बुधवार, 23 नवंबर 2022

 ‘‘भारत जोड़ो यात्रा’’ निहित स्वार्थ और निहितार्थ

                                                                                                                   - कैलाश

आजकल कांग्रेस ‘‘भारत जोड़ो यात्रा’’ का जमकर प्रचार किये हुए है। राहुल गांधी के नेतृत्व में कन्याकुमारी से कश्मीर तक यह यात्रा चलनी है। 150 दिन में यह यात्रा 12 राज्य व केन्द्र शासित प्रदेशों से होते हुए जाएगी। 3570 किलोमीटर की इस पैदल यात्रा का उद्देश्य भारत को जोड़ना बताया जा रहा है।


कांग्रेस अपनी इस यात्रा से भाजपा व केन्द्र की मोदी सरकार पर आक्रामक है। यात्रा को ‘‘भारत जोड़ो’’ नाम देने का अर्थ है कि देश को तोड़ा गया है। कांग्रेस के अनुसार भारत नरेन्द्र मोदी के काल में तोड़ा गया है।

इस ‘‘भारत जोड़ो यात्रा’’ पर भाजपा की तरफ से आलीशान बसों, राहुल गांधी की टी-शर्ट की कीमत से लेकर यात्रा के कुछ ही दिन चलने आदि जैसी बातें कर खिल्ली उड़ायी गयी। शुरूआती आक्रामकता के बाद फिलहाल भाजपा इस यात्रा को नजरअंदाज ही कर रही है। 

तमिलनाडु से शुरू हुयी इस यात्रा के दौरान दक्षिण भारत में हुयी रैलियों में बड़ी संख्या में भीड़ जुट रही है। उत्तर भारत में इस यात्रा को लोग किस रूप में लेते हैं, यह देखने वाली बात है। फिलहाल मुख्यधारा का हिन्दी मीडिया यात्रा को खास तवज्जो नहीं दे रहा है, हालांकि उत्तर भारत की ओर बढ़ने पर उसके लिए भी यात्रा को नजरअंदाज करना मुश्किल होगा।

कांग्रेस की ‘‘भारत जोड़ो यात्रा’’ का मकसद आगामी लोकसभा चुनाव में पार्टी की स्थिति सुधारना है। यही वजह है कि कांग्रेस ने तमाम लोकरंजक बातें करना शुरू कर दिया है। जहां महंगाई, बेरोजगारी आदि सामाजिक समस्याओं पर मोदी सरकार की आलोचना की जा रही है। वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस नीत राज्यों छत्तीसगढ़, राजस्थान में पेंशन बहाली जैसे कदम का महिमामण्डन भी किया जा रहा है। हालांकि कांग्रेस के तमाम प्रयासों के बावजूद अभी एकाधिकारी पूंजी का वरदहस्त उसे वैसा नहीं प्राप्त हुआ है जैसा कभी नरेन्द्र मोदी को 2014 लोकसभा चुनाव से पहले हासिल था। कारपोरेट मीडिया में इस यात्रा को खास महत्व न दिये जाने से यह साफ हो जाता है।

भारत जोड़ो यात्रा में राहुल गांधी की छवि एक गम्भीर राजनीतिज्ञ की बनाने के प्रयास हो रहे हैं। गम्भीर राजनीतिज्ञ से भी बढ़कर एक साधु, तपस्वी आदमी की छवि हासिल करने की कोशिश की जा रही है। लम्बी यात्रा, पैदल चलना, आम लोगों से हंसते-खिलखिलाते मिलते हुए जाना, सबसे बढ़कर की इतनी बड़ी सेलिब्रिटी ‘‘देशहित’’ के लिए निरंतर सड़कों पर। हालांकि यह सबके लिए स्पष्ट है कि यह ‘‘देशहित’’ राहुल व कांग्रेस का सत्ता तक पहुंचने तक जरिया भर है। 

भारत में तपस्वी होने पर सिद्धार्थ; गौतम बुद्ध और मोहनदास; महात्मा गांधी होते रहे हैं। चुनावी राजनीति में ऐसा प्रयोग नया नहीं है। कभी मीडिया ने घर-बार छोड़ा हुआ देश सेवक, त्यागी-तपस्वी, देशहित में पत्नी को छोड़ने वाला आदि प्रचार के जरिये नरेन्द्र मोदी की भी ऐसी ही छवि गढ़ी थी। आज कैमरों की विशेष सज्जा में उनकी सामान्य तपस्वी से अधिक ‘‘हिन्दू तपस्वी’’ जो माथे पर चौड़ा तिलक लगाये, मंदिर दर्शन, गंगा आरती, गुफा ध्यान आदि करता है कि छवि गढ़ी गयी है। छवि गढ़ने का साफ मतलब होता है कि व्यक्ति वास्तव में वैसा बिल्कुल नहीं है। यह बात मोदी, राहुल सहित राजनीति के योगी, साधु, साध्वी सभी पर लागू होती है। ये तमाम ‘‘तपस्वी’’ राजनीति में बड़े कोरपोरेट की सेवा करने के लिए हैं। वही असल में इनके भगवान हैं उनको खुश करने के लिए ही ये 18 घंटे काम करने से लेकर लम्बी पैदल यात्रा तक करने तक सब यत्न करते हैं।

राहुल गांधी की इस यात्रा और उनकी जन कल्याणकारी मॉडल वाली लोकहितकारी बातें उदार पूंजीवादी तत्वों से लेकर संशोधनवादियों, सुधारवादियों को लट्टु किए हुए हैं। वे आज राहुल के वैसे ही प्रशंसक हो गये हैं जैसे वो कभी अन्ना, अरविंद केजरीवाल या नरेन्द्र मोदी के हो गये थे। अब उन्हें राहुल गांधी में राष्ट्र का उद्धारक नजर आ रहा है। हालांकि नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल में राज्य के निरंतर होते हिन्दू फासीवादीकरण से ‘‘आतंकित’’ कुछेक क्रांतिकारी संगठन व लोग भी राहुल की तरफ आशा भरी नजरों से देख रहे हैं। राहुल की नजर 2024 के लोकसभा चुनाव पर है। 

दुनियाभर में फासीवाद के इतिहास से साफ है कि फासीवाद को चुनाव के जरिये मात नहीं दी जा सकती। इसको व्यापक जनता के फासीवाद विरोधी क्रांतिकारी आंदोलन से ही धूल चटानी होगी। जब-जब मेहनतकश जनता फासीवाद को धूल चटाने निकलती है तब-तब उदार पूंजीवादी तत्व इस संघर्ष को पूंजीवादी दायरे में समेटने में जुट जाते हैं। जनता जहां समाजवाद चाहती है वहीं ये हिस्से फासीवाद की जगह पूंजीवादी लोकतंत्र की स्थापना चाहते हैं।

भारत जोड़ो यात्रा के जरिये कांग्रेस देश के बड़े पूंजीपति वर्ग का कितना समर्थन हासिल कर पाती है, यह देखने वाली बात है। चुनाव में पैसों का खेल ही आज सबसे बड़ी भूमिका में है। जनता को सम्मोहित करने के लिए ‘‘तपस्वी’’ छवि के साथ व्यापक प्रचार की भी जरूरत होगी। इसके लिए बड़े पूंजीपति वर्ग को भी खुश करना होगा।

मेहनतकश जनता को ‘‘सम्मोहित’’ करना और पूंजीपति वर्ग को खुश करने का द्वंद्व ही कांग्रेस के ‘‘लोकलुभावन’’ नारों के जुमला बन जाने की साफ अभिव्यक्ति है। वैसे ही जैसे ‘‘अच्छे दिन’’ मेहनतकश जनता के लिए ‘‘डरावना’’ ख्याल और पूंजीपतियों के लिए ‘‘आपदा में अवसर’’ बन गया है। 

छात्रों-नौजवानों, मेहनतकशों को यह साफ समझ लेना चाहिए कि इतिहास की निर्णायक शक्ति संघर्षरत मेहनतकश जनता होती है। जेएनयू, डीयू, हैदराबाद, बीएचयू, मणिपुर विश्वविद्यालय के छात्रों का संघर्ष हो या 2015 में बंगलुरु की गारमेंट क्षेत्र की महिला मजदूरों का संघर्ष हो, सीएए-एनआरसी विरोधी व्यापक जन आंदोलन हो या ऐतिहासिक सफल किसान आंदोलन। मेहनतकश जनता की मुक्ति का रास्ता पूंजीपति वर्ग के सेवक किसी राहुल, किसी मोदी या किसी और को कंधों पर उठा सत्ता में पहुंचाने में नहीं, बल्कि इनको पूंजीवादी तख्तो-ताज सहित इतिहास के अजायबघर में सजाने में है।

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