बुधवार, 23 नवंबर 2022

 पूंजीवादी निजाम में प्राइमरी शिक्षा-1

                                                                                                     मदन पाण्डे


दुनिया के कुछ अतिविकसित देशों को छोड़ दे तो बाकि पूंजीवादी देशों में सरकारी प्राइमरी-जूनियर स्कूलों और शिक्षा का हाल लगभग एक जैसा है। सो भारत मंे भी है। यहां भी दोहरी शिक्षा नीति जो आजादी से पहले थी, उसके बाद भी जारी है। एक ओर जहां बड़े-बड़े संत-महात्माओं के, राजाओं वगैरह के नाम पर बने अंग्रेजी माध्यम स्कूल हैं, जहां मोटी फीस भर सकने वालों के बच्चे पढ़ते हैं और देश का शासक वर्ग तैयार किया जाता है। सो दूसरी ओर साधारण सरकारी प्राइमरी स्कूल हैं, जिनमें निम्न मध्यम वर्ग और गरीब गुरबा के बच्चे पढ़ते हैं और देश का शासित वर्ग तैयार होता है। इस लेख मेें देश के सरकारी प्राइमरी स्कूलों (कक्षा 1-8) के बारे में कुछ जानाकारियां हैं-उनकी भौतिक दशाओं के बारे में, उनके शैक्षणिक हालात के बारे में अगली किश्तांे में।

आजादी के बाद से ही राजनीतिज्ञ और शिक्षा के लिए जिम्मेदार अफसर प्राइमरी शिक्षा को देश के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण घोषित करते रहे हैं, पर यह एक मौखिक बयानबाजी ही ज्यादा है। भारत सरकार ने स्कूली शिक्षा को बाकी विषयों पर ज्यादा तरजीह कभी नहीं दी। देश की संसद की एक घंटे की कार्यवाही पर करीब डेढ़ करोड़ रूपये खर्च होते हैं। 2021-22 में भारत का रक्षा बजट 4.78 लाख करोड़ था जबकि शिक्षा का बजट 93 हजार 224 करोड़। इसमें उच्च शिक्षा भी शामिल है। फरवरी 2020 में केन्द्रीय बजट में स्कूलों के संचालन व विकास के लिए 59843 करोड़ रूपये निर्धारित था। इस साल यह घटाकर 54873 करोड़ रूपये कर दिया गया है। 

प्रारंभिक शिक्षा में सुधार के लिए बनाई गई कमेटियों, आयोगों, नीतियों की संख्या दर्जनों मंे, सुधार की सिफारिशें सैकड़ों में लेकिन सरकारी कागजों पर आज भी प्राइमरी स्कूलों के लिए 3 कमरे के नक्शे ही पास होते हैं। जबकि सब जानते हैं वहां पांच कक्षाएं होती हैं। सरकारी योजनाकार शायद यह मानकर चलते हैं कि बारिश और धूप में बाकी दो कक्षाओं को कहीं भी बैठाने की जिम्मेदारी अध्यापक की है। वह उन्हें स्कूल की छत पर बिठाए या किसी पेड़ के नीचे। 

भारत का कोई भी राज्य अभी भी यह दावा नहीं कर सकता कि उसके प्राइमरी स्कूलों में कक्षानुसार या विषयानुसार पूरे शिक्षक हैं। चूंकि किसी भी राज्य में कक्षा व विषयों के अनुसार शिक्षक पूरे नहीं हैं तो एक सिद्धांत गढ़ लिया गया है- ‘बहुकक्षाशिक्षण’ या ‘बहुस्तरीय शिक्षण’ इनमें क्या फर्क है यह तो इसके संस्थापक ही जानते होंगे पर इतना सब जानते हैं कि कक्षाओं का निर्धारण आयु और ज्ञान स्तर के अनुसार ही किया जाता है। फिर भी प्रशिक्षणों में इन्हें अलग-अलग बताया जाता है। 

शिक्षकों के असमान वितरण से उलटी भी एक समस्या है। जहां शिक्षक पूरे होते हैं वहां अनेेक स्कूलों में सवा सौ बच्चे तक एक कक्षा में पढ़ते हैं। आम तौर पर प्राइमरी स्कूलों में एक कक्षा साल भर एक ही शिक्षक के पास रहती है तो उसे भाषाए ं(हिन्दी संस्कृत, अंग्रेजी), गणित, परिवेशीय अध्ययन आदि पढ़ाने का जिम्मा, परीक्षा आदि लेने का काम उसी का होता है। इस प्रकार साल भर शिक्षक की रेल बनी रहती है। 

2000 के दशक में जूनियर हाईस्कूलों में एक बार विषयों की स्थिति यह थी- पीरियड आठ और विषय नौ- हिन्दी, गणित, अंग्रेजी, संस्कृत या उर्दू, विज्ञान, सामा0विज्ञान, व्यायाम, कला, पर्यावरण या कृषि। शिक्षकों की अधिकतम संख्या तब निर्धारित थी फी जूनियर हाईस्कूल छह। तब शिक्षकों ने कैसे काम/एडजस्ट किया होगा वे ही जानें।

बच्चों और शिक्षकों के अनुपात की संख्या एक और कारण से भी गड़बड़ा जाती है- वह है गरीब गुरबा आबादी का पलायन। यह ज्यादातर पहाड़ों से मैदानों को और गांवों से शहरों को होता है। कारण साफ है- शहरों को विकास गांवों की तुलना में ज्यादा हुआ है और मैदानों का विकास पहाड़ों से ज्यादा। असमान पूंजीवादी विकास। ऐसे में कोई भी आदमी-उन क्षेत्रों में रहना चाहेगा जहां जीवन की सुविधाएं ज्यादा हों, रोजगार और आमदनी के जरिये हों। जब गरीब माँ-बाप के साथ उनके बच्चे भी पलायन करते हैं तो - सरकारी प्राइमरी स्कूलों में बच्चे भी कम हो जातेे हैं। इसका दोष शिक्षकों पर यह कहकर मढ़ दिया जाता है- कि उन्होेंने ठीक से पढ़ाया नहीं होगा, इसलिए स्कूल में बच्चे कम हुए। इसी दशक में एक नया सरकारी नियम बना है कि जिस स्कूल  में 10 से कम बच्चें होंगे उसे बंद कर दिया जाएगा। वैसे देश भर में 2018-19 में वर्ष में ही 51000 प्राइमरी स्कूल बंद किए जा चुके है।

सरकारी स्कूलों के बंद होने का और उनमें बच्चे घटने का एक कारण दूरस्थ इलाकों तक फैल चुके अंग्रेजी माध्यम स्कूल भी हैं। इस बात का यद्यपि कोई शोधसम्मत प्रमाण नहीं है कि इनमें सरकारी स्कूलों से बढ़िया पढ़ाई होती है लेकिन ये स्कूल कम से कम बच्चों को कक्षावार कमरे और विषयवार अध्यापक उपलब्ध करा देते हैं। टाई, जूते, डेªस, बिल्लों के टीमटाम के साथ। ‘अंग्रजी’ का झुनझुना इनके पास होता ही है। इन्हीं की देखा-देखी अनेक राज्यों ने सरकारी स्कूलों में पहली कक्षा से अंग्रेजी और संस्कृत पढ़ाना शुरू कर दिया है। अनेक सरकारी शिक्षा अधिकारी, मंत्री इन प्राइवेट स्कूलों को सरकारी स्कूल शिक्षकों के आगे ‘रोलमॉडल’ की तरह पेश करते हैं। जबकि प्राइवेट स्कूलों के तमाम बच्चे भारी तादाद मंे विभिन्न विषयों में बेहतरी के लिए ट्यूशन पढ़ते देखे जा सकते हैं। इसके बावजूद कि प्राइवेट स्कूलों में वे फीस के रूप में अच्छी-खासी रकम भी देते हैं। 

1990 के दशक में अचानक केन्द्र सरकार के विशेषज्ञों को इलहाम हुआ कि देश में शिक्षा के गुणवत्ता स्तर में गिरावट होने का कारण देश के सभी स्कूलों में अध्यापकों की संख्या का न होना और स्कूलों के पास पर्याप्त अवरचनागत सुविधाएं न होना है। तो सलाहकारों के मुताबिक देश के कुछ जिले चुने गये और उनमें राज्य सरकार के शिक्षा अधिकारियों की मदद से एक-एक नवोदय विद्यालय (कक्षा 6-12) खोला गया। यह बात समझ से परे है कि पहली से पांचवी तक के बच्चों की शिक्षा के ‘नवोदय’ की जरूरत क्यों नहीं समझी गयी। जो कि पूरे शैक्षिक जीवन का सबसे नाजुक, संवेदनशील और जटिल समय होता है। देश के 638 जिलों में चलाये जा रहे इन नवोदय स्कूलों में छठी कक्षा के जिले भर के 5 पास विद्यार्थियों का टैस्ट लिया जाता है और मैरिटोरियस बच्चे चुने जाते हैं। यानी कुल मिलाकर ‘मीठा मीठा गप्प और कड़वा थूं’ कहावत लागू की जाती है। जबकि शिक्षा की असली चुनौती वे बच्चे हैं जो किन्हीं कारणों से कम सीख पा रहे हैं। इन सभी जवाहर नवोदय विद्यालयों में जरूरत के अनुसार भवन, शिक्षक, हास्टल तो होते ही हैं बच्चों के रहने, खाने, कपड़ों का खर्च भी सरकार उठाती है। कुछ राज्यों ने इनकी नकल पर अपने यहां राजीव गांधी नवोदय विद्यालय स्थापित किये और चला रहे हैं। ‘नवोदय’ विद्यालयों से पूरे देश की शिक्षा सुधारने वाले शायद यह ख्याल कर रहे थे कि इन बाड़ाबंद आवासीय विद्यालयों का भवन, इनके खेल के मैदान, इनका भरा पूरा स्टाफ कभी कभार ही स्कूल से बाहर आने वाले बच्चों आदि को देख-देख कर ही देश के लाखों विद्यालय अपने आप सुधर जायेंगे। (यह ऐसा ही मामला है जैसे किसी दूसरे आदमी की थाली में लजीज खाना रखा हो और पास बैठे पहले भूखे आदमी से उम्मीद की जाय कि दूसरे को खाता देखकर उसे भी खाने में वैसा मजा आयेगा और उसका पेट भर जायेगा और सेहत बन जायेगी) पर अभी तक ऐसा हो पाया ऐसा दावा शायद अभी कोई सरकार नहीं करेगी। हालांकि नवोदय विद्यालय स्कूल योजना को तीस साल तो हो ही चुके हैं। (जारी) 

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