी तत्वों का विरोध जरूरी है जो महिलाओं को जबरन हिजाब-बुर्का- घूंघट पहनाना चाहता हैं। महिलाओं के लिए जबरन किसी पहनावे-रिवाज तय करना या जबरन किसी पहनावे-रिवाज से उन्हें वंचित करना दोनों ही गलत हैं। बात मुस्लिम महिलाओं की करें तो उनसे हिजाब जबरन छीनने वाले हिन्दू फासीवादी व उनको जबरन हिजाब पहनाने वाले मुस्लिम कट्टरपंथी दोनों ही महिला विरोधी व गलत हैं।

वैसे भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19 सभी नागरिकों को स्वतंत्रता का अधिकार देता है। अपनी पसंद के पहनावे से लेकर, विवाह अपनी पसंद से करने तक के अधिकार सभी स्त्री-पुरुषों को देता है। अनुच्छेद 14 धर्म, नस्ल, जाति, लिंग, स्थान के आधार पर किसी भी भेदभाव का विरोध करता है। पर संविधान में दर्ज इन बातों को आज हमारे संघी शासक खुलेआम ठेंगा दिखा रहे हैं।

यहां सवाल हिजाब, पर्दा, स्कर्ट व जीन्स का नहीं है। असल बात यह है कि संघी लम्पटों को लड़कियों की स्वतंत्रता, स्वतंत्र सोच, उनके रहन-सहन व उनके प्रगतिशील विचारों से दिक्कत है। साम्प्रदायिक सोच रखने वाले ये फासीवादी दक्षिणपंथी संगठनों को लड़कियों की आजादी और खुदमुख्तार होने से दिक्कत है। ये वही लोग हैं जो वेलेन्टाइन डे पर युवक-युवतियों पर हमला करते हैं। हिन्दू लड़कियों का अपनी इच्छा से मुस्लिम लड़कों से प्रेम विवाह करने पर ‘लव जिहाद’ का लेबल लगा देते हैं। ये वही हैं जिन्हें लड़कियों के स्कर्ट व जीन्स पहनने पर भी और हिजाब पहनने पर भी दोनों में दिक्कत है। 

पितृसत्तात्मक पिछड़ी सामंती सोच के हिमायती ये संघी लम्पट लड़कियों की निजी जिन्दगी के हर क्षेत्र पर अपना दखल व नियंत्रण चाहते हैं। लड़कियां क्या खाएंगी, क्या पहनेंगी, क्या ओढ़ेंगी, किससे शादी करेंगी, कितने बच्चे पैदा करेंगी, बेटा पैदा करेंगी या बेटी उनके हर कदम पर लगाम लगाये रखना चाहते हैं। कर्नाटक में संघी लम्पटों द्वारा की गई गंुडई लड़कियों के शिक्षा के अधिकार को सीमित, संकुचित कर भविष्य में उनके शिक्षा के अधिकार को छीन लेना ही है। लड़कियों को शिक्षा से बाहर धकेलकर घरों में कैद करने की और बढ़ाया गया उनका एक ओर कदम है।

कुछ का कहना है कि भाजपा अपने फासीवादी ऐजेन्डे के तहत यह हंगामा करवा रही है तो कुछ का कहना है कि कंाग्रेस। पर जो भी हो इस सब से लड़कियों के मौलिक अधिकार शिक्षा प्राप्त करने का हनन होगा। यह जो भी कर रहा हो इससे फासीवादी राजनीति को बढ़ावा मिलेगा। महिलाओं के अधिकार संकुचित होंगे सिर्फ महिलाओं के ही नहीं बल्कि मजदूर मेहनतकश अवाम इस तरह की राजनीति से अपने जनवादी अधिकारों को खोती जाएगी।

मजदूर मेहनतकश जनता ने अपनी अकूत कुर्बानियों की बदौलत अपने अधिकार हासिल किए हैं। फासीवादी ताकतें संविधान की धज्जियां उड़ा कर मजदूर-मेहनतकश-छात्रों- महिलाओं- दलितों- आदिवासियों के बचे हुए जनवादी अधिकारों को भी छीन लेना चाहती है। और संविधान का हवाला देकर हम पर तानाशाही लागू करने की कोशिश कर रही है। 

प्रगतिशील व्यक्ति, संगठन पुरानी पिछड़ी पितृसत्तात्क मूल्य- मान्यताओं का समर्थन कभी नहीं करेगा। लेकिन वह व्यक्ति की स्वतंत्रता व समानता का पक्षधर होगा। इसलिए आज जरूरी हो जाता है जब देश में इन संघी लम्पटों द्वारा जनवाद को कुचलने की कोशिशें की जा रही हैं तो इनका डटकर सामना किया जाए। हर जनवादी संघर्ष में अपनी भागीदारी सुनिश्चित की जाए।  

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