बुधवार, 23 नवंबर 2022

 लातिन अमेरिका

’’वामपंथी उभार की दूसरी लहर’’ के मायने

                                                                                                                    - मोहन

यूरोप के कई देशों में दक्षिणपंथी, धुर दक्षिणपंथी और फासिस्ट शक्तियां ताकतवर हो रही हैं और कई देशों में सत्ता में आ रही हैं, वहीं लातिन अमेरिका के कई देशों में ‘‘वामपंथी’’ या ‘‘वामपंथी रूझान रखने वाली’’ सत्ताएं आ रही हैं। इस परिघटना को पंूजीवादी प्रचार मीडिया में लातिन अमेरिका में ‘‘वामपंथी उभार की दूसरी लहर’’ घोषित किया जा रहा है। 1990 के दशक के उत्तरार्ध में ब्राजील में लूला डी सिल्वा और वेनेजुएला में ह्यूगो शावेज के सत्ता में आने के बाद की परिघटना को पहली लहर घोषित किया गया था। इस दूसरी लहर को 2017 के बाद की परिघटना बताया जा रहा है। 


इस दूसरी लहर में मैक्सिको के ओब्राडोर सत्ता में आये। इसके बाद अर्जेण्टीना में अलबर्टो फर्नाण्डेज, बोलिविया में लुइस एक्रे, पेरू में पेड्रो कैस्टिलो, चिली में गैब्रियल बोरिक, होण्डूरास में जियोमारा कैस्ट्रो और कोलम्बिया में गुस्तावो पेट्रो सत्तासीन हुए। ये सभी ‘‘प्रगतिशील’’ और ‘‘वामपंथी’’ कहे जा रहे हैं। पहली लहर के दौरान सत्ता में आने वाली ताकतंे इसी पूंजीवादी व्यवस्था की हिमायत करती थीं। वे इस व्यवस्था के भीतर व्यापक जनता के आंसू पोछने वाले कदम उठा रही थीं। लेकिन हर पूंजीवादी सत्ता की तरह वे भी पूूूंजी के हितों की नुमाइन्दी करती थीं। वहां की आर्थिक असमानता, बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार बड़े पैमाने पर मौजूद था। हालांकि वे अमेरिकी साम्राज्यवाद की लातिन अमेरिका में धौसपट्टी और दबदबे का एक हद तक विरोध करती थीं। इसके चलते इन देशों की दक्षिणपंथी ताकतें अमरीकी साम्राज्यवादियों की सह पर तख्तापलट करने की कोशिश में, साजिश में संलग्न रहती थीं। वे इसमें एक हद तक सफल भी हुई थीं। 

अमरीकी साम्राज्यवादी 1823 से ही लातिन अमेरिका को अपना पृष्ठभाग मानते रहे हैं। बदनाम मुनरो सिद्धांत के अनुसार लातिन अमेरिका अमरीकी साम्राज्यवादियों का विशेष प्रभाव क्षेत्र रहा है। अमरीकी साम्राज्यवादी इस समूचे क्षेत्र में अपनी पिछलग्गू सत्ताएं कायम करते रहे हैं। यदि कोई सत्ता अमरीकी साम्राज्यवादियों के हितों के विरूद्ध कुछ भी कदम उठाती रही है तो अमरीकी साम्राज्यवादी वहां तख्तापलट कराके अपनी पिछलग्गू सत्ता कायम करते रहे हैं। लातिन अमेरिका के देशों में अमरीकी साम्राज्यवादी अभी भी यही कर रहे हैं। इसके लिए उन्होंने विभिन्न देशों में अपने फौजी अड्डे बनाये हुए हैं। वे लातिन अमेरिकी देशों के फौजी अफसरों की टेªनिंग के जरिये वहां की फौजों में किसी न किसी रूप में अपना वर्चस्व बनाये रखने का प्रयास करते हैं। वे लातिन अमेरिकी देशों के पंूजीपतियों और बड़े-बडे़ रैंचों(एक तरह का फार्म) के मालिकों को अपना ताबेदार और सहयोगी बनाकर वहां के साधन स्रोतों पर अपना नियंत्रण कायम करते हैं। ये मूलभूत कारण हैं जिनके चलते लातिन अमेरिकी देशों की मजदूर-मेहनतकश आवाम अमरीकी साम्राज्यवादियों और उनके देशी सहयोगी पूंजीपति वर्ग और रैंचों के स्वामियों के विरूद्ध समय-समय पर विद्रोह और अधिकतर समयों में प्रतिरोध करती रही है। इन्हीं प्रतिरोधों और विद्राहों को कुचलने के लिए अमरीकी साम्राज्यवादी दक्षिणपंथी ताकतों और सैनिक तानाशाहियों को सत्तासीन करते रहे हैं। ये सत्ताएं मजदूर-मेहनतकश आवाम के हर विरोध को खून की नदियों में डुबाते रहे हैं। वे हर राजनीतिक विरोध की आवाज को कुचल देते रहे हैं। राजनीतिक विरोधियों को जेल, यातना, उन्हें गायब करने और महिलाओं के साथ न सिर्फ दुर्व्यवहार बल्कि महिला होने के नाते उनकी हत्याओं को सिलसिला इन देशों में चलता रहा है। यह आज भी जारी है। इसी शोषण, दमन और उत्पीड़न की पीठ पर सवार होकर पहले चरण के ‘‘वामपंथी’’ सत्ता में आये थे। वेनेजुएला के ह्यूगा शावेज ने इसे ‘‘बोलिवियाई क्रांति’’ कहा और कहा कि वे ‘‘इक्कीसवीं सदी का समाजवाद’’ ला रहे हैं। ब्राजील के लूला डी सिल्वा की अगुवाई में विश्व आर्थिक मंच के समानांतर विश्व सामाजिक मंच के आयोजन में उन्हीं साम्राज्यवादियों से आर्थिक मदद ली गई जो लातिन अमेरिका और समूचे विश्व में दमन, उत्पीड़न और शोषण व संसाधनों की लूट के जिम्मेदार हैं।

‘‘वामपंथ के उभार की इस दूसरी लहर’’ में सत्ता में आयी शक्तियां तो पहली लहर की तुलना में और भी ज्यादा साम्राज्यवाद परस्त व अपने यहां पूंजी के समर्थक हैं। हां, इनमें एकरूपता नहीं है। इनमंे कुछ दक्षिणपंथी सत्ताओं द्वारा जेल की सजा काट चुके हैं। कुछ छात्र आंदोलनों से पैदा हुए हैं। कुछ कभी दक्षिणपंथी सत्ताओं के विरूद्ध छापामार संघर्षों का हिस्सा रहे हैं। लेकिन यह सब इनका अतीत रहा है। वे वर्तमान मंे पूंजीवादी व्यवस्था को अपने-अपने देशों में संचालित कर रहे हैं। 

अभी थोड़े दिन पहले चिली के शासक गैब्रियल बोरिक ने यह सोच कर संवैधानिक जनमत संग्रह कराया था कि उनकी लोकप्रियता उसे सफल बना देगी। लेकिन संविधान मंे संशोधन कराने के इस जनमत संग्रह में उन्हें असफलता मिली। यह चिली के दक्षिणपंथी ताकतों के प्रभाव को भी प्रकट करता है। 

पिछले कुछ वर्षों के दौरान हुए चुनावों में निरंकुश तानाशाहों और लोगों के बुनियादी अधिकारों पर हमला करने वाले शासकों जैसे चिली के सेबेस्तियन पिनेरा, अर्जेण्टीना के मारिसयो मैक्री, कोलंबिया के इवान डुर्के और इक्वाडोर के लेनिन मोनेरो की चुनावों में हार हुई और इनके स्थान पर ‘‘वामपंथी’’, ‘‘प्रगतिशील’’ ताकतें सत्तासीन हुईं। लेकिन इससे यह निष्कर्ष निकालना कि दक्षिणपंथी ताकतों की चुनावों में हार से वे लातिन अमेरिका के राजनीतिक हलके से हमेशा के लिए गायब हो जायेंगे, एक भारी भूल होगी। लेकिन इन नये सत्ताधारियों को मौजूदा समय में वैसा ही तानाशाह समझना, जैसा कि इनके पूर्व के शासक थे, यह भी एक बड़ी गलती होगी। लेकिन इन शासकों को ‘‘प्रगतिशील’’, ‘‘वामपंथी’’ और ‘‘समाजवादी’’ समझना इनके वर्ग चरित्र को सीधे नकारना होगा। कई सारे अपने को प्रगतिशील कहने वाले बुद्धिजीवी और कथित वामपंथी पार्टियां पहली लहर वालों को ‘‘इक्कीसवीं सदी के समाजवाद’’ लाने का सूत्रीकरण कर चुकी हैं। पराजित मानसिकता के कुछ क्रांतिकारी समूह भी ऐसा कर चुके हैं। वे इस दूसरी लहर से भी ऐसी ही उम्मीद लगाये हुए हैं। यह उनका दिवास्वप्न है। कुछ ऐसे भी समूह हैं जो पूंजीवादी व्यवस्था के भीतर चलने वाली टकराहटों में ‘‘कमतर बुराई’’ का साथ देने की हिमायत में ऐसी ताकत के सत्ता में आने की हिमायत करते हैं। वे अपने बुनियादी कार्यभारों का परित्याग करके ‘बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना’ जैसा व्यवहार करते हैं। ऐसे निष्कर्ष हमेशा उनको इस या उस पूंजीवादी समूह के पक्ष में खड़ा होने की ओर ले जाते हैं। यह उन्हें कभी सही रास्ते की ओर नहीं ले जाता। 

लातिन अमेरिकी और कैरिबियाई देशों के तथाकथित वामपंथी नेता दुनिया में चल रहे साम्राज्यवादी वैश्वीकरण का समर्थन करते हैं। ये सभी पूंजीवादी चुनावों में विजयी होकर सत्ता में आये हैं।

यह तो उसी तरह से है जैसे अमरीकी साम्राज्यवादियों की ‘‘डेमोक्रेटिक पार्टी’’ अमरीकी जनता के लिए वामपंथी झुकाव रखने वाली पार्टी है और यह अमरीकी जनता के लिए बेहतर है। 

यह बात जितनी पूर्णतया गलत है उतना ही यह कि लातिन अमेरिकी देशों के ये सत्तासीन लोग वामपंथी हैं और वहां की मजदूर-मेहनतकश अवाम के हितैषी हैं। 

ये विश्व आर्थिक मंच की युवा वैश्विक नेता की एकेडमी से निकले लोग विश्व आर्थिक मंच का रिसेट/एजेण्डा 2030 कार्यक्रम के हिस्से हैं। इस एजेण्डा को इन नये लातिन अमेरिकी और कैरोबियाई नेताओं ने समर्थन किया है। जो पूंजीवादी शासक समर्थन नहीं करेंगे उन्हें खरीद लिया जायेगा, उन पर दबाव डाला जायेगा या उनका भयादोहन किया जायेगा। 

सर्वप्रथम यह समझना जरूरी है कि आज के साम्राज्यवादी-पूंजीवादी विश्व में चुनाव पहले के किसी भी समय की तुलना में ज्यादा बड़ा पैसे का खेल हो गया है। इन पूंजीवादी संसदीय चुनावों में वही आमतौर पर विजयी होता है जिसे बड़ी पूंजी का समर्थन सबसे अधिक होता है और जो अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के हित में काम करने को तत्पर होता है। यदि कोई अन्य विजयी होकर ऐसा नहीं करता तो उसका किसी न किसी रूप में तख्तापलट करा दिया जाता है। ये तख्तापलट कराने का काम अंतर्राष्ट्रीय वित्त पंूजी उस देश के अपने सहयोगियों के साथ मिल कर करती है। 

इस तख्तापलट कराने के काम में वित्तीय महाप्रभुओं का तंत्र लगा है। जिसमें ब्लैकरॉक, वैनगार्ड और स्टेटस्ट्रीट जैसी संस्थाएं हैं और इसके बाद जेपी मार्गन चेज, गोल्डमैन साच, सिटीगु्रप, मार्गन स्टैनली, यू.वी.एस. जैसी संस्थाएं आती हैं। इन बाद वाली संस्थाओं द्वारा आम तौर पर समूचे पश्चिमी देशों के उत्पादन, जिसमें खाद्य प्रसंस्करण उत्पादन शामिल है, को नियंत्रित किया जाता है। वे प्रत्येक चीज में शेयरों के बहुमत के मालिक हैं। इससे इनकी ताकत का वैश्विक पैमाने पर अंदाज लगाया जा सकता है। 

लातिन अमेरिका और कैरोबियाई देश तो अमरीकी साम्राज्यवादियों के पृष्ठभाग हैं। अभी हैती में हो रहे व्यापक जन विरोध को कुचलने के लिए अमरीकी साम्राज्यवादियों और कनाडा ने संयुक्त रूप से सेना भेजने का फैसला लिया है। हैती मंे 2022 के समूचे काल के दौरान लोकप्रिय विद्रोह चलता रहा है। यह 2016 से शुरू होकर चलने वाले प्रतिरोध के चक्र का जारी रूप है। एक शताब्दी से ज्यादा समय से अमरीकी साम्राज्यवादी हैती पर अपना नियंत्रण रखते रहे हैं। पहले हैती में राष्ट्रपति जोवेनेल मोइस की हत्या कराई गई, इसके बाद 2021 मेें एरियल हेनरी को सत्ता में बिठाकर अब अमरीकी साम्राज्यवादियों अपने पिटठू को जन विद्रोह से बचाने के लिए सेना भेजने का फैसला लिया है। 

अमरीकी साम्राज्यवादी लातिन अमेरिकी और कैरोबियाई देशों में तख्तापलट पिछले लंबे समय से करते रहे हैं। चिली में 1973 में सल्वाडोर आयन्दे की सरकार का तख्तापलट कराया था। निकारागुआ और अन्य कई देशों में वे यह करते रहे हैं। ह्यूगो शावेज के मामले में वे बार-बार असफल हुए। लेकिन मादुरो का तख्ता पलटने की वे अभी भी कोशिश कर रहे हैं। उनके पास आर्थिक प्रतिबंधों का हथियार है जिसका वे इस्तेमाल क्यूबा और वेनेजुएला में लगातार कर रहे हैं। इन प्रतिबंधों से जन समुदाय जब परेशान होता है तो वे सरकार के विरूद्ध विद्रोह कर सकते हैं, अमरीकी साम्राज्यवादी इसका इस्तेमाल करते हैं।

इसलिए तथाकथित वामपंथी सत्ताएं अतीत की वामपंथी सत्ताओं का हश्र देख चुकी हैं। ये ज्यादा ‘‘व्यवहारवादी’’ हो गये हैं। यही कारण है कि बोरिक सल्वाडोर आयंदे को श्रद्धांजलि भी देते हैं और अमरीकी साम्राज्यवाद के साथ सांठ-गांठ भी करते हैं। आयंदे को श्रद्धांजलि सांकेतिक है। यह प्रचार के काम आती है। बोरिक का वामपंथी नकाब कायम रखती है। जबकि अमरीकी साम्राज्यवाद से सांठ-गांठ उसकी असली सच्चाई है। यही कमोबेश हाल अन्य शासकों का भी है।

इन तथाकथित वामपंथी और समाजवादियों के असली पूंजीपरस्त चेहरे को बेनकाब करके ही वहां के मजदूर-मेहनतकश अपनी मुक्ति के संघर्ष को आगे बढ़ा सकते हैं। इनके भ्रम फैलाने वाले कुहासे को छांटे बिना मजदूर-मेहनतकश आबादी अपनी मुक्ति हासिल नहीं कर सकती। 

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