श्रीलंका में जनसंघर्ष
जनता संघर्ष के मैदान में, इधर-उधर भागते शासक
श्रीलंका में पिछले कुछ महीनों से आर्थिक संकट के कारण जनता सड़कों पर है। श्रीलंका का यह आर्थिक संकट आगे बढ़कर राजनीतिक संकट में तब्दील हो गया है। जनता का शासकों पर से भरोसा उठ गया है। हद ये है कि जनता से डरकर देश का राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे देश छोड़कर भाग गया। अब वह अपनी अय्याशी के नये ठिकाने ढूंढ रहा है। जनता राष्ट्रपति भवन, प्रधानमंत्री आवास में पहुंच गयी तो सेना भी जनसैलाब के आगे मूकदर्शक बनी रही। आपातकाल के सारे आदेश बेकार चले गए। जनता के विद्रोह और शासकों की भगदड़ ने दिखा दिया कि शासन के पुराने तौर-तरीके नहीं चल सकते हैं।
श्रीलंकाई शासक वर्ग श्रीलंका की स्थिति सामान्य करने के लिए अंतरराष्ट्रीय साम्राज्यवादी संस्थाओं का भरोसा कर रहा है। चीन से मदद की मांग कर रहा है। भारत से मदद की उम्मीद कर रहा है। आईएमएफ, विश्व बैंक जैसी संस्थाएं साम्राज्यवादी हितों के अनुरूप मदद करती हैं। साम्राज्यवादी देशों द्वारा नई आर्थिक नीतियों को दुनियाभर में इन संस्थाओं के जरिये ही थोपा गया। यानी श्रीलंका के आज जो हालात हैं उसके लिए आईएमएफ, विश्व बैंक जिम्मेदार हैं। भारत, चीन तो वो क्षेत्रीय शक्तियां हैं जो श्रीलंका के संसाधनों की लूट के लिए परस्पर संघर्षरत रहे हैं। आगे भी अपने-अपने हितों के अनुरूप ही भारत-चीन मदद करने या न करने का रुख अपनाएंगे। दिवालिया हो रहे श्रीलंका को संकट से उबारने में इनकी कोई दिलचस्पी नहीं है, उनके लिए सवाल है कि श्रीलंका से अब क्या लूटा जा सकता है?
श्रीलंका में शासकों ने देश को दोनों हाथों लूटा, अय्याशी की और देश को दिवालिया कर दिया। इसमें श्रीलंकाई शासकों के अपने नकारेपन, धूर्तता की भूमिका है, पर दुनियाभर में कहां स्थिति सुरक्षित है? पाकिस्तान, म्यांमार, नेपाल जैसे देशों के हालात बुरे हैं। अर्जेंटीना, पेरू आदि लैटिन अमेरिकी देश संकटग्रस्त हालात में हैं। भारत, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका जैसे विकासशील देशों में जनता की स्थिति दयनीय बनी हुई है, जो कभी भी विस्फोटक रूप ले सकती है। अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, जापान आदि साम्राज्यवादी देशों में भी लोकतांत्रिक अधिकारों को समेटा जा रहा है। यह दिखाता है कि वहां का शासक वर्ग भी अधिकाधिक बुरी स्थिति की ओर देश को ले जा रहा है। इसीलिए दुनिया में कब कौन सा देश ‘‘श्रीलंका’’ बन जाये पता नहीं। कहाँ जनता और शासक आमने-सामने आ जाएं, पता नहीं।
दुनियाभर में आर्थिक संकट की स्थिति बनी हुई है। किस देश में संकट पहले फूट जाएगा, बस; इतने भर की बात है। इसीलिए श्रीलंका में राजपक्षे परिवार का भाई-भतीजावाद, भ्रष्टाचार, मूर्खतापूर्ण आर्थिक फैसले केवल वो कारक हैं जिनसे आर्थिक संकट श्रीलंका में पहले फूटा। वरना तो और जगह भी हालात कोई कम बुरे नहीं हैं।
साम्राज्यवादी पूंजी के हिसाब से नई आर्थिक नीतियां बनाई गयी। सब कुछ निजी हाथों में सौंपना, देशी-विदेशी कम्पनियों के लिए नियम-कानूनों में उदारता यानी निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण की नीतियां इसके पीछे हैं, जिसको दुनियाभर के गरीब-पिछड़े देशों तक पर थोपा गया। यही वह नीतियां हैं जो आज वैश्विक आर्थिक संकट के लिए जिम्मेदार हैं। इसके बावजूद आर्थिक संकट से निकालने के नाम पर इन्हीं नई आर्थिक नीतियों को और अधिक थोपने की होड़ मची है।
नयी आर्थिक नीतियों को लागू करने में मची होड़ से मजदूर-मेहनतकश जनता की हालत लगातार बदतर होती जा रही है। यही बदतर हालात मजदूर- मेहनतकशों को सड़कों पर उतरने को मजबूर कर रहे हैं। मुनाफाखोर पूंजीवाद करोड़ों-करोड़ मेहनतकश जनता को कंगाल बना रहा है ठीक इसी समय चंद गोटाबाया, अम्बानी, मस्क, बफेट भी पैदा हो रहे हैं। करोड़ों-करोड़ मेहनतकश जनता की कंगाली की कीमत पर पूंजीपतियों का स्वर्ग रचा जा रहा है। पूंजीवाद का यह असमान विकास जनता के लिए असहनीय होता जा रहा है। यही असहनीय हालात थे जिनसे आजिज आ श्रीलंकाई जनता शासकों के स्वर्ग तक पहुंच गयी।
शासकों के ‘‘स्वर्ग’’ तक पहुंचने की इस परिणति को रोकने के लिए श्रीलंका के शासक वर्ग ने धर्म के आधार पर फासीवादी राजनीति का भी सहारा लिया। जिसमें गोटाबाया की ‘‘महामानव’’ वाली छवि गढ़ी गयी। बहुसंख्यक बौद्धों का तुष्टिकरण किया गया। तमिल, मुस्लिम, इसाई अल्पसंख्यकों को दुश्मन के तौर पर पेश किया गया। राष्ट्रीय मुक्ति के लिए संघर्षरत लिट्टे के दमन के नाम पर तमिलों का नरसंहार किया गया। मुस्लिम व इसाई अल्पसंख्यकों को राजपक्षे सरकार लगातार अपने निशाने पर लेती रही है। इन्हें अपमानित व आतंकित करती रही है। बहुसंख्यक सिंहली बौद्धों के बीच अंधराष्ट्रवाद, धार्मिक श्रेष्ठतावादी दंभ आदि को बढ़ावा दिया। इसको हम भारत में हिन्दू फासीवाद के बढ़ते प्रभाव के जरिये समझ सकते हैं। जहां हिन्दुओं के बहाने से मुस्लिम अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया जा रहा है। ऐसा ही कुछ दशकों से श्रीलंका में सिंहली बौद्धों के नाम पर होता रहा। श्रीलंकाई समाज में बढ़ते आर्थिक संकट ने जनता को बांटने वाले फर्जी विभाजनों की दीवार गिरा दी। जनता अपने वास्तविक शत्रु श्रीलंकाई शासक वर्ग के खिलाफ एकजुट हुई।
श्रीलंका में दशक भर से जारी आर्थिक संकट के चलते गोटाबाया राजपक्षे की ‘‘महामानव’’ वाली छवि गढ़ी गयी। सिंहली बौद्ध फासीवादी राजनीति को बढ़ाया गया। यह कुछ-कुछ वैसा ही जैसे भारत में मोदी सरकार हिन्दू फासीवाद, तुर्की में एर्दोगन दक्षिणपंथी इस्लामिक शासन चला रहे हैं जिसकी दिशा इस्लामिक फासीवाद की ओर है। बढ़ते फासीवाद से जनता के बीच फर्जी दुश्मनों को गढ़ा गया। लेकिन आज दशक भर बाद ये जनता यह जान गयी कि उसे असली दुश्मन को पहचानना और उससे लड़ना होगा। फासीवादी कभी किसी से कुछ सीखते नहीं हैं। ये शासक स्थिति को बदतर बनाते हुए अपनी छवि को और अधिक चमका रहे हैं। लेकिन उनका फासीवादी अंधराष्ट्रवाद उन्हें कितने दिन बचा पायेगा कहना मुश्किल है। यह बात पूरी दुनिया के सारे फासीवादी शासकों पर लागू हो जाती है।
फासीवादी विचारों के जहरीले प्रभाव के बावजूद आज श्रीलंकाई जनता शासकों के खिलाफ खड़ी है। यह इसके बावजूद है कि जनता के बीच कोई स्थापित क्रांतिकारी नेतृत्व नहीं है। आज बौद्ध अपने अंधराष्ट्रवादी खोल से बाहर निकल तमिल, मुस्लिम, इसाई अल्पसंख्यकों के साथ संघर्षों में साथ आ रहे हैं। जनता के बीच परस्पर एकता बढ़ रही है। तभी गोटाबाया राजपक्षे श्रीलंका से भाग निकला। महिंदा राजपक्षे व अन्य भी कहीं छिपकर रह रहे हैं। जनता अपनी एकता को क्रांतिकारी एकता की ओर बढ़ाये इसकी संभावना बन रही है।
जनता की एकता, विद्रोह और शासकों के भागने से अब श्रीलंका का क्या होगा? गोटाबाया, महिंदा, बासिल आदि राजपक्षे परिवार के शासन-सत्ता पर बैठे लोग भाग खड़े हुए। गोटाबाया, महिंदा, बासिल इस्तीफा दे चुके हैं। गोटाबाया के इस्तीफे से अब जनता कुछ शांत हुई है। श्रीलंकाई शासक वर्ग पक्ष-विपक्ष की पार्टियों से मिलकर सत्ता में नये नमूने को बैठाने की जुगत में लगे हैं। अंतरिम राष्ट्रपति को चुनने की कवायद चल रही है।
प्रधानमंत्री-राष्ट्रपति के चुने जाने के बाद नए समीकरणों के हिसाब से मदद के नाम पर श्रीलंका को लूटे जाने की योजना बनेगी। साम्राज्यवादी हितों के हिसाब से आईएमएफ, विश्व बैंक कुछ राहत देंगे तो साथ ही अपनी नीतियां भी थोपेंगे। चीन-भारत श्रीलंका में अपनी पैठ बनाने के लिए कुछ सहयोग कर सकते हैं। बड़ा सहयोग, बड़ा अनुदान देने वाले बड़ा मुनाफा हड़पने की कोशिश करेंगे। इस नयी लूट और बंदरबांट से श्रीलंका में तूफान से पहले वाली शांति कायम हो जाएगी। देखना यही होगा कि शांति कब कायम होती है।
इस नयी बंदरबांट को करने के लिए जनता पर फासीवादी हमले पुनः बढ़ाये जायेंगे। फिर कोई ‘‘गोटाबाया’’ तैयार करने की कोशिश होगी। लेकिन अब या तो कोई नया ‘‘गोटाबाया’’ बन नहीं पायेगा, अगर बना तो उसके शासन की उम्र और भी कम होगी।
श्रीलंका में हालिया विद्रोह और भावी परिस्थितियां श्रीलंकाई जनता से ज्यादा की मांग कर रही हैं। जरूरत है और संभावना भी कि देश की मजदूूर-मेहनतकश जनता को संगठित किया जाय, शोषणविहीन समाजवादी व्यवस्था की स्थापना की जाए।
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