बुधवार, 9 नवंबर 2022

 राहुल सांकृत्यायन 

एक निरन्तर विकासमान व्यक्तित्व


एक ऐसा व्यक्तित्व जो निरंतर देश-दुनिया घूमता रहा। अलग-अलग जगह की भाषाओं को सीखा, उनका ज्ञान अर्जित किया और अपने देश भारत की जनता की मुक्ति के संघर्ष में लगा रहा। जीवित रहते अपनी लेखनी से हजारों-हजार लोगों को प्रगतिशील, क्रांतिकारी, कम्युनिस्ट विचारों से परिचित कराने का काम किया। और यह काम उनकी लिखी पुस्तकों द्वारा आज भी जारी है। आज भी इनके लिखे साहित्य से प्रगतिशील लोग भारत के ऐतिहासिक विकासक्रम, जनता के न्यायपूर्ण संघर्ष, संघर्षशील लोगांे की जीवनगाथा आदि को पढ़कर अपनी राह रोशन कर रहे हैं। ये आजीवन आजादी की लड़ाई, किसानों-मजदूरों के संघर्षों में भाग लेकर उनको आगे बढ़ाते रहे। अपने अंतिम समय तक कम्युनिस्ट विचारधारा और कम्युनिस्ट समाज के लिए प्रयत्न करते रहे। इनका नाम राहुल सांकृत्यायन है। 

राहुल सांकृत्यायन का जन्म 9 अप्रैल 1893 को पंदहा गांव, जिला आजमगढ़ (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। इनके बचपन का नाम केदारनाथ पाण्डेय था। इनके पिता धार्मिक विचारों वाले किसान थे। प्राथमिक शिक्षा के लिए इनको गांव के एक मदरसे में भेजा गया। कुछ समय बाद 1912 में किशोरावस्था में इन्होंने घर छोड़ दिया। धार्मिक विचारों वाले राहुल शैव, वैष्णव की आराधना करने लगे। कर्मकाण्डी हो गये। परसा मठ के महन्त से दीक्षा ले ली। नाम रखा गया- रामोदर दास। इन्होंने अनेकों तीर्थ केन्द्रों का भ्रमण किया। यह वैराग्य जीवन भी उन्हें पूरी तरह रास नहीं आया। 1914 के आस-पास वे आगरा आ गये। वहां आर्य समाज से प्रभावित हुए। आर्य मुसाफिर विद्यालय में शिक्षा प्राप्त की। तमाम वेदों-उपनिषदों का अध्ययन करने के बाद इन्हें आर्य समाज में भारतीय जनमानस की मुक्ति का कोई रास्ता नहीं दिखा। आर्य समाज से इन्होंने दो चीजें ली- मुक्त बुद्धि और तर्क शक्ति। ‘आर्य समाज’ भी इस मुक्त पुरुष को बांध नहीं सका। ‘आर्य समाज’ की अपनी सीमायें थी। ‘आर्य समाज’ में भी सर्वशक्तिमान ईश्वर की सत्ता निर्विवाद है। ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करना मनुष्य की स्वतंत्रता को सीमित करना है।

फिर राहुल सांकृत्यायन बौद्ध धर्म की तरफ आकर्षित हुए। बौद्ध दर्शन के कई ग्रन्थ जो भारत में लुप्त हो चुके थे। उन्हें 22 खच्चरों में लादकर तिब्बत से भारत लेकर आये। इस दुर्लभ साहित्य का स्वयं संपादन भी शुरू किया और टीकायें लिखी। जो काम एक शोध संस्थान का है और कई पीढ़ियों तक चलने पर ही पूरा हो सकता है। उस बड़े और कठिन काम को बिना इंतजार किये स्वयं शुरू कर दिया। 

बौद्ध धर्म में मानव मुक्ति न देख राहुल ने लंदन में जाकर मार्क्सवादी साहित्य का अध्ययन किया। मार्क्सवादी साहित्य का अध्ययन, उनके सिद्धान्तों को जानकर राहुल काफी प्रभावित हुए। जिससे राहुल इस नतीजे पर पहुंचे कि बराबरी पर आधारित समाजवादी-साम्यवादी समाज में ही मजदूरों-किसानों, मेहनतकश वर्गों-तबकों की मुक्ति संभव है। यह सब उस समय 1917 की रूसी समाजवादी क्रांति ने करके दिखाया था। जहां एक तरफ राहुल मार्क्सवादी साहित्य का अध्ययन करके उसके सैद्धांतिक पक्ष को समझ रहे थे वहीं दूसरी तरफ रूसी समाजवादी क्रांति ने व्यवहार में वह सब करके दिखाया था। इसने कई लोगों को मार्क्सवाद की तरफ आकर्षित किया। यहीं से राहुल ने मार्क्सवाद को स्वीकारा और आजीवन वह मार्क्सवादी बने रहे।

दूसरी तरफ राहुल सांकृत्यायन ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध लड़ते हुए उसके सामाजिक आधार सामंतवाद के विरुद्ध लड़ाई में व्यापक किसान आबादी को संगठित और गोलबंद कर रहे थे। जमींदारों द्वारा तरह-तरह से किसानों से बेगार लेने, उनका भयावह शोषण करने के साथ ही उन्हें तरह-तरह से अपमानित और उत्पीड़ित करने के विरुद्ध राहुल सांकृत्यायन और बिहार किसान सभा व्यापक संघर्ष चला रहे थे।

इन्हीं संघर्षों के दौरान जमींदारों के लठैतों ने राहुल सांकृत्यायन पर जानलेवा हमला किया था। इस हमले में उनके सिर पर वार किया गया था। अंतिम समय में उनके दिमाग ने काम करना बंद कर दिया था। उस अंदरूनी चोट की वजह से बाद में उनके दिमाग की नस फट गयी। इसी विक्षिप्त अवस्था में ही सत्तर वर्ष की आयु में 14 अप्रैल 1963 को उनकी मृत्यु हो गयी। 

किसान संघर्षों को कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल होकर राहुल सांकृत्यायन संगठित कर रहे थे। किसान आंदोलन के दौरान इन्हें तीन साल तक हजारीबाग सेण्ट्रल जेल में रहना पड़ा। इसका उपयोग इन्होंने अध्ययन और लेखन में किया। 

राहुल की विचार यात्रा के केन्द्र में देश-दुनिया के मेहनतकशों की मुक्ति रही है। और इनका लेखन भी मेहनतकशों की मुक्ति के लिए लिखा गया है। मार्क्सवादी साहित्य के अध्ययन, मार्क्सवादी दर्शन के अध्ययन के बाद इन्होंने ‘‘साम्यवाद ही क्यों’’ पुस्तिका लिखी। इस पुस्तिका में समाज में साम्यवाद लाने की आवश्यकता क्यों है और यह क्यों आयेगा, इस पर विचार किया गया है। कम पढ़े-लिखे लोगों के अंदर तार्किक चिंतन पैदा करने और उत्पीड़ित वर्गों-तबकों को अपने शोषण-उत्पीड़न के कारणों को समझकर उसके विरुद्ध संघर्ष करने की चेतना विकसित करने हेतु ‘‘भागो नहीं, दुनिया को बदलो’’ जैसी रचना लिखी। इसी प्रकार बीस कहानियों के माध्यम से आदिम कबीलाई समाज में जब मातृप्रधान समाज था, से लेकर 1942 तक के इतिहास की तार्किक व्याख्या पेश की। इस रचना ‘‘वोल्गा से गंगा’’ के माध्यम से भारतीय समाज के ऐतिहासिक विकासक्रम की भौतिकवादी व्याख्या पेश की गयी। इसी प्रकार ‘‘मानव समाज’’ पुस्तक में समाज के विकास को समझाया गया है। राहुल भारतीय समाज में व्याप्त ढोंग, जात-पात का भेदभाव, अन्य कुरीतियों और कूपमण्डूकता का लगातार विरोध करते थे। इनका खण्डन करने के लिए इन्होंने ‘‘तुम्हारी क्षय’’ और ‘‘दिमागी गुलामी’’ जैसी रचना लिखी। 

राहुल सांकृत्यायन की लेखनी का एक हिस्सा विश्व की करोड़ों-करोड़ जनता को मुक्ति का रास्ता दिखाने वाली जीवनियों के माध्यम से लोगों को शिक्षा देने का रहा है। इस मकसद के लिए उन्होंने कार्ल मार्क्स, लेनिन, स्टालिन, माओ-त्से-तुड़ की जीवनियां लिखी। उनके जीवन के साथ-साथ उनकी रचनाओं और कार्यों से भी लोग शिक्षित हो सके। 

उन्होंने अपने समकालीन विषयों, संघर्षशील व्यक्तियों के बारे में, उनके शानदार संघर्ष के बारे में लिखा। ऐसी रचनाओं में ‘वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली’ व ‘पृथ्वी सिंह’ जैसी रचनाऐं हैं। ‘‘रामराज्य और मार्क्सवाद’’ नामक पुस्तिका में उन्होंने बताया कि कैसे रामराज्य शोषणकारी, जात-पात युक्त एक अन्यायपूर्ण व्यवस्था थी। वहीं मार्क्सवाद हर प्रकार के शोषण, अन्याय, दमन, उत्पीड़न को खत्म करने का रास्ता बताता है। 

राहुल जी ने इतिहास, धर्म, दर्शन से सामान्य लोगों को अपनी सरल लेखनी से परिचित कराया। यह इनकी चिंता का विषय भी था। इसमें इनकी ऋग्वैदिक आर्य, बौद्ध दर्शन, इस्लाम धर्म की रूपरेखा, मध्य एशिया का इतिहास, अकबर, दर्शन-दिग्दर्शन जैसी रचनायें हैं। राहुल ने उपन्यास, कथा-साहित्य, नाटक, आत्मकथा, यात्रा-वृतांत, निबंध, विज्ञान, समाज, राजनीति, दर्शन, धर्म, इतिहास, संस्कृत भाषा आदि कई विषयों में 150 से अधिक किताबों का लेखन और सम्पादन किया।

राहुल जी की विचार यात्रा वेदों और भारतीय दर्शन की कई अन्य शाखाओं के अध्ययन के जरिये आगे बढ़ी थी। इसलिए इनके अंदर शास्त्रार्थ करने की पुरानी भारतीय परम्परा भी जारी थी। इन्होंने वाद-विवाद की पुरानी परम्परा को निभाते हुए विद्वानों को चुनौती देने का सिलसिला भी जारी रखा। हालांकि परम्परावादी धार्मिक नेताओं ने इनकी चुनौती को कभी स्वीकार नहीं किया। 

राहुल सांकृत्यायन के जीवन का बड़ा समय घूमने में व्यतीत हुआ। वह ‘‘घुमक्कड़ स्वामी’’ के तौर पर विख्यात हुए। वह इतिहास, भूगोल, समाज को समझते और ग्रन्थ लिखते गये। ताकि दूसरे लोगों तक वहां की समझ साहित्य के जरिये पहुंच सके। वह एक चलता-फिरता विश्वकोष थे। वे लगभग 36 भाषाओं के जानकार थे। अंग्रेजी राज के समय अपनी स्कूली पढ़ाई छोड़कर वह ज्ञान की भूख शांत करने के लिए आजीवान घुमक्कड़ी करते रहे। अपनी लेखनी से और अपने जीवन से देश के उत्पीड़ित लोगों, मजदूरों-किसानों के मुक्ति संघर्ष में लगे रहे।

इस दौरान इन्होंने लेनिनग्राद विश्वविद्यालय और श्रीलंका में संस्कृत भाषा का अध्यापन का कार्य भी किया। अपनी रूस यात्रा के दौरान रूसी महिला ऐलेना बोजरोवास्क्या से विवाह कर गृहस्थ जीवन भी स्वीकार किया। 

अगर इनकी रचनाओं को देखा जाए तो यह स्पष्ट हो जाता है कि भारत की गरीब जनता की दुर्दशा के बारे में उन्हें अवगत कराना, इससे मुक्ति का रास्ता बताना और उस मुक्ति संघर्ष के लिए तैयार करना उनका केन्द्रीय मकसद रहा है। इसी मकसद को पूरा करने की तलाश इनकी जीवन यात्रा रही है। सनातनी हिन्दू से आर्य समाज, फिर आर्य समाज से बौद्ध धर्म, बौद्ध धर्म से मार्क्सवाद की इनकी यात्रा इसी तलाश का परिणाम रही है। राहुल तर्क की कसौटी पर हर विचार को कसने के चलते लगातार आगे बढ़ते रहे। 

राहुल सांकृत्यायन का व्यक्तित्व प्रगतिशील चेतना के सतत विकास का साक्षी है। अपराजेय जिजीविषा, अनन्त जिज्ञासा, उत्कृण्ठा, स्वातंत्रय प्रेम और जीवन के प्रति वैज्ञानिक दृष्टि इन्हीं तत्वों से उनका व्यक्तित्व तैयार हुआ था। इन तत्वों से उन्हें न देश ने बांधा, न काल ने। 

राहुल साहित्यकार थे, इतिहासकार थे, असाधारण अध्येता थे, भाषाविद थे, किसान नेता थे, सबसे बड़ी बात यह कि राहुल एक सामाजिक परिवर्तन के सिपाही और सिपहसालार थे। 

राहुल सांकृत्यायन के व्यक्तित्व से आज हमें उनके योगदान को समझकर, अपने जीवन में इनके विचारों को अपनाकर आगे बढ़ने की जरूरत है। उनकी जन्म तिथि और पुण्य तिथि के अवसर पर हमें इसी सबक के साथ आगे बढ़ना चाहिए।

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