हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्तान तीसरी किस्त
-विकास
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हिन्दू फासीवादियों की नजर में हिन्दुस्तान एक राष्ट्र है और यह अतीत काल से एक राष्ट्र रहा है। इस राष्ट्र का सारतत्व भारतीयता है। भारत में रहने वाले सभी धर्मों के लोगों को इस भारतीयता को स्वीकार करना चाहिए।
हिन्दुस्तान का सारतत्व भारतीयता है इस उक्ति में ही इस धारणा की सारी समस्या सामने आ जाती है। भारत का सारतत्व तो भारतीयता हो सकती है पर यह हिन्दुस्तान क्या बला है? असल में प्राचीन व मध्य काल में भारत या भारतवर्ष का इस्तेमाल यदा-कदा ही होता था। (ये नाम संभवतः भरत नामक आर्य कबीले से पैदा हुए)। पुराणों में भारत को जम्बूद्वीप नाम से संबोधित किया जाता था। आर्यावर्त शब्द भी चलन में था यानी जहां आर्य बसते हैं। जैसा कि सभी जानते हैं हिन्दुस्तान शब्द फारसी है जो सिन्धु नदी के पूरब वाली जगह के लिए इस्तेमाल होता था। इसकी पैदाइश सिन्धु नदी से हुई थी- फारसी में ‘स’ का ‘ह’ हो जाने के कारण। हिन्दू फासीवादियों के जाहिलियत का यह हाल है कि इनमें से कुछ हिन्दुस्तान को ‘‘हिन्दुस्थान’’ में बदलना चाहते हैं।
हिन्दुस्तान और भारतीयता का यह घालमेल असल में अपनी कहानी आप कहता है। असल में यह घालमेल ही भारत या हिन्दुस्तान की विशेषता है और इसी घालमेल से संघ के हिन्दू फासीवादियों को चिढ़ है। वे ‘‘शुद्ध’’ भारत, एकरस भारत चाहते हैं। वे भारत को फ्रांस, इटली या जर्मनी की तरह एक राष्ट्र के रूप में देखना चाहते हैं।
‘अतीतकाल से विद्यमान भारतीयता’ की रट लगाने के बावजूद सच्चाई यही है कि संघ के हिन्दू फासीवादियों की राष्ट्र की धारणा आधुनिक यूरोप से उधार ली हुई है, वह भी फासीवादी इटली व नाजीवादी जर्मनी से। फासीवादी-नाजीवादी भी अपने राष्ट्र के मूल तत्वों को सुदूर अतीत में देखते थे और इस बात को भुला देते थे कि राष्ट्र वास्तव में आधुनिक पूंजीवादी समाज के उत्पाद हैं। प्राचीन काल में राज्य या साम्राज्य होते थे, राष्ट्र नहीं। प्राचीन काल मंे रोमन साम्राज्य था, इटली राष्ट्र नहीं। इसी तरह मध्य काल में जर्मनी में ‘पवित्र रोमन साम्राज्य’ था, जर्मन राष्ट्र नहीं। स्पष्टतः ही फासीवादी-नाजीवादी अतीत में जिस राष्ट्र को खोजते थे वह महज कल्पना या मिथक था। संघ के हिन्दू फासीवादियों का प्राचीन भारतीय राष्ट्र भी ऐसा ही मिथक है।
राष्ट्र पूंजीवाद की खास पैदाइश है। आधुनिक काल के इस उत्पाद यानी राष्ट्र की चार मूलभूत विशेषताएं होती हैं यानी ये चार विशेषताएं होने पर ही राष्ट्र हो सकता है। ये हैं: 1) एक निरंतर भौगोलिक इकाई; 2) एक एकीकृत अर्थव्यवस्था; 3) एक भाषा; तथा 4) एक संस्कृति और मानसिकता। फ्रांस, जर्मनी या इटली आज इन्हीं मायनों में राष्ट्र हैं। क्या भारत आज इन मायनों में राष्ट्र है या वह कभी अतीत में ऐसा था?
एक भौगोलिक इकाई के तौर पर सिन्धु नदी के पूरब का इलाका एक निरंतर इलाका है। इस तरह यह एक राष्ट्र के निर्माण के लिए अनुकूल इलाका बन जाता है। पर असल में इतना अनुकूल यह अतीत में था नहीं। तीन हजार साल पहले इसका उत्तरी पूर्वी और मध्य हिस्सा घने जंगलों से भरा था, जिसमें बसना संभव नहीं था। इसीलिए तब तक भारत में रिहाइश उत्तर पश्चिमी भारत, दक्षिणी भारत व शेष भारत के पहाड़ की तलहटी में व नदियों के किनारे-किनारे ही थी। केवल लोहे के औजारों के आविष्कार के बाद ही (करीब तीन हजार साल पहले) घने जंगलों को साफकर इन इलाकों में बसना संभव हो सका। इस तरह भारत पिछले तीन हजार साल से ही इंसानी सभ्यता के लिए एक निरंतर भौगोलिक इकाई बन सका।
लेकिन इसके बाद भी भारत की इलाकाई और मौसमी विविधता इतनी ज्यादा थी कि यह वास्तव में कई भौगोलिक इकाईयां बनता था। इसीलिए इसमें जीव-जन्तुओं और वनस्पतियों की भारी विविधता थी जिसने भारत में सभ्यता के विकास पर अपनी छाप छोड़ी। एक भौगोलिक इकाई के तौर पर पंजाब के पांच नदियों वाले इलाके व मध्य भारत के दुर्गम जंगली इलाके में कोई समानता नहीं थी। इसी तरह समुद्र तटीय इलाकों और हिमालय के बर्फीले इलाकों में कोई समानता नहीं थी। इस तरह भारत की विविधता भौगोलिक विविधता से ही शुरू होती है जो सभ्यता-संस्कृति की विविधता तक चली जाती है।
भारत में रहने वाले लोग भी नृजातीय तौर पर एक समूह के नहीं हैं। इनमें भी भारी विविधता है जो रंग-रूप, गठन इत्यादि में साफ दिखाई देती है। भारत के सारे लोग ‘आर्य’ हैं और आर्य यहीं से सारी दुनिया में फैले, यह एक संघी मिथक है। असल में भारत में भांति-भांति के नृजातीय समूह अलग-अलग समय पर बाहर से आये और इन सबके मिश्रण से आज के भारतीयों की उत्पत्ति हुई। आज भारत में कोई भी ‘शुद्ध नस्ल’ का नहीं है। सबसे पहले आने वाले थे ‘आउट आफ अफ्रीका’ के लोग- करीब पचास-साठ हजार साल पहले। आधुनिक मानव अफ्रीका में करीब तीन लाख साल पहले पैदा हुआ। करीब सत्तर हजार साल पहले यह मानव अफ्रीका से निकलकर एशिया-यूरोप में फैला। इसे ही ‘आउट आफ अफ्रीका’ प्रसार कहते हैं। इसी क्रम में यह मानव भारत पहुंचा और समुद्र तटीय इलाकों और हिमालय की तलहटी से होते हुए आस्ट्रेलिया तक फैल गया। ये भारत के मूल बाशिन्दे हैं जो अब शुद्ध रूप में केवल अन्डमान-नीकोबार के द्वीप पर मिलते हैं। मुख्य भारत भूमि पर बाद में आने वालों का पहले वालों से लगातार मिश्रण होता गया। इनमें आर्य (जो ‘नस्ल’ के बदले भाषाई-सांस्कृतिक समूह थे), पारसी, यूनानी, शक, हूण, अरबी, तुर्क, मंगोल, अफगानी इत्यादि थे। उत्तर से तिब्बती-बर्मी तथा पूर्व से आस्ट्रो-एशियाई भी भारत आये। इस तरह भारत अप्रवासियों का देश है और आज के भारतीय अतीत के इन अप्रवासियों की मिश्रित संतानें हैं। और तो और स्वयं भारत भूमि अप्रवासी है जो करीब दस करोड़ साल की धीमी यात्रा कर अफ्रीका के दक्षिणी कोने से चलकर अंततः एशिया महाद्वीप से आ मिली।
भारत की भौगोलिक-नृजातीय विविधता से आगे बढ़ें और अर्थव्यवस्था की बात करें। भारत जैसे विशाल और विविध देश में प्राचीन काल में एकीकृत अर्थव्यवस्था की बात करना ही हास्यास्पद है। तब तो क्या, अंग्रेजों के आने तक भारत की एकीकृत अर्थव्यवस्था नहीं थी। असल में तो यह आजादी केे बाद ही अस्तित्व में आई। वैसे भी एकीकृत अर्थव्यवस्था पूंजीवाद की चीज है। पूंजीवाद से पहले सामंती मध्यकाल में अर्थव्यवस्था स्थानीय होती थी- खेती पर आधारित। व्यापार अत्यन्त सीमित था।
भारत की भौगोलिक विविधता के चलते स्थिति और भी अलग थी। करीब दो हजार साल पहले तक ज्यादातर दक्षिण भारत में खेती का व्यापक प्रसार नहीं था। उत्तर भारत में भारी आबादी आदिवासी थी- शिकार और पशुपालन पर निर्भर। एक इलाके से दूसरे इलाके का आर्थिक संपर्क अत्यन्त कम था। यह संपर्क थोड़े से व्यापार और धार्मिक आदान-प्रदान के जरिए था। गुप्त वंश के बाद तो छोटे-छोटे राज्यों के काल में स्थानीयता और हावी हो गई। बाद में मुगल काल में स्थाई साम्राज्य कायम हो जाने के बाद उत्तर भारत में आर्थिक एकीकरण बढ़ा पर दक्षिण भारत फिर भी अलग रहा। केवल अंग्रेजों का शासन कायम होने और पूंजीवाद के प्रसार के साथ ही सही मायनों में भारत का आर्थिक एकीकरण शुरू हो सका जो आजादी के बाद पूरा हुआ (हालांकि कुछ आदिवासी इलाके आज भी इससे बाहर हैं)।
किसी भी बड़े भौगोलिक क्षेत्र में एक भाषा और एक संस्कृति की उत्पत्ति लोगों की बड़े पैमाने की आपसी अंतर्क्रिया से हो सकती है और यह बिना आर्थिक व तद्जन्य राजनीतिक एकीकरण के नहीं हो सकता। इसीलिए भारत में अतीत व मध्यकाल में ऐसा नहीं हो सकता था और नहीं हुआ।
भाषाई तौर पर भारत अत्यन्त विविध है। इसमें बीसों भाषाएं और सैकड़ों बोलियां हैं। ये सब कुल मिलाकर चार भाषाई परिवार से ताल्लुक रखती हैं। ये हैं: भारतीय-यूरोपीय (संस्कृत और उत्तर भारत की भाषाएं मसलन हिन्दी, उर्दू, पंजाबी, सिन्धी, गुजराती, मराठी, बांग्ला, असमी इत्यादि); द्रविण (तमिल, तेलगू, मलयालम, कन्नड़ इत्यादि); मुंडारी और तिब्बती-बर्मी। थोड़ा ध्यान देने पर पता चलेगा कि इन भाषाओं के मूल भारत आने वाले अप्रवासी समूहों में हैं।
संघी हिन्दू फासीवादी भारत की इस भाषाई विविधता की व्याख्या करने में भारी कसरत करते हैं क्योंकि उनकी ‘आर्य नस्ल’ की भारतीय उत्पत्ति से इन सबका तालमेल नहीं बैठता। संघी भारत की सभी भाषाओं की उत्पत्ति आर्यों की संस्कृत भाषा में देखते हैं। भाषा विज्ञान की दृष्टि से यह एकदम बकवास बात है। द्रविण, मुंडारी और तिब्बती-बर्मी भाषाएं एकदम अलग ही मूल की भाषाएं हैं। जहां तक उत्तर भारत की भाषाओं का संबंध है वे भी संस्कृत से नहीं पैदा हुई हैं। बल्कि संस्कृत स्वयं आदि भारोपीय भाषा से पैदा हुई। बाकी भाषाएं भी इसी विकास क्रम का परिणाम हैं।
आजादी के बाद के भारतीय शासकों ने भारत की भाषाई विविधता को नजरअंदाज किया। पर जल्द ही उन्हें इसे स्वीकार करने को मजबूर होना पड़ा। इसके बाद भारत के प्रदेशों का भाषा के आधार पर पुनर्गठन हुआ। आज देश के ज्यादातर प्रदेश भाषाई आधार पर गठित हैं।
इस तरह भारत में न केवल एक भाषा नहीं है बल्कि मौजूदा भाषाओं का मूल भी एक नहीं है। इस तरह न केवल वर्तमान में भाषाई आधार पर भारत विविध है बल्कि अतीत में भी वह विविध था। इसी विविधता के कारण गौतम बुद्ध व महावीर जैन ने आज से ढाई हजार साल पहले अपनी शिक्षाएं ब्राह्मणीय ज्ञान-विज्ञान व धर्म की भाषा संस्कृत में नहीं बल्कि क्रमशः पाली और अर्ध-मगधी में दी जो आम जन की भाषाएं थी। दक्षिण में तमिल भाषा में ईसा से पहले ही साहित्य रचना हो चुकी थी।
भारत में भाषाई विविधता का यह हाल था कि अशोक काल की ब्राह्मी लिपि देश के अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग भाषाओं के लिए इस्तेमाल होते हुए तेजी से बदलती गई और उससे आज की सारी लिपियां निकलीं (उर्दू की लिपि को छोड़कर) जो आपस में इतनी ज्यादा भिन्न हैं कि यह जानकर आश्चर्य होता है इन सभी का मूल स्रोत अशोक कालीन ब्राह्मी लिपि है। फिरोज शाह तुगलक और अकबर के जमाने के सारे ब्राह्मण विद्वान सर खपाने के बाद भी अशोक के शिलालेखों को नहीं पढ़ पाये थे। केवल उन्नीसवीं सदी में ही अंग्रेज विद्वान यह कर पाये और फिर क्रमशः देश की सभी लिपियों का ब्राह्मी लिपि से विकास क्रम स्थापित किया जा सका।
भारत की लिपियों के इस इतिहास से भारतीय संस्कृति के सवाल पर आया जा सकता है। यदि प्राचीन काल से भारत की एक संस्कृति रही है तो ऐसा कैसे संभव हुआ कि भारत में इस संस्कृति के सर्वोच्च वाहक यानी विद्वान ब्राह्मण अपनी संस्कृति के प्राचीन लेखों को पढ़ने में अक्षम हो चुके थे। इसका सीधा सा जवाब है कि भारत की एक संस्कृति कभी नहीं रही है- न तो अतीत में और न तो वर्तमान में। अतीत मंे भी भारत में कई संस्कृतियां थी। बाद में इनमें लगातार परिवर्तन आता गया। आज भी भारत में अनेक संस्कृतियां हैं। इसीलिए इन संस्कृतियों की वाहक भाषाएं और उनकी लिपियां भी अनेक हैं।
यदि प्राचीन भारत में कोई एक समान संस्कृति थी तो उसका मूल तत्व थी वर्ण व्यवस्था। वास्तव में प्राचीन ब्राह्मणीय धर्म का मतलब था वर्ण व्यवस्था। यही ब्राह्मणीय जीवन पद्धति का आधार थी। वर्ण व्यवस्था ही भारतीय सभ्यता को बाकी सभ्यताओं से अलग करती है। इसलिए संघियों की घोषित भारतीयता यदि है तो उसका आधार वर्ण व्यवस्था है। इसीलिए संघी आज भी वर्ण व्यवस्था को जायज ठहराते हैं।
पर भारत की विविधता का यह आलम था कि यह वर्ण व्यवस्था भी सारे देश में एक जैसी नहीं थी। आदिवासी जन इससे बाहर थे। बौद्ध-जैन इसे नकारते थे। जबकि स्वयं ब्राह्मणीय धर्म वाले भी उत्तर-दक्षिण में इसे अलग-अलग रूप में पाते थे। दक्षिण में चारों वर्ण (या पांचों वर्ण) के बदले मुख्यतः ब्राह्मण और शूद्र ही थे। बाद में वर्णों के भीतर जाति व्यवस्था की उत्पत्ति के बाद तो स्थिति अत्यन्त जटिल हो गई। आज भारत सरकार की गणना के अनुसार देश में पांच हजार से ज्यादा जातियां हैं। ईसा के बाद आम लोग वर्ण के बदले जाति के हिसाब से ही जीवन जीते थे और जातियां अनगिनत और स्थानीय थीं। यह थी संघ की सांस्कृतिक एकता की असलियत!
यदि संस्कृति के अन्य पहलुओं- रीति-रिवाजों, परम्पराओं, पहनावों, खान -पान, इत्यादि की बात करें तो इनमें भी देश में प्राचीन काल से विशाल विविधता रही है। भौगोलिक विविधता इन पर अपना असर डालती रही है। आज पूंजीवाद के एकीकरण के जमाने में भी जितनी विविधता दिखती है इसके सूत्र प्राचीन काल तक चले जाते हैं। समय-समय पर देश में आने वाले लोगों ने इन सबमें अपना योगदान दिया तथा इस तरह बनी मिश्रित संस्कृति लगातार बदलती रही। आज इनके तत्वों को अलग-अलग कर पाना नामुमकिन है।
यदि धार्मिक विश्वास और कर्म-काण्ड संस्कृति का हिस्सा बनते हैं तो यह याद रखना होगा कि भारत में इनकी भी भरमार रही है। बाहर से आने वाले धर्मों (इसाई, इस्लाम, यहूदी, पारसी) के साथ यहीं पैदा होने वाले धर्मों (बौद्ध, जैन, सिख) और सम्प्रदायों ने भारतीय संस्कृति में भांति-भांति से योगदान किया है और आज की विविध भारतीय संस्कृतियों के निर्माण में इनकी भूमिका को अलग-अलग नहीं किया जा सकता।
कुल मिलाकर यह कि संघ की धारणा और घोषणा के विपरीत भारत एक संस्कृति वाला देश नहीं है। कोई प्राचीन काल से चली आ रही भारतीयता नहीं है। भारत की एक भाषा तो है ही नहीं।
इस तरह भारत आधुनिक अर्थों में राष्ट्र नहीं है। और इस आधुनिक अर्थ के अलावा ‘राष्ट्र’ का कोई और अर्थ नहीं है। असल में भारत राष्ट्रीयताओं और उप-राष्ट्रीयताओं का समूह है जिनका निर्माण विभिन्न भाषाओं और संस्कृतियों से होता है।
संघ के हिन्दू फासीवादी इसी सच्चाई को झुठलाना चाहते हैं। इसके बदले वे एक भाषा व एक संस्कृति वाले राष्ट्र को स्थापित करना चाहते हैं जो उनकी मिथकीय धारणा है। हिन्दी भाषा के वर्चस्व वाला हिन्दू राष्ट्र उनकी
फासीवादी परियोजना है जो उनके ‘हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्तान’ नारे में अभिव्यक्त होती है। असल में यह सवर्ण हिन्दू पुरुषों के वर्चस्व वाली मध्ययुगीन समाज व्यवस्था की धारणा का आदर्शीकरण है जो आधुनिक पूंजीवादी व्यवस्था की इन पर पड़ती मार से उपजती है और बड़े पूंजीपतियों की व्यवस्था की रक्षा में इस्तेमाल होती है।
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