बुधवार, 9 नवंबर 2022

 हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्तान                                                  दूसरी किस्त


राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के हिन्दू फासीवादी जिस हिन्दू धर्म की बात करते हैं वह उनका अपना ईजाद किया हुआ एक खास किस्म का हिन्दू धर्म है। इसका भारत में वास्तव में विद्यमान हिन्दू धर्म से दूर का ही नाता है। कुछ लोग इसी को रेखांकित करने के लिए हिन्दू के बदले हिन्दुत्व की बात करते हैं, वैसे यह शब्द भी हिन्दू कट्टरवादियों का ही ईजाद किया हुआ है। 

आज संघ ‘हिन्दू’ के मामले में दो मुंही बातें करता है। एक ओर उसके अपने लिये ‘हिन्दू’ का मतलब हिन्दू धर्म को मानने वाले लोग हैं। इसी रूप में वह ‘हिन्दू’ एकता और हिन्दू राष्ट्र की बात करता है। लेकिन दूसरी ओर इस पर पर्दा डालने के लिये वह यह भी कहता है कि उसके लिये हिन्दुस्तान में रहने वाले सारे लोग हिन्दू हैं भले ही वो कोई भी पूजा-पाठ करते हों। उसके अनुसार हिन्दू जीवन जीने का तरीका है इसीलिए यह संस्कृति है। बाकी सारे धर्म संप्रदाय हैं पर हिन्दू धर्म जीवन पद्धति है।

इस संबंध में पहली बात तो यही है कि केवल हिन्दू धर्म ही नहीं बल्कि सारे ही धर्म पूजा पद्धति के साथ जीवन पद्धति भी रहे। मध्य काल में सारे धर्म ऐसे ही थे जब वे परलोक के साथ इंसान के संबंध तो तय करते ही थे साथ ही वे उसके इहलोक के जीवन को भी तय करते ही थे। केवल पूंजीवाद के विकास के साथ ही इन दोनों के बीच खाई पैदा होने लगी। अंत में जब पूंजीवादी समाजों में धर्म को व्यक्ति का निजी मामला घोषित कर उसे सार्वजनिक जीवन से बाहर कर दिया गया तो यह प्रक्रिया एक तरह से पूरी हो गई। तब भी व्यक्ति के निजी आचार-व्यवहार को धर्म किसी हद तक प्रभावित करता रहा। इस तरह हिन्दू धर्म का जीवन पद्धति होना कोई उतना निराला नहीं है जैसा संघी बताना चाहते हैं।

वैसे इस मामले में एक ऐसा धार्मिक ऐतिहासिक तथ्य भी है जिसे आज संघी याद नहीं करना चाहेंगे। प्राचीन हिन्दू धर्म के हिसाब से इंसानी जीवन के चार क्षेत्र हैं: धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। यहां आज धर्म जिन सामान्य अर्थों में जाना जाता है या इंसान का परलोक के साथ संबंध, वह मोक्ष की श्रेणी में आता है। पूजा-पाठ, ईश्वर, स्वर्ग-नरक, मोक्ष इत्यादि सब धर्म इसी के तहत हैं। अर्थ के क्षेत्र में अर्थव्यवस्था ही नहीं राजनीति भी आती है। काम का क्षेत्र व्यक्ति के निजी रहन-सहन का है- खान-पान, वेशभूषा, मनोरंजन तथा लैंगिक संबंध। फिर धर्म का क्षेत्र क्या है? धर्म का क्षेत्र है वर्ण व्यवस्था और सन्तानोत्पत्ति। यानी सामाजिक और पारिवारिक संबंध धर्म के क्षेत्र में आते हैं। वर्ण व्यवस्था और पितृसत्ता इसका आधार है। परम्परागत हिन्दू धर्म में धर्म का यह वह अर्थ है जो संघी चाहते तो हैं लेकिन जिसे वे कभी खुलेआम स्वीकार नहीं कर सकते। यदि हिन्दू धर्म एक जीवन पद्धति है तो इस जीवन पद्धति का आधार है वर्ण व्यवस्था और पितृसत्ता। धर्मसूत्रों से लेकर स्मृतियां तक इन्हीं पर आधारित हैं।

वैसे संघियों के साथ न्याय करते हुए यह कहना होगा कि भारतीय इतिहास में ढाई हजार साल तक हिन्दुओं की यही जीवन पद्धति थी। व्यक्ति का व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन उसके वर्ण-जाति व लिंग से तय, उसके लिए निर्धारित मूल्य-मान्यताओं व संबंधों को न छोड़ने से होता था। निश्चित तौर पर इसमें उसके लिए तय पूजा-पाठ के अनुष्ठान भी शामिल थे पर इसका ज्यादा मतलब पहली वाली चीजों से ही था। खाद्य-अखाद्य, पवित्रता-अपवित्रता के विचार भी उसी से तय होते थे। 

इसलिए परम्परागत हिन्दू धर्म में ‘धर्म’ का एक ऐसा मतलब था जो मूलतः जीवन पद्धति से संबंधित था- पारिवारिक-सामाजिक जीवन से। लेकिन आज उसकी बात करते हुए संघी यह तथ्य गायब कर देते हैं कि शुरू से अंत तक इस ‘धर्म’ का आधार वर्ण-जाति व्यवस्था और पितृसत्ता थी। भारत में अंग्रेजों के आने के बाद पूंजीवाद के विकास से ही इस ‘धर्म’ का क्षय हुआ। आज यदि संघी इस ‘धर्म’ को पुनर्स्थापित करना चाहते हैं तो इसका मतलब कुछ और नहीं बल्कि वर्ण-जाति व पितृसत्तात्मक व्यवस्था को स्थापित करना होगा। यही वास्तव में उनका छिपा उद्देश्य भी है जिसे वे ‘जीवन पद्धति’ के अमूर्त भारी-भरकम शब्द से ढकना चाहते हैं।

जहां तक भारत में रहने वाले सारे लोगों केे हिन्दू होने का संबंध है, यहां भी संघी एक ऐतिहासिक तथ्य के साथ खिलवाड़ करते हैं। हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान सारे विदेशी मूल (फारसी) के शब्द हैं। प्राचीन काल में सिन्धु नदी के पूरब में रहने वाले सारे लोगांे को हिन्दू कहा जाता था तथा इस क्षेत्र को हिन्द। इस शब्द का धर्म से कोई लेना-देना नहीं था। इस क्षेत्र में रहने वाले लोग स्वयं को भांति-भांति के तरीके से संबोधित करते थे। अपनी धार्मिक पहचान भी वे अलग-अलग तरीके से व्यक्त करते थे। भारत में मुसलमान शासकों के आने से पहले लोग धार्मिक तौर पर स्वयं को शैव, वैष्णव, शाक्य, बौद्ध और जैन इत्यादि मानते थे। यह बाद के मुसलमानी शासन के दौरान भी बना रहा। हालांकि इस दौर में हिन्दू शब्द मुसलमानों के बरक्स इस्तेमाल होने लगा था पर वह वास्तव में उतना प्रचलन में नहीं आया था (मुसलमान भी ज्यादातर तुर्क शब्द से संबोधित किये जाते थे)। यहां तक कि उन्नीसवीं सदी में भी यूरोपीय लोग सारे भारतीयों को हिन्दू शब्द से संबोधित करते थे। पर अंग्रेजी शासन के दौरान धीमे-धीमे ‘हिन्दू’ शब्द आज के हिन्दू धर्म के अर्थ में व्यापक रूप में प्रचलित हो गया और उसका ऐतिहासिक अर्थ गायब हो गया। आज ‘हिन्दू राष्ट्र’ के लिए लगातार प्रयासरत संघी यदा-कदा दूसरों की आंखों में धूल झोंकने के लिए इसके ऐतिहासिक अर्थ को याद करने लगते हैं।

इन चालबाजियों से इतर संघ के हिन्दू फासीवादी जिस हिन्दू धर्म को अपना आदर्श घोषित करते हैं वह वास्तव में भारत में कभी विद्यमान नहीं रहा। हालांकि इनकी अपनी जहनियत मध्यकालीन ‘सनातनी’  हिन्दू धर्म से बनी हुई है पर बौद्धिक तौर पर उनका जो हिन्दू धर्म का आदर्श है वह मूलतः यूरोपीय उपनिवेशवादियों के दिमाग की उपज है। यूरोपीय या पश्चिमी सभ्यता को दिन-रात कोसने वाले हिन्दू फासीवादी असल में बौद्धिक तौर पर उन्हीं की मानस संतान हैं।

दुनिया के किसी भी अन्य धर्म के मुकाबले हिन्दू धर्म में धार्मिक अभिजातों और आम जनों के बीच खाई सबसे ज्यादा रही है। हिन्दू धर्म के पुरोहित जिस धर्म की बात करते रहे हैं और आम जन जिस धर्म पर चलते रहे हैं वे एक तरह से दो धर्म रहे हैं। इसकी जड़ें इतिहास में हैं। जिसकी चर्चा आगे की जायेगी। यूरोपीय जब भारत आये तो उनका इसी सच्चाई से सामना हुआ। पर अपना शासन चलाने के लिए उन्हें चूंकि अभिजातों से ही मदद लेनी थी तो उन्होंने भारत की सभ्यता-संस्कृति और धर्म को जानने के लिए उन्हीं पर निर्भर किया। इन अभिजातों ने अपनी पोथियों और व्यवहारिक चलन से उन्हें अवगत कराया। इससे यूरोपीय एक खास नतीजे पर पहुंचे। इसमें उनकी औपनिवेशिक नजर भी काम कर रही थी। इस तरह यूरोपीयों ने भारत की सभ्यता-संस्कृति व धर्म के बारे में खास धारणा को प्रचारित किया। भारत भौतिकवादी होने के बदले आध्यात्मिक देश है, यह उनमें प्रमुख था। वेदान्त को भारत का दर्शन घोषित कर दिया गया। आम जन, उनका जीवन, उनकी वैकल्पिक मूल्य-मान्यताएं ही नहीं, बल्कि अभिजात स्तर की वैकल्पिक मूल्य मान्यताएं भी गायब हो गयीं।

उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध से जब हिन्दू पुनरुत्थानवादियों ने हिन्दू धर्म की गोलबंदी का काम शुरू किया तो उन्होंने यूरोपीयों की इसी धारणा से प्रस्थान किया। वे स्वयं भी मैकाले की संतान थे (पढ़ा-लिखा शहरी मध्यम वर्ग) और भारत के बारे में उनकी सारी धारणा यूरोपीय विद्वानों की देन थी। वैसे यूरोपीय विद्वानों को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने बहुत मेहनत से भारत की सभ्यता व संस्कृति को विस्मृति के अंधेरे से बाहर निकाला था। उनमें से कुछ उपनिवेशवादी शासक मानसिकता व उद्देश्य से प्रेरित थे तो कुछ शुद्ध बौद्धिक उत्सुकता से। कुछ को तो भारत से प्रेम भी था।

मार्क्सवादियों की तरह यूरोपीय विद्वानों के काम को आलोचनात्मक नजर से देखने के बदले हिन्दू पुनरुत्थानवादियों ने बस चुनने व नकारने का तरीका अपनाया। उन्होंने अपने मन-माफिक कुछ चीजें चुन लीं और उसे अपनी हिन्दू गोलबंदी का आधार बना लिया। उन्होंने यह छानबीन करने की कोशिश भी नहीं की कि उनके द्वारा चुनी गई चीजों की भारतीय इतिहास में वास्तव में क्या स्थिति थी। इस तरह यूरोपीयों को कोसते हुए भी वे वास्तव में उनके बौद्धिक कैदी हो गये। 

इसका उदाहरण उपरोक्त गिनाई गई दो धारणाएं हैं। कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ और वात्स्यायन के ‘कामसूत्र’ वाले देश के बारे में यह कहना कि वह भौतिकवादी नहीं बल्कि आध्यात्मवादी है, इतिहास का विद्रूप है। स्वयं सारे वेद शुरू से अंत तक शुद्ध भौतिकवादी हैं- संपत्ति, पुत्र प्राप्ति की आकांक्षा से ग्रस्त। भारत के दोनों प्राचीन महाकाव्य रामायण और महाभारत राज्य सत्ता के लिए संघर्ष के महाकाव्य हैं, किसी आध्यात्मिक उद्देश्य की प्राप्ति के नहीं। भारत का पूरा इतिहास राजाओं के बीच राजपाट के लिए अनवरत संघर्षों का इतिहास है।

जहां तक वेदान्त के एकमात्र भारतीय दर्शन होने का सवाल है, कौटिल्य के अर्थशास्त्र में उसका जिक्र तक नहीं है। उसमें राजाओं के लिए जिन दर्शनों को जरूरी बताया गया है वे हैंः सांख्य, लोकायत और न्याय वैशेषिक।

स्पष्ट है कि संघ का इच्छित हिन्दू धर्म वह नहीं है जो वास्तव में इतिहास में भारत में विद्यमान था। यह वह है जिसे यूरोपीय विद्वानों ने गढ़ा।

पर तब वास्तव में हिन्दू धर्म क्या रहा है? इसका सीधा सा जवाब है कि इतिहास में एक निश्चित हिन्दू धर्म जैसा कुछ नहीं रहा है जिसे कुछ चीजों से परिभाषित कर दिया जाये। यह बहुत सारी चीजों का बदलता मिश्रण रहा है, जिसका अभिजातों (ऊपरी तीन वर्णों) के लिए एक मतलब रहा है तो आम जन के लिए दूसरा। इसमें भी क्षेत्रीय विविधता बहुत ज्यादा रही है। यदि किसी समय विशेष पर अखिल भारतीय स्तर पर हिन्दू धर्म जैसा कुछ था तो केवल ब्राह्मण पुरोहितों के लिए, हालांकि उनमें भी साम्प्रदायिक भेद रहता था।

इतिहास में हिन्दू धर्म नामक तो अजीबोगरीब खिचड़ी रही है (जिसे स्वयं इस नाम से नहीं जाना गया) उसका निर्माण कई तत्वों से हुआ है। इसमें पहला व प्रमुख तत्व था बाहर से आने वाले आर्यों के धार्मिक तत्व; जिसकी कसम आज भी सारे स्वनामधन्य हिन्दू खाते हैं; हालांकि वर्तमान हिन्दू धर्म में इन तत्वों के नाम भर हैं। दूसरा है, यहां के पहले से मौजूद बाशिन्दों के तत्व। इनमें हड़प्पा की सभ्यता के तत्वों से लेकर पूरे देश में फैले हुए आदिवासी जनों के धार्मिक तत्व शामिल हैं। तीसरा है, आज से करीब ढाई हजार साल पहले पैदा हुए बौद्ध व जैन धर्म के तत्व जो स्वयं समय के साथ बदलते रहे। अंतिम है, भारत में मध्य काल में आने वाले इस्लाम के तत्व। ये सारे स्वयं समय के साथ बदलते रहे तथा एक-दूसरे के साथ अंतर्क्रिया करते रहे। निरंतर अंतर्क्रिया और बदलाव की इस प्रक्रिया को ध्यान में रखे बिना हिन्दू धर्म के इतिहास को नहीं समझा जा सकता और न ही उसके वर्तमान को। कुछ उदाहरणों से इसे समझा जा सकता है।

आज सारे हिन्दू जिन वेदों की कसम खाते हैं उनके धार्मिक अनुष्ठानों का मध्यकाल के ‘सनातन धर्म’ से कोई संबंध नहीं रह गया था। भारत में बाहर से आने वाले आर्यों के वेदों में यज्ञ और बलि प्रमुख चीज थी। इनकी अति से प्रतिक्रिया स्वरूप बौद्ध व जैन धर्म की अनुष्ठान विहीन अहिंसा पर जोर देने वाली धाराएं पैदा हुईं। पर गुप्त वंश के बाद वैदिक यज्ञ न के बराबर रह गये और उनके स्थान पर शैवों व वैष्णवों के मंदिर-मूर्ति, पूजा-पाठ व तीर्थ यात्रा आधारित धर्म का बोलबाला हो गया जो अपनी धार्मिक मान्यताएं वेदों में नहीं बल्कि पुराणों में पाते थे। पुराणों को इसीलिए रचा गया था। वेदों को औपचारिक मान्यता देते हुए भी असल में सारा कुछ अगमों-पुराणों से संचालित होने लगा था। 

दूसरा उदाहरण इस सनातनी धर्म में देवियों की भरमार और उनमें से ज्यादातर का शंकर से संबंध है। यह आर्य समाज द्वारा अपने आस-पास के आदिवासी समाज को अपने में समाहित करने का परिणाम था। इन आदिवासी जनों की देवियों (ज्यादातर आदिवासी जन अभी मातृ देवियों के पूजक थे) को अपना कर उन्हें शंकर से जोड़ दिया गया जो स्वयं कभी इसी तरह आर्य देवताओं की श्रेणी में आत्मसात किये गये थे। इन सबके लिए पुराणों में रोचक कथाएं गढ़ी गई। हिन्दू धर्म में आत्मसात कर लिये जाने के बावजूद ये समाज अपनी मूल धार्मिक परंपराओं को नहीं भूले। बल्कि उनके लिए ये परंपराएं ही प्रधान बनी रहीं जबकि ब्राह्मणीय हिन्दू धर्म की परंपराएं गौण। यह सदियों तक चलता रहा और आधुनिक काल तक बना रहा। इसीलिए हिन्दू धर्म में औपचारिक ब्राह्मणीय धर्म और आम जनों के धर्म के बीच इतनी बड़ी खाई है।

एक अन्य उदाहरण शंकराचार्य द्वारा प्रचलित हिन्दू सम्प्रदाय तथा महायान बौद्ध के बीच अत्यन्त नजदीकी का है। न केवल दार्शनिक स्तर पर बल्कि व्यवहारिक स्तर पर भी दोनों सम्प्रदाय बहुत नजदीक थे। एक ओर बौद्ध धर्म बदलते हुए यहां पहुंचा था तो दूसरी ओर हिन्दू धर्म इससे संघर्ष करते हुए और आदान-प्रदान करते हुए।

यह संघर्ष और आदान-प्रदान इस्लाम के भारत में आने के बाद भी जारी रहा। आज इस्लाम विरोधियों के इस प्रचार के विपरीत कि इस्लाम तलवार की नोक पर सारी दुनिया में फैला सच्चाई यह है कि इस्लाम के पूरब की ओर प्रसार में प्रमुख भूमिका इस्लामी शासन की नहीं बल्कि सूफी सिलसिलों की रही थी। इन्हीं के जरिए इस्लाम भारत से लेकर इंडोनेशिया तक फैला व जड़ जमा गया। भारत में इन सूफी सन्तों ने तथा इस्लाम के बराबरी के विचार ने वर्ण-जाति से त्रस्त भारतीय जनमानस पर बहुत असर डाला। इससे हिन्दू धर्म गहरे तक प्रभावित हुआ। इस प्रभाव ने अंततः एक नये धर्म- सिख धर्म- को पैदा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

हिन्दू धर्म के इतिहास की यही विशेषता है। यही इसे किन्हीं निश्चित मतों, मूल्य-मान्यताओं, किन्हीं धार्मिक किताबों, किन्हीं पुरोहितों-पण्डितों तक सीमित नहीं होने देती। इन्हें कैसे भी परिभाषित किया जाये। बहुत सारे हिन्दू उस परिभाषा से बाहर छूट जायेंगे। 

हिन्दू धर्म की यही खासियत संघ के हिन्दू फासीवादियों के लिए समस्या है। उन्हें अपने ‘हिन्दू राष्ट्र’ की राजनीतिक परियोजना के लिए एक निश्चित हिन्दू धर्म चाहिए। वे यह कहते हुए भी कि हिन्दू धर्म सम्प्रदाय नहीं बल्कि जीवन पद्धति है, उसे एक सम्प्रदाय तक सीमित करना चाहते हैं। यह वही सम्प्रदाय है जिसे उन्होंने यूरोपीयों से उधार ली गई धारणाओं से गढ़ा है। इनका हिन्दुत्व एक संकीर्ण और कठोर सम्प्रदाय है जो बस उनकी कल्पनाओं की उपज है। यह आम हिन्दू के वास्तविक जीवन से इतना बेमेल है कि उन्हें भरोसा भी नहीं है कि आम हिन्दू उसे अपनाएंगे। इसीलिए हिन्दू धर्म की अपनी धारणा पर लोगों को खड़ा करने के बदले वे मुसलमानों के खिलाफ नफरत पर अपना सारा ताना-बाना खड़ा करते हैं। उनकी सारी ऊर्जा इसी में लगती है। 

स्पष्ट है कि संघ की हिन्दू धर्म की धारणा एक काल्पनिक व गढ़ी हुई धारणा है जिसके स्रोत यूरोपीय उपनिवेशवादियों के विचारों में हैं। इस धारणा का न तो हिन्दू धर्म के वास्तविक इतिहास से संबंध है और न ही वर्तमान से। वास्तविक इतिहास उनकी फासीवादी परियोजना के लिए किसी काम का नहीं है। इसीलिए वे नया फर्जी इतिहास गढ़ रहे हैं। पर वे इसमें उससे ज्यादा सफल नहीं होंगे जितना हिटलर हुआ था, जिसने ‘आर्य नस्ल’ का फर्जी इतिहास गढ़ा था।

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