बुधवार, 23 नवंबर 2022

 महिलाओं की आजादी, मुक्ति और हिन्दू फासीवादी

प्रसिद्ध राजनैतिक उक्ति है कि किसी समाज की स्वतंत्रता का मापदण्ड स्त्रियों की स्वतंत्रता है। यानी कोई समाज कितना आजाद है, इसका अगर आंकलन करना हो तो यह देखना चाहिये कि उस समाज में औरतें कितनी आजाद हैं।

हाल के दिनों में ईरान में हिजाब-बुरकों को आग की भेंट चढ़ाती, अपने लम्बे बालों को अपने हाथों से काटती, ‘‘आजादी!’’ ‘‘आजादी!’’ के नारे लगाती हजारों-हजार औरतों की तस्वीरें पूरी दुनिया के सामने आयी। आजादी की मांग करती इन औरतों के साथ सैकड़ों युवा-पुरुष भी थे। ईरान की धार्मिक कठमुल्लावादी सरकार धर्म के नाम पर इन प्रदर्शनकारियों पर गोलीबारी कर निर्मम दमन कर रही है। कुछ समय पहले ऐसी ही तस्वीरें अफगानिस्तान से भी सामने आयी थी।

हमारे देश की तस्वीर ईरान-अफगानिस्तान के एकदम समान तो नहीं परन्तु बहुत भिन्न भी नहीं है। ईरान की माहसा अमीनी की तरह हमारे यहां अंकिता भण्डारी है। और बिलकिस बानो जैसी हजारों औरतें हैं जिन्हें भारत के हिन्दू तालिबानी (संघ-भाजपा-बजरंग दल के लोग) दशकों से अपने निशाने पर लेते रहे हैं। गर्भवती मुस्लिम महिलाओं से बलात्कार करने तक से ही इनकी ‘‘पवित्र’’ धार्मिक भावनाओं की पूर्ति नहीं होती है बल्कि ये उनकी हत्या करने के बाद उनके गर्भ में पल रहे भ्रूण की भी निर्ममतापूर्वक हत्या कर देते हैं।

दुनिया में आज शायद कोई-कोई देश हो जहां स्त्रियों के जीवन को धार्मिक मूल्य-मान्यताओं, नस्लीय विचारों, पितृसत्तात्मक मूल्यों से संचालित व नियंत्रित करने की कोशिश न होती हो। धार्मिक पुनरुत्थानवादियों से लेकर नव-फासीवादी आये दिन महिलाओं के सन्दर्भ में निर्देश से लेकर धार्मिक आदेश (फतवे) जारी करते रहते हैं। धर्म, संस्कृति, राष्ट्र, परिवार, नस्ल की शुचिता और रक्षा के लिये महिलाओं की स्वतंत्रता, रोजगार, सामाजिक व्यवहार, उनके प्रेम व विवाह संबंधित निजी निर्णयों में दखल, गर्भधारण करने या न करने संबंधित फैसले यानी उनकी यौनिकता से लेकर जीवन तक की हर चीज को नियंत्रित करने की कोशिश की जाती है। कोई स्त्री क्या पहनेगी, क्या खायेगी, कहां और किसके साथ जायेगी, किससे प्रेम अथवा विवाह करेगी जैसे प्रश्न वह स्त्री नहीं बल्कि उसके परिवार के सदस्य ही नहीं बल्कि धर्म, नस्ल, राष्ट्र के धंधेबाज ठेकेदार तय करेंगे। और इनकी बात न मानने की सजा बलात्कार से लेकर हत्या तक कुछ भी हो सकती है।

भारत में जब से हिन्दू फासीवादी पुनः सत्ता में आये हैं तब से वे धर्म-संस्कृति की रक्षा के नाम पर किस हद तक उतर आये हैं उसके एक से बढ़कर एक उदाहरण सामने आते हैं। आये दिन केन्द्र व राज्य सरकारों में बैठे मंत्री आम गरीब मुस्लिमों से लेकर फिल्मी कलाकारों आदि सभी को धमकाते फिरते हैं। सच की परवाह किये बगैर झूठ और मिथक का प्रचार करते हैं। गरबा नृत्य में कथित तौर पर मुस्लिम युवकों के आ जाने के नाम पर गुजरात चुनाव के पहले धार्मिक ध्रुवीकरण करने की घटनाएं बड़े पैमाने पर सामने आयी। हद तो यह थी कि सरेआम सादी वर्दी में पुलिस वाले तालिबानियों की तरह मुस्लिम युवकों को खंबे से बांधकर पीट रहे थे और हिन्दू भीड़ तालियां पीट रही थी। एक अन्य तरीके से हिन्दू तालिबानी मंत्री नरोत्तम मिश्रा (गृहमंत्री मध्यप्रदेश) आमिर खान को धमका रहे थे। असल में एक निजी बैंक के विज्ञापन में गृह प्रवेश को नये व कलात्मक ढंग से फिल्माया गया था। पुरुष (आमिर खान) एक स्त्री (कियारा आडवाणी) के घर में शादी के बाद प्रवेश करते हैं। जहां उनका मकसद स्त्री के बीमार मां-बाप की सेवा करना है। मूर्ख नरोत्तम मिश्रा को एक आपत्ति यह थी कि विवाह के बाद लड़की रोयी नहीं और गृह प्रवेश स्त्री के घर में नहीं, पुरुष के घर में होता है। हिन्दू तालिबानी स्त्रियों के बारे में क्या सोचते हैं, ऐसी घटनाएं रोज-रोज सामने आती हैं।

ऐसे ही अंकिता भण्डारी की निर्मम हत्या ने भाजपा-संघ के नेताओं के चरित्र का फिर एक बार खुलासा किया। एक नौजवान स्त्री को भाजपा-संघ के नेता का पुत्र वेश्यावृत्ति के धंधे में धकेलने के लिए हर यत्न करता है और जब अंकिता इसका विरोध करती है तो वह अपने सहयोगियों के साथ मिलकर उसकी निर्मम ढंग से हत्या कर देता है। अंकिता भण्डारी का मामला एक तो सामान्य नहीं था इसलिए पूरे उत्तराखण्ड में जनाक्रोश फूट पड़ा और दूसरी बात यह है कि संघ-भाजपा के नेता आये दिन ऐसे काण्ड करते रहते हैं। कभी इनका कोई नेता राज्यपाल बनने पर अपने कार्यालय (राजभवन) को बुरे इरादों के साथ ‘यंग लेडीज क्लब’ में बदल देता है तो कोई नेता अपने रसूख का इस्तेमाल कर अपने रिजार्ट को ही वेश्यावृत्ति के अड्डे में बदल देता है। भाजपा के अनेकों विधायक हैं जिन पर बलात्कार आदि के आरोप हैं। ये बातें दिखलाती है कि भले ही भाजपा-संघ के नेता चाल-चरित्र आदि की कितनी ही बातें करते हों असल में इनके यहां अपराधियों की भरमार है। नरेन्द्र मोदी या मोहन भागवत में से किसी के पास न तो इरादा है और न हिम्मत कि वे अपने यहां से इन अपराधियों को बाहर खदेड़ दें। उल्टे अक्सर ही ऐसे मामले सामने आने पर भाजपा-संघ के प्रवक्ता अपने लोगों का निर्ल्लजतापूर्वक बचाव करते हैं।

जब संघ-भाजपा का रुख महिलाओं के प्रति किये जाने वाले अपराधों के प्रति इतनी बेशर्मी से भरा हो तो उनका महिलाओं की आम समस्याओं के प्रति रुख क्या होगा। इसे आसानी से समझा जा सकता है। संघ-भाजपा के लोग एकतरफ तो ऐसी तमाम बातें करते हैं जिससे वे साबित करते हैं कि हिन्दू धर्म में स्त्रियों का दर्जा कथित रूप से कितना ऊंचा है और दूसरी तरफ वे किसी भी हिन्दू युवती के रहन-सहन, पसन्द-नापसन्द, आदि के मामलों में क्रूरतापूर्वक दखल देते हैं। अतीत में कई घटनाएं सामने आ चुकी हैं जब इन्होंने कानून अपने हाथ में लेकर बलपूर्वक किसी मुस्लिम अथवा ईसाई से की गई हिन्दू युवती की शादी को तुड़वाकर या अपहरण कर उसकी शादी जबरदस्ती किसी हिन्दू से करवा दी। ऐसी कुछ घटनाओं में तो वे स्त्रियां दो-दो बच्चों की मां तक थी।

संघ-भाजपा के लोग जिस हिन्दू धर्म के समर्थक हैं, वह हिन्दू धर्म एक ऐसा धर्म है जो मध्ययुगीन ब्राह्मणवादी रुढ़िवादी धर्म है। इसे ये कई दफा ‘सनातन धर्म’ भी कहते हैं। यह मध्ययुगीन धर्म अपने चरित्र में घोर वर्णवादी-जातिवादी-मर्दवादी है। इसके सोपानक्रम में सबसे ऊपर ब्राह्मण हैं और सबसे नीचे ‘अछूत’। इस धर्म में स्त्रियों का स्थान चाहे वह किसी भी वर्ण अथवा जाति की हो दूसरे दर्जे का है। कोई भी स्त्री किसी भी उम्र में अपने निर्णय आप नहीं ले सकती है। उसके बारे में निर्णय या तो उसका बाप या भाई या पति या फिर पुत्र लेगा। जो कोई स्त्री, पुरुषों के अधिकार क्षेत्र से बाहर जायेगी उसे तुरन्त कुलक्षणी-कुलटा या वेश्या मान लिया जायेगा। संघ-भाजपा के नेता इसलिए जौहर से लेकर सती प्रथा का समर्थन करते रहे हैं। और स्त्रियों के जीवन को नियंत्रित करने की हर वक्त कोशिश करते हैं।

संघ-भाजपा का हिन्दू धर्म एक बन्द धर्म है। इसमें जिसने भी सुधार की कोशिश की वह भाजपा-संघ के लिए एक तरह से बाहरी या पश्चिमी विचारों से प्रभावित हिन्दू धर्म विरोधी है। हिन्दू धर्म के पाखण्ड, प्रपंच, अंधविश्वासों को आज जिस ढंग से मोदी-भागवत से लेकर इनके छोटे-मोटे विधायक-नेता आस्था के नाम पर रक्षा करते फिरते हैं, वह यह बतलाने को पर्याप्त है कि इनका हिन्दू धर्म उस हिन्दू धर्म से बहुत-बहुत अलग है जो आम गरीब हिन्दुओं के बीच प्रचलित रहा है। इनके हिन्दू धर्म में कबीर, नामदेव, दादू जैसे संतों का कोई स्थान नहीं है। सूफी परम्परा जिसे भारत के हिन्दू, मुसलमान या सिक्ख सभी उदार लोग स्वीकारते हैं। वे भी इन फासीवादियों की निगाह में खटकती है। इनका हिन्दू धर्म इनके हिन्दू फासीवादी एजेण्डे को साधने का साधन है। इनका बस चले तो ये कल को ‘एक हिन्दू-एक देवता-एक पूजा पद्धति-एक किताब’ जैसा कोई नारा उछालें। और यह देखने में आता भी रहा है बाबरी मस्जिद तोड़ने और राम मंदिर के निर्माण को लेकर इन्होंने पूरे भारत में एक राम को ही एकमात्र आराध्य बनाने की कोशिशें की भी थी। भारत में कई-कई इलाके रहे हैं जहां अतीत में कभी-भी न तो राम की पूजा होती थी और न ही राम के मंदिर बनाये जाते थे। राम हिन्दुओं के सैकड़ों देवी-देवताओं में एक देवता भर रहे हैं और भारत में राम के बारे में भिन्न-भिन्न और परस्पर विरोधी बातें-कथायें रही हैं। यह बात राम ही नहीं अन्य देवी-देवताओं के बारे में भी सत्य हैं कि एक इलाके से दूसरे इलाके में जाने पर उनके आख्यान बदलते रहे हैं।

संघ-भाजपा का हिन्दू धर्म एक बन्द धर्म ही नहीं बल्कि यह ऐसा धर्म है जो भारत के हिन्दू फासीवाद समर्थक पूंजीपतियों की मंशा को साधता है। संघ-भाजपा का ‘हिन्दू’ सिद्धान्त वैसा ही है जैसा हिटलर का आर्य नस्ल का सिद्धान्त था। हिटलर ‘जर्मन: सबसे शुद्ध आर्य नस्ल है’ के आधार पर पूरी दुनिया में अपना एकछत्र शासन कायम करना चाहता था। संघ-भाजपा के फासीवाद  में शुद्ध आर्य नस्ल-जर्मन नस्ल का स्थान मध्ययुगीन ब्राह्मणवादी सनातन ‘हिन्दू धर्म’ ले लेता है। इनका हिन्दू धर्म इनके फासीवादी एजेण्डे का मूल विषय है। और जब ये कहते हैं कि भारत में रहने वाला हर व्यक्ति हिन्दू है तो इसका मतलब इसके अलावा कुछ नहीं है कि जो कोई इन फासीवादियों की हिन्दू अवधारणा को नहीं स्वीकार करेगा उसे ये फासीवादी, राष्ट्रविरोधी, देशद्रोही, पाकिस्तान समर्थक, ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’, ‘अरबन नक्सल’ आदि कुछ भी कहकर दुश्मन घोषित कर देंगे। और इन फासीवादियों के हथियारबंद गिरोहों को इनकी सरेआम हत्या करने का अधिकार मिल जायेगा।

हिन्दू फासीवादी क्रूर, धूर्त और चालाक होने के साथ-साथ बहुत बड़े प्रपंची भी हैं। ये अपनी एक ऐसी छवि भी प्रचारित करते हैं जिससे ये लगे कि ये तो बड़े ही भले, बड़े ही दिल वाले लोग हैं। इसके लिए हिन्दू फासीवादियों के संगठन के प्रमुख मोहन भागवत कभी किसी मस्जिद और मदरसे में जाते हैं। जहां कोई रीढ़विहीन इमाम इन्हें ‘राष्ट्रपिता’ ‘राष्ट्रऋषि’ की संज्ञा दे देता है। और इसी तरह जब इस बात की आलोचना होती है कि क्यों संघ के प्रमुख पद या स्थानों में स्त्रियां नहीं हैं तो मोहन भागवत झटपट एक स्त्री (संतोष यादव जिन्होंने दो बार एवरेस्ट फतेह किया है और ऐसा करने वाली वे पहली स्त्री हैं) को संघ के सालाना विजयादशमी कार्यक्रम में मुख्य अतिथि बनाकर और फिर इनके जरिये विरोधियों की जुबान चुप कराने से लेकर समाज की आंखों में धूल झोंकी जाती है। ऐसा सब करते हुए हिन्दू फासीवादी संगठन यह जतलाने की कोशिश करता है कि वह स्त्री विरोधी व धार्मिक अल्पसंख्यक द्वेषी नहीं है। लेकिन यह नाटक चंद घण्टे भी नहीं चलता है कि फिर मोहन भागवत या उनके चेले-चपाटे वही स्त्री विरोधी, मुस्लिम विरोधी कुत्सा प्रचार शुरू कर देते हैं।

हिन्दू फासीवाद या किसी भी दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावाद के लिये यह क्यों महत्वपूर्ण होता है कि वे समाज में किसी भी प्रगति, स्वतंत्रता या मुक्ति के विचारों के खिलाफ होते हैं? ऐसा क्यों है कि भारत के हिन्दू फासीवादियों, संघ-भाजपा को आजादी को लेकर लगने वाले नारों से नफरत है, वे जैसे ही आजादी के नारे सुनते हैं वैसे ही क्यों आग बबूला हो जाते हैं? क्योंकि समाज का शासक वर्ग-उच्च वर्ग- किस्म-किस्म की आजादी का उपभोग कर रहा होता है और उसकी आजादी, आराम-ऐश्वर्य की कीमत बाकि समाज अपनी गुलामी से चुका रहा होता है। भारत के शासक वर्ग के रक्षक हिन्दू फासीवादियों को लगता है कि यदि गुलाम आजाद हो जायेंगे तो उनकी ऐश, उनकी मौज, उनकी आजादी खतरे में पड़ जायेगी। यदि औरतें खासकर मजदूर-मेहनतकश, शहरी- ग्रामीण मेहनतकश औरतें, नवयुवतियां आजाद हो जायेंगी तो न केवल आज के शासक वर्ग का लूटतंत्र बल्कि हिन्दू फासीवादियों के फासीवादी हिन्दू राष्ट्र के मंसूबे पर भी पलीता लग जायेगा। और आज आजादी की गारण्टी क्रांति और समाजवाद से हो सकती है।

अब इक्कीसवीं सदी में तो आम लोगों में खासकर नौजवानों में स्वतंत्रता, बराबरी की भावना एक आम भावना बनती गयी है। लोकतंत्र को भले ही शासकों ने चुनावी लोकतंत्र तक सीमित कर दिया हो परन्तु आम जनों, नौजवानों और हर उत्पीड़ित औरत की आजादी, बराबरी और मानवीय गरिमा युक्त पहचान की मांग, आम मांग का रूप धारण करती गयी है। आज कोई नहीं चाहता कि कोई उसके साथ गैर बराबरी का व्यवहार करे। उसके व्यक्तित्व (पर्सनाल्टी) की अवहेलना करे। अपमान या उत्पीड़न करे।

हिन्दू फासीवादियों की दिक्कत यह है कि जिस पीढ़ी को वे गुलामी के बन्धनों में बांधना चाहते हैं वह आजादी, बराबरी की भावना से पहले के किसी भी समय से ज्यादा ओत-प्रोत है। भारत का समाज उतना ही आजाद बनेगा, जितनी औरतें आजाद होंगी। हिन्दू फासीवादी, औरतों को गुलाम बनाये रखने का जो यत्न कर रहे हैं वह औरतों ही नहीं इतिहास की गति के भी खिलाफ है।

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