बुधवार, 9 नवंबर 2022

 बेरोजगारी और समाज

अपनी मनपसंद नौकरी पाने पर किसी युवा का उत्साह देखते ही बनता है। जितना खुश वह युवा होता है, उससे कहीं ज्यादा खुश उसके मां-बाप और अन्य पारिवारिक जन होते हैं। और यदि नौकरी ऐसी मिली हो, जिसमें मोटी तनख्वाह हो तो क्या बात है। और गर आपकी कामयाबी के बाद फोटो अखबार में छप जाये या सोशल मीडिया पर आपकी तस्वीर कामयाबी के साथ वायरल हो जाये तो और अच्छी बात है। और गर नौकरी सरकारी अथवा किसी बड़े एमएनसी (बहुराष्ट्रीय कम्पनी) की हो तो...। मनपसंद, अच्छी नौकरी भविष्य की राह आसान कर देती है। 

नौकरी की तलाश किसे होती है? जाहिर है मुकेश अम्बानी, गौतम अडाणी, अमित शाह के बेटों को तो होगी नहीं। नौकरी तो किसी मजदूर, किसान, छोटे दुकानदार, निम्न मध्यम वर्गीय आदि के बेटी-बेटे को ही चाहिए होगी। 

और जहां तक मनपसंद, अच्छी या स्थायी नौकरी की बात है, वह तो जैसे कि कहते हैं, ‘भाग्य वालों को या फिर पव्वा सेट करने वाले’ लोगों को ही मिलती है। जब संविदा की नौकरी के लिए ही लाखों रुपये देने पड़ रहे हों तो फिर एक गरीब या निम्न मध्यम वर्ग की बेटी या बेटा भला क्या तो सपने देखें और क्या तो अरमान पाले। किसी तरीके से गुजर-बसर हो जाये तो भी गनीमत है।

एक अच्छी नौकरी से मनपसंद जीवन साथी या मनपसंद की शादी भी संभव है। हमारे समाज में शादी किसी के लिये अपनी दौलत, हैसियत, साख बढ़ाने का साधन है तो किसी के लिए (खासकर लड़कियों और उसकी चिंता में जलते मां-बाप के लिए) वह जीवनयापन का एक जरिया है। अच्छी, स्थायी या सरकारी नौकरी वाले लड़कों की मांग शादी के बाजार में काफी ऊंची रहती है। और ऐसे लड़कों को मोटा दहेज अलग से मिलता है। और शादी के इंतजार में बैठी हर लड़की के लिए ऐसा दूल्हा मनचाही मुराद है। अच्छी शादी का मतलब जीवनयापन की सैकड़ों चिंताओं से मुक्ति है। यह दीगर बात है कि ऐसी शादी से लड़की को घरेलू दासता और पुरुष प्रधान मानसिकता के गहरे अंधे कुएं में भी जाना पड़ता है। हर स्त्री के लिए आत्मनिर्भर होना जरूरी है। और ऐसी शादी भले ही अच्छा जीवनयापन का साधन हो परन्तु वह किसी स्वाभिमानी युुवती के लिए आत्मनिर्भरता का विकल्प नहीं हो सकती है। और आत्मनिर्भरता आसानी से हासिल होने वाली चीज है नहीं।

एक अच्छी, स्थायी नौकरी वाले को क्या-क्या मिलता है, इसे बहुत अच्छे से एक बेरोजगार युवा या भविष्य की आशंकाओं में जीता अपनी पढ़ाई पूरी करने ही वाला छात्र समझता है। वह ढंग से जानता है कि गर उसे अच्छी, स्थायी नौकरी नहीं मिले तो उसके साथ क्या होने वाला है। और उन बेचारों को जब ऐसी नौकरी करनी पड़ती है जो उनकी शिक्षा-दीक्षा, उनकी योग्यता के, उनके अनुभव के अनुरूप न हो तो उनके साथ क्या गुजरती है। हर वक्त हीनता बोध, हर वक्त कुढ़न और हर वक्त उनसे जलन जो अच्छा कमा रहे हैं। किसी भी तरह से उनकी तरह बनने की चाहत उनको ऐसे संसार में धकेलती है जहां अच्छे-बुरे, सही-गलत, आदर्श-मर्यादा के अर्थ खोने लगते हैं। और कोई बड़ी बात नहीं है कि हमें हर दफ्तर, हर फैक्टरी, हर काम करने की जगह में काम करने वालों के बीच अक्सर ही जलन, कटुता, चापलूसी, चुगली, एक-दूसरे को पटखनी देने आदि का माहौल मिलता है। काम करने वालों के आपसी व्यवहार में परस्पर सहयोग, खुशमिजाजी, उत्साह, दोस्ती आदि जैसे गुण कहीं खो जाते हैं। हर व्यक्ति तनाव, चिंता, अवसाद, भविष्य के प्रति दुश्चिंता, अकेलेपन में से किसी एक का शिकार हो जाता है। कई तो मनोरोगी ही बन जाते हैं।

और यह बात सच है कि हर फैक्टरी मालिक, हर कोई नियोक्ता, हर कोई अफसर-मैनेजर आदि चाहते भी यही हैं कि उनके यहां काम करने वाले मजदूरों-कर्मचारियों के बीच संबंध कटु हों। वे आपस में एकजुट न रहें। एक-दूसरे से बात न करें। एक-दूसरे के सुख-दुःख में एक-दूसरे का साथ न दें। और उनकी मिजाजपुर्सी करें। चापलूसी करें। एक-दूसरे की पोल उनके सामने खोलें। राज करने के लिए बांटना जरूरी है। और जहां लोग बंटे हुए हों वहां राज करना आसान है। और हमारे देश में लोगों को (खासकर मजदूर-मेहनतकशों-कर्मचारियों) आपस में बांटने के लिए बहुतेरे विभाजन हैं। जाति, इलाका, भाषा, धर्म, लिंग, स्थानीय-बाहरी और न जाने क्या-क्या चीजें मौजूद हैं। और बेरोजगार हो जाने का खतरा इंसान को क्या से क्या बना देता है। 

हकीकत यह है कि रोजगार के अवसर ही बहुत कम हैं। और पिछले कुछ सालों में ये लगातार सिकुड़ते गये हैं। कोई भी काम, किसी भी किस्म का काम करने को तत्पर लोगों की संख्या दिनोंदिन बढ़ती गयी है। किसी भी औद्योगिक केन्द्र में किसी भी फैक्टरी के बाहर लम्बी कतार में खड़े बेरोजगारों को देखा जा सकता है। और ऐसे लोगों की संख्या करोड़ों में है जिन्हें पूरे महीने का काम नहीं मिलता है। साल में काम के दिनों की संख्या कभी-कभी तो किसी-किसी की सौ दिन भी नहीं हो पाती है। 

स्थिति क्या है यदि आपकों काम मिल गया तो काम की जगह पर बेहिसाब शोषण है। शोषण की तीव्रता को बढ़ाने के लिए हर तरह से उत्पीड़ित किया जाता है। क्योंकि जिन्दा रहना है तो काम करना जरूरी है। और यदि आपके पास काम नहीं है तो आपके, आप पर निर्भर लोगों के सामने जिन्दा रहने का संकट खड़ा हो जाता है। 

और कई दफा जब जिन्दा रहना मुश्किल हो, कोई राह न सूझ रही हो, कोई साथ देने वाला न हो, कोई उम्मीद न बची हो तो कई जीवन से ही किनारा कर लेते हैं। आत्महत्या का रास्ता चुन लेते हैं। बेरोजगारी के कारण आत्महत्या करने वालों की तादाद बढ़ती गयी है। 

आत्महत्या करने वालों में खेतीहर मजदूर से लेकर बेरोजगार पढ़े-लिखे शहरी युवा तक हैं। कहने को आत्महत्या के अलग-अलग कारण गिनाये जाते हैं। जिनमें पारिवारिक कलह, प्रेम में असफलता जैसे कारणों से लेकर इलाज न करवा पाना, कर्ज न लौटा पाना जैसी बातें शामिल होती हैं। भारत के गृह मंत्रालय के ‘नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो’ (एनसीआरबी) की 2020 की रिपोर्ट कहती है कि वर्ष 2020 में कुल 1,08,532 आत्महत्यायें हुयी। आत्महत्या करने वालों में 24.6 फीसदी दैनिक वेतन भोगी, 10.2 फीसदी स्वरोजगारशुदा, 8.2 फीसदी विद्यार्थी, 14.6 फीसदी गृहणियां थी। इन आत्महत्या करने वालों के कारण जो कुछ भी हों जैसे ही गहराई से विचार किया जायेगा तो मुख्य कारण यही सामने आयेगा कि इनका जीवन गहरे आर्थिक संकट से गुजर रहा था। जीवन यापन कठिन था और परिवार को चला पाना अत्यधिक मुश्किल होता जा रहा था। बेरोजगारी आत्महत्या का एकमात्र तो नहीं परन्तु प्रमुख कारण अवश्य ही है। 

अत्यधिक निराशाजनक अवस्था में आर्थिक संकट में घिरे लोगों में आत्महत्या की खास प्रवृत्ति पायी जाती है। वहां सामान्य तौर पर नशाखोरी की प्रवृत्ति पायी जाती है। नशाखोरी आत्महत्या की तरह जीवन की समस्याओं से न जूझ पाने, पलायन, असहाय अवस्था आदि का ही द्योतक है। नशाखोरी क्योंकि किसी समस्या का समाधान नहीं है अतः वह अनेकानेक समस्याओं का कारण भी बन जाती है। नशाखोरी एक दुष्चक्र की तरह है, जिसमें फंसा आदमी स्वयं से बाहर नहीं आ पाता है। बेरोजगारी, नशाखोरी और अपराध साथ-साथ चलते हैं।

खाते-पीते अमीर तो अच्छी किस्म की शराब या अन्य महंगे नशे कर सकते हैं परन्तु एक बेरोजगार व गरीब आदमी का नशा सस्ता और जहरीला ही होता है। नशे की लत अंततः उसे मौत के दरवाजे पर छोड़ आती है। 

बेरोजगारी के साथ-साथ और उसके कारण समाज में ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती जाती है जो किसी भी किस्म की नैतिकता से नहीं बंधे होते हैं। जो लम्पट, आवारागर्द होते हैं। इन्हें कोई भी कहीं भी इस्तेमाल कर सकता है। लम्पट जघन्य से जघन्य अपराध करने में भी नहीं हिचकिचाते हैं। कोई भविष्य न होने के कारण ये लम्पट गजब के जोखिमबाज होते हैं। अक्सर ही इन्हें किसी की परवाह नहीं होती है। राजनीतिक दलों से लेकर दंगा-फसाद या फैक्टरी मजदूरों पर हमले आदि न जाने किन-किन तरीकों से लम्पट तत्वों का इस्तेमाल किया जाता है। इन लम्पट तत्वों ने हालिया किसान आंदोलन के दौरान भी कतिपय समस्याओं को पैदा किया था। स्त्रियों के खिलाफ हिंसा खासकर यौन हमले के लिए ये लम्पट तत्व गिरोह तक बना लेते हैं। सामूहिक बलात्कार (गैंगरेप) के अधिकांश मामलों में लम्पट गिरोह का ही हाथ होता है। समाज की तलछट ये लम्पट तत्व उसी प्रक्रिया का हिस्सा हैं जिस प्रक्रिया से अमीर और अमीर होते जाते हैं।

जिस समाज में तेजी से अरबपति पैदा होंगे ठीक उसी गति से समाज में मजदूर और उनके साथ लम्पट तत्व भी पैदा होंगे। मुकेश अम्बानी, अडाणी की दौलत में यदि एक वर्ष में ही दुगुनी की वृद्धि होगी तो जाहिर है कि ऐसे लोगों की संख्या में कई गुना की वृद्धि हो जायेगी जिनकी सम्पत्ति का अपहरण हो चुका होगा, जो अपनी रोजी-रोटी का साधन खो बैठे होंगे। जो अपनी जमीन, गांव, अपने परिवेश से कट चुके होंगे। किसान, छोटे कारोबारी बर्बाद होकर मजदूर बनेंगे। और ऐसे में ऐसे लोग भी अच्छी खासी संख्या में पैदा होंगे जो समाज की तलछट होंगे। लम्पट, आवारा, भिखारी आदि होंगे। अपराधों का सीधा संबंध अक्सर समाज की तलछट से जोड़ा जाता है। यह अर्द्ध सत्य है। सत्य यह है कि पूंजीवाद (और यहां तक कि पूंजीपति वर्ग का भी) और अपराध का अभिन्न साथ है। जब तक पूंजीवाद रहेगा तब तक अपराधों पर लगाम नहीं लगायी जा सकती है।

अपराध का खात्मा तभी हो सकता है जब समाज में अपराध की जमीन खत्म हो। अपराधियों का पुनर्वास हो। उनमें मानवीय गरिमा का विकास हो। और इसके लिए सबसे ज्यादा जरूरी है समाज में हर काम कर सकने योग्य व्यक्ति के पास रोजगार हो। उसे अपनी क्षमता, योग्यता, रुचि आदि के विकास का मौका उपलब्ध हो। उसको रहन-सहन के लिए ठीक जगह उपलब्ध हो और समाज में ऐसा बंदोबस्त हो जहां स्वस्थ मनोरंजन सबको उपलब्ध हो। खेल, व्यायाम की व्यवस्था हो।

गौर से देखा जाए तो मानवजाति के सबसे बड़े अपराधी पूंजीपति वर्ग के लोग हैं। इस वर्ग ने मजदूर-मेहनतकशों का निर्मम शोषण-उत्पीड़न किया है। लगातार विभिन्न राष्ट्रों के बीच दुश्मनी के बीज बोये हैं और अनवरत युद्ध थोपे हैं। पूंजीवाद का पूरा इतिहास युद्धों का इतिहास है। और जाहिर है कि युद्धों के परिणामस्वरूप समाज में व्यापक तबाही फैलती है। उद्योग धंधे, खेती, यातायात आदि तबाह हो जाते हैं। गरीबी, बर्बादी के साथ व्यापक पैमाने पर अपराध और बेरोजगारी फैलती है। और युद्धों के जख्म पीढ़ियों को सताते हैं।

और युद्ध किस्म-किस्म के होते हैं। एक युद्ध वे हैं जो न्यायपूर्ण होते हैं। जैसा कि विभिन्न उत्पीड़ित राष्ट्रों ने 20वीं सदी में औपनिवेशिक गुलामी के खिलाफ लड़े थे। एक युद्ध वे होते हैं जो अन्यायपूर्ण होते हैं। भारत-पाकिस्तान या अन्य राष्ट्रों के बीच होने वाले युद्ध। इन्हीं अन्यायपूर्ण युद्धों की श्रेणी में वो युद्ध भी आते हैं जो पूंजीपति वर्ग जनता के खिलाफ छेड़ देते हैं। इनका मकसद प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जे से लेकर सस्ते श्रम का दोहन तक है। हमारे देश में कश्मीर, पूर्वोत्तर राज्य, मध्यपूर्व भारत में ऐसा ही युद्ध दशकों से चल रहा है। इन क्षेत्रों में राजकीय हिंसा के प्रति उत्तर में प्रति हिंसा भी पैदा होती है। आतंकवाद, अलगाववाद तेजी से पैर पसारता है। इन राज्यों में बेरोजगारी भारत के अन्य क्षेत्रों से सामान्य से ऊंची रही है। बेरोजगार, क्षुब्ध आक्रोशित युवा, अपने जीवन की समस्याओं के वास्तविक कारणों को न समझकर आसानी से धार्मिक कठमुल्लावादी, हिंसा का महिमामंडन करने वालों के जाल में फंस जाते हैं। जीवन यापन की एक वैकल्पिक गारंटी आदि कारण भी छात्र-युवाओं को आतंकवाद, धार्मिक मतांधता, हिंसा के रास्ते पर धकेलने की ओर ले जाते हैं। 

बेरोजगारी जिस पूंजीवादी समाज व्यवस्था की अनवरत पैदाइश है अपने प्रति उत्तर में उस समाज व्यवस्था के ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करने की क्षमता रखती है। पूंजीवादी व्यवस्था की पैदावार अपनी बारी में अपने को पैदा करने वाले को भी चैन से नहीं रहने देती है। पूंजीपति वर्ग अपने महलों में अय्याशी से भरे जीवन को जीने में कितना ही मस्त रहे परन्तु उसे इसकी सजा बदले रूप में मिलती है। उसकी समाज व्यवस्था क्योंकि शोषण-उत्पीड़न-दमन पर टिकी है तो फिर होता यह है कि गरीब, बेरोजगार युवा, असंतुष्ट, महंगाई के मारे नागरिक ठीक उसी तरह से शासकों के महलों को घेर लेते हैं। जैसे अभी श्रीलंका में घेर लिया था। डरे हुए शासकों को श्रीलंका में आपातकाल लगाना पड़ा है। 

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